विज्ञान के विकास का विज्ञान

सनी

stone-age-tools-pre-histo-006मानव का धरती पर पहला कदम

धरती पर जीवन की शुरूआत करीब 320 करोड़ साल पहले हुई थी। तमाम जीव इस बीच पृथ्वी पर आये और लुप्त हो गये। डायनासोर धरती पर रहे और ख़त्म हो गये। जीवन और उसकी जटिल बुनावट भी उद्भव के जरिए बदलती रही और करीब 30 लाख साल पहले मानवता अस्तित्व में आयी। विज्ञान के उद्भव का अध्ययन भी इतिहास के इसी काल से शुरू होता है। मनुष्य जाति जब प्रकृति के ऊपर अपनी निर्भरता से आज़ाद हो रही थी तब ही विज्ञान खड़ा होना शुरू हुआ। यह वह समय था जब इंसान के विचारधारात्मक, कलात्मक और तकनीकी जीवन मेल खाते थे। हमें विज्ञान के अध्ययन के लिए विश्लेषणात्मक उद्देश्यों के लिए इन्हें ‘सर्जिकली’ अलग करना होगा। इंसान आदि-मानव की प्रजाति एंथ्रोपाइड एप से विकसित हुए। इंसान अन्य जानवरों से कैसे अलग हुए? इंसान के पूर्वजों से इंसान ने काफी हद तक शारीरिक विशेषताएँ तथा गुण हासिल कर लिए थे जो उसके विकास के लिए ज़रूरी थे। विकास मुख्यतः पेड़ों को छोड़ कर ज़मीन पर जाने से हुआ। ज़मीन पर उसके हाथ आज़ाद हो गए थे। आंख और हाथों के बीच का भी बेहतर समन्वय विकसित हुआ जिससे वस्तुओं को छूने, आकार समझने व पकड़ने में आसानी हो गई। उसकी आँखें आसानी से दूरी माप सकती हैं और जटिल दिमाग व तंत्रिका तंत्र के कारण ही किसी वस्तु को हाथों में महसूस कर सकती है व आँखों द्वारा बनाए चित्र से मिलान कर सकती है। यही वह भौतिक ज़रूरत है जो इंसान को औज़ार बनाने के लिए चाहिए। औज़ार के साथ-साथ भाषा का उद्भव भी बेहद ज़रूरी था क्योंकि बिना एक-दूसरे से अनुभव साझा किए इंसान औज़ार जैसी रचना उस समय नहीं कर सकता था। यह चेतना का विकास ही इंसान को जानवरों से अलग करता है। कुछ एप (वानर) भी औज़ारों का इस्तेमाल कर सकते हैं परन्तु उनका यह इस्तेमाल बेहद सीमित होता है और ये जानवर किसी भी काम को करते हुए महज़ अपने दैनिक जीवन को जीते हैं और इन कार्यों को स्वभावतः व आदतन करते हैं, जैसे इंसान का बच्चा रोता है या आँखें झपकाता है, या जैसे दिल धड़कता है। घोसला, छत्ता, शहद, बाँध, नाली से लेकर लोज तक बनाने वाले जानवरों से इंसान अलग है क्योंकि इंसान इन सभी कार्यों को पूर्वकल्पित योजना बनाकर अंजाम देता है यानी काम से पहले काम का विचार मौजूद होता है। इस प्रक्रिया को ही श्रम कहा जाता है। यह निश्चित ही इंसान का श्रम था जिसने इंसान को इंसान बनाया। श्रम यानी वह क्रिया जिसमें इंसान अपनी मेहनत के उत्पाद की किसी न किसी हद तक पूर्वकल्पना करता है। श्रम ही वे अन्य चीजें पैदा करता है जो भौतिक तौर पर इंसान और जानवरों के बीच अन्तर पैदा करता है। गॉर्डन चाइल्ड के शब्दों में ‘इंसान ने खुद को बनाया है।’

