भारत में फ़ासीवादी सरकार ने इस संकट को भी अपने फ़ासीवादी प्रयोग का हिस्सा बना लिया और थाली-ताली बजवाकर, मोमबत्ती जलवाकर जनता का एक सामूहिक मनोवैज्ञानिक परीक्षण कर यह पता लगाने में एक हद तक सफल भी हो गयी कि जनता का कितना बड़ा हिस्सा और किस हद तक तर्क और विज्ञान को ताक पर रखकर आरएसएस के फ़ासीवादी प्रचार के दायरे में आ चुका है। दूसरी ग़ौर करने वाली बात यह है कि ये फ़ासीवादी अनुष्ठान तब आयोजित किये जा रहे थे जब सीएए, एनआरसी और एनपीआर जैसे विभाजनकारी और आरएसएस के फ़ासीवादी मंसूबे को अमली जामा पहनाने वाले काले क़ानूनों के ख़िलाफ़ देशभर में सैकड़ों जगहों पर शाहीनबाग़ की तर्ज़ पर महिलाओं ने मोर्चा सँभाल रखा था। इन बहादुर महिलाओं के क़दम से क़दम मिलते हुए पुरुष, छात्र, कर्मचारी, मज़दूर यानि देश का हर तबक़ा बड़ी तादाद में सड़कों पर था। सत्ता की शह पर फ़ासिस्ट गुण्डों द्वारा प्रदर्शन पर गोली चलवाने, अफ़वाह फैलाकर आन्दोलन को बदनाम करने, सुधीर चौधरी, दीपक चौरसिया, अर्णब गोस्वामी जैसे पट्टलचाट सत्ता के दलाल पत्रकारों द्वारा फैलाये जा रहे झूठ, हिन्दू-मुसलमान के नाम पर आन्दोलन को कमज़ोर करने की लाख कोशिशों के बावजूद जब आन्दोलनकारी महिलाएँ बहादुरी से इसका सामना करते हुए मैदान से पीछे नहीं हटी तब इन दरिन्दों ने उत्तर-पूर्वी दिल्ली दंगो का ख़ूनी खेल खेलना शुरू कर दिया जिसमें दिल्ली पुलिस भी इन दंगाइयों के कन्धे से कन्धा मिलाकर आगजनी और तोड़फोड़ में शामिल रही।