एफ़.टी.आई.आई. के छात्रों का संघर्ष ज़िन्दाबाद
सिमरन
पुणे के फिल्म टेलीविजन इंस्टिटड्ढूट ऑफ इण्डिया के छात्र 12 जून 2015 से मोदी सरकार के सूचना एवं प्रसार मंत्रालय द्वारा सॉफ्ट पोर्न अभिनेता और बी.आर चोपड़ा द्वारा निर्देशित महाभारत में युधिष्ठिर का पात्र निभाने वाले अभिनेता गजेन्द्र चौहान के एफ़.टी.आई.आई. के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किये जाने के विरोध में हड़ताल पर बैठे हैं। फिल्म एण्ड टेलीविजन इंस्टिट्यूट के छात्र आजकल क्लास में न जाकर कैंपस की सड़कों पर अपने इंस्टिट्यूट के नए अध्यक्ष की नियुक्ति के खि़लाफ़ एक अलग और अनूठे ढंग से विरोध कर रहे हैं, लेख लिख्े जाने तक 67 दिनों से हड़ताल पर बैठे छात्र हर दिन एक नए कलात्मक माध्यम से अपना विरोध दर्ज करा रहे हैं। कभी नुक्कड़ नाटक का आयोजन कर, कभी क्रान्तिकारी गीतों की प्रस्तिुत कर, कभी कविता पाठ का आयोजन कर, कभी पोस्टर प्रदर्शनियाँ लगा कर, तो कभी सिनेमा के इतिहास के मील का पत्थर साबित हुई देश और दुनिया की बेहतरीन फिल्मों की स्क्रीनिंग आयोजित कर एफ़.टी.आई.आई. के छात्र आम जनता को अपने संघर्ष से जोड़ रहे हैं। कला के हर माध्यम का इस्तेमाल करते हुए छात्र अपने आक्रोश और विरोध को सरकार के सामने रख रहे हैं। गजेंद्र चौहान की फिल्मों और महाभारत में निभाए किरदार पर व्यंग्यात्मक वीडियो बना कर उन्हें सोशल मीडिया पर डाल रहे हैं और भगवाकरण के खि़लाफ़ आवाज़ बुलंद करने के लिए नये-नये रास्ते खोज रहे हैं। एफ़.टी.आई.आई. की दीवारों को छात्रों ने एक बड़े कैनवास में तब्दील कर दिया है जिनपर अल्बेयर कामू से लेकर फैज़ के शब्दों को ज़िन्दा रखा जा रहा है। घटक के रेखाचित्रों से दीवारें सजी हुई है। गजेन्द्र चौहान के अध्यक्ष के पद पर नियुक्ति के रूप में मोदी सरकार द्वारा एफ़.टी.आई.आई. जैसे प्रतिष्ठित संस्थान के भगवाकरण की कोशिश के खि़लाफ़ छात्रों ने अपना कड़ा विरोध जताया है। 10 जून को गजेन्द्र चौहान की नियुक्ति. की घोषणा के बाद से ही छात्रों के बीच एफ़.टी.आई.आई. में अभिव्यक्ति की आज़ादी और कलात्मक आज़ादी को बचाने के लिए उठाये जाने वालें कदमों के बारे में बातचीत शुरू हो गयी थी और सभी छात्रों ने 12 जून से हड़ताल पर जाने का फैसला लिया।
गजेन्द्र चौहान के बारे में एक कलाकार के रूप में बात करने लायक कुछ खास नहीं है। नब्बे के दशक में बी.आर चोपड़ा द्वारा निर्देशित टी.वी. सीरियल महाभारत में इन्होनें युधिष्ठिर का पात्र निभाया था। इसके अलावा इन्होनें कई छोटी-मोटी फिल्मों और टी.वी. सीरियलों में काम किया। साथ ही अपने समय में श्रीमान चौहान ने ‘खुली खिड़की’, ‘आज का रावण’, ‘जवानी जानेमन’, ‘जंगल का बेटा’, ‘वासना’, ‘आवारा ज़िन्दगी’ आदि सॉफ्ट पोर्न फिल्मों में काम किया है और टी.वी. पर रुद्राक्षों से लेकर सुरक्षा कवच लॉकेट बेचे हैं। चौहन साहब आसाराम के समारोह में नाचते हुए भी देखे गए हैं। गजेन्द्र चौहान 2004 में भाजपा के सदस्य बने और पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा के लिए इन्होंने हरियाणा में खूब प्रचार किया। गजेन्द्र चौहान मोदी को श्री कृष्ण और राम का अवतार मानते हैं जिन्हें धरती पर बढ़ रहे अधर्म को रोकने के लिए भेजा गया है! गजेन्द्र चौहान की प्रतिभा के बारे में काफ़ी शोध करने के बाद भी बस यही तथ्य सामने आता है कि एक कलाकार के रूप में उन्होंने सॉफ्ट पोर्न और महाभारत को छोड़ कर कला के क्षेत्र में कोई योगदान नहीं किया है।
