पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर जनतन्त्र के नाम पर हो रहे छल-छद्म का फिर हुआ पर्दाफाश
तूतीकोरिन क़त्लेआम- राज्य प्रायोजित हत्याकांड

 सिमरन

मई 2018 को तमिलनाडु के तूतीकोरिन में पुलिस ने वेदान्ता के कॉपर स्मेलटिंग प्लाण्ट  द्वारा फैलाये जा रहे प्रदूषण के ख़िलाफ़ 100 दिनों से शान्तिपूर्वक विरोध कर रहें प्रदर्शनकारियों पर गोलीबारी कर 13 प्रदर्शनकारियों की हत्या कर दी। प्रदर्शनकारियों में बच्चे, महिलायें और वृद्ध भारी तादाद में शामिल थे। मरने वालों में 10वीं की छात्रा स्नोलिन भी शामिल थी, जो बड़ी होकर एक वकील बनना चाहती थी ताकि वह मज़लूम लोगों को इन्साफ़ दिला सके। लेकिन स्नोलिन जैसे ही भारत की मेहनतकश आबादी के बच्चों के सपनों को रौंद कर यह व्यवस्था खुद को ज़िन्दा रखे हुए है। वेदान्ता कम्पनी के स्टरलाइट कॉपर स्मेलटरिंग प्लाण्ट  के द्वारा तूतीकोरिन के पर्यावरण में पिछले 2 दशकों से लगातार सल्फर डाइऑक्साइड, आर्सेनिक, सीसा, कैडमियम आदि जैसे ज़हरीले रसायन छोड़े जा रहे हैं। ताँबे को अयस्क से निकालने की प्रक्रिया में कई रसायनों का इस्तेमाल होता है और इस प्रक्रिया में सल्फर डाइऑक्साइड, आर्सेनिक, सीसा, कैडमियम आदि घातक रसायन उप-उत्पाद के रूप से निकलते हैं। जिसके चलते वहाँ भारी संख्या में लोग कैंसर जैसी बीमारी से ग्रस्त हैं। लम्बे समय से तूतीकोरिन की आम जनता वेदान्ता के इस कॉपर प्लाण्ट  द्वारा पर्यावरण को नष्ट किये जाने के ख़िलाफ़ आन्दोलनरत थी। 22 मई को अपने आन्दोलन के 100वें दिन को मनाने के लिए प्रदर्शनकारियों ने जिला कलेक्ट्रेट तक मार्च निकालने और सभा करने का एलान किया। 99 दिनों तक तूतीकोरिन के लोगों के शान्तिपूर्ण प्रदर्शन को मिल रहे  जनसमर्थन को देख प्रशासन द्वारा उनके आन्दोलन को तितर-बितर करने की मंशा से यह पूरी कार्यवाही की गयी। ऐसे कई वीडियो और फोटो सामने आ रहे हैं जिनमे पुलिस के अफ़सर प्रदर्शनकारियों को जान से मारने की मंशा व्यक्त करते हुए उन्हें अपनी गोलियों का निशाना बना रहे हैं। स्टरलाइट प्लाण्ट  90 के दशक से ही विवादों में घिरा रहा है। तमिलनाडु में 1994 में 1300 करोड़ की लागत से बनने वाले इस प्लाण्ट  की नींव रखे जाने के समय से ही आम जनता ने इसका विरोध किया। इस विरोध के पीछे मुख्य कारण था वेदान्ता का पर्यावरण नष्ट करने का कुख्यात इतिहास जिसके चलते पहले गोवा फिर गुजरात दोनों राज्यों में ही आम जनता ने स्टरलाइट प्लाण्ट  बनाये जाने का विरोध किया। इसके बाद वेदान्ता कम्पनी महाराष्ट्र के रत्नागिरी में अपने पैर जमाने पहुँची लेकिन वहाँ भी किसानों, आम नागरिकों और पर्यावरणविदों के विरोध के चलते सरकार को इस प्लाण्ट  के निर्माण पर रोक लगानी पड़ी। ज्ञात हो कि तब तक वेदान्ता रत्नागिरी में  प्लाण्ट  के निर्माण में एक साल का समय और 300 करोड़ रूपये खर्च कर चुकी थी।  जिस कम्पनी को इस देश के तीन राज्यों में प्लाण्ट  लगाने की अनुमति नहीं दी गयी (और इसके पीछे मुख्य कारण जन दबाव रहा) उस कम्पनी को तूतीकोरिन में जड़ें जमाने की खुली इजाज़त दे दी गयी। एक शिगूफ़ा जो वेदान्ता का मालिकान अपने बचाव में उछाल रहा है वह यह है कि विश्व की ताकतें नहीं चाहती कि भारत की कम्पनी तरक्की करे इसीलिए यह आन्दोलन भड़काये जा रहें हैं। पहली बात तो ये आन्दोलन एक या दो साल पुराने नहीं हैं बल्कि 1994 से चल रहे हैं, जब से वेदान्ता का स्टरलाइट प्लाण्ट  तूतीकोरिन आया । बीते एक दशक के बीच तूतीकोरिन के निवासियों में कैंसर के बढ़ते मामलों के चलते इस विरोध की गति और तेज़ हुई है। एण्टी-स्टरलाइट आन्दोलन से जुड़े कार्यकर्ताओं का कहना है कि वेदान्ता ने  पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोर्ट (Environment Impact Assessment Report) में सरासर झूठ लिख कर कम्पनी के लिए क्लीन चिट हासिल की थी।

