रोहित वेमुला की मौत से उपजे अहम सवाल जिनका जवाब जाति उन्मूलन की ऐतिहासिक परियोजना को आगे बढ़ाने के लिए अनिवार्य है

अभिनव

देश भर के विश्वविद्यालय परिसर 17 जनवरी को रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या के बाद से ही आक्रोश में उबल रहे हैं। हैदराबाद से दिल्ली तक और मुम्बई से कोलकाता तक तमाम संवेदनशील और न्यायप्रिय नौजवान सड़कों पर हैं। कारपोरेट मीडिया भी इस उभार को पूरी तरह छिपा नहीं पा रहा है। मोदी सरकार के मन्त्रियों और विश्वविद्यालय प्रशासन की काफ़ी किरकिरी हो रही है क्योंकि अब यह बात आम लोगों के बीच जा चुकी है कि रोहित की आत्महत्या की स्थितियाँ तैयार करने में बण्डारू दत्तात्रेय और स्मृति ईरानी और साथ ही विश्वविद्यालय के कुलपति अप्पाराव का स्पष्ट रूप से हाथ था। अभी तक किसी भी दोषी पर सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की है और उन्हें बचाने के सरकारी प्रयास जारी हैं। पिछले कुछ महीनों के दौरान मोदी सरकार ने अन्य प्रतिरोधों को ख़त्म करने या कुचलने की जो नीति अपनायी है, वही नीति वह यहाँ भी अपना रही है। जैसा कि हम एफ़टीआईआई और ऑक्युपाई यूजीसी के संघर्ष में देख चुके हैं, यह नीति है इन प्रतिरोध आन्दोलनों को अपनी गति से मरने देने और साथ ही बीच-बीच में कुछ बर्बर दमन की कार्रवाइयों की साज़ि‍शों की नीति। यह दीगर बात है कि प्रगतिशील ताक़तें अभी तक इस रणनीति का कोई मुकम्मिल जवाब नहीं दे पायी हैं, जिसके कारणों पर अभी हम चर्चा नहीं करेंगे।

अभी हमारी चर्चा का मूल विषय है एक निहायत ज़हीन, संजीदा, इंसाफ़पसन्द नौजवान की असमय मौत और उसके नतीजे के तौर पर हमारे सामने उपस्थित कुछ यक्षप्रश्न जिनका उत्तर दिये बग़ैर हम जाति के उन्मूलन की ऐतिहासिक परियोजना में ज़रा भी आगे बढ़ने की उम्मीद नहीं कर सकते हैं। कार्ल सागान जैसा वैज्ञानिक बनने की आकांक्षा रखने वाले रोहित ने आत्महत्या क्यों की? तारों की दुनिया, अन्तरिक्ष और प्रकृति से बेपनाह मुहब्बत करने वाले इस नौजवान ने जीवन की बजाय मृत्यु का आलिंगन क्यों किया? वह युवा जो इंसानों से प्यार करता था, वह इस कदर अवसाद में क्यों चला गया? वह युवा जो न्याय और समानता की लड़ाई में अगुवा कतारों में रहा करता था और जिसकी क्षमताओं की ताईद उसके विरोधी भी किया करते थे, वह अचानक इस लड़ाई और लड़ाई के अपने हमसफ़रों को इस तरह छोड़कर क्यों चला गया? इन सवालों की पहले ही तमाम क्रान्तिकारी कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों और छात्र-युवा साथियों ने अपनी तरह से जवाब देने का प्रयास किया है। हम कोई बात दुहराना नहीं चाहते हैं और इसलिए हम इस मसले पर जो कुछ सोचते हैं, उसके कुछ अलग पहलुओं को सामने रखना चाहेंगे।

यह बात कहने वाले हम पहले लोग नहीं है कि रोहित की मौत का वास्तविक कारण आत्महत्या नहीं थी, बल्कि एक सांस्थानिक हत्या थी। यह कहने में भी हम नयेपन का श्रेय नहीं ले सकते हैं कि रोहित की आत्महत्या जहाँ एक अवसाद और हताशा का तात्कालिक नतीजा थी, वहीं ऐतिहासिक तौर पर यह मौजूदा राजनीतिक स्थितियों के विरुद्ध एक विद्रोह भी था जिसने पूरे देश के छात्र-युवा आन्दोलन में एक बड़ा उबाल पैदा किया है। लेकिन इसके साथ ही कुछ असुविधाजनक प्रश्न भी हैं जो रोहित के लिए न्याय के संघर्ष के आगे बढ़ने के साथ अधिकाधिक महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि प्रगतिशील आन्दोलन में इन प्रश्नों का जवाब देने से बचने की एक रुझान मौजूद है। इन प्रश्नों पर हम सबसे आगे आयेंगे। सबसे पहले दुहराव के ख़तरे के बावजूद हम कुछ बुनियादी सवालों से चर्चा शुरू करना चाहेंगे।

रोहित की सांस्थानिक हत्या की त्रासदी के तीन निर्देशांक

रोहित की मौत के बाद से ही जो आन्दोलन जारी है, उसमें कई प्रकार की ताक़तें सक्रिय हैं। इस बात पर आम सहमति के बावजूद कि यह एक सांस्थानिक हत्या है, इन ताक़तों में अन्य बातों को लेकर मतान्तर हैं और वे इस त्रासद घटना की व्याख्या भी अलग-अलग रूपों में कर रहे हैं। कुछ का मानना है कि रोहित के साथ ऐसा मूलतः इसलिए हुआ क्योंकि वह दलित था। तमाम अम्बेडकरवादी संगठन और अस्मितावादी राजनीति करने वाले संगठन इसे महज़ दलित उत्पीड़न का एक मुद्दा बना रहे हैं और सारे मसले को अस्मिता पर अपचयित कर रहे हैं। कुछ वामपंथी संगठन (संसदीय और साथ ही ग़ैर-संसदीय) भी इस कोरस में पूरा फेफड़ा झोंककर गा रहे हैं! इनमें से कुछ तो अतीत में कम्युनिस्ट आन्दोलन द्वारा जाति प्रश्न को न समझ पाने और अम्बेडकर की आलोचना करने के अपराध-बोध के कारण ऐसा कर रहे हैं, तो दूसरे शुद्ध रूप से अवसरवाद के चलते ऐसा कर रहे हैं। कुछ ऐसे भी हैं जिनमें यह अवसरवाद और अपराध-बोध मिश्रित हो गया है! कतिपय प्रगतिशील संगठन और बुद्धिजीवी ऐसे भी हैं जो कि रोहित वेमुला के दलित होने के प्रश्न को पर्याप्त अहमियत नहीं दे रहे हैं और इसे संघी दमन की लहर के आम नतीजों में से एक के तौर पर देख रहे हैं। कई अम्बेडकरवादी ऐसे हैं जो रोहित वेमुला के फेसबुक पेज व डायरी के अंशों को अपने तरीके से और सन्दर्भों से काटकर पेश कर रहे हैं और रोहित वेमुला को एक आम अम्बेडकरवादी बना देने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसे लोग, रोहित के अम्बेडकरवादी विचारों के प्रति रुझान होने के कारण उसकी कुर्बानी को ही अम्बेडकरवाद के सही होने के प्रमाण के रूप में पेश कर रहे हैं। इस रूप में सभी अस्मितावादियों के समान वे भावनाओं के राजनीतिकरण (politicization of sentiments) की बजाय राजनीति का भावनात्मकीकरण (sentimentalization of politics) कर रहे हैं। लुब्बेलुबाब यह कि अन्य कई प्रकार के दृष्टिकोण आपस में टकरा रहे हैं। नतीजतन, जो छात्र-युवा सड़कों पर हैं उनमें भी रोहित के लिए न्याय के समूचे आन्दोलन के प्रति एक सही दृष्टिकोण और रोहित की संस्थानिक हत्या की त्रासद घटना के एक सन्तुलित और वैज्ञानिक विश्लेषण की कमी दिख रही है। ऐसे में, हम इस घटना की एक सन्तुलित और वैज्ञानिक व्याख्या करने का प्रयास कर रहे हैं, बिना इस दावे के कि यही इस मसले पर आख़ि‍री शब्द होगा।

रोहित वेमुला की संस्थानिक हत्या की त्रासद घटना के तीन प्रमुख निर्देशांक (कोऑर्डिनेट्स) हैं जिन्हें समझना रोहित वेमुला के लिए न्याय के संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए केन्द्रीय महत्व रखता है। इन तीनों कारकों ने रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या के ऐतिहासिक सन्दर्भ को तैयार किया और इन्हें इनके सापेक्षिक महत्व के साथ समझकर ही हम इस हत्या और ऐसी तमाम हत्याओं के विरुद्ध सही तरीके से आवाज़ उठा सकते हैं।

पहला अहम पहलू यह है कि रोहित वेमुला और उसके साथियों ने संघी फासीवाद और दंक्षिणपंथी राजनीति का हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में राजनीतिक विरोध खड़ा किया था और वही इन युवाओं का सबसे बड़ा “दोष” था। रोहित और उसके साथियों ने पिछले लम्बे समय से हैदराबाद विश्वविद्यालय में संघी गिरोह के साम्प्रदायिक ब्राह्मणवादी फासीवाद के विरुद्ध एक राजनीतिक संघर्ष छेड़ रखा था। साथ ही, वे जनवादी व नागरिक अधिकारों के तमाम मुद्दों को भी पुरज़ोर तरीके से उठा रहे थे। कैम्पस के भीतर याकूब मेनन और अफज़ल गुरू की फाँसी के विशेष सन्दर्भ में फाँसी की सज़ा का विरोध करना, बीफ़ फेस्टिवल का आयोजन और साथ ही हाफपैण्टिये फासीवादियों की पोल खोलने वाली फिल्म ‘मुज़फ्फ़रनगर बाक़ी है’ का प्रदर्शन करवाना और साथ ही संघी छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के लिए सतत् समस्याएँ और चुनौतियाँ खड़ी करना रोहित और उसके साथियों का सबसे बड़ा जुर्म था जो कि मोदी के सत्ता में पहुँचने से पहले से ही और विशेष तौर पर उसके बाद साम्प्रदायिक फासीवादी और दक्षिणपंथी ताक़तों की आँखों में खटक रहे थे।

