Category Archives: दमनतंत्र

एफ़.टी.आई.आई. के छात्रों का संघर्ष ज़िन्दाबाद

एफ़.टी.आई.आई. पर मौजूदा हमला कोई अलग-थलग अकेली घटना नहीं है। यह एक ट्रेण्ड का हिस्सा है। यह एक फ़ासीवादी राजनीतिक एजेण्डा का अहम हिस्सा है, ठीक उसी प्रकार जिस तरह से मज़दूरों और ग़रीब किसानों के हक़ों पर हमला और अम्बानियों-अदानियों के लिए देश को लूट की खुली चरागाह बना देना भी इस फासीवादी एजेण्डा का अहम अंग है। बेर्टोल्ट ब्रेष्ट ने 1937 में लिखा था, हमें तुरन्त या सीधे तौर पर इस बात का अहसास नहीं हुआ कि यूनियनों और कैथेड्रलों या संस्कृति की अन्य इमारतों पर हमला वास्तव में एक ही चीज़ था। लेकिन ठीक यही जगह थी जहाँ संस्कृति पर हमला किया जा रहा था।—अगर चीज़ें ऐसी ही हैं—अगर हिंसा की वही लहर हमसे हमारा मक्खन और हमारे सॉनेट्स दोनों ही छीन सकती है; और अगर, अन्ततः, संस्कृति वाकई एक इतनी भौतिक चीज़ है, तो इसकी हिफ़ाज़त के लिए क्या किया जाना चाहिए?” और अन्त में ब्रेष्ट स्वयं ही इसका जवाब देते हैं, “—वह संस्कृति महज़ केवल किसी स्पिरिट का उद्भव नहीं है बल्कि सबसे पहले यह एक भौतिक चीज़ है। और भौतिक हथियारों के साथ ही इसकी रक्षा हो सकती है।” एफ़.टी.आई.आई. पर यह हमला केवल एक शिक्षा संस्थान पर हमला नहीं है बल्कि यह हमला है कला के उस स्रोत पर जिसका इस्तेमाल ये फ़ासीवादी अपने फायदे के लिए करना चाहते हैं।

साम्प्रदायिक फासीवादी सत्ताधारियों के गन्दे चेहरे से उतरता नकाब़

दरअसल, पिछले दस साल से भाजपाई सत्ता को तरस गये थे; पूँजीपति वर्ग से गुहारें लगा रहे थे कि एक बार उनके हितों की सेवा करने वाली ‘मैनेजिंग कमेटी’ का काम कांग्रेस के हाथों से लेकर उसके हाथों में दे दिया जाय; वे अम्बानियों-अदानियों को लगातार याद दिला रहे थे कि गुजरात में, मध्य प्रदेश में और छत्तीसगढ़ में उन्होंने मज़दूरों-मेहनतकशों की आवाज़ को किस कदर दबा कर रखा है, उन्होंने किस तरह से कारपोरेट घरानों को मुफ़्त बिजली, पानी, ज़मीन, कर से छूट आदि देकर मालामाल बना दिया है! ये सारी दुहाइयाँ देकर भाजपाई लगातार देश की सत्ता को लपकने की फि़राक़ में थे! वहीं दूसरी ओर 2007 में शुरू हुई वैश्विक मन्दी के बाद पूँजीपति वर्ग को भी किसी ऐसी सरकार की ज़रूरत थी जो उसे लगातार छँटनी, तालाबन्दी के साथ-साथ और भी सस्ती दरों पर श्रम को लूटने की छूट दे और श्रम कानूनों से छुटकारा दिलाये। बिरले ही लागू होने वाले श्रम कानून भी मन्दी की मार से कराह रहे पूँजीपति वर्ग की आँखों में चुभ रहे हैं क्योंकि जहाँ कहीं कोई मज़बूत मज़दूर आन्दोलन संगठित होता है वहाँ कुछ हद तक वह श्रम कानूनों की कार्यान्वयन के लिए सत्ता को बाध्य भी करता है। इस ज़रूरत को पूरा करने के लिए देश के पूँजीपति वर्ग को भाजपा जैसी फासीवादी पार्टी को सत्ता में पहुँचाना अनिवार्य हो गया। यही कारण था कि 2014 के संसद चुनावों में मोदी के चुनाव प्रचार पर देश के पूँजीपतियों ने अभूतपूर्व रूप से पैसा ख़र्च किया, इस कदर ख़र्च किया कि कांग्रेस भी रो पड़ी कि मोदी को सारे कारपोरेट घरानों का समर्थन प्राप्त है और मोदी उन्हीं का आदमी है! यह दीगर बात है कि कांग्रेस की इस कराह का कारण यह था कि मन्दी के दौर में फासीवादी भाजपा पूँजीपति वर्ग के लिए उससे ज़्यादा प्रासंगिक हो गयी थी। मोदी ने सत्ता में आने के बाद देश-विदेश के कारपोरेट घरानों के जिस अश्लीलता से तलवे चाटे हैं, वह भी एक रिकॉर्ड है। श्रम कानूनों को बरबाद करने, ट्रेड यूनियन बनाने के अधिकार को एक प्रकार से रद्द करने, करों और शुल्कों से पूँजीपति वर्ग को छूट देने, विदेशों में भारतीय कारपोरेट घरानों के विस्तार के लिए मुफ़ीद स्थितियाँ तैयार करने से लेकर हर प्रकार के जनप्रतिरोध को मज़बूती से कुचलने में मोदी ने नये कीर्तिमान स्थापित किये हैं। लेकिन एक दिक्कत भी है

