अब चीन की मन्दी से बेहाल विश्व पूँजीवाद

सनी

हॉलीवुड की लगभग हर फिल्म में आजकल आसमान से कहर टूट रहा है। रेडियोएक्टिव जीव-जन्तु गगनचुम्बी इमारतों (स्काई स्क्रेपर) को गिरा रहे हैं, तो कभी एलियंस अमेरिका के शहर में उतरते हैं और पूरी दुनिया पर कब्ज़ा करना चाहते हैं। पूरी दुनिया में अराजकता फैल जाती है। खुशहाल अमेरिकी जीवन पर एक काला बादल छा जाता है। अनिश्चितता और अज्ञात ताक़तों के कारण पूरे देश से लेकर पूरी दुनिया में डर का माहौल रहता है। इस बिम्ब में एलियंस, ज़ोम्‍बी या आसमानी कहर को हटाकर सेंसेक्स का गिरना, स्टॉक के भाव गिरना व मुद्रा का अवमूल्यन डाल दिया जाय तो समझ आ जायेगा कि इस समय इस तरह की तमाम फ़िल्में क्यों बन रही हैं व हिट भी क्यों हो रही हैं! न सिर्फ अमेरिका में बल्कि भारत के मॉलों, मल्टीप्लेक्स में फ़िल्में देखने वाली आबादी भी इसे खूब पसंद करती है क्योंकि भारत के मध्यवर्ग और उच्च मध्यवर्ग के हिस्से तक इस ख़तरे की लहर पहुँच रही है। भूमण्डलीकरण के इस दौर में जहाँ दुनिया भर के बाज़ार आपस में जुड़े हैं व पूँजी का ज़बरदस्त आवागमन होता है, वित्तीय पूँजी के ताने-बाने में एक संकट पूरी पूँजीवादी दुनिया में तबाही लाता है। साम्राज्यवादी दौर में दुनिया की बहुलांश आबादी को पूँजीवाद सिवाय युद्ध, बेरोज़गारी, भुखमरी के कुछ नहीं दे सकता तो दूसरी तरफ यह शेयर बाज़ार में सट्टे पर नीलामी पर निर्भर शासक वर्ग को भी डरा रहा है। यह डर किस चीज़ का है? हाइड्रोजन बम, ड्रोन, आयरन डोम, विशालकाय तोपों और संगीनों से “महफूज़” होने के बावजूद ये डरे हुए हैं। नए साल की शुरुआत में इनके डर का कारण सामने आ ही गया! आर्थिक संकट से डरी अर्थव्यवस्था ने इस संकट के संकेत दे दिए हैं। चीनी शेयर बाज़ार फिर औंधे मुँह गिर गया और अमरीकी अर्थव्यवस्था भी डाँवाडोल हो गयी है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था ‘संभल’ चुकी है कहकर ‘फेड’ के रेट बढ़ाने की बात अब थम चुकी है। पर अख़बारों और पत्रिकाओं द्वारा व्यवस्था के बारे में दिलाये दिलासे झूठे ही साबित हुए।

इधर भारत के शेयर बाज़ार के सटोरिये भी घबराये बैठे हुए हैं। मेक इन इण्डिया का भारतीय शेर मज़दूरों का सस्ता ख़ून मुँह में लगाने के बावजूद चलने से पहले ही थक गया है। एक नये संकट के भय से यानी कि अपने ख़ुद के क़दमों से यह डर रहा है। यह अपने भविष्य को लेकर भयाक्रान्त है। इसे 1930 के बुरे सपने फिर से आ रहे हैं। लेकिन पूँजीपति वर्ग इतिहास से चाहकर भी सबक़ नहीं ले सकता है, क्योंकि इतिहास जनता के पक्ष में खड़ा है। 1930 की आर्थिक महामन्दी को बुर्जुआ अर्थशास्‍त्री एक बुरा सपना मानते थे और इसे सूचना क्रान्ति के पहले की एक परिघटना मानते थे। उनका कहना था कि अब ऐसा नहीं होने वाला। परन्तु 1970 के बाद से अर्थव्यवस्था ने जिस तरह पलटी खायी है उसने तमाम चिन्तकों को सोचने पर मजबूर कर दिया। 1970 के बाद से हर नया साल अमीरों के बीच नये-नये आर्थिक संकट से उपजे नये डरों को पैदा करता रहा है। भले ही इस नये साल में भी आम जनता उजड़ी हुई झुग्गियों में रह रही हो, मज़दूर काम से निकाले जाएँ, छात्र गोलियाँ और लाठियाँ खाते रहें और दूसरी तरफ़ पूँजीपतियों की पार्टियों में डांस चलते रहें, फिर भी वे चिन्तित हैं।