फासीवादी राजनीति हिटलर और मुसोलिनी के वक़्त से कई परिवर्तनों से होकर गुज़री है और हर विचारधारा और आन्दोलन के समान फासीवादी विचारधारा और आन्दोलन भी अपने अतीत से सीखते हैं और अपनी रणनीतियों और रणकौशलों में परिवर्तन करते हैं, यानी रिडेम्प्टिव एक्टिविटी करते हैं। मगर कुछ चीज़ें हैं जो फासीवादी विचारधारा और आन्दोलन के स्वभाव से ही पैदा होती हैं और उसके नाभिनालबद्ध होती हैं। इनमें से एक है किसी भी प्रकार के राजनीतिक विरोध को बर्दाश्त न करना। रोहित और उसके साथी न सिर्फ़ साम्प्रदायिक फासीवादियों और ब्राह्मणवादियों का कैम्पस में विरोध कर रहे थे, बल्कि उनके लिए वे अहम राजनीतिक चुनौती में तब्दील हो चुके थे। यही कारण था कि संघी छात्र संगठन ने उन्हें निशाना बनाना शुरू किया; उन झूठे इल्ज़ाम लगाकर उन्हें छात्रावास से निकलवाना, फिर निलम्बित करवाना और उसके बाद विश्वविद्यालय के सार्वजनिक स्थानों से उन्हें प्रतिबन्धित करवाना – ये सभी रोहित और उसके साथियों को इसी कारण से निशाना बनाये जाने की मिसालें थीं। जहाँ पर हाफपैण्टिया ब्रिगेड कमज़ोर है, वहाँ आज वे मोदी के सरकार में होने का लाभ उठाकर अपनी मनमानी करवा रही है। ग़ौरतलब है कि जामिया मिलिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्वायत्तता को ख़त्म करने की साज़ि‍श के अंग के तौर पर संघी ब्रिगेड इस समय उनकी अल्पसंख्यक अवस्थिति को समाप्त करने की माँग कर रही है। अरुणांचल प्रदेश की सरकार को भंग करवाकर राष्ट्रपति शासन लगवाने से लेकर विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता को ख़त्म करना और शिक्षा संस्थानों का भगवाकरण करने तक, इसके तमाम उदाहरण दिये जा सकते हैं। हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में जब राजनीतिक तौर पर संघी छात्र संगठन रोहित और उसके साथियों पर भारी न पड़ सका (जो कि ए.एस.ए. से जुड़े थे; विश्वविद्यालय छात्रसंघ चुनावों में एसएफ़आई व एएसए का गठजोड़ है) तो फिर उन्होंने रोहित और उनके साथियों को अन्य तरीकों से निशाना बनाना शुरू किया। ‘जब सैंया भये कोतवाल तो डर काहे का’। यही कारण था कि बण्डारू दत्तात्रेय ने इस मसले पर इतनी सक्रियता से हस्तक्षेप किया और स्मृति ईरानी के मानव संसाधन मन्त्रालय ने रोहित और उसके साथियों को ‘सबक सिखाने के लिए’ विश्वविद्यालय प्रशासन को पाँच पत्र भेजे। ये भारी-भरकम सरकारी मशीनरी और सरकारी अमला पाँच नौजवान छात्रों के पीछे इस कदर क्यों पड़ा था? ठीक उन्हीं कारणों से जिन कारणों से आज मोदी की फासीवादी सरकार राजनीतिक विरोध खड़ा करने वाली हर ताक़त के पीछे पड़ी हुई है, चाहे वे एफटीआईआई के छात्र हों, जेएनयू का छात्र आन्दोलन हो या फिर हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय के छात्र। ठीक इसीलिए हम अगर रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या और उसके समूचे संघर्ष को महज़ उसकी दलित अस्मिता तक सीमित कर देते हैं, तो क्या यह रोहित की राजनीतिक विरासत का अपमान नहीं होगा? यह उसकी पूरे राजनीतिक संघर्ष को कहीं न कहीं नीचा दिखाना नहीं होगा? रोहित के संघर्ष के सरोकार महज़ उसकी दलित अस्मिता से नहीं निकलते थे; वह हर प्रकार के शोषण और उत्पीड़न के विरुद्ध संघर्ष कर रहा था। रोहित का संघर्ष फासीवाद और दक्षिणपंथी विचारधारा के विरुद्ध एक विचारधारात्मक-राजनीतिक संघर्ष था। आप रोहित की विचारधारात्मक अवस्थिति से सहमत या असहमत हो सकते हैं, इससे इस तथ्य पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता है। रोहित के किसी साथी ने उसकी डायरी का एक अंश सोशल मीडिया पर प्रकाशित किया था जिसमें रोहित ने लिखा था कि विश्व दृष्टिकोण से वह मार्क्सवादी है, मगर भारतीय समाज के लिए उसे अम्बेडकर की दृष्टि की उपयोगिता पर भरोसा था। इस बात पर बहस की जा सकती है कि जाति प्रश्न की अम्बेडकर की समझदारी क्या थी और उसका वह क्या समाधान सुझाते थे और हम स्वयं इस विषय पर कभी अलग से ज़रूर लिखेंगे। लेकिन इतना स्पष्ट है कि रोहित अम्बेडकरवादी राजनीति और मार्क्सवादी विचारधारा के बीच समन्वय को सम्भव मानता था। यह विचार अपने आपमें सही या ग़लत है, यह अलग चर्चा का विषय है। साथ ही, यह भी स्पष्ट है कि रोहित के लिए वामपंथी राजनीति (जिसके संसदीय संशोधनवादी प्रकार से ही उसका परिचय ज़्यादा था और इस रूप में कहा जा सकता है कि क्रान्तिकारी वाम से उसका प्रत्यक्ष परिचय नहीं था) या फिर अम्बेडकरवादी राजनीति आलोचना से परे नहीं थी। हालाँकि, आत्महत्या नोट के काटे गये हिस्सों से उसके विचारों के विषय में कोई ठोस नतीजा निकालना उचित नहीं होगा, मगर निश्चित तौर पर उसमें लिखी बातें रोहित के विचार पटल पर थीं, इससे कोई इंकार नहीं किया जा सकता है। लेकिन रोहित के विचार जो भी रहे हों, इतना स्पष्ट है कि रोहित का विचारधारात्मक क्षितिज अस्मितावादी राजनीति जितना संकुचित, अवैज्ञानिक और अतार्किक नहीं था। यही कारण है कि रोहित की सांस्थानिक हत्या और उसके समूचे राजनीतिक संघर्ष को सिर्फ़ उसकी दलित अस्मिता पर अपचयित कर देना उसकी राजनीतिक-विचारधारात्मक समझदारी और सरोकारों के साथ नाइंसाफ़ी होगी।

रोहित वेमुला की मौत की घटना का दूसरा निर्देशांक यह है कि रोहित वेमुला और उसके साथियों को निशाना बनाना ठीक इस वजह से ज़्यादा आसान हो गया कि क्योंकि वे समाज के पहले से ही अरक्षित तबके यानी दलित तबके से आते थे। निश्चित तौर पर, उन्हें निशाना बनाया जाने की प्रक्रिया में जो चीज़ निर्णायक सन्धि-बिन्दु (conjuncture) था वह था रोहित वेमुला और उसके साथियों द्वारा संघी फासीवादी राजनीति का विरोध करना और उसके लिए एक ज़बर्दस्त चुनौती बन जाना। अगर ऐसा न होता तो संघी फासीवादी ताक़तों ने एक विशिष्ट समय और एक विशिष्ट सन्दर्भ में कुछ विशिष्ट दलित छात्रों को ही निशाना क्यों बनाया यह बताना मुश्किल हो जायेगा। साथ ही, यह भी बताना मुश्किल हो जायेगा कि एक विशिष्ट समय और एक विशिष्ट सन्दर्भ में किस प्रकार कई दलित नेता संघी ब्राह्मणवाद की गोद में जा बैठे हैं। रोहित की शहादत के काल-निर्धारण और सन्दर्भ-निर्धारण का कार्य तभी किया जा सकता है जबकि रोहित की पूरी लड़ाई को एक राजनीतिक-विचारधारात्मक लड़ाई के तौर पर देखा जाय, न कि अस्मिताओं के संघर्ष के तौर पर। लेकिन साथ ही इस सच्चाई से एक पल को भी निगाह नहीं हटायी जानी चाहिए कि रोहित और उसके साथियों को निशाना बनाना ठीक इसलिए फासीवादी सत्ता के लिए अपेक्षाकृत ज़्यादा आसान हो गया क्योंकि वह एक ग़रीब दलित परिवार से आता था। इन दोनों कारकों की गतिकी को समझना ज़रूरी है।

फासीवादी राजनीति हर प्रकार के राजनीतिक विरोध को कुचलती है, मगर उसका दमन और उत्पीड़न तब ज़्यादा सरल और सहज और साथ ही क्रूर हो जाता है, जब राजनीतिक विरोध करने वाले दलित, स्त्री या कोई धार्मिक अल्पसंख्यक हो। इन सभी को फासीवादी प्रतिक्रिया अलग-अलग रूपों में निशाना बनाती है। इसका कारण यह है कि धार्मिक अल्पसंख्यकों के रूप में या जातीय (ethnic) अल्पसंख्यकों के रूप में, या फिर प्रवासी या नस्लीय अल्पसंख्यकों और कुछ विशिष्ट सन्दर्भों में जातिगत अल्पसंख्यकों के रूप में फासीवादी राजनीति को हमेशा एक ‘फेटिश’ की ज़रूरत होती है जिसका उपयोग वे जनता के समक्ष एक काल्पनिक शत्रु खड़ा करने के लिए कर सकें। ‘फेटिश’ वह चीज़ होती है जो लोगों और सच्चाई के बीच खड़ी होती है। फासीवादी राजनीति पूँजीवादी संकट के दौर में बुर्जुआ वर्ग की वह नंगी प्रतिक्रिया होती है, जो कि टटपुँजिया वर्गों के रूमानी, अज्ञानी, अन्धे उभार पर सवार होकर आती है। इसका काम ही होता है बीच में खड़े वर्गों की बिचबिचवा चेतना, या कहें ‘राजनीतिक चेतना के अभाव’, का इस्तेमाल करते हुए प्रतिक्रिया का वह आम माहौल तैयार किया जाय जिससे कि पूँजीवादी लूट की मुख़ालफ़त करने वाली हर ताक़त को तोड़ा जा सके और कुचला जा सके। निश्चित तौर पर, जब ऐसा प्रतिक्रिया का माहौल तैयार होता है तो उसके निशाने पर केवल मज़दूर वर्ग और उसके आन्दोलन नहीं चढ़ते बल्कि हर प्रकार के जनवादी अधिकार, नागरिक अधिकार, आज़ादी और वैयक्तिकता भी चढ़ती है। इस माहौल के निशाने पर तंज़ानिया की कोई काली युवती हो सकती है, अख़लाक हो सकता है, सिनेमा हॉल में बैठा कोई मुसलमान परिवार हो सकता है, अकेले सफ़र कर रही कोई युवती, कोई प्रेमी युगल, या कोई छोटी-मोटी चोरी करते पकड़ा गया ग़रीब आदमी भी हो सकता है। इस प्रकार की प्रतिक्रिया पैदा होने की सम्भावना टटपुँजिया वर्गों की नैसर्गिक चेतना में निहित होती है।

आज बजरंग दल, विश्व हिन्दू परिषद्, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् और संघ के तमाम अनुषंगी संगठनों का आधार इन्हीं टटपुँजिया वर्गों के बीच है जिसमें निम्न मध्यवर्ग से लेकर खाते-पीते मध्यवर्ग तक आते हैं, और अगर पेशों की बात करें तो जिनमें छोटे व्यापारी, दुकानदार, ठेकेदार, दलाल, प्रापर्टी डीलर, शेयर व्यवसायी, छोटे कारखानेदार से लेकर खाते-पीते सरकारी कर्मचारी तक आते हैं। इसके अलावा, इसमें निम्नमध्यवर्ग के उन ‘पीले चेहरे वाले युवाओं’ की एक भीड़ भी होती है जो बेरोज़गारी, अभाव और अनिश्चितता में सतत् जीते रहने से एक भयंकर अन्धी प्रतिक्रिया की शिकार होती है। फासीवाद-समर्थित और प्रायोजित अन्धराष्ट्रवाद उन्हें जीने का सबब देता है, उनके जीवन को अर्थ प्रदान करता है, उन्हें एक ‘कल्पित समुदाय’ के साथ एक काल्पनिक रिश्ते का काल्पनिक अहसास भी देता है। ऐसे लोगों को सोचने-समझने की ताक़त खो चुकी उन्मादान्ध भीड़ में तब्दील करना फासीवाद के लिए आसान होता है। और इसके लिए फासीवाद के प्रमुख उपकरण ही होते हैं विभिन्न अल्पसंख्यकों को काल्पनिक शत्रु के रूप में खड़ा करना, स्त्रियों का दमन करना क्योंकि उनकी पूरी शब्दावली और ‘रेटरिक’ ही पुरुषसत्तावादी और ‘मस्क्युलिनिस्ट’ होती है। मिसाल के तौर पर, मुसलमानों के ख़तरे का मुकाबला करने के लिए ‘वीर हिन्दू पुरुषों’ की ज़रूरत होती है। मुसलमानों को ‘ख़तरा’ बताने/बनाने का एक अहम अंग होता है मुसलमान पुरुषों को हिन्दू स्त्रियों के लिए ‘ख़तरे’ के तौर पर पेश करना (याद करें, ‘लव जिहाद’ आदि)। ज़ाहिर है कि ऐसे रूपकीकरण के साथ ही स्त्रियों का सतत् वस्तुकरण होता है, उन्हें अपनी जागीर के रूप में देखने, बल्कि उनके कौमार्य और यौनिकता तक को पूरे समुदाय की सामुदायिक सम्पत्ति बना देने की प्रक्रिया भी जारी रहती है। एक दूसरे अर्थ में यह वस्तुकरण और अधीनस्थीकरण की प्रक्रिया एक बिल्कुल अलग रूप और अर्थों में दलितों के साथ भी चलती है। हिन्दू श्रेष्ठता के प्रतीक हमेशा उच्च ब्राह्मणवादी संस्कृति और ‘सभ्यता’ होती है; लिहाज़ा हिन्दू समाज की सेहत को बरकरार रखने की एक पूर्वशर्त यह भी बन जाता है कि दलितों को, और विशेषकर ग़रीब दलितों को दबाकर रखा जाय। यदि हिन्दू कर्मकाण्डीय पदानुक्रम ही ध्वस्त हो गया तो मुसलमानों और इस्लाम के बरक्स हिन्दू श्रेष्ठता को स्थापित कैसे किया जायेगा?