हम हार नहीं मानेंगे! हम लड़ना नहीं छोड़ेंगे!

शासक हमेशा ही यह मानने की ग़लती करते रहे हैं कि संघर्षरत स्त्रियों, मज़दूरों और छात्रों-युवाओं को बर्बरता का शिकार बनाकर वे विरोध की आवाज़ों को चुप करा देंगे। वे बार-बार ऐसी ग़लती करते हैं। यहां भी उन्होंने वही ग़लती दोहरायी है। 25 मार्च की पुलिस बर्बरता केजरीवाल सरकार द्वारा दिल्ली के मेहनतकश ग़रीबों को एक सन्देश देने की कोशिश थी और सन्देश यही था कि अगर दिल्ली के ग़रीबों के साथ केजरीवाल सरकार के विश्वासघात के विरुद्ध तुमने आवाज़ उठायी तो तुमसे ऐसे ही क्रूरता के साथ निपटा जायेगा। हमारे घाव अभी ताजा हैं, हममें से कई की टांगें सूजी हैं, उंगलियां टूटी हैं, सिर फटे हुए हैं और शरीर की हर हरकत में हमें दर्द महसूस होता है। लेकिन, इस अन्याय के विरुद्ध लड़ने और अरविंद केजरीवाल और उसकी ‘आप’ पार्टी की घृणित धोखाधड़ी का पर्दाफाश करने का हमारा संकल्प और भी मज़बूत हो गया है।

पंजाब में काले क़ानून के ख़िलाफ़ संयुक्त मोर्चा

पंजाब सरकार द्वारा पारित घोर फासीवादी काले क़ानून ‘पंजाब सार्वजनिक व निजी सम्पत्ति नुकसान रोकथाम क़ानून-2014’ को रद्द करवाने के लिए पंजाब के मज़दूरों, किसानों, सरकारी मुलाजमों, छात्रों, नौजवानों, स्त्रियों, जनवादी अधिकार कार्यकर्ताओं के संगठन संघर्ष की राह पर हैं। करीब 40 संगठनों का ‘काला क़ानून विरोधी संयुक्त मोर्चा, पंजाब’ गठित हुआ है।

ब्राज़ील में फ़ुटबाल वर्ल्ड कप का विरोध

यह वर्ल्ड कप फुटबॉल की धरती पर भले ही खेला गया हो पर यह ब्राज़ील की आम जनता के लिए नहीं था। यह महज़ फुटबॉल प्रेमी (अगर कोई न हो तब भी प्रचार उसे बना देगा) शरीर के भीतर उपभोक्ता आत्मा तक कुछ निश्चित विज्ञापनों द्वारा उपभोग का आह्वान था। ये खेल आज सिर्फ़ पूँजी की चुम्बक बन कर रह गये हैं। जिस तरह वर्ल्ड बैंक व आई.एम.एफ. जैसे संगठन वित्तीय पूँजी के निवेश के लिए रास्ता सुगम बनाते हैं और बड़ी-बड़ी इज़ारेदार कम्पनियों द्वारा (मुख्यतः उनके देश अमेरिका से) नियंत्रित होते हैं उसी प्रकार फ़ीफा जैसे संघ भी वित्तीय पूँजी और बड़ी-बड़ी इज़ारेदार कम्पनियों के निर्देशन पर ही चलते हैं।

