Category Archives: दमनतंत्र

टाटा की काली करतूतें और उसकी नैनो

क्या टाटा को या नैनो के स्पेयर पार्ट्स बनाने वाली सहयोगी कम्पनियों को, मैन्युफ़ैक्चरिंग के लिये कच्चा माल उनके द्वारा बनायी जा रही अन्य गाड़ियों की अपेक्षा सस्ता मिला होगा? नहीं ऐसा तो हो नहीं सकता क्योंकि कच्चे माल के उत्पादन पर टाटा जैसे लोगों का ही कब्जा है और वे अपने मुनाफ़े में कमी करने से रहे। क्या टाटा ने नैनो परियोजना में लगे प्रबन्धन अधिकारियों और इन्जीनियरों को कम वेतन दिया होगा? ऐसा तो कदापि हो ही नहीं सकता। उनको तो और अधिक ही दिया गया होगा। तो फ़िर टाटा गाड़ी की लागत कहाँ से पूरा करेगा? यह एक अहम सवाल है। और इसका जवाब एकदम साफ़ है। वह लागत पूरी करेगा और मुनाफ़ा भी कमायेगा; मज़दूरों, मेहनतकशों के खून को निचोड़कर। उसके लिये कम से कम कीमत पर खेती की जमीन खरीदेगा और किसानों पर विरोध करने पर गोलियाँ बरसायेगा। निर्माण कार्य में लगे मज़दूरों से कम से कम कीमत पर ज्यादा से ज्यादा घण्टे काम करवायेगा तब कहीं जाकर उसकी गाड़ी तैयार होगी। टाटा ये सब करेगा तभी जाकर इतनी कम कीमत पर वह गाड़ी बना पायेगा, वरना इसके अलावा कोई रास्ता नहीं।

दिल्ली मेट्रो रेल के कामगारों का अपनी कानूनी माँगों के लिए संघर्ष

हम सभी मेट्रो रेल को दिल्ली की शान समझते है। मीडिया से लेकर सरकार तक मेट्रो को दिल्ली की शान बताने का कोई मौका नहीं चूकते। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित से लेकर प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह तक मेट्रो के कसीदे पढ़ते हुए, इसके कार्यकुशल प्रंबधन को उदाहरण के रूप में पेश करते हैं, तो दूसरी तरफ़ जगमगाती, चमकदार, उन्नत तक्नोलॉजी से लैस मेट्रो को देखकर कोई भी दिल्लीवासी फ़ूला नहीं समाता। लेकिन बहुत कम ही लोग जानते हैं कि इस उन्नत, आरामदेह और विश्व-स्तरीय परिवहन सेवा के निर्माण से लेकर उसे चलाने और जगमगाहट को कायम रखने वाले मजदूरों के जीवन में कैसा अन्धकार व्याप्त है। चाहे वे जान–जोखिम में डालकर निर्माण कार्य में दिनों-रात खटने वाले मजदूर हो, या स्टेशनों पर काम करने वाले गार्ड या सफ़ाईकर्मी, किसी को भी उनका जायज़ हक़ और सुविधाएँ नहीं मिलती।

कहीं भी नहीं है लहू का सुराग़…

कहीं नहीं है, कहीं भी नहीं लहू का सुराग
नः दस्त-ओ–नाख़ून–ए–कातिल न आस्तीं पेः निशाँ
नः सुर्खी-ए–लब-ए–ख़ंजर , नः रंग-ए–नोक-ए–सनाँ
नः ख़ाक पर कोई धब्बा नः बाम पर कोई दाग़
कहीं नहीं है, कहीं भी नहीं लहू का सुराग़

नया आतंकवाद-विरोधी कानून – असली निशाना कौन?