नतीजतन, भारत के विशेष सन्दर्भ में साम्प्रदायिक फासीवाद के लिए विशिष्ट तौर पर और साथ ही किसी भी प्रतिक्रियावादी दक्षिणपंथी या मध्य-दक्षिणपंथी बुर्जुआ राज्यसत्ता के लिए आम तौर पर दलितों, स्त्रियों और मुसलमानों को ‘उनकी जगहों’ पर रखना एक बुनियादी ज़रूरत है। निश्चित तौर पर, संघी साम्प्रदायिक फासीवाद के उभार और सत्ता में आने पर ये चारित्रिक आभिलाक्षणिकताएँ अपने शुद्धतम रूपों में उभरकर सामने आती हैं। मगर आम तौर पर भारत में पूँजीवादी राज्यसत्ता के बारे में ये बातें बिना शक़ कही जा सकती हैं। लुब्बेलुबाब यह कि रोहित और उसके साथियों और इसी प्रकार जब भी दलित युवा या कार्यकर्ता व्यवस्था के विरुद्ध राजनीतिक विरोध और चुनौती उपस्थित करते हैं, तो व्यवस्था लगभग-लगभग ‘बदले की भावना’ और दोहरी प्रतिक्रिया के साथ उसे कुचलती है और इसलिए यह कहा जाना चाहिए रोहित को निशाना बनाना मोदी सरकार और संघी गुण्डों के लिए अपेक्षाकृत सुगम इसलिए था क्योंकि वह पहले से ही अरक्षित पृष्ठभूमि से आता था।

रोहित की मौत का तीसरा अहम पहलू या निर्देशांक जिस पर ग़ौर किया जाना बेहद ज़रूरी है वह यह है कि रोहित एक ग़रीब मेहनतकश परिवार से आता है। यह महज़ संयोग नहीं है कि रोहित और उसके जैसे तमाम दलित छात्र जिन्होंने शैक्षणिक संस्थानों में आत्महत्याएँ की हैं, वे लगभग निरपवाद रूप से ग़रीब दलित परिवारों से आते हैं। पिछले दस वर्षों में हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में ही ऐसे करीब नौ मसले सामने आ चुके हैं। पूरे देश की बात करें तो उच्चतर शिक्षा के संस्थानों में करीब 18 दलित छात्रों ने आत्महत्याएँ की हैं। क्या यह अनायास है कि ये सभी दलित छात्र मज़दूरवर्गीय या ग़रीब निम्नमध्यवर्गीय पृष्ठभूमि से आते हैं? करीब 12 वर्ष पहले हमने ‘आह्वान’ के पन्नों पर हिन्दू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय के एक दलित छात्र की आत्महत्या के बारे में लिखा था और दिखाया था कि किस प्रकार उसके हिन्दी माध्यम में शिक्षित होने, अंग्रेज़ी के कम ज्ञान के कारण उसे शिक्षकों द्वारा लगातार प्रताड़ित किया जाता था जिससे अन्त में तंग आकर उसने आत्महत्या कर ली थी। वह छात्र भी एक ग़रीब निम्नमध्यवर्गीय परिवार से आता है। अगर अपवादों को छोड़ दें तो विश्वविद्यालय परिसर में जातिगत भेदभाव और दलित उत्पीड़न के शिकार हमेशा ग़रीब और निम्नमध्यवर्गीय परिवारों से आने वाले दलित छात्र ही बनते हैं। यह सच है कि जातिसूचक शब्दों से अपमानित किये जाने, तमाम सूक्ष्म और बारीक जातिवादी व्यंग्य और लतीफ़ों के ज़रिये निशाना बनाये जाने का दर्द तमाम अपेक्षाकृत बेहतर आर्थिक पृष्ठभूमि से आने वाले दलित छात्र भी होते हैं, मगर अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़े होने, अपने रहन-सहन व पहनावे में और साथ ही एक साझा शैक्षणिक अतीत व पृष्ठभूमि रखने के कारण उच्च मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि से आने वाले दलित छात्रों को जातिगत भेदभाव के सबसे नंगे रूपों और विशेष तौर पर दलित उत्पीड़न का सामना कम करना पड़ता है। ठीक यही बात दलित उत्पीड़न की उन घटनाओं पर भी लागू होती है, जो कि विश्वविद्यालय परिसर से बाहर होती है। चाहे शहरों में दलित सफ़ाईकर्मियों के साथ सतत् होने वाले उत्पीड़न के मसले हों, या फिर गाँवों में दलित खेतिहर मज़दूरों के साथ होने वाली बर्बरतम और हिंस्र उत्पीड़न की घटनाएँ हों, निशाने पर अधिकांशतः मेहनतकश वर्गों से आने वाले दलित होते हैं। जहाँ एक ओर नौकरशाही या शिक्षण आदि में अपना स्थान बना चुके दलितों को भी जातिगत अपमान का सामना करना पड़ता है और सवर्ण और ब्राह्मणवादी मानसिकता रखने वाले उनके सहकर्मियों को उन्हें अपने बराबर का दर्ज़ा देने में दिक्कत होती है, वहीं यह भी सच है कि उनकी स्थिति अन्य मेहनतकश घरों से आने वाले दलितों से भिन्न हो चुकी होती है। निश्चित तौर पर, उनके साथ होने वाले भेदभाव का भी कोई भी इंसाफ़पसन्द व्यक्ति विरोध करेगा। लेकिन विशेष तौर पर नौकरशाहों और सरकारी कर्मचारियों में मौजूद दलित संगठन विशेष तौर पर ‘बामसेफ़’ आदि जैसे संगठनों का क्या मेहनतकश और ग़रीब दलितों से कोई जुड़ाव रह गया है? उनका प्रमुख दर्द अब सिर्फ़ यह है कि नौकरशाह या शिक्षक बनने के बाद भी सूक्ष्म रूपों में और कभी-कभी भोण्डे रूपों में भी उन्हें जातिगत अपमान का सामना करना पड़ता है। लेकिन इस जातिगत अपमान के ख़िलाफ़ और ब्राह्मणवाद के बर्बरतम रूपों के ख़िलाफ़ वे सड़कों पर उतरकर लड़ने को भी तैयार नहीं होते! वे सत्ता के प्रति भी उतने ही वफ़ादार बने रहते हैं और बस इस आकाशकुसुम की अभिलाषा में हाथ फैलाये खड़े रहते हैं कि राज्यसत्ता के तन्त्र व उपकरण में मौजूद ब्राह्मणवाद और सवर्णवाद समाप्त हो जाये, जो कि हो ही नहीं सकता है। इसके कारणों पर हम आगे आयेंगे।

संक्षेप में, अगर सीधे हम आँकड़ों को उठाकर बात करें तो इतना तय है कि विश्वविद्यालय के भीतर या बाहर, शहरों में या गाँवों में, खेती में या कारखानों में अपवादों को छोड़ दिया जाय तो ग़रीब और मेहनतकश दलितों को ही जातिगत उत्पीड़न और अपमान के बर्बरतम रूपों का शिकार बनना पड़ता है। साथ ही, यह भी ग़ौर करने वाली बात है कि तथाकथित ‘बहुजन समाज’ के अंग पिछड़ी जातियों के नवधनाढ्य दबंग ही आम तौर पर उत्पीड़न करने वाले होते हैं। वे तमाम पिछड़ी व मध्य जातियाँ जो सुदूर अतीत में ब्राह्मणों और क्षत्रियों के उत्पीड़न व दमन का निशाना बनी थीं, उनमें से कई उत्पादन और राजनीतिक आर्थिक सम्बन्धों के बदलने के साथ धनी कुलक व किसान जातियों में तब्दील हो चुकी हैं (हालाँकि, अधिकांश मध्य जातियों का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा मज़दूर व निम्न मध्य वर्ग में शामिल है); उनमें से कइयों की आर्थिक व राजनीतिक शक्तिमत्ता में ज़बर्दस्त बढ़ोत्तरी हुई है। इसके साथ ही उनके सामाजिक व कर्मकाण्डीय अवस्थिति में भी परिवर्तन आया है। आज दलितों का उत्पीड़न करने वाली प्रमुख शक्तियाँ इन्हीं जातियों में पैदा हुआ नवधनाढ्य कुलक व धनी किसान वर्ग ही हैं। चाहें हम पंजाब में जट्ट किसानों की बात करें, हरियाणा, उत्तर प्रदेश व राजस्थान में जाटों की बात करें, दक्षिण भारत में रेड्डी व कम्मा की बात करें, या फिर धनी किसानों में तब्दील हो चुके यादवों व भूमिहारों की बात करें। ये सभी या तो आज भी मध्य या पिछड़ी जातियों में आते हैं, या फिर इनका अतीत मध्य जातियों का अतीत ही है। ऐसे में, स्पष्ट तौर पर ‘बहुजन समाज’ की काल्पनिक एकजुटता के अस्मितावादी तर्क से आप दलित उत्पीड़न का मुकाबला कभी नहीं कर सकते।

बहरहाल, यह स्पष्ट है कि किसी न किसी रूप में दलित उत्पीड़न व जातिगत अपमान का सामना करने के बावजूद दलित उत्पीड़न और जातिगत अपमान के विरुद्ध दलित आबादी का वह हिस्सा नहीं लड़ेगा जिसे लूट के विनियोजन और राजनीतिक सत्ता में एक हिस्सा मिल गया है। वह जातिगत अपमान के वैविध्यपूर्ण सूक्ष्म रूपों का निशाना होने के बावजूद बस मिनमिनाता रहता है। वह कभी भगाणा, गोहाणा, मिर्चपुर, लक्ष्मणपुर बाथे, बथानी टोला के ख़िलाफ़ जुझारू संघर्ष में शामिल नहीं होता, सड़कों पर नहीं उतरता। हम यहाँ अपवादों नहीं बल्कि दलित के बीच पैदा हुए उस उच्च व उच्च मध्यवर्ग की बात कर रहे हैं, जिसे आज पूँजीवादी सत्ता व्यवस्था सहयोजित कर चुकी है क्योंकि अपवाद नियम को ही सिद्ध करते हैं। क्या अब तक का अनुभव इस बात को सिद्ध नहीं करता है? इसलिए जिस एकजुटता के ज़रिये आज दलित उत्पीड़न का मुकाबला किया जा सकता है, जिस एकजुटता के ज़रिये आज हम ब्राह्मणवादी पुरुषसत्तात्मक पूँजीवादी राज्यसत्ता के सामने चुनौती पेश कर सकते हैं वह किसी ‘बहुजन समाज’ की काल्पनिक एकता नहीं है, बल्कि वर्ग एकजुटता है। यह सच है कि यह वर्ग एकजुटता कायम करने की राह के सबसे बड़े रोड़ों में से एक मेहनतकश वर्गों का स्वयं जातियों में विभाजित होना है। मगर यह जातिगत विभाजन मेहनतकश वर्गों को उपदेश देकर या ब्राह्मणवाद पर प्रवचन देकर नहीं दूर किया जा सकता है। यह जातिगत विभाजन दूर करने के लिए मेहनतकश वर्गों में जुझारू सांस्कृतिक व सामाजिक आन्दोलन खड़ा करने के अलावा, यह भी ज़रूरी है कि उनके संघर्षों के दौरान उनमें जातीय विभाजनों पर सतत् चोट की जाय। इसके अलावा, आज जाति के उन्मूलन का और कोई रास्ता नहीं हो सकता है।