असल में हर आर्थिक संकट जनता के जीवन में तबाही लाता है। आर्थिक संकट और उसके बाद मन्दी और अर्थव्यवस्था में ठहराव से बेरोज़गारी और ज़बरदस्त तबाही फैलती है। आज दुनियाभर के मालिक सिकुड़ते मुनाफ़े और ठहरावग्रस्त व्यवस्था में जान फूँकने के लिए फिर से दुनिया को युद्ध में धकेल रहे हैं और अपने देश के अन्दर मज़दूरों के लिए फ़ैक्टरियों को यातना शिविर बना रहे हैं। विश्वविद्यालयों को एक तरफ शॉपिंग मॉल में तब्दील कर रहे हैं तो दूसरी तरफ कैम्पसों का पुलिसीकरण कर रहे हैं। एक-एक करके जनता के अधिकारों पर डाका डाला जा रहा है और इसपर जनता का ध्यान न जाये इसलिए उसे जाति-धर्म-नस्ल के नाम पर आपस में लड़ाया जा रहा है। परन्तु इसका दूसरा पहलू भी है-यही वह समय होता है जब जनता संगठित होकर अपने लुटेरों पर हल्ला बोल सकती है। आर्थिक संकट की इस परिघटना को समझना आज बेहद ज़रूरी है क्योंकि यही वह समय होता है जब शासक वर्ग अपने सिकुड़ते मुनाफ़े को बचाए रखने के लिए फासीवादी ताक़तों को सत्ता में आने का निमंत्रण देते हैं। आज आर्थिक संकट के दौर में जीते हुए हमें इन ताक़तों से मुक़ाबला करना है तो यह समझना होगा कि यह संकट पूँजीवाद की स्वाभाविक गति का ही नतीजा है और इससे निजात इस व्यवस्था को ख़त्म करके ही पाया जा सकता है। संकट कैसे पैदा होता है व जनता के हिस्से में यह किस तरह बर्बादी लाता है इसका अध्ययन करने के लिए हम चीन का उदाहरण लेंगे। इससे आर्थिक संकट की आम परिघटना को समझना आसान रहेगा।