अक्सर फिल्मों में या डिस्कवरी सरीखे चैनलों पर पुरातन काल का चित्रण होता है। काश हम असल में ऐसा देख पाते। फन्तासी से टाइम मशीन उधार लें तो हम उस समय को देख पाते जब मनुष्य ने खुद को खड़ा किया। विकसित होते कबीले, टोटेम का पूजन, पत्थरों को तराशा जाना–हम यह सब देख पाते! परन्तु यह काल्पनिक उपकरण खुद इतिहासकारों की कड़ी मेहनत को महज़ कल्पना की उड़ान देता है। इतिहासकारों के इस अवदान के कारण ही हम विज्ञान के उद्भव को समझ सके हैं। पुरातन काल का अध्ययन हम बेहद कम तथ्यों के आधार पर ही कर पाते हैं क्योंकि प्रागैतिहासिक काल का कोई लिखित इतिहास मौजूद नहीं है। इतिहास की पुनर्रचना हम पुरातात्विक खुदाइयों के ज़रिये मिल रहे अवशेषों से ही कर पाते हैं। कार्बन डेटिंग के ज़रिए हम उन सभी अवशेषों की उम्र का पता लगा सकते हैं। दूसरी तरफ बायो-स्टेटिस्टिक्स के ज़रिए (जीन में तब्दीली के दर की गणना करके) हम इंसान बनने की प्रक्रिया की गति को भी माप सकते हैं। परन्तु फिर भी विशेष तौर पर उस दौर के इतिहास की पूर्ण पुर्नरचना मुश्किल है क्योंकि उसकी जानकारी बेहद बिखरी हुई है। जब से इंसान ने लिपि की खोज कर ली तब से इतिहास को जानना सापेक्षतः आसान बन जाता है हालाँकि यह भी नयी चुनौतियों को पेश करता है। शुरुआती लिखित ऐतिहासिक स्रोत आम तौर पर जादुई परिकल्पनाएँ थीं व धार्मिक पुस्तकें थीं जिनका विकूटीकरण और विनिर्माण करके ही उस दौर में विषय में ज़रूरी सूचनाएँ प्राप्त की जा सकती हैं। इतिहास लेखन के ऊपर निश्चित वर्ग के दृष्टिकोण व विचारधारा का प्रभाव होता है। सत्य तक पहुँचने के लिए हमें वर्ग पूर्वाधारों की धूल को झाड़ना पड़ता है। मनुष्य की आज की सभ्यता के आईने में हम पुराने वक्त को देखते हैं। आज का मनुष्य भी अपने आप में जीवित जीवाश्म होता है जिससे इतिहास को समझा जा सकता है। विज्ञान भी इसी इतिहास में अपनी जगह पाता है।

औज़ार का इस्तेमाल, ख़तरे को भाँपना, कन्द-मूल की पहचान, शिकार की पद्धति से लेकर जादुई परिकल्पना को भी आने वाली पीढ़ी को सिखाया जाता है। इंसान ने औज़ारों और अपने उन्नत दिमाग से ज़िन्दा रहने की बेहतर पद्धति का ईजाद की। इसकी निरन्तरता मनुष्य संस्कृति के ज़रिए बरकरार रखता है। यह इतिहास मानव की संस्कृति का इतिहास है न कि उसके शरीर का! विज्ञान औज़ारों और जादुई परिकल्पना और संस्कृति में गुँथी इंसान की अनन्त कहानी में प्रकृति के नियमों का ज्ञान है। कला, संगीत और भाषा भी निश्चित ही यही रास्ता तय करते हैं। विज्ञान और कला व संगीत सामाजिकता का उत्पाद होते हुए भी अलग होते हैं। लेकिन हर दौर के कला व संगीत पर विज्ञान की छाप होती है। बुनियादी तौर पर देखा जाए तो ये इतिहास की ही छाप होती है। मार्क्स ने पुस्तक ‘जर्मन आइडियोलोजी’ में कहा था कि विज्ञान, कला आदि का इतिहास नहीं होता है बल्कि इतिहास में कला, विज्ञान व विचारधारा आदि मौजूद होते हैं। जे.डी. बरनाल ने अपनी किताब का नाम भी मार्क्स के उपरोक्त कथन के आधार पर विज्ञान का इतिहास की जगह इतिहास में विज्ञान रखा था।

पुरापाषाण काल में विज्ञान

मानव सभ्यता के उद्भव के दृष्टिकोण से देखें तो कुछ अर्थों में इतिहास का सबसे पहला दौर पुरापाषाण काल था। यह दौर सबसे पहले औज़ारों के बनाये जाने की शुरुआत का काल है। ऑस्ट्रैलोपिथेकस रोबस्टस शायद सबसे पहली औज़ार बनाने वाली प्रजाति था परन्तु यह अभी पूर्णतः सिद्ध नहीं हुआ है व वैज्ञानिकों के इस बारे में अलग-अलग मत हैं। होमो हैबिलस निश्चित ही औज़ार बनाता था। यह सिद्ध हो चुका है। इंसान ने औज़ार बनाना कैसे शुरू किया? विज्ञान का एक बड़ा स्रोत इंसान के औज़ार बनाने की प्रक्रिया व जानवरों, पौधों की जानकारी से आती है। इसके बारे में गहराई से बात करने से पहले हम उस समय की धरती को समझ लें तभी जाकर ही हम विज्ञान के उद्भव को समझ पाएँगे।