जो लोग पूँजीवादी राज्यसत्ता के विरुद्ध ‘सोशल इंजीनियरिंग’ की समीकरणबाज़ि‍याँ किया करते हैं (मिसाल के तौर पर कुछ लोग ‘दलित+पिछड़े+मुसलमान+ईसाई+सिख बनाम सवर्ण हिन्दू’ जैसे मज़ाकियाँ समीकरण बनाते हैं) वह कई बातें नहीं समझ पाते। सबसे पहले तो वे यह नहीं समझ पाते हैं कि आज सबसे पहले तो पिछड़ी जातियों में पैदा हुए धनी किसान व कुलक वर्ग की दलितों के साथ कोई एकता बन ही नहीं सकती है क्योंकि उनका आर्थिक हित ही दलित मज़दूरों के ज़बर्दस्त शोषण पर आधारित होता है, और जातिगत विभाजन दलित मज़दूरों के शोषण को अति-शोषण, आर्थिकेतर शोषण और उत्पीड़नकारी शोषण में तब्दील करने में उनकी मदद करता है और उनके अधिशेष विनियोजन को बढ़ाता है; ऐसे में जाट, रेड्डी, कम्मा व धनी यादव किसान आदि किसी भी सूरत में दलित उत्पीड़न के विरुद्ध या जातिगत विभाजन के विरुद्ध नहीं खड़े होंगे। उल्टे आज वे ही दलितों पर बर्बरतम हिंसा करने वाले लोग हैं। साथ ही, ऐसे समीकरणबाज़ यह भी नहीं समझ पाते कि स्वयं ये पिछड़ी जातियाँ ही नहीं बल्कि तथाकथित उच्च जातियाँ भी आज वर्ग विभाजित हैं और उनके बीच एक विशालकाय मज़दूर वर्ग पैदा हो चुका है। अगर सिर्फ़ खेतिहर मज़दूरों की बात करें तो 53 प्रतिशत खेतिहर मज़दूर आज ग़ैर-दलित व ग़ैर-आदिवासी हैं। शहरी सर्वहारा में तो यह हिस्सा कहीं ज़्यादा बड़ा है। यह सच है कि दलित आबादी का करीब 90 प्रतिशत हिस्सा आज भी शहरी या ग्रामीण सर्वहारा से आता है। मगर यह भी सच है कि भारत के समूचे मज़दूर वर्ग में दलितों व आदिवासियों का हिस्सा मुश्किल से 25-30 प्रतिशत ही है। ऐसे में, जहाँ ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक पूँजीवादी सत्ता पर चोट के लिए वर्गीय एकता की ज़रूरत है वहीं यह भी ज़रूरी है कि यह वर्गीय एकता कायम करने के लिए संघर्षों से एकता स्थापित की जाय और जुझारू सांस्कृतिक-सामाजिक आन्दोलन खड़ा किया जाय।

रोहित वेमुला की आत्महत्या की त्रासदी के इन तीनों निर्देशांकों को समझकर ही हम आज विशेष तौर पर साम्प्रदायिक फासीवादी और ब्राह्मणवादी मोदी सरकार के विरोध की एक कारगर रणनीति बना सकते हैं।

‘आर्थिक शोषण’ बनाम ‘सामाजिक उत्पीड़न’ का प्रश्न

रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या के बाद तमाम प्रगतिशील बुद्धिजीवियों और ग्रुपों ने अपनी पत्र-पत्रिकाओं, ब्लॉग आदि पर जो विचार पेश किये उनसे कुछ साझा थीम निकलकर सामने आयी है, जिन पर एक आलोचनात्मक टिप्पणी की हम दरकार महसूस करते हैं। जैसा कि हमने पहले इंगित किया है, कई क्रान्तिकारी वामपंथी संगठन भी समझौतापरस्ती और अम्बेडकरवाद के साथ घालमेल करने की कार्यदिशा पेश करते नज़र आ रहे हैं। यह शुद्ध रूप से अवसरवाद है। रोहित की मृत्यु और विशेष तौर पर रोहित के अम्बेडकरवादी राजनीतिक रुझान रखने से तमाम क्रान्तिकारी वाम मानो किसी बोझ तले दब गये हों; मानो, अब तो अम्बेडकरवाद के साथ समझौता करना ही पड़ेगा, ऐसा कोई राजनीतिक विचार उनके मस्तिष्क में घुस गया है। ऐसे में, तमाम वामपंथी संगठन भी ‘जय भीम’ का नारा उठा रहे हैं! यह स्पष्ट होना चाहिए कि ‘जय भीम’ या ‘लाल सलाम’ महज़ राजनीतिक नहीं बल्कि विचारधारात्मक नारे हैं और न तो क्रान्तिकारी वाम को अम्बेडकरवादियों से यह उम्मीद करनी चाहिए कि वे ‘लाल सलाम’ नारा लगायें और न ही अम्बेडकरवादियों को इस बात पर नाराज़ होना चाहिए कि कोई कम्युनिस्ट ‘जय भीम’ का नारा क्यों नहीं लगा रहा।

‘जय भीम कामरेड’-टाइप नारे उन्हें लगाने चाहिए जिन्हें वाकई लगता है (अज्ञानवश या फिर किसी प्रकार के बौद्धिक द्रविड़ प्राणायाम के आधार पर!) कि विचारधारा और विश्व दृष्टिकोण के धरातल पर मार्क्सवाद और अम्बेडकरवाद में कोई तालमेल किया जा सकता है। मगर अक्सर तमाम क्रान्तिकारी वामपंथी ‘जय भीम’ नारा या तो ‘अतीत के पाप’ धोने (कि ‘हाय! हमने जाति को नहीं समझा, हमने अम्बेडकर के प्रति सही नज़रिया नहीं रखा’, वगैरह) और एक अवैज्ञानिक, अतार्किक अपराध-बोध से लगाते हैं, या फिर किसी प्रकार के श्रेष्ठताबोध से लगाते हैं (यानी, ‘हम जानते हैं कि अम्बेडकर की विचारधारा और राजनीति सही नहीं है, मगर फिर हम ये नारा लगा लेते हैं क्योंकि इन लोगों को इतनी सदियों से दबाया गया है’-मार्का तर्क)। कुछ ऐसे वामपंथी ज़रूर हैं जो कि अम्बेडकरवाद में और मार्क्सवाद में किसी न किसी किस्म का तालमेल विचारधारात्मक तौर पर स्थापित करना चाहते हैं। चूँकि इन दो विश्व दृष्टिकोणों, दो पद्धतियों और दो विचार-सरणियों में कोई सेतु बना पाना वैज्ञानिक तौर पर सम्भव नहीं है, इसलिए अन्त में ऐसे सभी प्रयास भयंकर रूप से मज़ाकिया विरोधाभासों के गड्ढे में जाकर गिरते हैं, ठीक वैसे ही जैसे कि आनन्द तेलतुम्बड़े, सुभाष गाताड़े व ‘समाजवाद की नई पहल’ जैसे मंच, आदि। यदि व्यक्ति दो स्टूलों पर एक साथ बैठने का प्रयास करेगा तो निश्चय ही वह उनके बीच में गिरेगा!

ऐसे ही कुछ प्रयास रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या के बाद किये गये हैं। इनमें सबसे प्रमुख प्रयासों में एक थीम साझा है-भारत में आर्थिक शोषण के विरुद्ध लड़ने के लिए मार्क्सवाद की ज़रूरत है और सामाजिक उत्पीड़न के विरुद्ध लड़ने के लिए अम्बेडकरवाद, नारीवाद आदि की ज़रूरत है। इस दलील से ज़्यादा मज़ाकिया दलील कोई हो नहीं सकती। जिन सुधी मार्क्सवादियों ने ऐसे तर्क दिये हैं वे संसदीय से ग़ैर-संसदीय वाम तक फैले हुए हैं। चूँकि क्रान्तिकारी वाम पर भी ऐसी दलीलों का असर है, हम संक्षेप में इस पर भी कुछ बातें कहना चाहेंगे।

जो यह समझते हैं कि आर्थिक शोषण के समाधान के लिए किसी अलग विचारधारा की ज़रूरत है, और सामाजिक उत्पीड़न के लिए किसी और विचारधारा के लिए किसी और विचारधारा की, अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि वे न तो आर्थिक शोषण को समझते हैं और न ही सामाजिक उत्पीड़न को। भारत में और साथ ही पूरी दुनिया में ये दोनों परिघटनाएँ हर-हमेशा अन्तर्गुंथित (intertwined) होती हैं और एक-दूसरे को बढ़ावा देती हैं। सर्वहारा व अन्य मेहनतकश वर्ग जिस पूँजीवादी आर्थिक शोषण के शिकार होते हैं, उसे अतिशोषण (super-exploitation) में तब्दील करने में आज जातिगत विभाजन और उत्पीड़न एक विशेष भूमिका अदा करता है। अगर हम मज़दूर आबादी में दलित मज़दूरों की और निचली जातियों से आने वाले मज़दूरों की स्थिति की जाँच करें तो यह चीज़ एकदम स्पष्ट हो जाती है। दलित मज़दूरों और निचली जातियों के मज़दूरों की सामाजिक-सांस्कृतिक तौर पर अरक्षित स्थिति उनके आर्थिक शोषण को आर्थिकेतर उत्पीड़न (extra-economic coercion) के साथ समन्वित कर अतिशोषण को सम्भव बनाती है। इस रूप में जाति आर्थिक शोषण को बढ़ावा देकर अतिशोषण और मुनाफ़ा को अतिमुनाफ़ा में तब्दील करने वाला एक अहम कारक बन जाती है। इसके अलावा, संसाधनों के बँटवारे में पूँजीवाद स्वभावतः जो असमानता पैदा करता है, जातिगत विभेद इस असमानता को और भी ज़्यादा बढ़ाने का काम करता है और वितरण के तमाम विनियामकों में से एक विनियामकों का काम करता है। ऐसे में, जातिगत विभाजन और उत्पीड़न को आर्थिक शोषण से स्वायत्त समझ लेना एक भयंकर भूल है। ऐसा सोचने वाला व्यक्ति न तो आर्थिक शोषण को समझता है और न ही सामाजिक उत्पीड़न को। इस मायने में जाति व्यवस्था अपने विशिष्ट रूप के साथ-साथ दुनिया भर में सामाजिक उत्पीड़न के विभिन्न रूपों के साथ एक समानान्तरता भी रखती है। दुनिया भर में सभी जगहों पर सामाजिक उत्पीड़न के विभिन्न संस्थाबद्ध और ग़ैर–संस्थाबद्ध रूप पूँजीवादी आर्थिक शोषण को अतिशोषण में तब्दील करने में सहायक भूमिका निभाते हैं। लेकिन जाति व्यवस्था इस मायने में इन सामाजिक उत्पीड़नों से भिन्न है कि यह एक ऐसे श्रम विभाजन की रूप में शुरू हुआ था जिसे इसके उत्पत्ति के क्षण पर वर्ग विभाजन ही कहा जाना चाहिए, मगर जो श्रम विभाजन धार्मिक व कर्मकाण्डीय रूप से अश्मीभूत और जीवाश्मीकृत हो गया। नतीजतन, यह श्रम विभाजन होने के साथ ‘श्रमिकों का विभाजन’ भी बन गया और वर्ग से इसका रिश्ता संगति (correspondence) का हो गया, न कि समानता का। इस रूप में जाति की तुलना नस्ल, जातीयता आदि से नहीं की जा सकती है और इसका चरित्र कहीं ज़्यादा वर्चस्वकारी होता है। लेकिन अपने आधुनिक रूप में सामाजिक उत्पीड़न का यह रूप भी वास्तव में पूँजीवादी आर्थिक शोषण को अतिशोषण में तब्दील करने का एक उपकरण बनता ही है और इस रूप में वह भी एक तरह से नस्लीय उत्पीड़न, या अल्पसंख्यक जातीय प्रवासियों के उत्पीड़न वाली भूमिका ही निभाती है।

जिस तरह से जातिगत सामाजिक उत्पीड़न आर्थिक शोषण को अत्यधिक बनाने में पूँजीपति वर्ग की सहायता करता है ठीक उसी प्रकार आर्थिक शोषण भी सामाजिक उत्पीड़न को न सिर्फ़ बढ़ावा देता है, बल्कि आज के समय में वह स्पष्ट रूप से उसका सबसे प्रमुख आधार बन गया है। जैसा कि हमने ऊपर चर्चा की है, अगर आँकड़ों और तथ्यों की ही बात करें तो यह साफ़ तौर पर दिख जाता है कि कैम्पस और समाज के भीतर जातिगत उत्पीड़न के बर्बरतम और नग्नतम रूपों के शिकार आम तौर पर ग़रीब पृष्ठभूमि से आने वाले दलित ही होते हैं। चाहें हम कैम्पस के भीतर पिछले दशक में हुई लगभग दो दर्ज़न दलित छात्रों की आत्महत्याओं की बात कर लें, या फिर गाँवों और शहरों में होने वाले दलित–विरोधी उत्पीड़न व हत्याकाण्डों की बात करें हर जगह निशाने पर शहरी और ग्रामीण ग़रीब दलित ही हैं। अपवाद भी मुश्किल से ही मिलते हैं। ऐसे में, क्या यह स्पष्ट नहीं है कि दलित उत्पीड़न का रिश्ता कहीं न कहीं समाज में कमज़ोर आर्थिक स्थिति से भी है? इस बात से केवल अस्मितावादी राजनीति करने वाले और साथ ही इसी व्यवस्था के दाँते–पेच बन चुके उच्च मध्यवर्गीय दलित बुद्धिजीवी ही इंकार कर सकते हैं, जिनकी एकमात्र पीड़ा शासक वर्ग में सम्मिलित होने के बाद भी कर्मकाण्डीय, सांस्कृतिक, लक्षणात्मक व प्रतीकात्मक समानता का न मिलना और सूक्ष्म रूपों में जातिगत अपमान की मौजूदगी ही है। जैसा कि हम देख सकते हैं आज रोहित वेमुला के लिए इंसाफ़ की लड़ाई में भी ये तबका सड़क पर नहीं उतर रहा है; यहाँ तक कि जुबानी जमाख़र्च भी मुश्किल से ही कर रहा है। ज़्यादा से ज़्यादा यह इस घटना के विरोध में सोशल मीडिया पर कुछ तस्वीर, उद्धरण और पोस्टें ही डालता है। इनमें कुछ तो ऐसे भी हैं जो इस बात पर अतिरिक्त ज़ोर दे रहे हैं कि रोहित का दाख़ि‍ला आरक्षिण श्रेणी से नहीं हुआ था! इससे क्या फ़र्क पड़ता है? क्या जिनका दाख़ि‍ला आरक्षित श्रेणी से होता है, वे किसी भी रूप में मेधा या क्षमता में कमतर हैं? यह कहकर वास्तव में वे अपनी व्यक्तिगत कुण्ठा का निवारण कर रहे होते हैं। कोई भी प्रगतिशील व्यक्ति इसको मुद्दा क्यों मानेगा कि वह आरक्षित श्रेणी से दाखि़ला लेने वाला छात्र था या तथाकथित ‘मेरिट’ के बूते? क्योंकि यह तो मेरिट के उसी पूँजीवादी डार्विनवादी सिद्धान्त की हिमायत होगी, जिसकी हम शुरू से मुख़ालफ़त करते आ रहे हैं और जो समानता और न्याय के वैज्ञानिक सिद्धान्त के विरुद्ध जाता है। ऐसे लोगों के बारे में जितनी कम बातें करें, उतना बेहतर है।