आज चीन की आर्थिक व्यवस्था डाँवाडोल है। विश्व आर्थिक व्यवस्था में पुएर्तो रिको, ब्राज़ील, पुर्तगाल, आइसलैण्ड, इटली, यूनान, स्पेन व अन्य देश अभी भी मन्दी से उबर नहीं पाए हैं, वहीं चीन वैश्विक व्यवस्था को एक और बड़े संकट की तरफ खींच कर ले जा रहा है जो दुनिया भर के पूँजीपतियों के लिए चिन्ता का सबब है। अगर हम चीन के राजनीतिक इतिहास पर एक नज़र डाल लें तो इस विषय में गहराई में उतरने में आसानी रहेगी। आज चीन में “बाज़ार समाजवाद” का जुमला नंगा हो चुका है। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी एक सामाजिक फासीवादी पार्टी है। माओ की मृत्यु के बाद देंग सियाओ पिंग ने कम्युनिस्ट पार्टी पर बुर्जुआ वर्ग का नियंत्रण पक्का किया। चीन ने 1976 से पूँजीवाद में संक्रमण किया था और आज पूर्ण रूप से वित्तीय पूँजी के विकराल भूमण्डलीय तंत्र का एक अभिन्‍न हिस्सा है। अमरीका की सबसे बड़ी आईटी कम्पनियों को सस्ता श्रम और ज़मीन देकर चीन की अर्थव्यवस्था विस्तारित हुई है। इस मुकाम तक पहुँचने के लिए ‘बाज़ार समाजवाद’ कई दौर से होकर गुज़रा। कम्यून और क्रान्तिकारी कमिटियों को भंग करने के बाद 1990 के दशक में बड़े स्तर पर राज्य द्वारा संचालित कम्पनियों का निजीकरण शुरू हुआ और 21वीं शताब्दी में प्रवेश के दौरान कई विदेशी कम्पनियों ने चीन में प्रवेश किया। चीनी राज्य ने मज़दूरों को मिलने वाली स्वास्थ्य, शिक्षा सुविधाओं से भी अपने हाथ खींच लिए। आज के चीन की बात करें तो चीन में अमीर-ग़रीब की खाई पिछले 10 सालों में बेहद अधिक बढ़ी है। चीन की नामधारी कम्युनिस्ट पार्टी के खरबपति “कॅामरेड” और उनकी ऐय्याश सन्तानों का गिरोह व निजी पूँजीपति चीन की सारी सम्पत्ति का दोहन कर रहे हैं। चीन के सिर्फ़ 0.4 फीसदी घरानों का 70 फीसदी सम्पत्ति पर कब्ज़ा है। यह सब राज्य ने मज़दूरों के सस्ते श्रम को लूट कर हासिल किया है।

लेकिन मज़दूर वर्ग भी चुप नहीं हैं और अपने हक़ और माँगों के लिए सड़कों पर उतर रहा है। राज्य के दमन के बावजूद भी मज़दूर अपनी आवाज़ उठा रहे हैं। एक तरफ चीन का शासक वर्ग आर्थिक संकट के दौर में मज़दूरों को अधिक रियायतें नहीं दे सकता है और दूसरी तरफ मज़दूरों की ज़िन्दगी पहले से ही नरक में है और अब जब वे सड़कों पर उतरे हैं तो इसी कारण कि उनके पास खोने के लिए कुछ नहीं है। यह इस व्यवस्था का असमाधेय अन्तरविरोध है।