पुरापाषाण काल का समयकाल भूगर्भ विज्ञान के कालक्रमानुसार प्रातिनूतन युग (प्लिस्टोसीन इपॉक) के साथ मेल खाता है। इस युग में पूरी धरती का तापमान काफ़ी कम हो गया था जिसमें बारी-बारी से हिम युग के दौर आए। उत्तरी गोलार्द्ध के भी एक तिहाई हिस्से में बर्फ की परतें थी। न्यूयॉर्क, लन्दन से लेकर मॉस्को तक बर्फ की परतें थीं। हिम युग के  बीच में कुछ दौर आते थे जब थोड़ी गर्मी आती थी। इन्हें ‘इण्टरग्लैशियल’ कहा जाता है। करीब 1,12,000 साल पहले आये ‘इण्टरग्लैशियल’ में होमो सेपियन्स अस्तित्व में आए। हिम युग का दौर करीब 12,000 साल पहले ख़त्म हो गया। पुरापाषाण काल में इंसान का अधिकतम जीवन हिम काल और इनके बीच के इण्टरग्लैशियल दौर आने से धरती में हो रहे बदलावों के अनुसार खुद को ढालने में बीते। वह कन्द-मूल इकट्ठा करने व शिकार पर ही निर्भर रह सकता था। पूर्व पुरापाषाण के काल का फैलाव सबसे अधिक है। यह 26 लाख साल पहले अस्तित्व में आया। मध्य पुरापाषण युग 3.5 लाख पहले से 45 हजार साल पहले तक और उत्तर पुरापाषण युग करीब चालीस हजार साल पहले से 10 हजार साल पहले तक मौजूद रहे। पुरातात्विक खुदाई स्थलों से हमें औज़ार बनाने में विशिष्ट कुशलता को सिद्ध करने वाले अलग-अलग औज़ार मिले हैं। कार्बन डेटिंग द्वारा इनका बँटवारा विशिष्ट पुरापाषाण युग में किया जाता है।

इस दौर में इंसान की उत्पादक गतिविधि शुरुआत में कन्द-मूल इकट्ठा करते तक सीमित थी जो कि औज़ारों के विकास के साथ मुख्यतः शिकार पर निर्भर करने लगी। कुल मिलाकर पुरापाषाण काल की अर्थव्यवस्था शिकार व कन्द मूल इकट्ठा करने तक ही सीमित थी। बर्फ से ढँकी धरती, जंगल और झरने, गुफाएँ व शिकार के लिए घुमन्तू यात्राओं में सामना की गई जद्दोजहद और तारों की चादर ही वह दुनिया थी जिससे उसका वास्ता रोज़-रोज़ पड़ता था। इस दुनिया को समझने व बदलने की प्रक्रिया में ही ज्ञान पैदा हुआ है। प्राकृतिक विज्ञान ज्ञान की ही एक शाखा है। मार्क्सवादी दर्शन के अनुसार ज्ञान व्यवहार से पैदा होता है। ज्ञान के मुख्यतः तीन स्रोत होते हैं- उत्पादन, वर्ग संघर्ष व वैज्ञानिक प्रयोग। जिस काल की हम बात कर रहे हैं उस काल में वर्गों की मौजूदगी नहीं थी परन्तु समाज के सदस्यों के कुछ निश्चित आपसी सम्बन्ध थे। उत्पादन के दौरान किया गया व्यवहार निश्चित ही ज्ञान मुख्य स्रोत है। वैज्ञानिक प्रयोग तो दोनों ही क्षेत्रों में होते रहे हैं चाहे यह उत्पादन से सम्बन्धित हो या सामाजिक व्यवहार से। उन्हें अलग से यहाँ विभाजित कर नहीं पेश किया गया है। हम विज्ञान का अध्ययन पुरापाषाण काल को इन दो व्यवहारों के अन्तरगत बँटवारा करके देखेंगे।

उत्पादक व्यवहार–औज़ार, हथियार, रहन-सहन व आग की खोज

उत्पादन के दौरान विज्ञान कैसे पैदा हुआ? विज्ञान को जानने के लिए हमें मानव द्वारा इस्तेमाल की गई तकनीक व उसके औज़ारों, कपड़ों और रहने-सहने की जगह को अध्ययन की विषयवस्तु बनाना होगा।