स्टरलाइट जैसे किसी भी प्लाण्ट  को निर्माण का कार्य शुरू करने से पहले कई सरकारी विभागों से अनापत्ति प्रमाण पत्र (No objection certificate) हासिल करना होता है, जिसमें से प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड मुख्य होता है। तूतीकोरिन के मामलें में तमिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने स्टरलाइट को 1994 में अनापत्ति प्रमाण पत्र देते हुए पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोर्ट जमा करने और मन्नार बायोस्फीयर रिजर्व की खाड़ी से 25 किलोमीटर दूर प्लाण्ट  निर्माण करने की हिदायत दी। पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोर्ट को तैयार करने के लिए एक अहम प्रक्रिया होती है जनसुनवाई की, जिसमें इलाके के निवासियों, पर्यावरणविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं को बुलाकर उनकी राय  को दर्ज़ करना ज़रूरी होता है। लेकिन स्टरलाइट के मामलें में ऐसी कोई जनसुनवाई नहीं हुई न ही तमिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा मन्नार की खाड़ी से 25 किलोमीटर दूर प्लाण्ट  निर्माण किये जाने के आदेश का पालन किया गया। स्टरलाइट का प्लाण्ट  मन्नार की खाड़ी से मात्र 14 किलोमीटर की दूरी पर है जिससे वहाँ के नाज़ुक पारिस्थितिकी को बेहद क्षति पहुँची है। 1997, 1999, 2001 में कई बार स्टरलाइट से गैस लीक होने से आस पास रहने वाले  या काम करने वाले लोगों को अस्पताल जाना पड़ा। नवम्बर 1998 में मद्रास हाई कोर्ट ने नेशनल ट्रस्ट फॉर क्लीन एनवायरनमेण्ट द्वारा 1996 में दायर की गयी अर्ज़ी पर स्टरलाइट के खिलाफ़ केस की सुनवाई शुरू की। जिसमे कोर्ट ने राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरिंग अनुसन्धान संस्थान (National Environmental Engineering Research Institute (NEERI)) की रिपोर्ट को मद्देनज़र रखते हुए पाया कि स्टरलाइट ने तूतीकोरिन के पर्यावरण को क्षति पहुँचाई है और प्रदुषण नियंत्रण बोर्ड के निर्देशों का भी उल्लंघन किया है। मद्रास हाई कोर्ट ने पहली बार स्टरलाइट प्लाण्ट  को बन्द करने के आदेश दिए। लेकिन कुछ ही समय बाद प्लाण्ट  को दोबारा शुरू करने की अनुमति भी दे दी गयी। तब से लेकर आज तक कई बार तूतीकोरिन की आम जनता ने न्यायपालिका से इन्साफ की गुहार लगाई लेकिन उन्हें निराश ही होना पड़ा। सिर्फ़ तूतीकोरिन में ही नहीं 2000 से लेकर 2010 तक उड़ीसा के लांजीगढ़ ज़िले और नियामगिरी पहाड़ियों में भी वेदान्ता के अलुमिना और बॉक्साइट खनन ऑपरेशन के ख़िलाफ़ डोंगरिया कोंध जनजाति के आदिवासियों और आम जनता ने लगातार प्रदर्शनों से अपना विरोध जताया। प्रशासन ने वेदान्ता का पक्ष लेने के लिए कोंध आदिवासियों को माओवादी साबित करने का प्रयास भी किया, लेकिन नाकामयाब रहा। छत्तीसगढ़ के कोरबा से लेकर राजस्थान और गोवा में वेदान्ता ने अपनी अलग-अलग कम्पनियों के ज़रिये तमाम पर्यावरण सुरक्षा कानूनों का खुलेआम उल्लंघन करते हुए इस देश के संसाधनों की लूट से अपनी तिजोरियाँ भरी हैं। केवल भारत में ही नहीं ज़ाम्बिया के चिन्गोला में भी ताँबे का खनन करने वाली वेदान्ता के ख़िलाफ़ लोगों ने इंग्लैंड के कोर्ट में सुनवाई के लिए अर्ज़ी दायर की है। जिसके चलते चर्च ऑफ़ इंग्लैंड, नॉर्वे के स्टेट पेंशन फंड्स, नीदरलैंड के डिपार्टमेण्ट फॉर बिज़नेस ने वेदान्ता में लगा अपना पैसा वापिस ले लिया। इतना ही नहीं 2007 में नॉर्वे की कौंसिल ऑफ़ एथिक्स ने वेदान्ता को मानव अधिकारों, श्रमिकों की सुरक्षा और पर्यावरण की सुरक्षा के नियमों का नंगा उल्लंघन करने का दोषी करार देते हुए ब्लैकलिस्ट तक कर दिया था। लेकिन इतना सब होने के बाद भी तूतीकोरिन के लोगों की गुहार इस देश के हुक्मरानों तक नहीं पहुँची।