इस कानून की चपेट में इस्लामी कट्टरपंथी आतंकवादी ताकतें कितनी आएँगी यह तो समय बताएगा लेकिन पहले के आतंकवाद-विरोधी कानूनों की चपेट में कौन आया है इसका इतिहास गवाह है। पोटा और टाडा जैसे कानूनों के निशाने पर सबसे अधिक जनपक्षधर ताक़तें, क्रान्तिकारी संगठन और अल्पसंख्यक समुदाय की ग़रीब जनता आयी। इस कानून के साथ भी ऐसा ही होगा यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है। अतीत का अनुभव बताता है कि यह व्यवस्था सामाजिक बदलाव की इच्छा रखने वाले लोगों की गतिविधियों पर आतंकवाद का लेबल चस्पाँ कर उनकी राह में बाधा पैदा कर जनता को संगठित करने के काम को रोकना चाहती है।

पैदा हुई पुलीस तो इबलीस ने कहा…

पुलिस द्वारा स्त्रियों के बढ़ते उत्पीड़न के मामले सिर्फ़ इसी तथ्य को रेखांकित करते हैं कि समाज में शोषित-उत्पीड़ित और दमित स्त्री एक आसान निशाना या शिकार होती है। पुलिस बल ने कई मौकों पर साबित किया है कि वह देश की सबसे संगठित गुण्डा बल ही है जो व्यवस्था का रक्षक है। जनता का नहीं। जनता के कमज़ोर तबकों को दबाना तो पुलिस अपना कर्तव्य और धर्म समझती है।

गुण्डे चढ़ गये हाथी पर–मूँग दल रहे छाती पर!

आम घरों से आने वाले दलित नौजवानों को यह समझ लेना चाहिए कि बसपा और मायावती की माया बस एक धोखे की टट्टी है। यह भी उतनी ही वफ़ादारी से प्रदेश के दबंग शासक वर्गों, गुण्डों और ठेकेदारों की सेवा करती है। इस बात को आम जनता अब धीरे-धीरे समझने भी लगी है। मनोज गुप्ता की हत्या के बाद जिस कदर जनता प्रदेश में और ख़ास तौर पर औरैया में सड़कों पर उतरी उसे देखकर साफ़ अन्दाज़ा लगाया जा सकता था कि यह सिर्फ़ एक इंजीनियर की आपराधिक हत्या के जवाब में पैदा हुआ गुस्सा नहीं था। यह पूरी शासन–व्यवस्था और बसपा सरकार की नंगी गुण्डई, भ्रष्टाचार और तानाशाही के ख़िलाफ़ सड़कों पर उतरने वाले लोग थे जो मौजूदा व्यवस्था से तंग आ चुके हैं और किसी परिवर्तन की बेचैनी से तलाश कर रहे हैं।

मुम्बई पर आतंकवादी हमलाः सोचने के लिए कुछ ज़रूरी मुद्दे

कोई भी संवेदनशील और न्यायप्रिय नागरिक और नौजवान पूरे दिल से इन हमलों की निन्दा करेगा और इन्हें एक जघन्य अपराध मानेगा। हर कोई जानता है कि इन हमलों में तमाम आम, बेगुनाह लोगों की जानें गई हैं। उनके परिजनों-मित्रों के दर्द को हर कोई महसूस कर सकता है। इसमें कोई शक़ नहीं है कि ऐसे मानवताविरोधी कृत्यों की निन्दा सिर्फ़ औपचारिक रूप से दुख प्रकट करके नहीं की जा सकती और एक सोचने-समझने वाला इंसान अपने आपको ऐसे औपचारिक खेद-प्रकटीकरण तक सीमित नहीं रख सकता है। लेकिन हर विवेकवान नौजवान के लिए इस समय यह भी ज़रूरी है कि अंधराष्ट्रवादी उन्माद की लहर में बहने की बजाय वह संजीदगी के साथ आतंकवाद के मूल कारणों के बारे में सोचे? जिन आतंकवादियों ने मुम्बई में इस भयंकर हमले को अंजाम दिया वे जानते थे कि इसके बाद उनका बच पाना सम्भव नहीं है। इसके बावजूद वह कौन–सा जुनून और उन्माद था जो उनके सिर पर सवार था?