जानवरों के पंजों और दाँतो के बनिस्पत इंसानों के औज़ार उन्हें बेहद उन्नत बनाते हैं। औज़ार इंसान के अंगों का विस्तार होते हैं। हाथ कुल्हाड़ी से लेकर खराद मशीन या कॉमेट लैन्डर फिल हों, औज़ारों की कहानी इंसान के महाबली बनने की कहानी है। प्रसिद्ध फिल्म ‘2001 स्पेस ओडिसी’ में स्टैनली क्यूब्रिक द्वारा इस्तेमाल किया बिम्ब खूबसूरती से औज़ार के रूप में हड्डी (आदि मानव का औज़ार) और स्पेस शिप (आधुनिक मानव का औजार) को दिखाता है। बरनाल ने लिखा है कि “सारतः औज़ार इंसानी अंगों का विस्तार होते हैं- पंजों और दाँतों का विस्तार पत्थर में; हाथों का विस्तार डंडे में, हाथ और मुँह का विस्तार झोले या टोकरी में, या एक बिलकुल अलग प्रकार का विस्तार, शरीर से प्रक्षेपण, जब पत्थर द्वारा निशाना मारा जाता है।” सबसे पहले यह समझ लेना ज़रूरी है कि इंसान किसी अन्दरूनी सहज प्रवृत्ति के कारण औज़ार बनाना या इस्तेमाल करना नहीं जानता है बल्कि वह व्यवहार के ज़रिए सीखता है। दूसरी बात यह कि उसके ज्ञान का बड़ा हिस्सा अपने साथियों से और बड़ों से प्राप्त होता है। मतलब यह कि औज़ार एक सामाजिक उत्पाद होता है। औज़ारों का स्वरूप तथा चुनाव सामाजिक तौर पर निर्धारित था। हर औज़ार को सामाजिक ज़रूरत के अनुसार ही बनाया जाता था। खुदाई में प्राप्त हुए औज़ारों में, समय और जगह की भिन्नता के बावजूद (निम्न पुरापाषाण काल के दौर के भीतर ही), समानता देखने को मिलती है। यह औज़ार बनाने व उसके प्रयोग को सीखने की परम्परा की ओर इशारा करती है। यह परम्परा जिसमें पत्थर के चुनाव से लेकर धार बनाना सिखाया जाता था। यह आने वाले समय के शिक्षा संस्थानों का बीज रूप ही था। बरनाल ने इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है कि–“सामाजिक अनुकूलन के कारण इंसान के पास हमेशा ही पुनरुत्पादन-योग्य, व्यवहारिक तथा मानक औज़ार होते हैं।”

हम लेख की शुरुआत में पाषाण काल के कालक्रम के बारे में चर्चा कर चुके हैं। मोटे तौर पर औज़ारों को अलग-अलग इण्डस्ट्री (औज़ार बनाने की संस्कृतियाँ) के आधार पर अलग किया जा सकता है। इनका वर्गीकरण आज बेहद परिष्कृत हो चुका है। यह मोड-0 से मोड-5 तक व्याख्यायित होते हैं। परन्तु हम इतनी गहराई में नहीं जाएँगे। सबसे पहले ज्ञात पत्थर के औजार 33 लाख साल पहले अस्तित्वमान थे। यह ओस्ट्रेलोपिथेकस प्रजाति के द्वारा बनाए गए थे। परन्तु होमो जीनस के साथ ही कायदे से पत्थर के औज़ार की संस्कृति शुरू हुई। पाषाण काल की सबसे पुरानी संस्कृति ओल्डवान है जहाँ साधारण औज़ार थे जो कि कोर औजारों की श्रेणी में आते हैं। (औजारों को दो श्रेणियों में बाँटा जाता है- कोर व फ्लेक) ये कोर यानी आन्तरिक केन्द्रक से बने औज़ार थे जिन्हें नदियों के पत्थरों से बनाया जाता था। वैज्ञानिक इन औज़ार बनाने वाली संस्कृतियों को इण्डस्ट्री कहते हैं। अक्युलियन संस्कृति में भी कोर औज़ार बने पर इनकी विशेषता यह थी कि ये अधिक तराशे हुए औजार थें। हैण्ड एक्स (हाथ कुल्हाडी) इसका ही उदाहरण है। इससे विकसित संस्कृति मोउस्तेरियन थी जिसमें फ्लेक (शल्क) के बने धारदार औज़ार बने। अधिक लम्बे फ्लेक जिन्हें ब्लेड कहा गया वे पुरापाषाण काल के उत्तरार्द्ध की फैक्टरियों में बने जो अधिक जटिल थे। खेती की शुरुआत (नवपाषाण काल) से पहले पुरापाषाण काल के सबसे विकसित औज़ार संयुक्त (कम्पोसिट) औज़ार थे जिनमें माइक्रोलिथ का इस्तेमाल होता है। औजारों के विकास की यात्रा बेहतर शिकार की ओर इंगित करती है। साथ ही यह विज्ञान के विकास की ओर भी इंगित करती है।