‘पंजाब (सार्वजनिक व निजी जायदाद नुकसान रोकथाम) क़ानून- 2014’ जनसंघर्षों को कुचलने की नापाक कोशिश

यह क़ानून भारत के बेहद ख़तरनाक जनविरोधी काले क़ानूनों में से एक है। इस क़ानून में कहा गया है कि किसी व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह, संगठन, या कोई पार्टी द्वारा की गयी कार्रवाई जैसे “ऐजीटेशन, स्ट्राइक, हड़ताल, धरना, बन्द, प्रदर्शन, मार्च, जुलूस”, रेल या सड़क परिवहन रोकने आदि से अगर सरकारी या निजी जायदाद को कोई नुकसान, घाटा, या तबाही हुई हो तो उस कार्रवाई को नुकसान करने वाली कार्रवाई माना जायेगा। किसी संगठन, यूनियन या पार्टी के एक या अधिक पदाधिकारी जो इस नुकसान करने वाली कार्रवाई को उकसाने, साजिश करने, सलाह देने, या मार्गदर्शन, में शामिल होंगे उन्हें इस नुकसान करने वाली कार्रवाई का प्रबन्धक माना जायेगा। सरकार द्वारा तय किया गया अधिकारी अपने तय किए गये तरीक़े से देखेगा कि कितना नुकसान हुआ है। नुकसान की भरपाई दोषी माने गये व्यक्ति या व्यक्तियों द्वारा अगर नहीं की जाती तो उनकी ज़मीन जब्त की जायेगी।

उपन्यास ‘वन हण्ड्रेड इयर्स ऑफ़ सॉलिट्यूड’ का एक अंश – केला बागान मज़दूरों का क़त्लेआम / गाब्रियल गार्सिया मार्केस

केला बागान मज़दूरों का क़त्लेआम (गाब्रियल गार्सिया मार्केस के उपन्यास ‘वन हण्ड्रेड इयर्स ऑफ़ सॉलिट्यूड’ का एक अंश) नया औरेलियानो अभी एक वर्ष का था जब लोगों के बीच मौजूद तनाव बिना किसी पूर्वचेतावनी के फूट पड़ा। खोसे आर्केदियो सेगुन्दो और अन्य यूनियन नेता जो अभी तक भूमिगत थे, एक सप्ताहान्त को अचानक प्रकट हुए और पूरे केला क्षेत्र के कस्बों में उन्होंने प्रदर्शन आयोजित किये। पुलिस बस सार्वजनिक व्यवस्था बनाये रखती रही। लेकिन सोमवार की रात को यूनियन नेताओं को उनके घरों से उठा लिया गया और उनके पैरों में दो-दो पाउण्ड लोहे की बेड़ियाँ डालकर प्रान्त की राजधानी में जेल भेज दिया गया। पकड़े गये लोगों में खोसे आर्केदियो सेगुन्दो और लोरेंज़ो गाविलान भी थे। गाविलान मेक्सिको की क्रान्ति में कर्नल रहा था जिसे माकोन्दो में निर्वासित किया गया था। उसका कहना था कि वह अपने साथी आर्तेमियो क्रुज़ की बहादुरी का साक्षी रहा था। लेकिन उन्हें तीन महीने के भीतर छोड़ दिया गया क्योंकि सरकार और केला कम्पनी के बीच इस बात पर समझौता नहीं हो सका कि जेल में उन्हें खिलायेगा कौन। इस बार मज़दूरों का विरोध उनके रिहायशी इलाक़ों में साफ-सफाई की सुविधाओं की कमी, चिकित्सा सेवाओं के न होने और काम की भयंकर स्थितियों को लेकर था। इसके अलावा उनका कहना था कि उन्हें वास्तविक पैसों के रूप में नहीं बल्कि पर्चियों के रूप में भुगतान किया जाता है जिससे वे सिर्फ़ कम्पनी की दुकानों से वर्जीनिया हैम ख़रीद सकते थे।