हमें इस पूँजीवादी व्यवस्था के नैसर्गिक परिणाम यानी कि आर्थिक संकट के संकेत, इसके कारण व फैलाव के बारे में निश्चित रूप से जानना चाहिए क्योंकि संकट में जहाँ एक तरफ़ पूरा बाज़ार धड़ाम से गिर जाता है तो दूसरी तरफ यह जनता के हिस्से में भयंकर बर्बादी लाती है। हर सेक्टर में छँटनी, तालाबन्दी, कमरतोड़ महँगाई, बेरोज़गारी और भुख़मरी के कारण मज़दूर वर्ग और जनता के व्यापक हिस्से को यह गर्त में धकेल देती है। पूँजी का नियम सतत् विस्तार होता है और नतीजतन असीमित विस्तार हमेशा खपाये जा सकने वाले मालों की सीमा अतिक्रमण करते हैं। नतीजा होता है मन्दी, छँटनी, तालाबन्दी, इत्यादि। मेहनतकश वर्गों के व्यापक जनसमुदाय बेरोज़गारी, ग़रीबी और दरिद्रता के गर्त में धकेल दिये जाते हैं। जनता के पास पैसा नहीं होता है कि बाज़ार से कोई ज़रूरत का सामान ख़रीदा जा सके। बाज़ार माल से पटे रहते हैं और भूखे और नंगे लोग दुकानों के बाहर सड़कों पर सोते हैं। जब से पूँजीवादी व्यवस्था अस्तित्व में आई है, आर्थिक संकट के कारण छायी मन्दी मज़दूर वर्ग की बर्बादी लेकर हर हमेशा से चक्रों में आती रही है। पूँजीवाद के विकास का नियम ही तेज़ी-संकट के रास्ते होता है। आर्थिक मन्दी से उबरने के लिए ही पूँजीवादी देश अन्य देशों पर युद्ध थोपते हैं। पिछले 15 सालों में ही 1999 का एशियाई बाघ संकट, 2001 का डॉट कॉम संकट और फिर 2008 का सबप्राइम संकट, यूरोप के सम्प्रभु संकट के कुचक्र से यह व्यवस्था मर-मर के चल रही है। और अब चीन नए आर्थिक संकट के मुँह में पहुँच रहा है। आर्थिक संकट की शुरुआत अक्सर उत्पादन या सट्टेबाजी के तेज़ी के दौर के बाद होती है क्योंकि तेजी के दौर में पूँजी की तरलता के कारण निवेशकों को निवेश करने के लिए आसानी से पूँजी मिल जाती है। पूँजी को तमाम बैंक और सटोरिये ऋण के ज़रिये जनता तक पहुँचाते हैं और दूसरी तरफ डिबेंचर के जरिये जनता का एक हिस्सा कम्पनियों के शेयर भी खरीदता है। सटोरिये जमकर शेयरों पर, घरों, डॉट कॉम कंपनियों में पूँजी लगाते हैं और नए शेयर/घर/ऋण ख़रीदने व बेचने की प्रक्रिया में क़ीमतें वास्तविक कीमत से कई गुना बढ़ जाती है। सब कुछ ठीक चल रहा होता है कि अचानक जब इस प्रक्रिया के सिरे में ऋण को लौटाने की बारी आती है तब यह बुलबुला फूटता है और शेयरों की कीमतें धड़ाम से गिर जाती हैं। चीन में आर्थिक संकट का डर पहली बार तब पैदा हुआ जब आवास व निर्माण बाज़ार का (रियल एस्टेट/घर तथा मॉल आदि) बुलबुला फूटने वाला था, तब चीन की सरकार ने जमकर सरकारी मदद दी और इसे संभाल लिया परन्तु इसकी सतह के नीचे से एक नया बुलबुला-इक्विटी बुलबुला पैदा हुआ और यह संभाले नहीं संभला। आख़िरकार यह बुलबुला फूट ही गया और चीन के दोनों स्टॉक एक्सचेंजों शंघाई और शेनजेन में भारी गिरावट दर्ज़ हुई जिसमें खरबों युआन स्वाहा हो गये और लाखों लोग दिवालिया हो गये। इस बुलबुले के फूटने के बाद ही संकट का श्री गणेश हो चुका है और अब चीन की सरकार तमाम क़दम उठाकर इसे टालना चाहती है लेकिन फिलहाल यह लग रहा है कि चीन विश्व पूँजीवादी व्यवस्था को नए संकट में धकेलने वाली है। इसकी भयंकरता से बचने के लिए चीन की सरकार ने अपनी मुद्रा के इतिहास में सबसे बड़ा अवमूल्यन किया परन्तु यह भी इसे टाल नहीं सका। इसका भयावह असर चीन के मज़दूरों पर ही होगा। चीन में सरकार के मज़दूर विरोधी चरित्र व पूँजीपतियों की खुली लूट के ख़ि‍लाफ़ जो संकट के बाद और नंगी हो जाएगी, ज़बर्दस्त रोष आन्दोलनों का रूप ले रहा है और चीनी मजदूर सड़कों पर उतर रहे हैं। निश्चित ही चीन के मज़दूरों को इस व्यवस्था को उखाड़ फेंकने में समय लगेगा परन्तु ये शुरुआती कदम ही पूँजीपतियों की और विदेशी निवेशकों की नींद उड़ा रहे हैं। इन तमाम अलग-अलग दिख रहीं घटनाओं के मूल में जो कारण है वह चीन की पूँजीवादी व्यवस्था है। इस संकट ने जिन अन्तरविरोधों को सतह पर ला दिया है उन्हें समझने के लिए हमें चीन की आर्थिक व्यवस्था का थोड़ा गहनता से अध्ययन करना होगा।

