युद्ध, शरणार्थी एवं प्रवासन संकट पूँजीवाद की नेमतें हैं

आनन्द

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद हालाँकि कोई विश्वयुद्ध नहीं हुआ है, लेकिन फ़िर भी पिछले छह दशकों में कच्चे माल, सस्ते श्रम और बाज़ार की होड़ में साम्राज्यवादी लुटेरों ने दुनिया के अलग–अलग हिस्सों में तमाम क्षेत्रीय युद्धों को जन्म दिया तथा कई इलाकों में ग्रह युद्धों को भड़काया। इन क्षेत्रीय युद्धों एवं गृहयुद्धों में जानमाल की तबाही तो हुई ही, साथ ही साथ इन युद्धों ने बहुत बड़े पैमाने पर प्रभावित इलाकों से लोगों को अपने वतन को छोड़कर दूसरे वतन में शरण लेने के लिए मजबूर भी किया। पिछले कई वर्षों से मध्यपूर्व के क्षेत्र में साम्राज्यवादी दख़ल से क्षेत्रीय युद्धों एवं गृहयुद्धों की स्थिति बनी हुई है जिसकी वजह से लाखों लोग दूसरे मुल्कों में पलायन के लिए मजबूर हुए हैं। शरणार्थियों के मामले को देखने वाली संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूएनएचसीआर (यूनाइटेड नेशन्स हाई कमीश्नर फॉर रिफ्यूजीज़) के मुताबिक दुनिया भर में शरणार्थियों की संख्या आज 6 करोड़ का आँकड़ा पार कर चुकी है जो कि विश्वयुद्ध के बाद से सबसे अधिक है। ग़ौरतलब है कि इन शरणार्थियों में ज़्यादातर बच्चे हैं। सीरिया, इराक़, अफ़गानिस्तान, लीबिया, कांगो जैसे युद्ध प्रभावित क्षेत्रों से पलायन करके अधिकांश शरणार्थी पड़ोस के देशों में बस रहे हैं लेकिन उनमें से बहुत सारे भूमध्यसागर को पार करके यूरोप और यहाँ तक कि अटलाण्टिक पार उत्तरी अमेरिका भी में पनाह माँग रहे हैं। ऐसे शरणार्थियों के नारकीय जीवन की त्रासदियों और उनकी नावों के भूमध्यसागर में डूबने से मासूमों के मारे जाने की ख़बरें इस साल अन्तरराष्ट्रीय मीडिया की सुखि़र्यों में रहीं। सितम्बर के महीने में अलान कुर्दी नामक तीन वर्षीय शिशु की तुर्की के भूमध्यसागर के तट पर औंधे मुँह पड़ी लाश की हृदय विदारक तस्वीरें दुनिया भर में मुख्य धारा के मीडिया एवं सोशल मीडिया की सुर्खियों में छायीं रहीं। नन्हें अलान कुर्दी की वह तस्वीर शरणार्थी समस्या की प्रातिनिधिक तस्वीर बन गयी। अलान सीरिया में रहने वाले एक कुर्द परिवार की सन्तान था। यह परिवार सीरिया में जारी आईएसआईएस के आतंकवाद, साम्राज्यवादी हमले, एवं गृहयुद्ध की वजह से नाव से समुद्र के रास्ते से कनाडा में शरण लेने जा रहा था, नाव में क्षमता से अधिक लोग होने की वजह से वह डूब गयी।

जहाँ युद्ध के समय पूँजीवाद बड़ी आबादी को अपनी जगह–ज़मीन छोड़ने के लिए मज़बूर करता है वहीं दूसरी ओर शान्ति के समय वह आर्थिक कारणों से लोगों को रोज़गार और बेहतर जीवन की तलाश में पिछड़े इलाकों से विकसित इलाकों, एक मुल्क से दूसरे मुल्क और यहाँ तक कि एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीप तक प्रवास करने के लिए मज़बूर करता है। आज दुनिया की लगभग सवा तीन फ़ीसदी आबादी अपने मुल्क को छोड़कर दूसरे मुल्कों में काम करती है।

