एफ़.टी.आई.आई. के छात्रों का संघर्ष ज़िन्दाबाद
एफ़.टी.आई.आई. पर मौजूदा हमला कोई अलग-थलग अकेली घटना नहीं है। यह एक ट्रेण्ड का हिस्सा है। यह एक फ़ासीवादी राजनीतिक एजेण्डा का अहम हिस्सा है, ठीक उसी प्रकार जिस तरह से मज़दूरों और ग़रीब किसानों के हक़ों पर हमला और अम्बानियों-अदानियों के लिए देश को लूट की खुली चरागाह बना देना भी इस फासीवादी एजेण्डा का अहम अंग है। बेर्टोल्ट ब्रेष्ट ने 1937 में लिखा था, हमें तुरन्त या सीधे तौर पर इस बात का अहसास नहीं हुआ कि यूनियनों और कैथेड्रलों या संस्कृति की अन्य इमारतों पर हमला वास्तव में एक ही चीज़ था। लेकिन ठीक यही जगह थी जहाँ संस्कृति पर हमला किया जा रहा था।—अगर चीज़ें ऐसी ही हैं—अगर हिंसा की वही लहर हमसे हमारा मक्खन और हमारे सॉनेट्स दोनों ही छीन सकती है; और अगर, अन्ततः, संस्कृति वाकई एक इतनी भौतिक चीज़ है, तो इसकी हिफ़ाज़त के लिए क्या किया जाना चाहिए?” और अन्त में ब्रेष्ट स्वयं ही इसका जवाब देते हैं, “—वह संस्कृति महज़ केवल किसी स्पिरिट का उद्भव नहीं है बल्कि सबसे पहले यह एक भौतिक चीज़ है। और भौतिक हथियारों के साथ ही इसकी रक्षा हो सकती है।” एफ़.टी.आई.आई. पर यह हमला केवल एक शिक्षा संस्थान पर हमला नहीं है बल्कि यह हमला है कला के उस स्रोत पर जिसका इस्तेमाल ये फ़ासीवादी अपने फायदे के लिए करना चाहते हैं।