आर्थिक संकट की पूर्वपीठिका

आज दुनिया भर के बाज़ार एक दूसरे से अभिन्‍न रूप से जुड़े हैं। और गहराई में जायें तो साम्राज्यवाद के अन्तिम दौर भूमण्डलीकरण में पूँजी और श्रम भूमण्डलीकृत असेंबली लाइन में जुड़ गये हैं। इस ग्लोबल असेंबली लाइन में अगर एक देश आर्थिक संकट का शिकार हो तो यह पूरी असेंबली लाइन की समस्या होती है। इसी वजह से 2008 के संकट के कारण दुनिया के हर देश में तबाही मची थी। 2008 के संकट से विश्व अर्थव्यवस्था जिस मन्दी में पहुँची थी उससे अभी तक उबर नहीं पायी है पर उससे उबरने के लिए जितने भी जतन किये गये वे आज नए संकटों को जन्म दे रहे हैं। चीन के मौजूदा संकट की कहानी भी 2008 के अमरीकी सबप्राइम संकट के साथ शुरू होती है। इस संकट के कारण चीन पर मण्डरा रहे मन्दी के खतरे को दूर करने के प्रयास से ही यह संकट पैदा हुआ है। यह एक ऐसा कुचक्र है जिसमें से पूँजीवादी देशों का निकलना असंभव है। हर संकट से निजात पाने के लिए उठाये गये कदम नए संकटों को जन्म देते हैं। 2008 में चीन की सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी, जो सिर्फ नाम की कम्युनिस्ट है और वास्तव में सामाजिक फासीवादी बन चुकी है, ने चीन को संकट की गिरफ्त में आने से बचाने के लिए 4 लाख करोड़ डॉलर का भारी स्टिम्युलस पैकेज दिया जिससे कि पूँजी की तरलता बरकरार रहे और चीनी सरकार ने खुद कई नये निर्माण प्रोजेक्ट हाथ में लेकर आर्थिक स्थिरता लाने का प्रयास किया। परन्तु हर ऐसे प्रयास अर्थव्यवस्था में बुलबुला पैदा करते हैं यानी कि किसी माल विशेष (शेयर/रियल एस्टेट/कलाकृतियाँ) की कीमतें सट्टेबाजी के कारण असल क़ीमत से बढ़ने लगती हैं और यह बढ़ोत्तरी यानि बुलबुले का फूलना तब तक जारी रहता है जब तक कि यह बुलबुला फूट न जाए और एक नया संकट पैदा न हो जाए। इस संकट से निपटने के लिए सरकार फिर से नए बेल आउट पैकेज और स्टिम्युलस पैकेज देती है यानी कि खरबों रुपए सीधे बैंकों और कम्पनियों को मदद के रूप में दिये जाते हैं और सीधे पूँजी को उत्पादक गतिविधियों में लगाया जाता है।

2008 में आये संकट के बाद दिए स्टिम्युलस पैकेज से चीन में जो पैसा लगा उससे बड़े-बड़े निर्माण के प्रोजेक्ट हाथ में लिए गये जिसने कई बेरोज़गारों को फिर से काम पर ला दिया। परन्तु यह निर्माण सिर्फ उत्पादन के लिए होता है। बुलेट ट्रेन बनाने, गगनचुम्बी इमारतें खड़ी करने, सड़क खोदकर फिर से बनाने के काम महज पूँजी संचालित करने और निवेशकों को भरोसा दिलाने के लिए किया गया कि चीन का बाज़ार समाजवाद विश्व अर्थव्यवस्था के संकट में जाने के कारण नहीं डूबने वाला है। इस परिघटना ने चीन में कई भूतिया शहरों को जन्म दिया है जिनमें कोई नहीं रहता है। दुनिया का सबसे बड़ा मॉल न्यू साउथ चाइना मॉल बनने के बाद से ही खाली पड़ा है। मंगोलिया में ओर्डोस शहर पूरी तरह से खाली है। इस आर्थिक धक्के के कारण व्यवस्था में जो पूँजी की तरलता आई उससे तमाम निवेशकों और सट्टेबाजों ने एक नया बुलबुला पैदा किया जो कि रियल एस्टेट का बुलबुला था।