पूँजीवाद के इतिहास के आइने में प्रवासन

पूँजीवाद के इतिहास पर नज़र दौड़ाने से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रवासन और शरणार्थी समस्या कोई नयी समस्या नहीं है बल्कि यह उसके जन्मकाल से ही मौजूद रही है। अपने शुरुआती दौर में 16वीं सदी से 19वीं सदी के प्रारम्भ तक पूँजीवाद ने कुख़्यात दास व्यापार के तहत 3 करोड़ अफ्रीकी लोगों को अटलाण्टिक महासागर के पार कैरिबियन टापुओं की ओर जाने के लिए मजबूर किया था और इस प्रक्रिया में पूरा वेस्ट इण्डीज़ एक औपनिवेशिक श्रम शिविर में तब्दील हो गया था। इस दास व्यापार का सबसे ज़्यादा लाभ ब्रिटिश उपनिवेशवादियों को हुआ और ब्रिटेन की औद्योगिक क्रान्ति को सफल बनाने में इस दास व्यापार की बड़ी भूमिका रही। भाप के इंजन तथा रेल के अविष्कार ने लम्बी दूरी के प्रवासन को और अधिक व्यावहारिक व आसान बनाया। 1838 में दास व्यापार का तो उन्मूलन हुआ लेकिन उसके बाद भी “कुली व्यवस्था” के तहत एशिया के मुल्कों से बड़े पैमाने पर कैरिबियाई टापुओं के शक्कर बगानों, ब्राज़ील की खदानों एवं श्रीलंका के चाय और कॉफ़ी के बगानों में बँधुआ मज़दूरों को भेजने का सिलसिला जारी रहा। 1834 से 1937 के बीच लगभग 3 करोड़ बँधुआ मज़दूर अकेले भारत से गये थे जिनके वंशज गिरमिटिया के नाम से जाने जाते हैं।

18वीं सदी में ब्रिटेन में बाड़ेबन्दी आन्दोलन के तहत जब सामुदायिक खेतों की बाड़ेबन्दी की गयी तो उन खेतों में काम करने वाले खेतिहर मज़दूरों की बहुत बड़ी आबादी शहरों के औद्योगिक इलाकों की ओर पलायन करने को मज़बूर हुई थी। इसी तरह से 19वीं सदी के मध्य में आयरलैण्ड के कुख़्यात ‘आलू दुर्भिक्ष’ (पोटैटो फेमीन) के दौरान आलू की फ़सल तबाह होने की वजह से आये अकाल के दौर में दस लाख से भी ज़्यादा लोग ब्रिटेन और अमेरिका की ओर रुख करने को मज़बूर हुए और वहाँ के खदानों, कारखानों एवं रेलवे निर्माण के कामों में लगे। 19वीं सदी के दौरान पूरे यूरोप में बहुत बड़े पैमाने पर प्रवासन हुआ जिसकी वजह से उसे अप्रवासियों का महाद्वीप भी कहा जाने लगा। 1880 के दशक तक आते–आते लन्दन की आधी आबादी अप्रवासियों की हो चुकी थी।

1870 से 1914 के बीच 5 करोड़ लोगों ने यूरोप छोड़कर अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड, अर्जेण्टीना और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों की ओर कूच किया और इन देशों में पूँजीवादी विकास मुख्यतः आप्रवासियों के बूते ही हुआ।

प्रथम विश्वयुद्ध के बाद और विशेष रूप से 1929 की महामन्दी के बाद से यूरोप व अमेरिका में प्रवासन पर कड़े कानूनों के ज़रिये बन्दिशें लगायी जाने लगीं जिसके बाद से साम्राज्यवादी देशों में नियंत्रित रूप में आप्रवासन हो रहा है। आज भूमण्डलीकरण के युग में जहाँ एक ओर पूँजी की आवाजाही पर बन्दिशें हटाने की कवायदें की जा रही हैं तो दूसरी ओर श्रम की आवाजाही पर रोक–टोक बढ़ी है। अगर प्रतिशत में बात की जाये तो 19वीं सदी के मध्य से लेकर प्रथम विश्वयुद्ध के दौर में दुनिया की कुल आबादी में आप्रवासियों की संख्या 10 प्रतिशत थी जबकि आज यह संख्या घटकर सवा तीन प्रतिशत रह गई है।