हम यहाँ जो बात स्पष्ट करना चाहते हैं, आप उसे समझ गये होंगे। आर्थिक शोषण और सामाजिक उत्पीड़न की दोनों परिघटनाएँ पूँजीवादी व्यवस्था में हर–हमेशा अन्तर्गुंथित व अन्तर्व्याप्त रहती हैं। केवल वही व्यक्ति इस बात को नहीं समझ पाते हैं जिनके मस्तिष्क में पूँजीवादी व्यवस्था और बुर्जुआ जनवाद का कोई आदर्शीकृत चित्र जड़ित है! पूँजीवादी व्यवस्था का वह आदर्श रूप जिसमें आधुनिक राज्यसत्ता, कानून व संविधान के तहत हर किसी को कानूनी व औपचारिक स्वतन्त्रता व समानता प्राप्त होती है; जिसमें मज़दूर “दोहरे तौर पर आज़ाद” (अपनी श्रम शक्ति बेचने के लिए और साथ ही उत्पादन के साधन के मालिकाने से आज़ाद!) होता है; जिसमें न्यायपूर्ण प्रतियोगिता व समान अवसर होते हैं; वगैरह। वैसे तो उन्नत से उन्नत पूँजीवादी देश में अस्वतन्त्र श्रम व अन्य अस्वतन्त्रताओं (unfreedoms) के तमाम रूप अस्तित्व में होते हैं और आर्थिक शोषण के साथ आर्थिकेतर उत्पीड़न की परिघटना मौजूद रहती है, लेकिन भारत जैसे उत्तर–औपनिवेशिक देश में तो ये परिघटनाएँ अन्तर्गुंथित रूप में और भी ज़्यादा रेखांकित रूप में मौजूद होती हैं। वास्तव में यह प्राक्–आधुनिकता की पहचान नहीं है, बल्कि उस विचित्र तन्तुबद्धीकरण (articulation) की पहचान है जिसे हम उत्तर–औपनिवेशिक (उत्तरऔपनिवेशिक नहीं!) आधुनिकता की संज्ञा दे सकते हैं। ऐसे में, हम पूँजीवादी आधुनिकता के उस वायदे को पहले अपने देश में आदर्श रूप में पूरा करवाने के लिए मचल जाएँ (जैसा कि ‘समाजवाद की नयी पहल’ जैसे कुछ वामपंथी समूहों व बुद्धिजीवियों के साथ हुआ है) जो कि उन्नत से उन्नत पूँजीवादी देश में भी अन्ततः एक मृगमरीचिका ही साबित हुई है, तो इसे अनैतिहासिक और अवैज्ञानिक ज़ि‍द ही कहा जा सकता है। बुर्जुआ आधुनिकता अपने आदर्श रूप में एक ऐसा वायदा है जो कभी था ही नहीं, ए प्रॉमिस दैड नेवर वॉज़! इस बुर्जुआ आधुनिकता के आदर्श और वास्तविक रूप में फर्क है, जिसे मार्क्स और एंगेल्स ने स्पष्ट रूप में चिन्हित किया था।

बहरहाल, सामाजिक उत्पीड़न और आर्थिक शोषण के इस रूप में पूँजीवादी अन्तर्गुंथन और सहयोजन के कारण इन दोनों के जैविक रिश्तों को समझना अनिवार्य है और साथ ही यह समझना भी आवश्यक है कि आर्थिक शोषण की मार्क्सवाद की आलोचना सामाजिक उत्पीड़न के इन रूपों को किनारे रखकर या छोड़कर नहीं की गयी है। जिसने भी पाठ्यपुस्तकों और टीकाकारों की पुस्तकों की बजाय मार्क्सवाद–लेनिनवाद की मौलिक रचनाओं का अध्ययन किया है, वह इस बात से अच्छी तरह वाक़ि‍फ़ होगा। मार्क्सवाद आर्थिक शोषण की समालोचना सामाजिक उत्पीड़न के रूपों से उसके रिश्ते को समझते हुए ही करता है। आज भारत में मौजूद जाति व्यवस्था को समझने के लिए मार्क्सवाद अपर्याप्त नहीं है, उल्टे अनिवार्य और अपरिहार्य है। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता है कि भारत के मार्क्सवादियों ने इस दिशा में अभी तक जो काम किया है वह अपर्याप्त है। इस अपर्याप्तता का मार्क्सवादी विज्ञान की विश्लेषणात्मक क्षमता से कोई रिश्ता नहीं है। इसके विपरीत, अम्बेडकर जाति उन्मूलन के प्रति अपने जेनुइन व ईमानदार सरोकारों के बावजूद न तो जाति की परिघटना को ऐतिहासिक तौर पर समझ सके और ड्यूईवादी व्यवहारवाद और उदार बुर्जुआ विचारधारा के दायरे के भीतर रहने के कारण जाति के उन्मूलन की भी कोई ऐतिहासिक परियोजना नहीं पेश कर सके। निश्चित तौर पर यह सच है कि उनका रिश्ता बुर्जुआ उदार विचारधारा के लेफ्ट–विंग (ड्यूईवादी उपकरणवाद व प्रगतिवादी प्रयोगवाद तथा फेबियनवादी विचार) से था लेकिन यह ‘लेफ्ट विंग’ भी बुर्जुआ कल्याणवाद से आगे कहीं नहीं जाता था। यह दृढ़विश्वासी तौर पर क्रान्तिकारी तौर–तरीकों का विरोधी था और समाज के विकास के क्रमिकतावादी (gradualist) सिद्धान्त पर यक़ीन रखता था और राज्यसत्ता को समाज का सबसे तार्किक अभिकर्ता मानता था। ऐसे में, अम्बेडकर की विचारधारात्मक अवस्थिति, यानी ड्यईवादी व्यवहारवाद ही उन्हें कभी भी राजनीतिक तौर पर सुधारवाद से आगे जाने की इजाज़त नहीं देता था। यही कारण है कि दलितों के उत्थान के लिए सुधारवाद के दायरे में जो चीज़ें हो सकती थीं, वे अम्बेडकर ने कीं और यह उनका बड़ा योगदान था। साथ ही, जाति के उन्मूलन के प्रश्न को पहली बार राष्ट्रीय राजनीतिक एजेण्डे पर वांछनीय प्रमुखता के साथ रखना और साथ ही दलितों के बीच अपनी गरिमा और आत्मसम्मान का भाव पैदा करने में भी उनकी महती भूमिका थी। लेकिन साथ ही यह समझना भी ज़रूरी है कि सुधारवाद के दायरे के भीतर जो कुछ अर्जित हो सकता था, वह अर्जित हो चुका है और अब उसके आगे न जा सकने के कारण जाति उन्मूलन की परियोजना को कई दशकों से भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है। यह एक ऐसी सच्चाई है जिससे मुँह मोड़कर अम्बेडकर की राजनीतिक विरासत के साथ भी कोई सही रिश्ता कायम कर पाना असम्भव है। या तो आप उन्हें ख़ारिज करने की ओर जायेंगे या फिर उनकी अन्धपूजा की तरफ़।

सामाजिक उत्पीड़न आज आर्थिक शोषण के साथ जिस कदर नाभिनालबद्ध है, उसका पूर्ण रूप से उन्मूलन या ख़ात्मा तो पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर सम्भव ही नहीं है। वास्तव में, जाति व्यवस्था ऐतिहासिक तौर पर हर शोषण–आधारित व्यवस्था के साथ सहयोजित और समायोजित होने की अद्भुत वर्चस्वकारी क्षमता रखती है। और इसीलिए भारतीय इतिहास में तमाम प्राक्–पूँजीवादी उत्पादन पद्धतियों, सामन्ती उत्पादन पद्धति और पूँजीवादी उत्पादन पद्धति तक के पूरे विकास क्रम में जाति व्यवस्था और ब्राह्मणवादी विचारधारा अपने चरित्र में कतिपय परिवर्तन करते हुए जीवित रहे हैं। इसका कारण यह है कि इस पदानुक्रम–आधारित व्यवस्था और विचारधारा के रूप में हर शोषक शासक वर्ग को अपने शासन के वैधीकरण (legitimation) का एक शक्तिशाली उपकरण मिलता है। इस नुक्ते पर हम अभी थोड़ी देर में फिर लौटेंगे। अभी हम इतना स्पष्ट करना चाहेंगे कि सामाजिक तौर पर जाति व्यवस्था पर प्राणान्तक चोट एक क्रान्ति के ज़रिये ही की जा सकती है, सुधार और रियायतों की प्रक्रिया इस सन्दर्भ में कई दशकों पहले ही सन्तृप्ति बिन्दु तक पहुँच चुकी है। इस समूचे क्रान्तिकारी रूपान्तरण की परियोजना का रास्ता मार्क्सवादी विज्ञान की रोशनी में ही स्पष्ट हो सकता है क्योंकि यही विज्ञान ऐसा है जो पूँजीवादी व्यवस्था में किसी प्रकार के समायोजन, काट–छाँट, सुधार या बेहतरी की अवैज्ञानिक और अनैतिहासिक बात नहीं करता बल्कि समूची पूँजीवादी व्यवस्था के वैज्ञानिक और व्यावहारिक विकल्प की बात करता है। निश्चित तौर पर, इस क्रान्तिकारी परियोजना को अम्बेडकर के योगदानों और सीमाओं दोनों को ही समझना होगा। रोहित की मौत के बाद जाति उन्मूलन का प्रश्न एक बार फिर से पुरज़ोर तौर जिस तरह से हमारे सामने उपस्थित हुआ है उसमें हमें लगता है कि आर्थिक शोषण और सामाजिक उत्पीड़न के अन्तर्गुंथन की सही समझदारी और इन दोनों को ख़त्म करने की एक वैज्ञानिक परियोजना के ज़रिये ही हम जाति उन्मूलन की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं।