ऐसे में भारत के सबसे प्रतिष्ठित फिल्म और टेलीविजन संस्थान के सबसे अहम पद पर श्रीमान चौहान की नियुक्ति. बेहद गंभीर सवालों को जन्म देती है। सबसे पहला और अहम सवाल तो यही उठता है कि क्यों यह भगवा ब्रिगेड इस तीव्र गति से शिक्षा और कला के केन्द्रों को अपने भगवाकरण के एजेंडा का निशाना बना रही है? गजेन्द्र चौहान से पहले पहलाज निहलानी को सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन का अध्यक्ष बनाया गया। निहलानी जी ने बॉलीवुड में सी ग्रेड फिल्मों का निर्देशन किया है और उनका एक मात्र टिकट टू फेम है नरेंद्र मोदी के चुनाव प्रचार के लिए बनाई गयी ‘हर घर मोदी’ वीडियो। इसके अतिरिक्त निहलानी के पास कोई विशेषता नहीं है जिसके चलते उनकी नियुक्ति को जायज समझा जाए। महाभारत में भीष्म का किरदार निभाने वाले और चुनाव में मोदी के लिए प्रचार करने वाले मुकेश खन्ना को चिल्ड्रन फिल्म सोसाइटी ऑफ इण्डिया का अध्यक्ष बना दिया गया! खन्ना जी भी आसाराम के भक्त है और संघ के करीबी भी! शिक्षा के क्षेत्र में भी पिछले साल सुदर्शन राव जो कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के इतिहास विंग अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना के अध्यक्ष रह चुके थे की नियुक्ति इंडियन कौंसिल ऑफ हिस्टोरिकल रिसर्च के अध्यक्ष के पद पर की गयी। राव साहब जाति प्रथा के हिमायती हैं और वे रामायण और महाभारत को मिथ्या या साहित्यिक रचना न मानकर इतिहास का हिस्सा मानते हैं। इन सभी लोगों की नियुक्ति ऐसे पदों पर की गयी है जो कला और शिक्षा के क्षेत्र में बहुत महत्वपूर्ण है।
बात साफ है कि मोदी सरकार के लिए काबिलियत या कलात्मक प्रतिभा से ज़्यादा यह मायने रखता है कि कौन उनके राजनीतिक मंसूबों को अमली जामा पहनाने में सहायक साबित हो सकता है। नुक्कड़ नाटक से लेकर क्रान्तिकारी गीतों, दीवारों पर लिखे नारों से लेकर पोस्टरों तक, भाषणों और बहसों के ज़रिये एफ़.टी.आई.आई. के छात्र भगवाकरण की इस मुहिम के ख़िलाफ़ लड़ रहे है। ‘घटक, रे, अब्राहिम! वी शैल फाइट! वी शैल विन!’ के नारों से एफ़.टी.आई.आई. गूँज उठा है। एफ़.टी.आई.आई. के छात्रों का कहना है कि जिस संस्थान से ऋत्विक घटक और जॉन अब्राहिम (मलयाली जन पक्षधर फिल्में बनने वाले निर्देशक व लेखक, जिन्होंने ‘ओडेसा कलेक्टिव’ नाम से पीपुल्स सिनेमा मूवमेंट की शुरुआत की थी) जैसे कलाकार निकले हो उसके अध्यक्ष के रूप में एक सॉफ्ट पोर्न अभिनेता उनको स्वीकार्य नहीं है।
चौहान के साथ साथ एफ़.टी.आई.आई. के पुर्नगठित पैनल में 4 चुने गए लोग संघ के प्रचारक हैं। इनमें से एक नरेंदर पाठक पुणे के एबीवीपी यानी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के सदस्य रह चुके हैं और इनके खि़लाफ़ 2013 में नेशनल फिल्म अर्काइव इण्डिया में आनंद पटवर्धन की फिल्म के स्क्रीनिंग के समय एफ़.टी.आई.आई. के छात्रों के साथ मारपीट करने का आरोप है। एबीवीपी ने फिल्म की स्क्रीनिंग के बाद कबीर कला मंच द्वारा कार्यक्रम प्रस्तुत करने के ख़िलाफ़ नारेबाजी की और छात्रों के साथ बदसलूकी की, अभी भी कोर्ट में इस सिलसिले के चलते पाठक पर केस चल रहा है। ऐसे में उसी आदमी का प्रशासन में जा बैठना बेहद गंभीर मसला है। केवल भाजपा और संघ का करीबी होने के कारण कोई व्यक्ति कला के ऐसे संस्थानों को चलाने के काबिल नहीं बन जाता।