दुनिया में प्रमुख शरणार्थी संकटों का इतिहास

जहाँ एक ओर साम्राज्यवादियों ने कानूनों के ज़रिये प्रवासन की समस्या पर नियंत्रण करने की कोशिश की वहीं दूसरी ओर उनके बीच अन्तर–साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा ने विनाशकारी युद्धों को जन्म दिया जिसकी वजह से द्वितीय विश्वयुद्ध और उसके बाद के तमाम क्षेत्रीय व गृहयुद्धों में बहुत बड़े पैमाने पर लोग अपना मुल्क छोड़ने पर मजबूर हुए। अकेले द्वितीय विश्वयुद्ध में 6 करोड़ लोग विस्थापित हुए थे। 1947 में भारत–पाकिस्तान विभाजन के बाद 1-4 करोड़ लोग विस्थापित हुए। 1948 से जारी इज़रायल–फ़ि‍लिस्तीन विवाद में अब तक 50 लाख से भी ज़्यादा लोग पश्चिम एशिया के विभिन्न देशों मसलन जॉर्डन, लेबनॉन और मिस्र में स्थित 60 शरणार्थी शिविरों में रहने को मज़बूर हैं। 1950–1953 के बीच चले कोरियाई युद्ध के दौरान 10 लाख से 50 लाख लोग उत्तरी व दक्षिण कोरिया से विस्थापित होने को मज़बूर हुए। 1955–75 के वियतनाम युद्ध में 30 लाख लोग विस्थापित हुए। 1991–95 के यूगोस्लाविया संकट के दौरान 27 लाख लोग विस्थापित हुए। 1991 में सोमालिया में सियाद बार की सत्ता के पतन के बाद से जारी ग्रहयुद्ध में अब तक 11 लाख लोग विस्थापित हो चुके हैं। रवाण्डा में 1994 में साम्राज्यवादी साज़ि‍श के फलस्वरूप हुतू समुदाय द्वारा रची गयी नरसंहारक मुहिम के बाद से अब तक 35 लाख लोग विस्थापित हो चुके हैं। 1996–98 के बीच डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो में ग्रह युद्धों में 5 लाख से भी ज़्यादा लोग विस्थापित हुए। 2013 में म्यांमार के रखाइन राज्य में हिंसा की वजह से लगभग 5 लाख रोहिंग्या लोग विस्थापित हुए और 2013 में दक्षिणी सूडान में दो साल तक चले ग्रह युद्ध में 15 लाख से भी ज़्यादा लोग शरणार्थी बनने को मज़बूर हुए।

मौजूदा हालात

दूनिया भर में और खासकर अरब जगत में जारी उथल–पुथल के कारण वर्ष 2014 में ही लगभग 1.4 करोड़ लोगों को मजबूरन विस्थापित होना पड़ा। इन विस्थापनों के लिए मुख्य रूप से उक्त क्षेत्रों में जारी गृहयुद्ध, अन्य प्रकार की हिंसा की घटनाएँ, इस्लाम के नाम पर पनपा आतंकवाद एवं सबसे प्रमख तौर पर साम्राज्यवादी शक्तियाँ ज़ि‍म्मेदार हैं जिन्होंने अरब जगत को महज़ तेल की चरागाह के तौर पर ही इस्तेमाल किया है। यहाँ पर हुए विस्थापन के कारण करीब एक करोड़ दस लाख लोग अपने–अपने देशों की सीमाओं के भीतर ही विस्थापित हुए जबकि 30 लाख लोगों को अपना वतन छोड़ना पड़ा। इस वर्ष तो यह संख्या और भी ज़्यादा बढ़ गयी होगी।

