Category Archives: दमनतंत्र

कार्टून, पाठ्यपुस्तकें और भयाक्रान्त भारतीय शासक वर्ग

ऐसे में इन देशों का शासक वर्ग डरा हुआ है। वह किसी भी किस्म के प्रतिरोध, विरोध और असहमति को कुचलने पर आमादा है। कहते हैं कि डरे हुए आदमी को रस्सी में भी साँप नज़र आती है। भारतीय शासक वर्ग की मानसिकता भी कमोबेश ऐसी ही है। मौजूदा पाठ्यपुस्तक व कार्टून विवाद और उसके बाद सरकारी पाठ्यपुस्तक समीक्षा समिति की यह सिफ़ारिश कि ऐसी सभी पुस्तकों, कार्टूनों आदि को प्रतिबन्धित कर दिया जाना चाहिए जिसमें राजनीतिक वर्ग, संविधान, सरकार, पुलिस-फ़ौज या नौकरशाही के प्रति कोई भी आलोचना या टिप्पणी हो, यही दिखला रही है कि भारतीय शासक वर्ग को हरेक आहट ख़तरे की आहट लग रही है।

सूचना प्रौद्योगिकी माध्यमों पर सरकार के सर्विलियंस का असली निशाना जनता है

इण्टरनेट जैसी तकनोलोजी का इस्तेमाल राज्य हर उस व्यक्ति पर नज़र रखने के लिए करता है जो व्यवस्था के विरुद्ध खड़ा है। हर राज्यसत्ता आज के दौर में खुद को हर प्रकार के जन विरोध के खिलाफ चाक-चौबन्द कर रही है, जनता पर नज़र रख रही है और उन लोगों को चिन्हित कर रही है जो राज्य के दमनतंत्र के खिलाफ़ आवाज़ उठा रहे हैं, जो कानून को ‘तोड़’ रहे हैं, चाहे वह कोई चोर हो, अल कायदा से हो, या मजदूर आन्दोलन से जुड़े हुए कार्यकर्ता हों। चाहे देशभर में मजदूरों का संघर्ष हो, नोएडा में किसानों का विरोध हो, हरियाणा के गोरखपुर गाँव के लोगों द्वारा संघर्ष हो, कश्मीर व उत्तर पूर्वी भारत में जन संघर्ष हो; जो कोई भी पूँजी की लूट के रास्ते में खड़ा है वह राज्य का शत्रु है और उसे राज्य तंत्र कुचलने की कोशिश करता है। इस इलेक्ट्रॉनिक निगरानी तंत्र को और चुस्त बनाने के लिए इसको कानूनी जामा पहनाते हुए भारत सरकार ने 2008 में इंफॉरमेशन तकनोलॉजी अधिनियम (2000) को संशोधित कर पारित किया। सोचने की बात यह है कि इस अधिनियम को बिना किसी सवाल या विरोध के संसद ने पारित किया। यह कानून सरकार को बिना किसी वारण्ट या कोर्ट आर्डर के किसी भी संचार को रिकॉर्ड करने तथा उसका उपयोग करने का अधिकार देता है। यह कानून केंद्रीय, राजकीय व आधिकारिक एजेंसी को किसी भी सूचना या जानकारी को अवरोधित (इण्टरसेप्ट), मॉनीटर व इन्क्रिप्ट (गोपनीय कोड में रूपान्तरित) करने का अधिकार देता है, ‘अगर यह कार्य राष्ट्र के हित में हो या किसी अपराध की जाँच में आवश्यक हो’। पिछले 64 साल का इतिहास स्पष्ट तौर पर बताता है कि राष्ट्र का हित वास्तव में हमेशा राज्य का हित होता है।

नोनाडांगा के विस्थापितों का आन्दोलन और ममता की ”ममता”