अम्बेडकर पेरियार स्टडी सर्किल पर लगाया प्रतिबन्ध, इंडियन नेशनल साइंस कांग्रेस, आईसीएचआर और अब पॉण्डीचेरी विश्वविद्यालय के वी.सी के पद पर चंद्रा कृष्णामूर्ति की नियुक्ति इन सभी उदाहरणों से एक ही सवाल उठता है कि इन हाफ-पैण्टियों की पल्टन को कला और इतिहास से इतना डर क्यों लगता हैं? जवाब साफ है यह हाफ-पैण्टियें अच्छी तरह से जानते हैं कि इतिहास इनका शत्रु है क्योंकि इतिहास इन हाफ-पैण्टियों की पूरी जन्मकुण्डली खोल कर रख देता है, और सच्ची कला भी उनकी शत्रु है क्योंकि सच्ची कला मानवीय सारतत्व की नुमाइन्दगी करती है, यानी हर वह उत्कृष्ट चीज़ जो इंसान ने पैदा की है। यही कारण है कि दुनिया के हर देश में फ़ासीवादी कलाकारों पर हमले करते हैं, कलात्मक संस्थानों पर कब्ज़ा जमाते हैं, संगीतकारों की हत्याएँ करते हैं, फिल्मकारों को कारागार में धकेल देते हैं। जब मुसोलिनी ने फेदेरिको गर्सिया लोर्का को गाते हुए सुना तो उसने कहा था कि इस आवाज़ को जितनी जल्दी हो सके शान्त कर देना होगा। कला और साहित्य का क्षेत्र एक ऐसा क्षेत्र है जो कलात्मक आज़ादी और अभिव्यक्ति की आज़ादी की माँग करता है ताकि समाज में घट रही परिघटनाओं का आलोचनात्मक प्रतिबिम्बन और चिन्तन किया जा सके। लेकिन मोदी सरकार को किसी भी प्रकार की आलोचना से सख़्त परहेज़ है इसलिए एक-एक कर वह उच्च शिक्षा से लेकर कला और साहित्य के केन्द्रों का भगवाकरण करने में जुट गयी है ताकि जनवादी स्पेस को ख़त्म कर आज़ाद सोच के लिए जगह ही छोड़ी जाय। मगर फ़ासीवादियों ने जब भी कला और साहित्य को बेड़ियों में जकड़ने का प्रयास किया है तब तब उन्होंने मुँह की खाई है। जर्मन चिन्तक वॉल्टर बेंजामिन ने एक बार कहा था कि फ़ासीवाद राजनीति का सौन्दर्यीकरण करता है और क्रान्तिकारी सौन्दर्यशास्त्र का राजनीतिकरण करके जवाब देता है। फ़ासीवाद के लिए यह अनिवार्य होता है कि वह कला, फिल्म, संगीत आदि क्षेत्रों पर कब्ज़ा करे क्योंकि ये क्षेत्र राजनीति के सौन्दर्यीकरण, मिथकों की रचना और फिर इन मिथकों को सामान्य-बोध के रूप में स्थापित करने के प्रमुख उपकरण बनते हैं।
एफ़.टी.आई.आई. पर मौजूदा हमला कोई अलग-थलग अकेली घटना नहीं है। यह एक ट्रेण्ड का हिस्सा है। यह एक फ़ासीवादी राजनीतिक एजेण्डा का अहम हिस्सा है, ठीक उसी प्रकार जिस तरह से मज़दूरों और ग़रीब किसानों के हक़ों पर हमला और अम्बानियों-अदानियों के लिए देश को लूट की खुली चरागाह बना देना भी इस फासीवादी एजेण्डा का अहम अंग है। बेर्टोल्ट ब्रेष्ट ने 1937 में लिखा था, हमें तुरन्त या सीधे तौर पर इस बात का अहसास नहीं हुआ कि यूनियनों और कैथेड्रलों या संस्कृति की अन्य इमारतों पर हमला वास्तव में एक ही चीज़ था। लेकिन ठीक यही जगह थी जहाँ संस्कृति पर हमला किया जा रहा था।—अगर चीज़ें ऐसी ही हैं—अगर हिंसा की वही लहर हमसे हमारा मक्खन और हमारे सॉनेट्स दोनों ही छीन सकती है; और अगर, अन्ततः, संस्कृति वाकई एक इतनी भौतिक चीज़ है, तो इसकी हिफ़ाज़त के लिए क्या किया जाना चाहिए?” और अन्त में ब्रेष्ट स्वयं ही इसका जवाब देते हैं, “—वह संस्कृति महज़ केवल किसी स्पिरिट का उद्भव नहीं है बल्कि सबसे पहले यह एक भौतिक चीज़ है। और भौतिक हथियारों के साथ ही इसकी रक्षा हो सकती है।” एफ़.टी.आई.आई. पर यह हमला केवल एक शिक्षा संस्थान पर हमला नहीं है बल्कि यह हमला है कला के उस स्रोत पर जिसका इस्तेमाल ये फ़ासीवादी अपने फायदे के लिए करना चाहते हैं।