चीन के तथाकथित ‘मार्क्सवादियों’ ने अमरीका सरीखे संकट से बचने की काफी कोशिश की थी परन्तु पूँजीवादी व्यवस्था का नियम ही अराजकता है। बाज़ार समाजवाद के संस्थापक और सर्वहारा के गद्दार देंग सियाओ पिंग ने शंघाई और शेनजेन स्टॉक मार्केट स्थापित किये और कहा कि सट्टेबाज पूँजी तब “सापेक्षिक बेहतर समाज” बनाएगी। चीन के मौजूदा प्रधान ज़ाई ने “चीनी सपना” दिखाया पर अंततः इतिहास ने इस बाज़ार समाजवाद को “निरपेक्ष रूप से ख़राब समाज” के ”चीनी दुःस्वप्न” में तब्दील कर दिया। 2008 की मन्दी की गिरफ्त में आने से बचने के लिए चीन की सरकार ने ब्याज़ दर (चीन के सेन्ट्रल बैंक द्वारा दूसरे बैंकों को दिये गये ऋण पर ब्याज) कम की जिसके कारण सट्टेबाजों और बैंकों को पूँजी आसानी से मिल सकती थी। चीनी अमीरज़ादों ने भी अमरीकी सट्टेबाजी के पागलपन को पीछे छोड़ते हुए सट्टेबाजी के नए कीर्तिमान स्थापित किये। चीन के सट्टेबाजों ने सब्ज़ी की तरह मकान ख़रीदे। ये मकान बस बढ़ते दामों के कारण ख़रीदे जा रहे थे जिससे कि कम दाम पर ख़रीदकर बढ़े दामों पर बेच दिया जाए। चीन के अख़बार में छपी खबर के अनुसार एक गृहणी ने इण्टरनेट से महज़ आधे घण्टे में 10 मकान ख़रीद लिए और एक छात्र ने कुल मिलाकर 680 मकान ख़रीदे और बेचे। इन मकानों को भी लोगों के रहने के लिए नहीं बल्कि सिर्फ सट्टे के कारण बनाया और ख़रीदा-बेचा जा रहा था।

बुलबुला फूलता जा रहा था। इसे सच्चाई की सतह से टकराना ही था और 2011 में जब इस बुलबुले के फूटने के संकेत मिलने लगे तो चीनी सरकार ने सट्टाबाज़ारी को रोकने के लिए सख़्त नियमों को लागू किया। मकानों की कीमतें औंधें मुंह गिरने लगी तो सरकार ने मकानों पर दिए जाने वाले बचत पर रोक लगा दी और ब्याज़ दर को बढ़ा दिया ताकि यह प्रक्रिया तुरन्त रोकी जा सके। चीन की व्यवस्था संकट से बच गयी परन्तु पहले से मन्द गति पर विकसित होने लगी। परन्तु जो पूँजी सरकार ने तरलता के लिए बाज़ार में झोंकी थी उसे देर-सवेर नए संकट को जन्म देने का काम करना ही था। जब सरकार को लगने लगा कि मकानों की क़ीमतें नियंत्रित होने लगी हैं तब फिर से ब्याज़ दर को घटाया गया ताकि बाज़ार में खो रहा भरोसा जीता जा सके। रियल एस्टेट बुलबुले के गर्भ से ही एक नया बुलबुला जन्म ले रहा था। मकानों की जगह अब स्टॉक एक्सचेंज के शेयरों ने ले ली थी। 2014 तक दोनों स्टॉक मार्केट ज़बरदस्त सट्टेबाज़ी का केन्द्र बन चुके थे जिसमें बड़े निवेशकों से लेकर आम मज़दूर, किसान, गृहणी तक खिं‍चे चले आये थे। इस तरह इक्विटी बुलबुला फूलना शुरू होता है।