कैम्पस के अन्दर भावी पुलिसकर्मियों का ताण्डव

दिल्ली पुलिस में भर्ती के लिए आये लड़कों में से एक भारी मात्रा दिल्ली के आस-पास के ग्रामीण क्षेत्रों में से आती हैं। इन इलाकों से धनी किसानों के लड़के पुलिस में भर्ती होने के लिए आते हैं। इनमें से अधिकांश लड़के खाते-पीते घरों की बिगड़ी हुई औलादें होती है जिन्हें पैसे का नशा होता है। वे समाज को अपनी जागीर समझते हैं और बेहद स्त्री विरोधी होते हैं। उनके लिए स्त्रियाँ भोग की वस्तु से अधिक और कुछ भी नहीं होतीं। जनवादी चेतना से इनका दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं होता। ऐसे में समाज में अपनी लम्पटई को खुले तौर पर करने के लिए अगर कोई बेहतरीन लाईसेंस हो सकता है, तो वह पुलिस की नौकरी ही हो सकती है। इसके अतिरिक्त नवधनाढ्यों के ये लड़के पैसे की संस्कृति के बुरी तरह गुलाम होते हैं। पैसा बनाने का भी तेज़ जरिया इन्हें पुलिस की नौकरी में मिलता है। यही कारण है कि हर वर्ष दिल्ली पुलिस में शामिल होने के लिए आने वाले इन नवधनपतियों की बिगड़ी औलादों की संख्या में तेज़ी से बढ़ोत्तरी हो रही है। दिल्ली में पुलिस में शामिल होने के लिए लिखित परीक्षा की तैयारी करवाने वाले कोचिंग सेण्टरों की भरमार हो गयी है।

आतंकवाद के बारे में: विभ्रम और यथार्थ

आतंकवाद अपने क्रान्तिकारी और प्रतिक्रियावादी दोनों ही रूपों में, मुख्यतः – साम्राज्यवाद और पूँजीवाद की दमनकारी राज्यसत्ताओं की, राजकीय आतंकवाद की प्रतिक्रिया है। आतंकवाद पुनरुत्थान, विपर्यय और प्रतिक्रान्ति के अँधेरे में दिशाहीन विद्रोह और निराशा के माहौल की एक अभिव्यक्ति है। आतंकवाद जनक्रान्ति की नेतृत्वकारी मनोगत शक्तियों की अनुपस्थिति या कमज़ोरी या विफलता की भी एक अभिव्यक्ति और परिणति है। यह कल्पनावादी, रोमानी, विद्रोही मध्यवर्ग की अपने बूते आनन–फ़ानन में क्रान्ति कर लेने की उद्विग्नता और मेहनतकश जनसमुदाय की संगठित शक्ति एवं सृजनशीलता में उसकी अनास्था की अभिव्यक्ति और परिणाम है। आतंकवादी भटकाव को भलीभाँति समझना और उसके विरुद्ध अनथक विचारधारात्मक संघर्ष चलाना नये सिरे से जनक्रान्ति की तैयारी के इस दौर का एक अनिवार्यतः आवश्यक कार्यभार है।

कैम्पसों में बढ़ती पुलिस मौजूदगी – आख़िर किस बात का डर है उन्हें?

कुल मिलाकर इस सारी कवायद का मक़सद यही है कि छात्रों को और कैम्पसों को मरघट की शान्ति से भर दिया जाय। कहीं कोई आवाज़ न उठाये; कहीं लोग एक-दूसरे से मिलें नहीं और आपसी संवाद और सम्बन्ध न कायम करें; कोई हक़ की बात न करे; सब शान्त रहें! यही चाहत है इस व्यवस्था और प्रशासन की। लेकिन पुलिस का डण्डा छात्रों को डराकर उनकी नौजवानी को कुचल नहीं सकता। छात्रों-युवाओं में एक सहज न्यायबोध होता है। उसे ऐसे किसी भोंडे प्रयास से कुचला नहीं जा सकता। साथ ही, छात्रों के राजनीतिकरण को भी रोकना इस व्यवस्था के बूते की बात नहीं। अंततः कैम्पस के भीतर या कैम्पस के बाहर नौजवानों को अपनी ज़िन्दगी की जद्दोजहद से यह समझ लेना है कि संगठित हुए बग़ैर उन्हें कुछ हासिल नहीं होगा। कैम्पसों को छावनियों में तब्दील करने की तमाम कोशिशों के बावजूद छात्र अपनी यह फ़ितरत नहीं भूल सकते-अन्याय के विरुद्ध विद्रोह न्यायसंगत है!