भारतीय राज्यसत्ता का निरंकुश एवं जनविरोधी चरित्र पूँजीवादी संकट का लक्षण है

सवाल सिर्फ़ तरह-तरह के नये-पुराने काले कानूनों, फर्ज़ी मुठभेड़ों, पुलिस हिरासत में यातना से हुई मौतों, हड़तालों पर प्रतिबन्ध, उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं के बर्बर दमन और प्रतिवर्ष सैकड़ों की तादाद में व्यवस्था-विरोधी क्रान्तिकारियों की हत्याओं व गिरफ़्तारीयों का ही नहीं है बल्कि शिक्षा पद्धति, संस्कृति, न्याय व्यवस्था के फासिस्टीकरण व सर्वसत्तावादीकरण का भी है। मज़दूरों के लिए सत्तातन्त्र पहले भी कभी जनवादी नहीं था, लेकिन फासीवादियों के सत्ता में आने पर उनपर दमन और भी भयंकर हो जाता है। गुजरात में मोदी के ‘मॉडल’ का मज़दूरों के लिए क्या अर्थ है? यह मोदी ने खुद ही बता दिया था जब उसने कहा था कि गुजरात में हमें श्रम विभाग की कोई ज़रूरत नहीं है क्योंकि मालिक कभी कारखाने में ख़राब मशीने लगाता ही नहीं है; वह तो मज़दूरों के संरक्षक/पिता के समान होता है! हर मज़दूर जानता है कि यह “संरक्षण” और “पितृत्व” किस प्रकार का होता है! ज़ाहिर है, मोदी सत्ता में आयेगा तो वह पहली चोट मज़दूर आन्दोलन और क्रान्तिकारी व जनवादी ताक़तों पर ही करेगा। यही कारण है कि टाटा, बिड़ला, अम्बानी, जिन्दल, मित्तल जैसे लुटेरे मोदी की प्रशंसा करते अघा नहीं रहे हैं। देश में आज फासीवादी उभार की पूरी ज़मीन पूँजीवादी व्यवस्था के संकट के कारण तैयार हो रही है। यह सच है कि इस नग्न और बेशर्म फासीवाद के सत्ता में आये बग़ैर भी भारतीय राज्यसत्ता का चरित्र दमनकारी और जनविरोधी था और रहेगा। आवर्ती क्रम में आने वाला पूँजीवादी संकट आवर्ती क्रम में मोदी जैसे फासीवादियों की ज़रूरत भी पैदा करता रहता है। आज यही हो रहा है। निश्चित तौर पर, भारतीय राज्यसत्ता के पूरे दमनकारी चरित्र के ख़िलाफ़ संघर्ष तो ज़रूरी है ही लेकिन इस समय साम्प्रदायिक फासीवादी उभार से निपटने के लिए अलग से विशिष्ट रणनीति की ज़रूरत है और सभी जनपक्षधर क्रान्तिकारी ताक़तों को इस पर काम करना चाहिए।

“विकास” की बेलगाम ऊर्जा

प्रश्न नाभिकीय उर्जा के निरपेक्ष विरोध का नहीं है, ऊर्जा के विभिन्न रूपों का उपयोग उपलब्ध तकनीक, समय एवं विज्ञान के विकास के सापेक्ष ही हो सकता है। मौजूदा तकनीक एवं व्यवस्था में नाभिकीय उर्जा के सुरक्षित प्रयोग की सम्भावना नहीं है। इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि कभी ऐसी तकनीक ईजाद नहीं होगी। लेकिन पूँजीवादी व्यवस्था के तहत इसकी उम्मीद कम ही है, क्योंकि ऐसे उपक्रम में निवेश करने की बजाय कोई भी पूँजीपति मरघट पर लकड़ी बेचने का व्यवसाय करना पसन्द करेगा। जनता की सुरक्षा और बेहतर जिन्दगी के लिए उपयोगी तकनोलॉजी के शोध और विकास में कोई निवेश नहीं करने वाला है। नतीजतन, परमाणु ऊर्जा का सुरक्षित और बेहतर इस्तेमाल आज मुश्किल है। लेकिन एक मानव-केन्द्रित व्यवस्था और समाज में यह सम्भव हो सकता है।

…वे अपना मृत्युलेख लिखते हैं

ऐसे में कोई कविता
कविता नहीं होती
कहानी कहानी नहीं बन पाती
सब कुछ महज़ एक बयान होता है,
हथेलियों में धँसी
क्रोधोन्मत्त, भिची हुई उँगलियों का
कसाव होता है