पिछले चन्द महीनों की घटनाओं ने पश्चिम बंगाल की जनता और बुद्धिजीवियों को एहसास करा दिया है कि ममता के ‘माँ-माटी-मानुष’ और माकपा के ‘बाज़ार समाजवाद’ में कोई फर्क नहीं है। चुनाव के बाद सिर्फ इतना बदलाव हुआ है कि शासन-प्रशासन में माकपा समर्थकों, गाँव-शहर के गली-मुहल्लों-बस्तियों में माकपा के गुण्डा गिरोह ‘हरमद वाहिनी’ का स्थान प्रशासनिक तंत्र में तृणमूल समथर्कों और गाँव-शहर के गली-मुहल्लों-बस्तियों में तृणमूल के गुण्डा-गिरोह ‘भैरव वाहिनी’ ने ले ली है। गुण्डों की नामपट्टिका बदल गई है, लेकिन गुण्डई कायम है। यही तृणमूल कांग्रेस की राजनीति है और यही उसका असली चरित्र है। नन्दीग्राम और सिंगूर के आन्दोलन में ममता की भूमिका से बंगाल की आम जनता ही नहीं, बहुत से बुद्धिजीवी और क्रान्तिकारी वाम धारा से जुड़े कुछ ग्रुप भी ख़ासे प्रभावित थे। यही लोग अब ममता के मुख्यमंत्री बनते ही उनके व्यवहार में नाटकीय बदलाव से हैरान हैं और इसे तृणमूल कांग्रेस द्वारा जनता से विश्वासघात बता रहे हैं। इसे उनका भोलापन न कहें तो क्या जाये? क्या ये लोग ममता बनर्जी का इतिहास नहीं जानते थे? क्या ये भूल गये थे कि सामाजिक बदलाव का सपना देखने वाले हज़ारों नौजवानों का ख़ून बहाकर नक्सलवादी आन्दोलन का बर्बर दमने करने वाले सिद्धार्थ शंकर रे के मुख्यमंत्रित्व के दौरान ममता बनर्जी उनकी ख़ास चेली थी। यह वही ममता हैं जिन्होंने पश्चिम बंगाल में जयप्रकाश नारायण के काफिले में अपनी गुण्डा वाहिनी को लेकर हुड़दंग मचाया था, जयप्रकाश नारायण की कार के बोनट पर चढ़ कर नारेबाज़ी की थी और उनकी कार के शीशे तोड़ दिये थे। जयप्रकाश नारायण के ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ की पोल तो समय ने खोल दी, लेकिन उनके नेतृत्व में जो आपातकाल-विरोधी आन्दोलन चल रहा था, पश्चिम बंगाल में उस पर ममता बनर्जी की अगुवाई में असामाजिक तत्वों ने जमकर हमला किया।

एक शर्मनाक फैसले की हकीकत

क्या आप संवेदनशील, न्यायप्रिय और इंसाफ़पसन्द हैं? क्या अन्याय के विरुद्ध विद्रोह को आप न्यायसंगत समझते हैं? क्या शोषण के खिलाफ होने वाली बग़ावत को आप सही मानते हैं? अगर इन सवालों का जवाब हाँ है तो सावधान! किसी भी क्षण आपको ‘‘गुण्डा’’ घोषित कर समाज के लिए ख़तरनाक बताया जा सकता है! अभी हाल में ऐसी ही एक शर्मनाक घटना गोरखपुर जिले में सामने आयी।

असली इंसाफ़ होना अभी बाकी है!

इस तथ्य को साबित करने के लिए किसी अन्य प्रमाण की ज़रूरत भी नहीं है कि गुजरात नरसंहार के करीब 10 साल बाद भी गुजरात के नीरो नरेन्द्र मोदी-समेत तमाम धर्म-ध्वजाधारियों और फासीवादियों पर कोई आँच तक नहीं आयी है। इस देश की न्यायिक व्यवस्था आज भी शेक्सपीयर के पात्र हैमलेट की भाँति ‘मोदी को चार्जशीट किया जा सकता है या नहीं’ की ऊहापोह में फँसी हुई है। ये तथ्य स्वयं ही पूँजीवादी न्याय व्यवस्था पर सवालिया निशान खड़ा करने के लिए पर्याप्त हैं। यह दीगर बात है कि अगर मोदी के खि़लाफ़ आरोप-पत्र दायर हो भी जाता है तो ये पूरी न्यायिक प्रक्रिया इतनी लम्बी, टेढ़ी-मेढ़ी और थकाऊ होगी कि इस पूरे मामले में ही ज़्यादा कुछ नहीं हो पायेगा। जब तक पूँजीवाद रहेगा, समाज में साम्प्रदायिकता और राजनीति में उसके उपयोग की ज़मीन भी बनी रहेगी। गुजरात जैसे नरसंहार होते रहेंगे, लोगों की जानें इसकी भेंट चढ़ती रहेंगी और मोदी जैसे लोग बेख़ौफ़ कानून को अँगूठा दिखाते हुए खुलेआम आज़ाद घूमते रहेंगे। इसलिए ऐसी व्यवस्था से सच्चे न्याय की उम्मीद करना ही बेमानी है।

कांग्रेसी ‘धर्मनिरपेक्षता’ की असली कहानी

पिछली 14 सितम्बर को राजस्थान-उत्तर प्रदेश सीमा पर स्थित भरतपुर जिले के गोपालगंज कस्बे में ज़मीन के विवाद को लेकर मेव मुस्लिम समुदाय और गुर्जर समुदाय के बीच साम्प्रदायिक हिंसा भड़क उठी, जिसमें दस लोग मारे गये और करीब दो दर्जन लोग घायल हो गये। मारे गये सभी दस लोग और घायलों में से भी ज़्यादातर मेव मुस्लिम समुदाय के हैं। कुछ मानवाधिकार संगठनों के अनुसार यह आँकड़ा और भी ज़्यादा हो सकता है, क्योंकि मुस्लिम समुदाय के कई लोग अभी भी लापता हैं। पी-यू-सी-एल-, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग, राजस्थान मुस्लिम फोरम और यहाँ तक कि कांग्रेस पार्टी द्वारा इलाका का दौरा करने भेजे गये जाँच दल के अनुसार इस हिंसा में हताहत हुए लोग दंगों का शिकार नहीं, बल्कि पुलिस की गोलियों का शिकार हुए हैं।