चीन के सरकारी अखबार पीपल डेली ने स्टॉक मार्केट में निवेश को जोखि‍म मुक्त निवेश बताया और ज़ाई के “चीनी सपने” को हवा देनी शुरू की। सट्टेबाजी के कारण सटोरियों ने जमकर मुनाफ़ा कमाया और शंघाई का सूचकांक 4000 के पार पहुँच गया। पीपल डेली ने कहा कि “बुलबुला क्या होता है? ट्यूलिप और बिटकॉइन बुलबुले होते हैं” (ट्यूलिप बुलबुला पहला बड़ा बुलबुला था जहाँ ट्यूलिप फूलों के बाज़ार में सट्टेबाजी के कारण कीमतें बढ़ी थीं और बुलबुला फूटने पर भारी नुकसान हुआ था। बिटकॉइन एक डिजिटल मुद्रा है जिसे कोई केन्द्रीय बैंक नहीं संचालित करता है जो कि हाल ही में एक बुलबुला देख चुकी है।) परन्तु जल्द ही चीनी सपना टूटने लगा और सरकार ने बड़ा संकट आता देख ही पहले ही कदम उठाते हुए युआन का अवमूल्यन कर दिया परन्तु स्टॉक मार्केट की तबाही नहीं रुक सकती थी और तबाही आई भी। शंघाई स्टॉक एक्सचेंज 5166 से 3700 पर जा लुढ़का और 3 लाख करोड़ डॉलर स्वाहा हो गये। लाखों लोग तबाह हो गये। इक्विटी बुलबुला फुट चुका था और चीन के केन्द्रीय बैंक को भी इसे स्वीकार करना पड़ा। बाज़ार समाजवाद उर्फ़ पूँजीवाद ने अपनी अन्तकारी बीमारी का जानलेवा दौरा सहा और तुरन्त ही बैलआउट के इंजेक्शन के साथ चीन की सरकार ‘बाज़ार समाजवाद’ के लिए आ पहुँची। नया बेल आउट पैकेज दिया गया, ब्याज़ दर को फिर से घटा दिया गया, स्टॉक मार्केट में कम्पनी मालिकों और शेयर होल्डरों द्वारा शेयर ख़रीदने व बेचने पर मनाही लग गयी। सरकार ने अख़बारों में जनता और निवेशकों को भरोसा दिलाने की कोशिश की और कहा कि “तूफानों के बाद इन्द्रधनुष नज़र आएगा”। परन्तु अभी बीजिंग पर धुएँ और ओस से बनी धुंध छाई है जिसे मौजूदा चीनी अर्थव्यवस्था नहीं हटा सकती है। कोई इन्द्रधनुष नहीं दिखने वाला है। पूँजीवाद की अन्तकारी बीमारी के दौरे से अब तक बची हुई चीन की व्यवस्था अब संकट की हरकारा बन गयी है। और चीन को आर्थिक संकट से बचने के नुस्खे देने वाले बुर्जुआ अर्थशास्‍त्री अब विश्व अर्थव्यवस्था को संकट से बचाने के जुगत में जुट गए हैं।