औजार बनाने की प्रक्रिया का विकास व प्राकृतिक विज्ञान का उदय

औज़ार कैसे बनते थे? हम ऊपर बता चुके हैं कि इंसान की शारीरिक बनावट, आँख-हाथ का समन्वय, जटिल तंत्रिका तंत्र औज़ार बनाने के लिए पूर्वशर्त थे। सबसे पहले औज़ार प्रकृति से मिलने वाले पत्थर थे जो की सामयिक (ऑकेज़नल) थे। यानी प्राकृतिक रूप से मिलने वाले पत्थर जिन्हें इंसान अपनी ज़रूरत अनुसार इस्तेमाल करता था। इस सामयिक पत्थर के इस्तेमाल से उसने उसके रूप को आत्मसात किया। पत्थर के ख़ास रूप की ज़रूरत को प्राकृतिक रूप से मिल रहे पत्थरों की निर्भरता से आज़ाद होते हुए उसने इसे खुद बनाने की कोशिश की। यहीं उसने इन्हें एक मानक में ढालने की कोशिश की। औजार बनाने की इस प्रक्रिया पर निकलस टोथ ने काम किया है। उन्होंने दिखाया है कि यह बेहद जटिल दिमाग की उपज है। औज़ार से पहले औज़ार की अवधारणा मौजूद होनी चाहिए। सही किस्म के पत्थर का चुनाव करना, एक पत्थर द्वारा दूसरे पर प्रहार करते वक़्त सही ताकत व सही कोण तय करना जिससे कि छिटके हुए टुकड़ों में वह टुकड़ा चुना जाए जो कि मानक औज़ार के रूप से मेल खाता हो। इंसान अपने अनुभवों को इकट्ठा कर व्यवहार से अवधारणा को जन्म दे रहा था। न्यूटन के तीन नियमों की तरह उस ज़माने में भी पत्थरों से औज़ार बनाने के निश्चित नियम होंगे, भले ही ये बेतरतीब अनुभवों का समुच्चय भर हों। सिर्फ तभी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक औज़ार बनाने की प्रक्रिया सीखी व विकसित की जा सकती थी। ये अनुभव प्राकृतिक विज्ञान के बीज थे। बल व गति के अमूर्तन सिद्धान्तों के बीज पड़ने लगे। पत्थरों के टकराने व टूटने की प्रक्रिया के अध्ययन ने पत्थर के बारे में तमाम जानकारियाँ दीं। यही यांत्रिकी व भौतिक विज्ञान का उद्भव है। पुरापाषाण काल की शुरुआत में ये औज़ार सिर्फ जानवर पर ज़ोरदार प्रहार करने के लिए इस्तेमाल किए जाते थे। शिकार को सिर्फ ज़ोरदार प्रहार की जगह उसके शरीर को भेदकर भी मारा जा सकता है। यहाँ से धारदार औज़ारों की ज़रूरत पैदा हुई। औज़ारों को धार देना अपने आप में एक तकनीकी विकास है। हाथ-कुल्हाड़ी या हैण्ड एक्स इसी ज़रूरत का मूर्त रूप है। इनका आकार पत्ती जैसा होता था। यानी एक तरफ़ से नुकीला और पीछे से चौड़ा। कोर की धार पर केन्द्र की तरफ़ (सेन्ट्रीपीटल) पत्थर से चोट करके औज़ार को रूप दिया जाता था। इसके बाद एक चिकने पत्थर (शैलखटी) द्वारा धार दी जाती थी। इस समय तक उसने पत्थरों की कई किस्मों का वर्गीकरण कर लिया था, जैसे आज तत्वों का वर्गीकरण है। यह प्रक्रिया पत्थर व उसकी आन्तरिक ज्यामिती की समझ के साथ ही विकसित हुई। कोर पत्थर से हैन्डएक्स ढालना ओल्डवान की पत्थरों को टकराकर टुकडों से औज़ार बनाने की आशु तकनीक से ज़्यादा सचेत तकनीक थी। शिकार के बाद खाल चीरना, हड्डी से माँस अलग करना–इन प्रक्रियाओं के लिए भी विशेष प्रकार के औजारों को बनाया गया। चौपर, क्लिवर, स्क्रैपर आदि का विशेष इस्तेमाल यहीं होना शुरू हुआ। पत्थरों से औज़ार बनाने की तकनीक में लैवेलॉइन तकनीक का विशेष स्थान है। लेवेलो साइट (फ्रांस) में एक समान आकार के औज़ार मिले। इस तकनीक में कोर औज़ार से सावधानीपूर्वक अलग किए गए टुकड़ों से, जिन्हें फ्लेक कहते हैं, फ्लेक औज़ार बनाए जाते थे। खुदाई में मिले इसके जीवाश्म असाधारण रूप से समरूप थे। औज़ार बनाने के लिए सिर्फ पत्थरों पर अन्य पत्थर से चोट करने की जगह (हाथ में रखकर या बडे़ पत्थर पर) पैने औज़ार से दबाव देकर भी फ्रलेक को कोर से अलग किया जाता था। यह प्रक्रिया ऐसी ही है जैसे प्याज़ की एक सतह दूसरी के ऊपर से उतर जाती है। ऐसे समरूप औज़ारों के लिए भाषा के माध्यम की ज़रूरत थी क्योंकि यह समूह का साझा उत्पादन था जो भाषा के बिना सम्भव नहीं था।