इतने बड़े पैमाने पर विस्थापन की वजह समझने के लिए हमें यह जानना होगा कि वे कौन से क्षेत्र हैं जहाँ से आज विस्थापन सबसे अधिक हो रहा है। आँकड़े इस बात की ताईद करते हैं कि हाल के वर्षों में जिन देशों में साम्राज्यवादी दख़ल बढ़ी है वो ही वे देश हैं जहाँ सबसे अधिक लोगों को विस्थापन का दंश झेलना पड़ रहा है, मसलन सीरिया, अफ़गानिस्तान, फ़िलिस्तीन, इराक व लीबिया। पिछले डेढ़ दशक में इन देशों में अमेरिका के नेतृत्व में साम्राज्यवादी दख़ल से पैदा हुई हिंसा और अराजकता ने इन इलाकों में रहने वाले लोगों के लिए अस्तित्व का संकट पैदा कर दिया है। इस हिंसा में भारी संख्या में जानमाल की तबाही हुई है और जो लोग बचे हैं वे भी सुरक्षित जीवन के लिए अपने रिहायशी इलाकों को छोड़ने पर मज़बूर कर दिये गये हैं। अमेरिका ने 2001 में अफ़गानिस्तान पर तथा 2003 में इराक़ पर हमला किया जिसकी वजह से इन दो देशों से लाखों लोग विस्थापित हुए जो आज भी पड़ोसी मुल्कों में शरणार्थी बनकर नारकीय जीवन बिताने को मज़बूर हैं। 2011 में मिस्र में होस्नी मुबारक की सत्ता के पतन के बाद सीरिया में स्वतःस्फूर्त तरीके से एक जनबग़ावत की शुरुआत हुई थी जिसका लाभ उठाकर अमेरिका ने सऊदी अरब की मदद से इस्लामिक स्टेट नामक सुन्नी इस्लामिक कट्टरपन्थी संगठन को वित्तीय एवं सैन्य प्रशिक्षण के ज़रिये मदद पहुँचाकर सीरिया के गृहयुद्ध को और भी ज़्यादा विनाशकारी बनाने में अपनी भूमिका निभायी जिसका नतीजा यह हुआ है कि 2011 के बाद से अकेले सीरिया से ही 1 करोड़ से भी अधिक लोग विस्थापित हो चुके हैं जिनमें से 40 लाख लोग तो वतन तक छोड़ चुके हैं।

प्रवासन और शरणार्थी संकट का राजनीतिक अर्थशास्त्र

अलान कुर्दी प्रकरण के बाद यूरोप और अमेरिका के तमाम पूँजीवादी देशों के शासकों ने भी शरणार्थियों की समस्या पर जमकर घड़यिाली आँसू बहाये। मानवतावाद का मुखौटा लगाये इन पूँजीवादी शासकों और उनके टुकड़ों पर पलने वाली मुख्यधारा की मीडिया ने घड़यिाली आँसुओं की बाढ़ में इस नंगी सच्चाई को डुबो दिया कि इस भयंकर त्रासदी के ज़िम्मेदार दरअसल वे स्वयं हैं। आप्रवासियों एवं शरणार्थियों के प्रश्न पर पूँजीवादी शासक वर्ग हमेशा दुविधा में रहता है। एक ओर तो आप्रवासी एवं शरणार्थियों की वजह से उनकी औद्योगिक रिजर्व आर्मी में इज़ाफ़ा होता है और श्रमशक्ति के मूल्य में गिरावट आती है जो उनके हित में होती है वहीं दूसरी ओर आप्रवासियों एवं शरणार्थियों की वजह से साम्राज्यवादी देशों के भीतर सामाजिक एवं सांस्कृतिक तनाव बढ़ जाता है और स्थानीय लोगों में यह भावना पनपने लगती है कि उनकी समस्याओं की वजह अप्रवासन है। इस वजह से आर्थिक रूप से लाभदायक होते हुए भी पूँजीपति वर्ग को अप्रवासन पर नियंत्रण करना पड़ता है।