अस्मितावादी राजनीति के विरोधाभास

17 जनवरी के बाद से ही रोहित के लिए न्याय का जो संघर्ष लगातार जारी रहा है और अभी भी जारी है, उससे कुछ और बातें भी निकलकर हमारे सामने आयी हैं। एक अहम बात यह है कि इस आन्दोलन ने एक बाद फिर अस्मितावादी राजनीति के विरोधाभासों को हमारे सामने स्पष्ट कर दिया है। जहाँ एक ओर फासीवादी मोदी सरकार के मन्त्रियों ने इस बात पर विवाद खड़ा कर दिया है कि रोहित दलित था या नहीं वहीं वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के उस सदस्य की जातिगत अस्मिता को भी मुद्दा बना रहे हैं जिसने रोहित और उसके साथियों पर पिटाई करने का झूठा इल्ज़ाम लगाया था। ग़ौरतलब है कि वह छात्र स्वयं अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) से सम्बन्ध रखता है। मानव संसाधन मन्त्री स्मृति ईरानी ने दावा किया है कि उस छात्र को रोहित की मृत्यु के लिए इसलिए ज़ि‍म्मेदार ठहराया जा रहा है और इसलिए निशाना बनाया जा रहा है क्योंकि वह ओबीसी है। कई बार अपने सहीपन या ग़लत होने का पता इस बात से चलता है कि शत्रु शक्तियाँ क्या कर रही हैं। इस घटनाक्रम से स्पष्ट है कि अगर रोहित के लिए इंसाफ़ की लड़ाई को अस्मिता के आधार पर चलाया जायेगा और यहाँ तक कि अगर रोहित की मौत के कारणों को उसके दलित होने तक सीमित कर दिया जायेगा तो निश्चित तौर पर संघ परिवार और अन्य दक्षिणपंथी ताक़तें भी उसके बरक्स एक अस्मितावादी राजनीति से जवाब देंगी। वे ओबीसी पहचान के आधार पर एक अन्य विरोधी गोलबन्दी खड़ी करने का प्रयास करेंगे। वास्तव में, ये प्रयास उन्होंने शुरू भी कर दिये हैं। साथ ही, सिर्फ़ दलित अस्मिता के इर्द–गिर्द सारी लड़ाई को समेट देने वाली अस्मितावादी ताक़तें यह भी नहीं समझ रही हैं कि देश भर में रोहित की मृत्‍यु के बाद जो लड़ाई जारी है वह सिर्फ़ दलित आबादी नहीं लड़ रही है, हालाँकि उस लड़ाई का एक अहम हिस्सा दलित उत्पीड़न है। वास्तव में, रोहित की मृत्यु ने छात्रों–युवाओं के बीच सुलग रहे असन्तोष को भी फूटने का एक कारण प्रदान किया है। इस रूप में इस बात की सम्भावनाएँ पैदा हो गयी हैं कि रोहित की मौत के कारण आज वास्तव में छात्रों–युवाओं का आन्दोलन एक करवट ले ले। लेकिन यह भी तभी सम्भव है जब मौजूदा आन्दोलन को पूरी तरह से अस्मितावादी राजनीति के भँवर से निकाला जाय। अस्मितावादी राजनीति सीधे तौर पर प्रभुत्वशाली अस्मिता की राजनीति और उसके इर्द–गिर्द गोलबन्दी करने की प्रक्रिया को भी ईंधन मुहैया कराती है, जैसा कि एन. सुशील कुमार की ओबीसी पहचान पर फासीवादी मोदी सरकार द्वारा ज़ोर दिये जाने से स्पष्ट तौर पर दिखलायी दे रहा है।

इसका कारण यह है कि अस्मितावादी राजनीति का एक बुनियादी संघटक तत्व होता है अन्यकरण (othering) की प्रक्रिया। इस प्रक्रिया के बिना कोई भी अस्मितावादी राजनीति नहीं खड़ी की जा सकती है। इसलिए अगर दलित मुक्ति की लड़ाई को दलित अस्मितावाद तक सीमित किया जायेगा तो इसके साथ ही अन्य प्रतिवादी अस्मितावाद भी उसी दर से बढ़ेंगे। हमारे इस तर्क पर कई लोग ऐसा कहेंगे कि ब्राह्मण, अन्य दबंग मध्य जातियाँ भी तो अपनी अस्मिता पर वैसे ही बल देती हैं और इस आधार पर अपनी श्रेष्ठता को रेखांकित करने का प्रयास करती हैं। लेकिन इसका कारण यह है कि इन सवर्ण जातियों में मौजूद शासक वर्ग की राजनीति का चरित्र ही व्यवस्थाधर्मी और प्रतिक्रियावादी होता है। इसका जवाब हम किसी सिर के बल खड़े अस्मितावाद से नहीं दे सकते क्योंकि हमारी राजनीति का चरित्र, दलित मुक्ति व आम तौर पर जाति के उन्मूलन की राजनीति का चरित्र मूलतः प्रतिक्रियावादी या व्यवस्थाधर्मी नहीं बल्कि प्रगतिशील है। सवर्णीय श्रेष्ठतावादी अस्मितावादी व प्रतिक्रियावादी राजनीति का जवाब हम प्रतिक्रियात्मक तौर पर, यानी कि एक दूसरे प्रकार के अस्मितावाद से, दलित जाति के अस्मितावाद से नहीं दे सकते। अगर हम ऐसा करेंगे तो जाति उन्मूलन की पूरी परियोजना ही अस्मितावाद के भँवर में इस कदर फँसती जायेगी कि उसे बचा पाना ही मुश्किल हो जायेगा। क्या अभी तक हमें इस अस्मितावाद का भयंकर नुकसान नहीं उठाना पड़ा है? इसका जवाब हम वर्ग–आधारित जाति उन्मूलन की राजनीति और आन्दोलन से ही दे सकते हैं।

यह सच है कि किसी दमित समुदाय के अपने अस्तित्व के प्रति, अपने दमन के प्रति और प्रतिरोध की ज़रूरत के प्रति सचेत होने की प्रक्रिया में अस्मिता को स्थापित करने की एक राजनीतिक भूमिका होती है। मगर यह अस्मिता–स्थापन अस्मितावाद से भिन्न है और उस मंज़िल से आज जाति उन्मूलन मीलों आगे आ चुका है जिसमें इस अस्मिता–स्थापन की कोई ऐतिहासिक प्रासंगिकता थी। अस्मिता को स्थापित करने की यह मंज़िल उन दमित समुदायों (जाति, जेण्डर, या राष्ट्रीयता) के लिए विशेष तौर पर ज़रूरी होता है जो दमनकारी वर्गों द्वारा थोपे गये हीनता के विचार का एक हद तक स्वीकार और अन्तर्यीकरण (internalization) कर चुका होता है। उसके लिए अस्मिता को स्थापित करने का एक विशेष महत्व होता है क्योंकि इसके बग़ैर वे अपने सामूहिक दमन और उत्पीड़न के प्रति सचेत ही नहीं हो सकते। भारत में दलितों की अस्मिता को स्थापित करने के शुरुआती कार्य में फुले, पेरियार, अम्बेडकर और साथ ही क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों का योगदान रहा था। अस्मिता को इस रूप में स्थापित करने का रिश्ता मूलतः आत्मगरिमाबोध, आत्मसम्मान और अपनी मूल मानवीय पहचान को स्थापित करने से होता है; उस अमानवीकरण से अपने आपको अलग करने से होता है जो कि प्रभुत्वशाली समुदाय ने दमित समुदायों पर थोप दिया होता है। इस कार्रवाई को अस्मितावाद के साथ गड्डमड्ड नहीं किया जा सकता है। लेकिन इससे आगे बढ़कर जब किसी दमित समुदाय की अस्मिता को बहिष्करणवादी बना दिया जाता है, उसे उसकी सामाजिक–राजनीतिक व आर्थिक चेतना के कुल योग का आधार बना दिया जाता है, और उसकी पूरी सामाजिक चेतना को अन्य सभी लोगों (जिसमें अन्य शोषित–उत्पीड़ित जन भी शामिल हैं) से उसकी अन्यता (otherness) तक सीमित और अपचयित कर दिया जाता है, तो यही चीज़ अस्मितावादी राजनीति में तब्दील हो जाती है। और यह अस्मितावादी राजनीति आज तक किसी भी दमित समुदाय की मुक्ति का रास्ता न तो बन सकी है और न ही बन सकेगी क्योंकि इस राजनीति का मूल तर्क कभी भी ‘सबवर्सिव’ नहीं होता, चाहे उसके जुमले कितने ही गर्म क्यों न हों। यह राजनीति कभी भी सुधारवाद और रियायतें माँगने से आगे नहीं जा सकती है।

यही कारण है कि रोहित वेमुला के लिए इंसाफ़ की लड़ाई कभी भी अस्मितावादी राजनीति के ज़रिये आगे नहीं बढ़ सकती है। यह पहले भी कई बार साबित हो चुका है और रोहित की मौत के बाद जारी आन्दोलन में भी बार–बार साबित हो रहा है। हर ईमानदार व्यक्ति चाहे वह किसी भी राजनीतिक धारा से जुड़ा हो, अपने दिल पर हाथ रखकर यह सवाल अपने आपसे पूछ सकता है और उसे यही जवाब मिलेगाः अस्मितावादी राजनीति के पंककुण्ड से निकलकर ही जाति उन्मूलन के ऐतिहासिक संघर्ष को आगे बढ़ाया जा सकता है।

जैसा कि हम पहले ही ज़ि‍क्र कर चुके हैं, जाति उन्मूलन की परियोजना को आगे बढ़ाने के लिए एक वर्ग आधारित जाति–विरोधी आन्दोलन की आवश्यकता है। आज जातिगत विभेद, उत्पीड़न और अपमान के विरुद्ध लड़ेंगे वही जो इससे सर्वाधिक पीड़ित हैं। दलितों के बीच शासक वर्ग ने जो अपने मित्र पैदा किये हैं, उनमें से अपवादस्वरूप विभिन्न व्यक्ति इस मुहिम के साझीदार बन सकते हैं। मगर सिर्फ़ दलित पहचान के आधार पर दलितों के बीच से पैदा हुए शासक वर्ग के मित्र उच्च वर्ग और उच्च मध्यवर्ग इस मुहिम में वर्ग के तौर पर शामिल होने वाले नहीं है। उन्हें सत्ता और संसाधनों में हिस्सेदारी मिल चुकी है; उनकी नुमान्दगी करने वाली चुनावी पार्टियाँ व नेता खड़े हो चुके हैं; उनके निहित हित इस व्यवस्था के साथ नाभिनालबद्ध हो चुके हैं। वे सत्ता के गलियारों में होने वाले सूक्ष्म जातिगत अपमानों पर मिनमिनाते और भिनभिनाते हुए भी इसी शासक वर्ग की पालकी ढोते रहेंगे। ग़ौरतलब है कि हाल ही में रामविलास पासवान ने कहा कि उन्हें ‘न चाहकर भी भाजपा के इशारों पर नाचना पड़ रहा है!’ सवाल यह उठता है कि सत्तालोलुप, भ्रष्ट, विलासी, बेईमान, पतित और अवसरवादी होने के अलावा रामविलास पासवान की ऐसी क्या मजबूरी है! उसी प्रकार उदित राज नरम स्वर में रोहित की मौत के लिए भाजपा के नेताओं को अखबारी कॉलमों में कोस रहे थे, मगर इस प्रश्न पर भाजपा की गोद से उतर जाने का उनका कोई इरादा नहीं है। रामदास आठवले की भी यही हालत है जिसे हैदराबाद विश्वविद्यालय से रोहित के लिए लड़ रहे छात्रों ने खदेड़ दिया था। ये नेता यूँ ही नहीं पैदा हुए हैं। दलितों के बीच जो बेहद छोटा सा कुलीन तबका पैदा हुआ है, ये उनकी नुमाइन्दगी करते हैं और अब इनका सरोकार सत्ता और संसाधन में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने से ज़्यादा कुछ भी नहीं है, चाहे ये दलितों के मसीहाओं के रूप में अपने आपको कितने भी ज़ोर–शोर से पेश करें।

किसी भी दमित पहचान या समुदाय के बारे में यह बात लागू होती है कि उनके सभी सदस्य कभी भी उस दमन के विरुद्ध नहीं लड़ते। उनकी व्यापक बहुसंख्या यानी ग़रीब मेहनतकश आबादी इस दमन और उत्पीड़न के विरुद्ध लड़ती है। कारण यह है कि अपने दमन और वर्चस्व को और भी ज़्यादा ख़तरनाक बनाने के लिए शासक वर्ग हमेशा ही सबसे दमित समुदायों में से एक हिस्से को सहयोजित कर लेता है। जैसा कि मार्क्स ने ‘पूँजी’ के खण्ड तीन में कहा था, ‘शासक वर्ग जिस हद तक शासित वर्गों से तीव्रतम मस्तिष्कों को अपने में शामिल करने में कामयाब होता है, उसका शासन उतना ही अधिक स्थिर और ख़तरनाक बनता है।’ ठीक उसी प्रकार दमित राष्ट्रीयताओं, स्त्रियों और आदिवासियों के बीच से भी शासक वर्ग ने एक हिस्से को सहयोजित किया है, उसे कुलीन बनाया है और उसे सत्ता व संसाधनों में एक हिस्सा भी दिया है। यह भी एक कारण है कि अस्मितावादी राजनीति कभी भी ‘सबवर्सिव’ चरित्र की नहीं हो सकती है। इसलिए हर दमित समुदाय में उस विशिष्ट दमन के रूप का मुकाबला भी एक वर्ग आधारित आन्दोलन के ज़रिये ही किया जा सकता है। इसी तौर पर जाति उन्मूलन की परियोजना वर्ग संघर्ष का एक अविभाज्य अंग है। यह उससे अलग या पूर्ण रूप से स्वायत्त नहीं है; न ही यह उसके साथ योगात्मक (aggregative) तौर पर जुड़ी है। वस्तुतः यह उसका एक जैविक अंग है।

इसी रूप में हम इस बात को कहते हैं कि जुझारू जाति–विरोधी सामाजिक–सांस्कृतिक आन्दोलन के बग़ैर क्रान्ति सम्भव नहीं है और क्रान्ति के बिना जाति का निर्णायक तौर पर उन्मूलन सम्भव नहीं है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि इसका यह अर्थ नहीं है कि क्रान्ति के साथ ही जाति का उन्मूलन हो जायेगा। लेकिन इतना अवश्य है कि क्रान्ति के साथ उस समूची सामाजिक–आर्थिक व्यवस्था को इतिहास की कचरा–पेटी में पहुँचाया जा सकेगा जो जाति व्यवस्था को खाद–पानी देती रही है।

क्या जाति व्यवस्था का चरित्र सामन्ती अथवा प्राक्–पूँजीवादी है?