mammothऔज़ारों की तकनीक में विज्ञान की नज़र से एक बड़ा विकास प्रक्षेप्य औज़ारों के रूप में हुआ। यह जानवर पर दूरी से निशाना लगाए जाने की माँग से पैदा हुआ। यहीं काइनमैटिक्स यानी गति विज्ञान का भी विकास हुआ। भाले को फ़ेंकते वक्त कोण क्या हो व कितनी ताकत से फेंका जाए कि वह मैमथ के शरीर को भेद दे। शिकार के दौरान ही बल तथा गति के अमूर्त गणितीय सूत्र जन्म ले रहे थे। प्रक्षेप्य औज़ारों में धनुष की खोज पुरापाषाण काल की सबसे आधुनिक खोज थी। यह पाषाण काल के विज्ञान को प्रतिबिम्बित करता है। धनुष इंसानों द्वारा इस्तेमाल की पहली मशीनों में से थी जो इंसान की ऊर्जा को संचरित कर उसे तीर में डाल सकती थी। धनुष की खोज के साथ ही बो-ड्रिल भी खोजा गया जिससे मोटी से मोटी हड्डियाँ भी भेदी जा सकती थी। यह घूर्णन यांत्रिकी का नमूना है। धनुष के साथ ही ही पहले तार के वाद्य की भी खोज हुई। गिटार, सितार, वाएलिन, चेलो, संतुर जैसे सभी स्ट्रिंग वाद्य यंत्रों का जनक यही यंत्र था। पुरापाषाण काल की सबसे उन्नत तकनीकी फ्लेक इण्डस्ट्री माइक्रोलिथ फ्लेक बनाती थी। माइक्रोलिथ सबसे अधिक मेहनत से तराशे छोटे फ्लेक थे जो सम्मिलित औज़ारों में इस्तेमाल होते थे। कई खुदाइयों से ख़ास ज्यामितीय रूप लिए माइक्रोलिथ पाए गए हैं। भाले, तीर में इनका इस्तेमाल होता था। यह अवधारणा कि एक औज़ार को कई हिस्सों से जोड़ कर बनाया जा सकता है इंसान की चेतना में बड़ी छलाँग थी। ये औज़ार बेहद जटिल होते थे तथा संयोगस्वरूप औज़ारों से शुरू हुई औज़ारों की यात्रा से सम्मिलित औज़ार की यात्रा इंसान के ज्ञान के सतही से गहरेपन की ओर बढ़ने को दिखाता है।

 औज़ारों के इस्तेमाल के साथ इंसान ने कई पदार्थों को अपनाया। घरों के लिए गुफाओं का इस्तेमाल होता था तो ठण्ड से बचने के लिए चमड़े को पोशाक की तरह इस्तेमाल किया गया। आग लगाने के लिए लकड़ी और औज़ारों को भी वह साथ ही लेकर चलता था। न सिर्फ गर्म रखने के लिए चमड़े की पोशाक से इतर भी हाथीदाँत व अन्य हड्डियों के तराशे आभूषण पहनना दिखाता है कि इंसान अपने शरीर को लेकर सचेत थे। चमडे़ के लबादे से ही आगे बुने हुए कपड़े तक का विकास हुआ। हालाँकि कपड़ों के जीवाश्म नहीं मिलते हैं पर सिलाई की सुई की मौजूदगी इसकी ओर इशारा करती है। दूसरा, इंसान के कपड़ों में मौजूद जूँ (जिसका उद्विकास इंसानों की सिर की जूँ से हुआ) के डीएनए के म्युटेशन की दर से इसके उद्भव के समय का अन्दाज़ा लगाया गया जिसके अनुसार यह 15 लाख से 8 लाख साल पहले अस्तित्व में आई होगी। यह ज़िन्दा जीवाश्म हमारे लिए महत्वपूर्ण है। यह वस्तुओं को जोड़ पाने की बेहद ज़रूरी तकनीक है। पहले जानवरों की अंतड़ियों, नसों और पेशियों का इस्तेमाल धागे की तरह किया गया। कुछ जानवर भी सिलाई कर सकते हैं (घोसले की) परन्तु इंसानों ने इसके इस्तेमाल का विज्ञान समझा। यही बुनाई का आधार भी बना। यह धागा जो वस्तुओं को जोड़ सकता है, समूची वस्तु बुन सकता है। यह कई स्तर पर इंसान के ज्ञान को ऊँचा उठा देता है।