सलवा जुडूम के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय का फैसला

छत्तीसगढ की भाजपा शासित सरकार लगातार यह तर्क देती रही कि माओवादी विद्रोहियों को रोकने के लिए उसके पास एकमात्र विकल्प है कि वह दमन के सहारे शासन करे। दमन के लिए छत्तीसगढ़ सरकार ने अपने सुरक्षा बलों के अलावा आदिवासी आबादी के एक छोटे हिस्से को जो कि अशिक्षित, गरीब व पिछड़ा था पैसे व हथियार देकर उन्हीं के साथी आदिवासियों के खिलाफ खड़ा कर दिया। ये वहां के जंगली रास्तों व भाषा-बोली को भलीभांति जानते थे। इसका फायदा राज्य के सुरक्षा बलों ने भी उठाया।

यू आई डी योजना – जनता के नाम पर पूँजी और उसकी राज्यसत्ता का आधार मजबूत करने की चाल

यह एक चिंताजनक सवाल है कि नागरिकों की निजी गुप्तता पर हमला करने वाली जिन योजनाओं को अमेरिका और ब्रिटेन जैसे उन्नत देशों में अव्यवहारिक और जनविरोधी मानकर रद्द कर दिया गया वैसी ही योजना को भारत का शासक वर्ग बड़ी ही आसानी से लागू कर रहा है और इसका कोई कारगर विरोध भी अभी तक नहीं उभरा है। हालाँकि नागरिक आजादी और जनवादी अधिकार आंदोलन से जुड़े कुछ कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों ने इस मुद्दे पर अखबारों में और इण्टरनेट पर लिखा है लेकिन देश की व्यापक आम आबादी और यहाँ कि पढ़े लिखे मध्य वर्ग को भी इस योजना के भयावह निहितार्थ के बारे में कोई जानकारी नहीं है। ऐसे में नागरिक आजादी और जनवादी अधिकार आंदोलन से जुड़े लोगों और प्रबुद्ध नागरिकों का दायित्व है कि इस मुद्दे पर एकजुट होकर एक देशव्यापी मुहिम चलाकर देश की जनता को शासक वर्ग की इस धूर्ततापूर्ण चाल के बारे में आगाह करें जिससे कि एक कारगर प्रतिरोध खड़ा किया जा सके।

कश्मीर में सामूहिक कब्रों ने किया भारतीय राज्य को बेपर्द

1989 से 2009 के बीच करीब 10,000 लोग ग़ायब हुए जो कभी वापस नहीं लौटे। बुजुर्ग अपने जवान बेटे-बेटियों का इन्तज़ार कर रही हैं, औरतें अपने पतियों और बच्चे अपने पिताओं का। कश्मीर की जनता लगातार इस बर्बर जुल्म को झेल रही है और इसलिए उसे ऐसे किसी खुलासे की ज़रूरत नहीं थी यह जानने के लिए भारतीय सुरक्षा बल उसके साथ क्या करते रहे हैं। लेकिन भारत के अन्य हिस्सों में रहने वाले आम नागरिकों के लिए यह एक अहम खुलासा है, जो बचपन से कश्मीर को भारत माता के ताज के रूप में स्कूली किताबों में देखते आये हैं; जिन्हें बचपन से बताया जाता है कि अगर कश्मीर को सख़्ती से पकड़कर न रखा गया तो पाकिस्तान उसे हड़प लेगा; जिसे मीडिया बचपन से सनी देओल मार्का फिल्में दिखला-दिखला कर उसके दिमाग़ में ऐसे जुमले भर देता है: ‘दूध माँगोगे, खीर देंगे-कश्मीर माँगोगे, चीर देंगे’!

फ़ार्बिसगंज पुलिस दमन : बर्बरों के “सुशासन” का असली चेहरा

वास्तव में नीतीश का “सुशासन” फ़ासीवादियों के शासन का एक आदर्श उदाहरण है जहाँ ग़रीब किसानों और मज़दूरों और अल्पसंख्यकों के जीवन का इसके अलावा और कोई मायने नहीं होते हैं कि वे चुपचाप बड़े किसानों और पूँजीपतियों के निजी मुनाफ़े को बढ़ाने के लिए हाड़-तोड़ मेहनत करें और चुपचाप मर जायें, क्योंकि विरोध में अगर कहीं कोई आवाज़ उठी तो वही हश्र होगा जो फ़ार्बिसगंज में हुआ। साथ ही देश की मेनस्ट्रीम मीडिया द्वारा नीतीश के फ़ासीवादी शासन की लगातार बड़ाई और नीतीश को विकास के एक नये नायक के रूप में प्रोजेक्ट किया जाना अभूतपूर्व संरचनागत क्राइसिस के भँवर में फँसी वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था की एक निरंकुश फ़ासीवादी राजतन्‍त्र की आवश्यकता के प्रति बढ़ते झुकाव को ही रेखांकित करता है।