22 मई को हुए क़त्लेआम और दुनियाभर के मीडिया में इस क़त्लेआम को उछाले जाने एवं जनदबाव के कारण सरकार को मजबूरन 28 मई को स्टरलाइट प्लाण्ट को बन्द करने के निर्देश जारी करने पड़े। एक दृष्टि से यह तूतीकोरिन की जनता की जीत है। लेकिन बड़ा सवाल यह भी है कि वेदान्ता के ख़िलाफ़ देश में ही नहीं बल्कि दुनिया भर में पर्यावरण को नष्ट करने के दर्जनों मामले होने के बावजूद भी भारत सरकार ने लाइसेंस क्यों दिया? दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में क्या 13 लोगों की बलि देकर ही इस मुद्दे की ओर सरकार का ध्यान खींचा जा सकता था?

वेदान्ता और भारत की मुख्य

राजनीतिक पार्टियों के आपसी रिश्ते

जो बर्बरता 22 मई को तूतीकोरिन की सड़कों पर बरपी थी उसके तार सीधे इस देश की राज्यसत्ता पर काबिज रही दो मुख्य राजनीतिक पार्टियों से जुड़ें हैं। जैसा कि बेर्टोल्ट ब्रेष्ट ने कहा था कि बर्बरता बर्बरता से पैदा नहीं होती वह उन सौदों से पैदा होती है जो इस बर्बरता के बिना सम्भव नहीं होते। तूतीकोरिन के क़त्लेआम के बाद मोदी सरकार कांग्रेस पर तो कांग्रेस मोदी सरकार पर दोष मढ़ने में मशगूल हैं। लेकिन सच क्या है उसकी पड़ताल कोई भी तर्कसंगत व्यक्ति ठोस तथ्यों से कर सकता है। हाल ही में केंद्रीय बजट का जो सत्र समाप्त हुआ था उसमें अरुण जेटली ने बड़ी चालाकी से वित्त विधेयक 2018 में एक संशोधन पास करवाया था। जिसके तहत 1976 से लेकर 2018 तक विदेशी स्त्रोतों से मिले चन्दे के लिए कोई भी राजनीतिक पार्टी जवाबदेह नहीं होगी। विदेशी योगदान विनियमन अधिनियम (फॉरेन कण्ट्रीब्यूशन रेगुलेशन एक्ट) 2010 जिसे 2016 में भी संशोधित किया गया था को 2018 में एक बार फिर संशोधित कर भाजपा ने अपने साथ-साथ कांग्रेस को भी ग़ैर-क़ानूनी रूप से विदेशी कम्पनियों से चन्दा लेने के मामलें में क्लीन चिट दिलवा दी। ग़ौर करने लायक तथ्य यह है कि 2016 और 2018 के ये संशोधन 2014 में दिल्ली हाई कोर्ट द्वारा भाजपा और कांग्रेस दोनों को विदेशी कम्पनियों से ग़ैर-कानूनी रूप से चन्दा लेने का दोषी पाए जाने और चुनाव आयोग व सरकार को इनके ख़िलाफ़ कार्यवाही करने के निर्देश के बाद किये गए। एक और तथ्य जो ऊपर दी गयी जानकारी से वेदान्ता को जोड़ देता है वह यह कि 2004-2010 के बीच वेदान्ता द्वारा भाजपा और कांग्रेस को विदेशी योगदान (विनियमन) अधिनियम का उल्लंघन कर दिया गया पैसा। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स द्वारा जारी किये गए आँकड़ोंं के मुताबिक 2004-2010 के बीच वेदान्ता और उसकी सहायक कम्पनियों से कई करोड़ रुपये भाजपा और कांग्रेस को चन्दे में दिए।