एक खोज जो कोई जानवर अचेतन भी नहीं कर सकता है वह है आग को काबू में करना। आग की खोज या आग को काबू कर पाने की खोज मानव इतिहास की सबसे बड़ी खोजों में से है। आग को काबू कर वह ठण्डी रातें बिता सकता था। जंगली जानवर आग से डरते थे व आग ने भोजन बनाने की प्रक्रिया को आसान बना दिया। वह सब कुछ खा सकता था जो पहले नहीं खाया जा सकता था। साथ ही अब खाना पचाने में कम ऊर्जा ख़र्च होती थी क्योंकि आग माँस के वसा को पहले ही तोड़ देती थी। यह कैसे हुआ हम इसकी महज़ कल्पना कर सकते हैं। यह बेहद मुश्किल रहा होगा। जंगली आग ज्वालामुखी या प्राकृतिक गैस के क्षेत्रों व जंगल में लगी आग तक ही सीमित थी। पहली बार शायद जंगल की आग में जानवर के भुने माँस को खाकर उसे इसकी तलाश रहती होगी और इसे काबू कर पाने की इच्छा भी। शायद औज़ार बनाते वक्त पत्थरों के आपस में टकराकर पैदा चिंगारी ने पास में पड़ी सूखी घास में आग लगा दी होगी जिससे उसे आग लगाना आया होगा। चमकती आग ठोस लकड़ी को धुँए और राख में तब्दील कर रही थी। इसने आग के बारे में अमूर्त (पर अब स्पष्ट) अनुभवों और अवधारणाओं को जन्म दिया होगा। इस अनुभव को व्यवहार में उतार कर ही उसने शिकार को भी भून कर खाना शुरू किया। यहीं पाक-कला का उद्भव हुआ। पाक-कला, जो विज्ञान और कला का अद्भुत विलय है, ने इंसानों को सोचने के लिए कई नयी चुनौतियाँ दी। माँस सीधे पकाया तो जा सकता था पर उसे उबाल पाना अभी भी मुश्किल था। उबालने के लिए पात्र की ज़रूरत थी। पानी को हड्डियों, शुतुरमुर्ग के अण्डों में इकट्ठा किया जा सकता था पर उसे उबालना अभी भी मुश्किल था। पुरापाषाण काल की खुदाई में तिड़के हुए पत्थरों से इस ओर इशारा मिलता है। इंसानों ने चमड़े की बाल्टियों को इन आग में गरम किए पत्थरों में डाला होगा। पर अभी भी यह मुश्किल काम था और इंसान को इससे बेहतर साधन चाहिए था। चिकनी मिट्टी से लीपी बाल्टी ने इस काम में एक नया आयाम खोला। इसी से इंसान ने मिट्टी के बर्तन बनाने का किया। चिकनी मिट्टी ने चमड़े की जगह ले ली–यह भी एक बड़ी खोज थी जिसने कुम्हार के व्यवसाय को जन्म दिया। इन पात्रों में तमाम द्रव्यों को रखा जा सकता था। किण्वन की क्रिया और साथ ही रासायनिक बदलावों का भी पर्यवेक्षण इन बर्तनों में सम्भव हुआ। इस जानकारी से ही पदार्थ को डुबाकर इसमें बदलाव किए जाने का विचार जन्मा जिसने व्यवहारतः डाई करने वाले और चमड़े के कामों का उद्भव हुआ। रासायनिक विज्ञान के पहले प्रयोग और सिद्धान्त इंसान की रसोई से निकले। इंसान जिन जानवरों व पौधों को खाता था उनकी जानकारी भी रखता था। यानी अपने शिकार की रहने की जगह, उसकी आदतें आदि की जानकारी बेहद ज़रूरी थी। पौधों के उगने की जगह, कौन-कौन से पौधे खाए जा सकते हैं और कौन से नहीं यह जानकारी भी वह रखता था। यह जानकारी ही आधुनिक जीवविज्ञान का आधार बनी।

हमने ऊपर संक्षिप्त में इंसान के उत्पादन व्यवहार से पैदा हुए ज्ञान को अलग कर व्याख्यायित किया है। यह तो स्पष्ट हो जाता है कि इंसान के पास अपने समय की बेहद कम सही समझ थी। परन्तु कुछ ख़ास क्षेत्रों में प्राचीन मानव के पास बेहद जटिल पद्धति और अवधारणाएँ थी। परन्तु ये ज़्यादातर अनुभवों के समुच्चय थे जो कि आने वाली पीढ़ी को सौंपा जाता था। इस समय इंसान ने जो अवधारणा विकसित की वह जादू थी। ऊपर जितने भी ज्ञान स्रोतों की बात की गई है वे सब इस जादुई परिकल्पना में ही गुंथे-बुने थे। यही हो भी सकता था। अपने समाज को, प्रकृति को समझने की प्रक्रिया में उसने जो अमूर्तन किया और सिद्धान्तों की रचना की उन्होंने समूचे विश्व को एक जादुई परिकल्पना के कारण-कार्य सिद्धांत से पूरा किया। बरनाल एक जगह कहा है कि इंसान जादू के जरिए प्रकृति को मूर्ख बनाना चाहना था। परन्तु यहाँ बरनाल गलती कर रहे हैं या कम-से-कम एक अधूरी बात कह रहे हैं। प्रकृति व उसके समाज का प्रतिबिम्बन जिस प्रकार का था वैसा ही उसकी परिकल्पना थी।