अन्त में, हम कुछ ऐसे साथियों के विचारों पर अपनी बात रखना चाहेंगे जो जाति व्यवस्था को सामन्ती व्यवस्था का ‘बैगेज’ या उसे अपने आप में अभी भी सामन्तवाद की मौजूदगी का प्रमाण मानते हैं और जाति उन्मूलन के प्रश्न को नवजनवादी क्रान्ति का कार्यभार मानते हैं। कई साथियों का मानना है कि जाति व्यवस्था सामन्ती व्यवस्था या प्राक्–पूँजीवादी व्यवस्था का अंग है या उसकी ख़ासियत है; उनके अनुसार, भारत एक पूँजीवादी देश नहीं बल्कि अर्द्धसामन्ती–अर्द्धऔपनिवेशिक देश है और जाति व्यवस्था सामन्ती उत्पादन सम्बन्धों की पैदावार है या उसका अंग है या फिर सामन्ती अधिरचना (संस्कृति, मूल्य–मान्यताओं, मनोविज्ञान आदि) का अंग है। कुछ ऐसे भी हैं जिनका मानना है कि जाति व्यवस्था इस बात के तमाम लक्षणों में से एक है कि हमारे देश में बुर्जुआ आधुनिकता की परियोजना पूरी नहीं हो पायी है! बुर्जुआ आधुनिकता के आदर्श आद्यरूप (archetype) के दीवानों पर हम ऊपर टिप्पणी कर आये हैं, जिसे यहाँ दुहराना ज़रूरी नहीं है। लेकिन जो जाति व्यवस्था को अपने आप में कोई प्राक्–पूँजीवादी या सामन्ती चीज़ मानते हैं, उनके बारे में हमारा मानना है कि यह दृष्टिकोण जाति व्यवस्था के इतिहास से ही सही तरीके से परिचित नहीं है।

भारत में सामन्ती व्यवस्था के उद्भव से पहले से ही जाति व्यवस्था मौजूद थी। वास्तव में, आर्यों के भारत आगमन के साथ भारत में वर्ण–जाति व्यवस्था के बीज पड़ चुके थे। इसकी शुरुआत श्रम विभाजन के तौर पर हुई थी और इस रूप में उत्पत्ति के क्षण पर इसे तत्कालीन समाज का वर्ग सम्बन्ध ही कहा जायेगा। दूसरे शब्दों में, अपने जन्म के समय वर्ण ही वर्ग था। लेकिन भारत के इतिहास की विशिष्टता यह रही कि यह श्रम विभाजन धार्मिक और कर्मकाण्डीय तौर पर जीवाश्मीकृत या अश्मीभूत हो गया। नतीजतन, वर्ण और वर्ग का अतिच्छादन (overlapping) इतिहास के आगे बढ़ने के साथ कम होता गया और उनके बीच एक संगति (correspondence) का सम्बन्ध बनता गया। जाति व्यवस्था में बदलती उत्पादन पद्धतियों और सामाजिक संरचनाओं के साथ बदलाव आते रहे लेकिन उसने वर्ग सम्बन्धों से स्वायत्त तौर पर अपने अस्तित्व को बनाये रखा। ब्राह्मणवादी विचारधारा इस जाति व्यवस्था का कोर तत्व है। यह ब्राह्मणवादी विचारधारा ही वह विचारधारा थी जिसने कि शुरू से ही जातिगत पदानुक्रम को वैधीकरण प्रदान करने का काम किया। लेकिन यहाँ ग़ौर करने की बात यह है कि देश के अलग–अलग हिस्सों में और देश के इतिहास के अलग–अलग दौरों में ब्राह्मणवादी विचारधारा ने यह कार्य अलग–अलग तरीके से किया। जहाँ पर जिस प्रकार के उत्पादन व पुनरुत्पादन के सामाजिक सम्बन्ध स्थापित हुए, वहाँ पर जाति व्यवस्था ने भी उनसे संगति रखता हुआ रूप अख़्ति‍यार किया। यह रूप ब्राह्मण संहिताओं, पुराणों या वेदों से अन्तिम तौर पर निर्धारित नहीं था। मिसाल के तौर पर, दक्षिण भारत में जो जाति व्यवस्था सुदृढ़ हुई उसका पूरा स्पेक्ट्रम या पदानुक्रम गंगा के मैदानों में सबसे पहले अस्तित्व में आयी और सुदृढ़ीकृत हुई जाति व्यवस्था के पदानुक्रम से बिल्कुल भिन्न था। पूर्वी भारत में भी यही हालत थी। इन दोनों जगहों पर बीच के दो वर्ण, यानी कि क्षत्रिय और वैश्य ऐतिहासिक तौर पर मौजूद ही नहीं थे। इन हिस्सों में जब जाति व्यवस्था का प्रसार हुआ तो खेती प्रमुख आर्थिक गतिविधि बन चुकी थी और उसे करने वाली जातियों की आर्थिक स्थिति और राजनीतिक शक्तिमत्ता में परिवर्तन आ रहा था। ये जातियाँ मुख्य रूप से शूद्र जातियाँ थीं क्योंकि अधिकांश वैश्य व्यापार के पेशे में जा चुके थे और जो खेती में रह गये थे, उनकी स्थिति कालान्तर में शूद्र की हो गयी। बहरहाल, इसी कारण से दक्षिण भारत में शूद्र राज्य अस्तित्व में आये। शूद्र राजाओं को भी अपने प्राधिकार के वैधीकरण की आवश्यकता हुई और इस काम को अंजाम ब्राह्मणवादी विचारधारा ने दिया। वहाँ ब्राह्मणों ने सत् शूद्र और असत् शूद्र के बीच विभाजन पैदा किया और सत् शूद्रों को ब्राह्मणों का रक्षक बताते हुए वही स्थान दिया जो कि क्षत्रियों का था। उत्तर भारत में गुप्त साम्राज्य की स्थापना के साथ सामन्ती उत्पादन सम्बन्धों की स्थापना और सुदृढ़ीकरण की शुरुआत हुई। इस दौर तक शूद्र जातियों का मुख्य पेशा खेती बन चुका था जबकि वैश्य व्यापार की ओर स्थानान्तरित हो रहे थे। इसी दौर में, चातुर्वण्य व्यवस्था से बाहर खड़ी दलित जातियों को अस्पृश्य घोषित किये जाने की शुरुआत हुई ताकि उनसे नीचे माने जाने वाले और सबसे दुरूह व कठिन कार्यों को करवाया जा सके और उनका मुक्त रूप से शोषण–उत्पीड़न किया जा सके। इस पूरी प्रक्रिया को सुविख्यात इतिहासकार विवेकानन्द झा ने विस्तार से वर्णित किया है। सामन्तवाद के दौर में जातियों की संख्या में तेज़ी से वृद्धि हुई और जाति-वर्ण व्यवस्था का विस्तार और सुदृढ़ीकरण हुआ। सामन्ती व्यवस्था ने जाति व्यवस्था को मज़बूत बनाने में अभूतपूर्व भूमिका निभायी। दूसरे शब्दों में कहें, तो सामन्ती उत्पादन व्यवस्था के प्रमुख उत्पादन व्यवस्था में तब्दील होने और सामाजिक संरचना में उनके अनुरूप परिवर्तन आने के साथ जाति व्यवस्था में भी उसके अनुरूप परिवर्तन हुए, हालाँकि पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में ये परिवर्तन विभिन्न कारणों के चलते अलग-अलग तरीके से हुए। लेकिन इतना स्पष्ट देखा जा सकता है कि जाति व्यवस्था और वर्गीय संरचना में संगति का सम्बन्ध होने के कारण समाज की वर्गीय संरचना में आने वाले मूलभूत परिवर्तनों के साथ जाति व्यवस्था और उसके पदानुक्रम में भी उसके अनुरूप परिवर्तन आये।

तुर्की आक्रमण के बाद अस्तित्व में आयी दिल्ली सल्तनत और सोलहवीं सदी में बाबर के आक्रमण के बाद अस्तित्व में आये मुगल साम्राज्य ने भारतीय सामन्तवाद के समूचे ढाँचे में कुछ अहम परिवर्तन किये, जिन पर हम अभी चर्चा नहीं कर सकते। इन परिवर्तनों के साथ भी जातियों की व्यवस्था में परिवर्तन आये। और ब्रिटिश के आगमन और भारत के औपनिवेशीकरण के साथ तो जाति व्यवस्था में कुछ स्पष्ट और बड़े परिवर्तन देखे जा सकते हैं। ब्रिटिश के आगमन के बाद विभिन्न भूमि बन्दोबस्तों के लागू होने के कारण भूमि में निजी स्वामित्व कानूनी तौर पर पैदा हुआ। इसके साथ उच्च जाति के ज़मीन्दारों की ताक़त में भारी बढ़ोत्तरी हुई। ब्रिटिश ने ब्राह्मण व क्षत्रिय ज़मीन्दारों को अपना प्रमुख सामाजिक अवलम्ब बनाया और ये वर्ग ब्रिटिश के जाने तक उनके वफ़ादार बने रहे। कुछ ने तो ब्रिटिश के जाने पर मातम भी मनाया! बहरहाल, ज़मीन्दार वर्ग की ताक़त में ब्रिटिश शासन ने इज़ाफ़ा किया और उनके हाथ में कृषि सम्बन्धी संसाधनों का पूर्ण नियन्त्रण सौंप दिया। इसके साथ ही शूद्र किसानों व दलित भूमिहीनों की स्थिति और भी ज़्यादा कमज़ोर और अरक्षित बनती गयी। एक दूसरा कदम जिसके ज़रिये ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता ने जाति व्यवस्था को और भी ज़्यादा मज़बूत किया और उसके पदानुक्रम को अनमनीय बनाने का कार्य किया वह था एक एथनोग्राफिक राज्यसत्ता की स्थापना जो लोगों को गिनने और उन्हें श्रेणीबद्ध करने के एक प्रकार के उन्माद या फेटिश का शिकार थी। यह ब्रिटिश का एक बुनियादी पूर्वाग्रह था कि भारत को बेहतर तरीके से जानकर ही उस पर बेहतर तरीके से शासन किया जा सकता है। इसलिए उन्होंने आते ही एक ओर ब्राह्मणों और मौलवियों से ब्राह्मण धर्मग्रन्थों व साथ ही कुरान व शरिया आदि का अनुवाद अंग्रेज़ी में करवाना शुरू किया (1784 में ‘ओरियण्टल सोसायटी ऑफ बंगाल’ की स्थापना विलियम जोंस ने इसी उद्देश्य से की थी), वहीं दूसरी ओर 1881 में एच.एच. रिसले नामक जनगणना आयुक्त ने पहली जनगणना करवायी जिसका मकसद था भारतीय आबादी के बारे में एक सांख्यिकीय सूचना तन्त्र का निर्माण करना। इन दोनों कदमों ने जाति व्यवस्था को और ज़्यादा सुदृढ़, अनमनीय बनाया और उसके अन्दर जितनी आन्तरिक गतिमानता थी, उसे मारने का काम किया। जाति व्यवस्था को अनमनीय बनाने और मज़बूत बनाने में अंग्रेज़ों की इस भूमिका को रेखांकित करते हुए कई सबऑल्टर्न व उत्तर आधुनिक इतिहासकार इस छोर तक चले गये हैं कि उन्होंने जाति को अंग्रेज़ों की निर्मित बना दिया है, जैसे कि निकोलस डर्क्स, रोनाल्ड इण्डेन आदि, हालाँकि यह दृष्टिकोण ग़लत है क्योंकि यह प्राक्-ब्रिटिश भारत का आदर्शीकरण करता है और तथ्यात्मक तौर पर ग़लत है। साथ ही, ऐसा दृष्टिकोण अनैतिहासिक है क्योंकि यह लम्बे कालखण्ड में जाति की ऐतिहासिकता (historicity) को नहीं समझ पाता है।