आज इस संघर्ष को जीतने के लिए ज़रूरत है आम मेहनतकश आबादी तक उस कला को वापिस लेकर जाने की जिससे उसे काट कर अलग रखा गया है। जब तक आम मेहनतकश आबादी को इस लड़ाई से नहीं जोड़ा जाता तब तक यह लड़ाई अधूरी रहेगी। एफ़.टी.आई.आई. के छात्रों की यह हड़ताल इसी बात का सबूत है कि जनता अपनी अभिव्यक्ति की आज़ादी को इतनी आसानी से खोने नहीं देगी। मोदी सरकार के इस कदम के ख़िलाफ़ देशभर के तमाम स्वतन्त्र कलाकारों और निर्देशकों जिनमें अदूर गोपालकृष्णन, आनन्द पटवर्धन, गिरीश कसवरल्ली आदि ने अपना विरोध जताया है। इनके अतिरिक्त सत्यजीत रे फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूट के छात्रों ने भी एफ़.टी.आई.आई. के छात्रों की हड़ताल का समर्थन किया है। एफ़.टी.आई.आई. के छात्रों ने पुणे, मुम्बई और दिल्ली में विरोध रैलियाँ निकाल कर आम जनता को भी अपने संघर्ष से जोड़ा । 3 जुलाई को एफ़.टी.आई.आई. के छात्रों के एक प्रतिनिधि मंडल ने दिल्ली में सूचना एवं प्रसार विभाग के अधिकारियों के साथ बैठक कर उन्हें अपनी माँगों का ज्ञापन सौपा। देश के कई नामी-गिरामी कलाकारों, अभिनेताओं ने भी इस नियुक्ति. की और अभिव्यित्तफ़ की आज़ादी पर मंडरा रहे फ़ासीवादी खतरे की निंदा की है। एफ़.टी.आई.आई. के छात्रों ने 3 अगस्त को दिल्ली में एक विशाल रैली निकाल कर केंद्र सरकार को एक बार फिर अपने इस फैसले को वापिस लेने और उनकी माँगों की सुनवाई करने को कहा। इस रैली में देश भर के विभिन्न शिक्षा एवं कला संस्थानों के छात्रों, कलाकारों ने हिस्सा लिया। मगर भाजपा की फ़ासीवादी सरकार सत्ता के नशे में इस कदर चूर है कि छात्रों की माँगों को सुनना तो दूर वह उल्टा छात्रों को नक्सली, देशद्रोही, हिन्दू-विरोधी होने की उपाधियों से नवाज़ रही है। फिल्म एक ऐसा माध्यम है जिसकी पहुँच एक बड़ी आबादी तक है। परन्तु आज की इस व्यवस्था में जन पक्षधर फिल्में बनाना एक बेहद मिुश्कल काम है क्योंकि मुनाफ़े की इस व्यवस्था में फिल्में एक माल है जिनके उत्पादन में लगने वाला खर्च बड़े पूंजीपति घराने उठाते हैं। और वह आम जनता को वही उन्मादी नाच-गाने वाली फिल्में परोसना चाहते हैं जिससे आम जनता अपने असली दुश्मन को न पहचान किसी मसीहे के आने का इन्तज़ार करती रहे। जर्मन कवि और नाटककार ब्रेष्ट ने कहा था कि कला एक आईना नहीं बल्कि वह हथौड़ा है जिससे समाज को नए आकार में ढाला जाता है। ब्रेष्ट की इस बात को सत्ता में बैठे लोग भी शायद अच्छी तरह से समझते हैं और इसीलिए वह चाहते हैं कि कला के क्षेत्र को भी अपने भगवा रंग में रंग दिया जाए ताकि अपनी असली राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा किया जा सके। एफ़.टी.आई.आई. के छात्र लेख लिखे जाने तक हड़ताल पर है और उनकी माँग है कि कला के संस्थानों को कोई भी सरकार अपने निजी फायदे के लिए इस्तेमाल करने की कोशिश न करे और इस नियुक्ति को वापिस ले।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-अक्टूबर 2015
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