कश्मीरी जनता का मौजूदा दमन: देश कागज़ पर बना नक्शा नहीं होता
कश्मीर में बुरहान वानी के ‘एनकाउण्टर’ के बाद घाटी में युद्ध जैसे हालात बने हुए हैं। वानी की मौत के बाद हज़ारों की संख्या में लोग सड़कों पर उतरे। वानी हिजबुल मुजाहिदीन नामक उग्रवादी संगठन से जुड़ा था। प्रदर्शनकारियों और सेना-पुलिस की झड़पों में अब तक 50 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं और हजारों घायल हो गये हैं। इज़रायली ज़ायनवादियों जैसे हथियारों, आँसू गैस के गोलों, गोलियों और छर्रों का भरपूर इस्तेमाल किया जा रहा हैं। छर्रों के इस्तेमाल के कारण बहुत सारे लोगों की आँखों की रौशनी चली गयी है। घाटी में युद्ध जैसे हालात हैं। प्रेस पर पाबन्दी लगा दी गयी है, कर्फ्यू में कोई ढील नहीं है। कश्मीर विश्व में सेना की सबसे सघन उपस्थिति वाला क्षेत्र है। नागरिक और संवैधानिक अधिकारों का सेना के बूटों की धमक के तले कोई मतलब नहीं है।
“देशभक्त” और “राष्ट्रवादी” भारतीय मध्यवर्ग को कश्मीर भारत के ताज के रूप में तो चाहिए किन्तु कश्मीरी जनता के प्रति उसे कोई हमदर्दी नहीं है। गुमनाम कब्रें, बलात्कृत औरतें, मरते हुए लोग भारतीय मध्यवर्ग को दिखायी नहीं देते जैसे उनकी आँखों पर पहाड़ी टट्टू की तरह से पट्टा बन्धा हो। देश कागज़ पर बना कोई नक्शा नहीं होता, यदि वहाँ के नागरिकों के जीवन की कोई कीमत नहीं है तो ऐसे देश की बात करने का कोई अर्थ नहीं है। हमारा मानना है कि आज हर इंसाफ़पसन्द इंसान को कश्मीर की जनता के आत्म निर्णय के अधिकार का बिना शर्त समर्थन करना चाहिए व कश्मीरी जनता के संघर्ष के पक्ष में तथा सत्ता के दमन के ख़िलाफ़ आवाज़ उठानी चाहिए। यहाँ यह बात भी साफ़ हो कि कश्मीरी जनता के संघर्ष के समर्थन का अर्थ मौजूदा कट्टरपन्थी आतंकी और उग्रवादी संगठनों का समर्थन नहीं है, किसी भी तरह का आतंकवाद और कट्टरपन्थ बेशक निन्दनीय है किन्तु कुछ तो कारण होंगे जिनकी बदौलत कश्मीर की नौजवानी आतंकवाद की गिरफ्त में आ रही है! पत्रिका के अगले अंक में हम इस मुद्दे पर विस्तारपूर्वक अपनी बात रखेंगे।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मई-जून 2016
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