पूँजीवादी देशों में शासक वर्गों के दक्षिणपन्थी एवं संशोधनवादी–वामपन्थी धड़ों के बीच शरणार्थियों की समस्या पर बहस कुल मिलाकर इस बात पर केन्द्रित होती है कि शरणार्थियों को देश के भीतर आने दिया जाये या नहीं। सापेक्षतः मानवतावादी चेहरे वाले शासक वर्ग के वामपन्थी धड़े से जुड़े लोग आमतौर पर शरणार्थियों के प्रति उदारतापूर्ण आचरण की वकालत करते हैं और यह दलील देते हैं कि शरणार्थियों की वजह से उनकी अर्थव्यवस्था को लाभ पहुँचता है। लेकिन शासकवर्ग के ऐसे वामपन्थी धड़े भी कभी यह सवाल नहीं उठाते कि आखिर शरणार्थी समस्या की जड़ क्या है? वे ऐसा इसलिए नहीं करते क्योंकि उन्हें अच्छी तरह से पता है कि यदि वे ऐसे बुनियादी सवाल उठाने लगेंगे तो पूँजीवादी व्यवस्था कठघरे में आ जायेगी और उसका मानवद्रोही चरित्र उजागर हो जायेगा। सच तो यह है कि साम्राज्यवाद के युग में कच्चे माल, सस्ते श्रम एवं बाजारों पर कब्ज़े के लिए विभिन्न साम्राज्यवादी मुल्कों के बीच होड़ अवश्यम्भावी रूप से युद्ध की विभीषिका को जन्म देती है। यही नहीं संकटग्रस्त पूँजीवाद; संकट से निजात पाने के लिए भी युद्ध का सहारा लेता है क्योंकि युद्धों में भारी पैमाने पर उत्पादक शक्तियों की तबाही पूँजीवाद के अतिउत्पादन के संकट के लिए संजीवनी का काम करती है। इसके अलावा हथियारों के विश्वस्तरीय व्यापार को क़ायम रखने के लिए भी यह ज़रूरी हो जाता है कि दुनिया के अलग–अलग हिस्सों में छोटे या बड़े पैमाने के युद्ध या तनाव की स्थिति बनी रहे। यही वो भौतिक परिस्थितियाँ हैं जो शरणार्थियों के संकट को पैदा करती हैं।

आप्रवासियों एवं शरणार्थियों को आर्थिक तौर पर भयंकर शोषण–उत्पीड़न–असुरक्षा–भेदभाव और अमानवीयता का तो सामना करना ही पड़ता है, वे जिन इलाकों में रहते हैं उनमें अन्य इलाकों की बजाय आम तौर पर नागरिक सुविधाएँ बेहद अपर्याप्त होती हैं। साथ ही एक बिल्कुल भिन्न सामाजिक एवं सांस्कृतिक माहौल में रहने की वजह से एवं स्थानीय आबादी से अलगाव की वजह से तमाम तरह की दिक्कतों का सामना उन्हें करना पड़ता है। विशेषकर आर्थिक संकट के दौर में अप्रवासियों के खि़लाफ़ नफ़रत बढ़ जाती है और यहाँ तक कि उनके खि़लाफ़ हिंसात्मक वारदातें भी बढ़ने लगती हैं। लेकिन ऐतिहासिक रूप से प्रवासन का एक सकारात्मक पहलू भी है। अप्रवासी/शरणार्थी आबादी में प्रवासन की वजह से संकीर्ण क्षेत्रीय मनोवृत्ति का आधार कमज़ोर होता है और अन्तरराष्ट्रीयता की भावना पनपती है। कहने की ज़रूरत नहीं कि पूँजीवाद–साम्राज्यवाद के खि़लाफ़ संघर्ष कर रहे लोगों को आप्रवासी/शरणार्थी आबादी के साथ दोस्ताना बर्ताव करना चाहिए और उनके हक़ों के लिए लड़ना चाहिए तथा एक शोषणविहीन समाज बनाने की लड़ाई में उनको शामिल करने का प्रयास करना चाहिए।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,नवम्‍बर 2015-फरवरी 2016

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