सामाजिक व्यवहार–भाषा, टोटेम और कला

पुरापाषाण काल की खुदाइयों से हमें पत्थर के बने औज़ार मिल जाते हैं, इंसानों के शरीर के कंकाल के जीवाश्म मिल जाते हैं परन्तु उसके विचार नहीं मिलते हैं। विचारों की खुदाई हमारे आज में और सम्पूर्ण इतिहास से ही की जा सकती है। भाषा के विकास से हमें इसकी समझ मिलती है। हमारे काल की आदिवासी आबादी के अध्ययन से भी कुछ जानकारियाँ मिलती हैं। पुरापाषाण काल से भी कुछ जानकारी तो ज़रूर मिलती है। मृत्यु के बाद इंसान को दफ़नाया जाता था। कुछ खुदाइयों में इंसान के साथ इसके दफ़नाए गए औज़ार भी मिलते हैं। पुरापाषाण काल की गुफ़ाओं में मिले चित्र जादुई परिकल्पना का ही उदाहरण हैं। इंसान का समाज जो कबीलों में रहता था इनका एक सामाजिक ढाँचा था। इंसान के समाज का विकास व उसका लगातार छोटे मोइटिस से कबीलों में विकास का प्रतिबिम्बन भी जादुई परिकल्पना में हुआ। हर कबीले का अपना टोटेम होता था। और इसी आधार पर अन्य कबीलों से आदान-प्रदान भी होता था। इतिहास में इंसान लगातार नए वर्गीकरण करता है और अपने समाज व प्रकृति को समझता है। टोटेम जो किसी जानवर या कि पौधे का प्रतीक होता था उससे जुडे नृत्य, चित्र व आभूषण हर कबीले के पास होते थे। इन टोटेमों के उत्सवों में जो कर्मकाण्ड होते थे वही आने वाली पीढ़ी को विश्व की समझ देने की व्यवहारिक शिक्षा होती थी। इस जादुई अवधारणा को आज के आदिवासी कबीलों के नृत्य या गुफाओं में की गई चित्रकारी में देखा जा सकता है। नृत्य इंसान और प्रकृति के बीच के व्यवहार का ही अनुकरण होता है। जानवरों की खाल पहनकर शिकार से लेकर एक कबीले के टोटेम के विकास को दिखाया जाता है। गुफाओं में मिली चित्रकला जादुई परिकल्पना के अनुकरण (चिन्ह) करने के पहलू की ओर इशारा करती है। शिकार की प्रक्रिया को चित्र के जरिए गुफ़ा में अन्य लोगों की पहुँच से दूर शमन (वैद्य) एक ही जगह पर बार-बार बनाते थे। यह अपने आप में एक बेहद खूबसूरत विषय है पर अभी हम मूल विषय पर वापस आते हैं। इंसान ने चित्रों और चिन्हों को असल जगत की जगह रखकर देखा। यह आधुनिक कला और विज्ञान की नींव थी क्योंकि आज विज्ञान की कल्पना चिन्हों और चित्रों के बिना कतई भी सम्भव नहीं है। अपने साथियों को गुज़र जाने के बाद जमीन में दफ़न करते हुए कब्र में खाने का सामान रखना या उसे आसपास गर्म रखना इंसानों के दिमाग में मृत्यु के बाद आत्मा के अस्तित्व की स्वीकार्यता दिखाती है।

इंसान के ज्ञान में इन दोनों क्षेत्रों व इन दोनों जगह ही हुए वैज्ञानिक प्रयोगों ने ही उसके ज्ञान को पैदा किया। हमने ऊपर संक्षिप्त में यांत्रिकी, गति विज्ञान, ज्यामिती से लेकर रासायनिक विज्ञान व जीव विज्ञान के उद्भव पर बात की है। उसका यह ज्ञान अनुभवों और कुछ व्यवहारिक अवधारणाओं का समुच्चय था। इसमें जानकारी व ज्ञान की कमी को जादुई परिकल्पना पूरा करती थी। शिकार के लिए औज़ार बनाए गए पर वे औज़ार टोटेम रीति में अपनी वैधता पाते थे। पत्थरों को टकराकर आग पैदा की जा रही थी पर वह मिथकीय श्क्ति थी। पुरापाषाण काल के मानव का विज्ञान जादुई परिकल्पना में ही कैद था जिसे प्रगति ही उधेड़ कर आजा़द करवाने वाली थी।

हमने विज्ञान के उद्भव के समय को बेहद संक्षिप्त में यहाँ देखा। आज के सर्न के प्रयोग के बीज जादुई परिकल्पना और औज़ार के ऊपर किए प्रयोगों में ढूँढे जा सकते हैं। मानव द्वारा आसमान में प्रक्षेपित किए गए स्पेस शटल इंसान के पहले प्रक्षेप्य औज़ार का ही विस्तार हैं। अगली बार हम इंसान का खेती के काल में प्रवेश और धातु की खोज के साथ जो नयी दुनिया बन रही थी उसमें विज्ञान का क्या योगदान था, इस पर केन्द्रित करेंगे और साथ ही इतिहास में विज्ञान की भूमिका पर फिर से विचार करेंगे।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-अक्‍टूबर 2015

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