बहरहाल, जाति व्यवस्था को सुदृढ़ और अनमनीय बनाने वाले अपने इन दो कदमों के साथ ही ब्रिटिश ने जो सीमित पूँजीवादी विकास किया उसके कारण औद्योगिक केन्द्रों व शहरों में जाति व्यवस्था की कुछ पंजियाँ एक हद तक कमज़ोर हुईं। मसलन, खान-पान सम्बन्धी पूर्वाग्रह व छुआछूत में कमी आयी। इसके अलावा, ब्रिटिश जिस आधुनिकता के वाहक थे, उसकी जूठन-छाजन भी एक बेहद सीमित अर्थों में भारत में दलितों व शूद्रों तक कुछ हिस्सों में पहुँची। मिसाल के तौर पर, कुछ जगहों पर दलितों को शिक्षा का हक़ मिला। लेकिन कुल मिलाकर अंग्रेज़ी औपनिवेशिक शासन ने जाति व्यवस्था और ब्राह्मणवाद को मज़बूत करने का काम किया था, हालाँकि इनमें उसने कुछ बुनियादी परिवर्तन लाते हुए ऐसा किया था।

आज़ादी के बाद भारतीय बुर्जुआ वर्ग ने पूँजीवादी विकास का एक ख़ास रास्ता अख़्तियार किया जिसमें कि सामन्ती अवशेषों और सामन्त वर्गों पर निर्णायक चोट करने, उनकी रियासतें और ज़मीनें एक झटके में छीनने और जनवादी सुधार रैडिकल तरीके से लागू करने का काम करने की बजाय बड़े ज़मीन्दार वर्ग को अपने चरित्र को सामन्ती से पूँजीवादी कुलक-फार्मर में तब्दील करने का मौका दिया गया। अगर भारत के बुर्जुआ वर्ग ने रैडिकल भूमि सुधारों का रास्ता अपनाया होता तो जाति व्यवस्था पर भी एक बड़ी चोट हुई होती क्योंकि प्रमुख सर्वण ज़मीन्दार जातियों की आर्थिक और राजनीतिक शक्तिमत्ता पर एक प्राणान्तक चोट हुई होती। मगर ढाई सौ साल के औपनिवेशिक इतिहास से पैदा हुए बौनेपन ने भारतीय पूँजीपति वर्ग को ह्रासमान सामन्ती वर्गों व राजों-रजवाड़ों से लड़ने की शक्ति और साहस नहीं दिया था। यह शुरू से ही (अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ राष्ट्रीय आन्दोलन में भी) समझौता-दबाव-समझौता की मौकापरस्त और समझौतापरस्त लाइन का हामी रहा था। सामन्ती अवशेषों को खत्म करने के मामले में भी इस बौने पूँजीपति वर्ग ने ऐसी ही समझौतापरस्ती दिखलायी। नतीजतन, एक पीड़ादायी संक्रमण के ज़रिये मुख्य तौर पर 1960 के दशक के अन्त तक भारतीय कृषि का पूँजीवादी रूपान्तरण जारी रहा और गौण तौर पर उसके बाद भी जारी रहा। इस रूपान्तरण में आंशिक तौर पर अस्वतन्त्र भूमिहीन श्रमिक अब खेतिहर मज़दूर में तब्दील हो गये जो कि पूँजीवादी कुलकों व नये उभरे धनी काश्तकार किसानों की ज़मीनों पर मज़दूरी करते हैं। इनमें दलित जातियों का हिस्सा करीब 47 प्रतिशत है। शूद्र किसान जातियों में से कुछ हरित क्रान्ति के बाद के दौर में आर्थिक तौर पर शक्तिवान हुईं और उनकी स्थिति धनी काश्तकार या उच्च मँझोले काश्तकार किसानों जैसी हो गयी। इन जातियों जाटों, रेड्डी, कम्मा आदि को गिना जा सकता है। कई अन्य शूद्र जातियों के साथ ऐसा हुआ, हालाँकि उनका बहुलांश खेतिहर या औद्योगिक मज़दूर ही बना। पूँजीवाद के विकास के साथ जाति व्यवस्था के स्वरूप में कई परिवर्तन आये। आज जाति व्यवस्था की एक पंजी (रजिस्टर) ही मज़बूती के साथ बरकरार है और वह है सजातीय विवाह। इसका कारण यह है कि जाति व्यवस्था की इस ख़ासियत के साथ पूँजीवाद का कोई अन्तरविरोध नहीं है। यह तो निजी सम्पत्ति को उससे भी ज़्यादा पवित्र बना देती है, जितना कि पूँजीवाद बनाता है! इसके अतिरिक्त, खान-पान व छुआ-छूत सम्बन्धी विशिष्टताओं में काफ़ी कमी आयी है और ये आभिलाक्षणिकताएँ क्षीण हो गयी हैं। निश्चित तौर पर, पूँजीवादी समाज की असमानता के रहते ये पूरी तरह से समाप्त नहीं होंगी। दलित जातियों की बहुसंख्य आबादी अभी भी खेतिहर या औद्योगिक मज़दूर है और इस आबादी की जातिगत तौर पर निम्न स्थिति और अरक्षित हालात इन्हें न सिर्फ़ पूँजीवादी शोषण के लिए सहज प्रस्तुत करते हैं, बल्कि उनके अतिशोषण और आर्थिकेतर उत्पीड़न को भी सुगम बना देते हैं। जातिगत विभेद इन मज़दूरों को अपने अन्य मज़दूर साथियों से अलग करने का एक उपकरण भी साबित होते हैं, जिनका चुनावी पार्टियाँ और अस्मितावादी संगठन निरन्तर इस्तेमाल करते हैं। ऐसा नहीं है कि स्वतःस्फूर्त तौर पर उनमें जातिगत विभेद नहीं है और यह सिर्फ़ शासक वर्ग की साज़ि‍श है। लेकिन जब तक शासक वर्ग इस जातिगत बँटवारे को खाद-पानी न दे तब तक इसके मज़बूत बने रहने की स्थितियाँ नहीं पैदा हो सकती हैं। जब तक जाति व्यवस्था की ज़रूरत महसूस करने वाली और उसका इस्तेमाल करने वाली पूँजीवादी व्यवस्था मौजूद रहेगी, तब तक जाति उन्मूलन की लड़ाई पूँजीवाद-विरोधी संघर्ष का एक अविभाज्य अंग बनकर ही आगे बढ़ सकती है।

लुब्बेलुबाब यह कि जाति व्यवस्था विभिन्न शोषक, उत्पीड़क व असमानतापूर्ण व्यवस्थाओं में अपने रूपों को बदलते हुए मौजूद रही है। ब्राह्मणवादी विचारधारा और जाति व्यवस्था हर शोषक शासक वर्ग को एक ज़बर्दस्त उपकरण और विचारधारा प्रदान करती है जिससे कि शासक वर्ग अपने शासन को वैध ठहरा सके और साथ ही शासित-शोषित जनता के प्रतिरोध को तोड़ सके, उसे एकजुट होने से रोक सके। यह अनायास नहीं था कि मुसलमान शासकों ने भी जाति व्यवस्था और ब्राह्मणवादी विचारधारा को ईर्ष्या की निगाह से देखा था! वस्तुतः कोई भी शोषक व्यवस्था और शोषक वर्ग मनुष्य के अमानवीकरण, उसके नग्न और बर्बर उत्पीड़न की इस घिनौनी मगर नायाब व्यवस्था, यानी जाति व्यवस्था और ब्राह्मणवाद से ईर्ष्या ही करेगा। इससे यह नतीजा भी निकलता है कि कोई भी ऐसी व्यवस्था जो कि बहुसंख्यक आबादी पर अल्पसंख्यक उत्पीड़कों, परजीवियों और शोषकों के शासन की व्यवस्था हो, वह जाति व्यवस्था को समाप्त नहीं कर सकती। वह उसमें अपने अनुरूप बदलाव कर उसे अपने में सहयोजित व समायोजित कर सकती है और भारत में वर्ग समाज के इतिहास में अब तक ऐसा ही होता आया है – अलग-अलग सामाजिक संरचनाओं व उत्पादन पद्धतियों के साथ जाति व्यवस्था का एक प्रकार का तन्तुबद्धीकरण (आर्टिकुलेशन), जिसमें जो चीज़ निरन्तर एक नियतांक के तौर पर मौजूद रही है वह है पदानुक्रम और शुद्धता/प्रदूषण की ब्राह्मणवादी विचारधारा जिसने अलग-अलग दौरों में अलग-अलग तरीकों से शोषण-उत्पीड़न और शोषक-उत्पीड़क वर्गों के शासन को वैधीकरण प्रदान किया है।

इसलिए यह समझना ज़रूरी है कि किसी भी शोषक व्यवस्था के दायरे के भीतर भारतीय उपमहाद्वीप में जाति व्यवस्था के उन्मूलन की उम्मीद करना अनैतिहासिक और अवैज्ञानिक है। यही कारण है कि आज जाति उन्मूलन की ऐतिहासिक परियोजना को भारतीय ब्राह्मणवादी, पितृसत्तात्मक पूँजीवाद-विरोधी नयी समाजवादी क्रान्ति की परियोजना का एक अनन्य अंग बनाना होगा। निश्चित तौर पर, एक वर्ग आधारित जाति-विरोधी आन्दोलन खड़ा किये बग़ैर न तो नयी समाजवादी क्रान्ति सम्भव है और न ही नयी समाजवादी क्रान्ति के बिना जाति व्यवस्था का अन्तिम तौर पर उन्मूलन। यहाँ तक कि नयी समाजवादी क्रान्ति के बाद मज़दूर राज्य को जाति और पितृसत्ता के उन्मूलन के लिए कई-कई सांस्कृतिक क्रान्तियों और समाजवादी शिक्षा आन्दोलनों को अंजाम देना होगा, पीढ़ी निर्माण के युगान्तरकारी काम को अंजाम देना होगा। केवल इसी रास्ते से हम जाति उन्मूलन की उम्मीद कर सकते हैं।

जिन्हें लगता है कि जाति व्यवस्था का रिश्ता मूलतः सामन्ती उत्पादन व्यवस्था से है वह कई स्तरों पर ग़लत सोचते हैं। अव्वलन तो वे जाति व्यवस्था के इतिहास से अपरिचित हैं और दूसरे वह मौजूदा भारत की सामाजिक संरचना और प्रमुख उत्पादन पद्धति की भी ग़लत पहचान करते हैं। नतीजतन, उनके पास जाति उन्मूलन की भी कोई मौलिक और वैज्ञानिक परियोजना नहीं है, सिवाय नवजनवादी क्रान्ति के सिद्धान्त काे ज़बरन आज के भारत पर थोपने के और जाति प्रश्न की विशिष्टता की समझ रखने के नाम पर अम्बेडरकवाद के समक्ष अवसरवादी आत्मसमर्पण करने के। ऐसे में, हमें लगता है कि उपरोक्त प्रश्नों और नुक्तों पर एक सही समझदारी की हमेशा से ही दरकार रही है, लेकिन रोहित वेमुला की संस्थानिक हत्या के बाद के घटनाक्रम ने इस समझदारी को विकसित करने के कार्यभार को पहले हमेशा से ज़्यादा अहम बना दिया है। हमने अपने विचार आन्दोलन में बहस के लिए प्रस्तुत किये हैं। हमारे विचार खुले सिरे से पेश किये गये हैं और हम इनके इस मसले पर अन्तिम शब्द होने का दावा नहीं करते। तर्कों और विज्ञान के आधार पर हम अपनी अवस्थिति के हर बिन्दु पर विमर्श और बहस के लिए तैयार हैं। निश्चित तौर पर, कहने की आवश्यकता नहीं कि तर्क और विज्ञान को कमान में रखकर ही बहस हो सकती है, भावना और जज़्बातों को कमान में रखकर नहीं। जो भी साथी इस रूप में बहस ओर विमर्श के लिए तैयार हैं, उन्हें हमारा हार्दिक न्यौता है।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,नवम्‍बर 2015-फरवरी 2016

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