वैश्विक संकट की ओर जाती पूँजीवादी व्यवस्था

मार्क्स और एंगेल्स ने 19वीं शताब्दी में ही बताया था कि पूँजीवाद में आन्तरिक अन्तरविरोध के कारण संकट पैदा होना लाज़िमी है। सामाजिक उत्पादन और निजी हस्तगतीकरण के अन्तरविरोध के कारण यह व्यवस्था ख़ुद अपनी क़ब्र खोदने वाले मज़दूर वर्ग को पैदा करती है। इसी अन्तरविरोध के कारण बाज़ार में अतिउत्पादन की वजह से आर्थिक संकट आता है जो आर्थिक मन्दी के एक लम्बे ठहरावग्रस्त दौर को पैदा करता है। दरअसल तेज़ी, संकट और मन्दी के चक्कर में उलझते हुए ही यह व्यवस्था आगे बढ़ी है। परन्तु यह मन्दी मज़दूर वर्ग के हिस्से में भयंकर तबाही लाती है क्योंकि मालिक और उनकी सरकारें आर्थिक संकट और उसके बाद छाने वाली मन्दी का सारा बोझ मज़दूरों के ऊपर ही डालते हैं। लेकिन 1970 के बाद से तो जैसे विश्व आर्थिक व्यवस्था ने कोई तेज़ी का दौर देखा ही नहीं है-बस एक मन्द-मन्द मन्दी का लम्बा दौर चल रहा है। परन्तु आज एक नया संकट जन्म ले रहा है। अमरीका ने फेड रेट लगभग शून्य करने और जापान के इसे ऋणात्मक करने के बावजूद भी दोनों ही देशों में बेरोज़गारी का स्तर बरकरार है। 1930 के दौर से बचे-खुचे बूढ़े सटोरियों और तमाम अर्थशास्त्रियों को 1930 की महामन्दी का देजा वू हो रहा है। यह अकारण नहीं है। “बेगर-दाई-नेबर”, यानी अपने देश की मुद्रा का अवमूल्यन कर जिससे कि निर्यात बढाया जा सके, अपने पड़ोसी को भिखारी बनाने की नीतियाँ 1930 के सामान फिर से उभर कर आ रही हैं। वहीं दूसरी तरफ स्टॉक के भाव व तेल की क़ीमतों के साथ अन्य मालों की क़ीमतें भी गिर रही हैं जिसने आर्थिक संकट को आसन्‍न बना दिया है। इसके अलावा भी कईं ऐसे संकेत हैं जिससे कि यह अर्थव्यवस्था फिर से एक बड़े संकट के गर्त में जाती हुई दिख रही है।

इस आर्थिक मन्दी के साये में जीते वक़्त हमें इतिहास के इन सबकों को ध्यान में रखना होगा। शासक वर्गों ने एक बार फिर फासीवाद का विकल्प चुना है। न सिर्फ़ भारत में बल्कि दुनिया के तमाम देशों में दक्षिणपन्थी फासीवादी ताक़तों का उभार हो रहा है। अमेरिका में वैसे तो डेमोक्रेट और रिपब्लिकन पार्टियों में बड़ा अन्तर नहीं है लेकिन रिपब्लिकन पार्टी की ओर से आगामी राष्ट्रपति चुनाव का संभावित प्रत्याशी डोनाल्ड ट्रम्प निश्चित ही फासीवादी रुख़ रखता है। ब्रिटेन, इटली से लेकर तमाम देशों में श्रम सुधारों के नाम पर मज़दूरों के लिए बने क़ानूनों को ख़त्म किया जा रहा है। वे अपना विकल्प चुन रहे हैं तो हमें भी अपना विकल्प चुनना होगा और मज़दूर क्रान्ति की तैयारियों को तेज़ करना होगा क्योंकि सिर्फ़ यही जन मुक्ति का रास्ता है। 2008 की मन्दी की शुरुआत से ही दुनियाभर में ज़बर्दस्त जन आन्दोलन खड़े हुए हैं परन्तु उन्हें समाजवाद से जोड़ने का काम करना आज जनता के हिरावल हिस्से का सबसे पहला काम है।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,नवम्‍बर 2015-फरवरी 2016

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