यह चन्दा तो वह है जो 2004 के बाद से दिया गया, उससे पहले कितना पैसा किस राजनीतिक पार्टी को खिलाया गया उसका अनुमान लगाना थोड़ा मुश्किल है। लेकिन इससे एक बात साफ हो जाती है कि वेदान्ता की पैरवी करने के लिए ये राजनीतिक पार्टियाँ इतनी तत्पर क्यों रहती हैं। तूतीकोरिन में ताज़ा प्रदर्शन स्टरलाइट प्लाण्ट  के 1200 टन प्रति दिन की क्षमता से चलने वाले प्लाण्ट  की क्षमता को दुगनी करने की घोषणा के बाद से शुरू हुए थे। बिज़नेस स्टैण्डर्ड अख़बार में 24 मई 2018 को छपी एक ख़बर के मुताबिक तूतीकोरिन में स्टरलाइट प्लाण्ट  को अपनी क्षमता दुगनी करने की अनुमति केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय द्वारा जारी किये गए एक कार्यालय ज्ञापन के ज़रिये दी गयी थी। स्टरलाइट प्लाण्ट   तूतीकोरिन औद्योगिक काम्प्लेक्स के अन्दर बना हुआ है। एनवायरनमेण्ट क्लीयरेंस रेगुलेशन 2006 के लागू होने से पहले बने इस प्लाण्ट  को क़ानूनन पर्यावरण अनापत्ति लेना अनिवार्य है। पहली बार स्टरलाइट ने कांग्रेस सें 2009 में अपने प्लाण्ट  के विस्तार के लिए अनुमति माँगी थी। उस समय कांग्रेस सरकार ने बिना किसी पर्यावरण अनापत्ति के स्टरलाइट को यह अनुमति प्रदान कर दी थी, जिसकी वैधता पाँच साल तक की थी। उसके बाद 2014 के दिसंबर में भाजपा की सरकार के केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने एक कार्यालय आदेश से स्टरलाइट को प्लाण्ट  की क्षमता दुगनी करने की अनुमति दे दी। 2016 में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने सरकार ने इस कार्यालय ज्ञापन को अमान्य करते हुए स्टरलाइट प्रशासन को पर्यावरण अनापत्ति लेने के आदेश दिए। लेकिन तब तक वेदान्ता अनापत्ति बिना किसी जन सुनवाई के हासिल कर चुका था। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय द्वारा जारी किये गए कार्यालय आदेश को बड़े-बड़े पूँजीपति घरानों ने सराहा और इसी को मोदी सरकार ‘ईज़ ऑफ़ डूईंग बिज़नेस’ कह अपनी 56 इंच की छाती फुलाती है। भले इससे देश की आम जनता की ज़िन्दगी नर्क ही क्यों न बन जाए। वेदान्ता कम्पनी के मालिक अनिल अग्रवाल मोदी के लंदन जाने की खबर सुनते ही सभी बड़े अखबारों में उनके स्वागत की ख़बर छपवाते हैं और उनके साथ फ़ोटो खींचवाने भी आते हैं। इतना ही नहीं अनिल अग्रवाल ने मोदी सरकार की कई योजनाओं जैसे नमामि गंगे (जिसके तहत अनिल अग्रवाल ने पटना में गंगा को साफ़ करने का कार्यभार स्वयं नितिन गडकरी के हाथों से लिया), ‘उजाला स्कीम’ जिसके तहत गाँव में एलईडी लैंप पहुँचाने का काम किया जाएगा में भी हिस्सेदारी की।

इस सब से एक बात साफ़ हो जाती है कि जब पूँजीपतियों की चाकरी करने की बात आती है तो क्या भाजपा क्या कांग्रेस, ये सभी चुनावबाज़ पार्टियाँ एक ही थाली के चट्टेबट्टे  हैं। अब ये जितनी मर्ज़ी कुत्ताघसीटी कर लें और एक दूसरे पर छींटाकसी करें वेदान्ता को भारत के प्राकृतिक या मानव संसाधन की खुली लूट की छूट देने वाले यही लोग हैं। तूतीकोरिन के लोगों को आज भी न्याय नहीं मिला है, हाल ही में प्रदर्शन में हिस्सेदारी करने वाले लोगों को तमिलनाडु पुलिस उनके घरों से उठा ले जा रही है। आम जनता के बीच डर और दहशत का माहौल बनाया जा रहा है। तूतीकोरिन के क़त्लेआम ने एक बार फिर यह दिखला दिया है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में किस निर्ममता से आम जनता की आवाज़ को पूँजीपतियों की सेवा करने के लिए दबाया जाता है।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मई-जून 2018

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