Category Archives: दमनतंत्र

भूमण्डलीकरण उदारीकरण के दौर की हड़पनीति!

आज डलहौजी की आत्मा भारतीय शासक वर्ग के अन्दर प्रवेश कर अपने क्रूरतम रूप में अट्टहास कर रही है। देश के प्रत्येक प्रान्त में पूँजी व मुनाफ़े के लिए लोगों से उनकी ज़मीनें छीनी जा रही हैं। भट्टा से 178 हेक्टेअर व पारसौल से 260 हेक्टेअर ज़मीन ली गयी है। छत्तीसगढ़ में 1.71 लाख हेक्टेअर कृषि योग्य भूमि का अधिग्रहण ग़ैर-कृषि कार्यों के लिए किया गया जिसमें से 67.22 भूमि खनन के लिए ली गयी जो तमाम निजी कम्पनियों को दे दी गयी। मध्य प्रदेश में 150 कम्पनियों को 2.44 लाख हेक्टेअर भूमि अधिग्रहण की अनुमति दी गयी है जिसमें से लगभग 1.94 हेक्टेअर भूमि किसानों से ली गयी जबकि 12,500 हेक्टेअर जंगल की ज़मीन है। झारखण्ड बनने के बाद से खनिज सम्पदा से समृद्ध इस प्रदेश में कार्पोरेट कम्पनियों के साथ 133 सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर किये गये जिसमें आर्सेलर ग्रुप, जिन्दल और टाटा प्रमुख हैं। मायावती सरकार द्वारा गंगा और यमुना एक्सप्रेस वे में 15,000 गाँवों के विस्थापन का अनुमान है। उड़ीसा में पॉस्को और वेदान्ता आदिवासियों की जीविका और आवास छीन रही हैं। एक अनौपचारिक अनुमान के अनुसार उड़ीसा में 331 वर्ग किलोमीटर भूमि 300 औद्योगिक संरचनाओं के लिए दी गयी है। 9,500 करोड़ रुपये के यमुना एक्सप्रेस वे के लिए लगभग 43,000 हेक्टेअर ज़मीन ली जायेगी जिसके लिए 1,191 गाँवों को नोटिफ़ाइड किया गया है।

गोरखपुर में आन्दोलनरत मज़दूरों पर मालिकों का क़ातिलाना हमला

गोरखपुर जैसे शहर के लिए, जो देश के बडे़ औद्योगिक केन्द्रो में नहीं आता, और राजनीतिक सरगमियों के लिहाज़ से एक पिछड़ा हुआ शहर माना जाता है, यह एक बड़ी घटना थी कि वहाँ से करीब 2000 मज़दूर इकट्ठा होकर देश की राजधानी पहुंच जायें। इस इलाके के फैक्टरी मालिकों के शब्दों में कहें तो इससे मज़दूरों का ‘’मन बढ़ जायेगा”। इसी डर के चलते फैक्टरी मालिक विशेषकर अंकुर उद्योग लिमिटेड और वी एन डायर्स लिमिटेड, स्थानीय प्रशासन के साथ मिलकर लगातार मज़दूरों को इस देशव्यापी प्रदर्शन में शामिल होने से रोकने का प्रयास कर रहे थे। इन सब कोशिशों को धता बताते हुए जब मज़दूर बड़ी संख्या में इकट्ठा होकर दिल्ली चले गये तो मालिकों ने उन्हें ‘सबक सिखाने’ का तय किया। फलस्वरूप 3 मई, 2011 को अंकुर उद्योग लिमिटेड से करीब 18 मज़दूरों को बिना कोई कारण बताये फैक्टरी से निकालने का नोटिस थमा दिया गया। इस पर मज़दूर फैक्टरी के बाहर विरोध ज़ाहिर करने के लिए इकट्ठा होने लगे। मालिकों को यह पहले से ही पता था, और इसीलिए प्रदीप सिंह नामक एक हिस्ट्रीशीटर को तीन अन्य गुण्डों के साथ मौका-ए-वारदात पर बुला रखा था। धरना-प्रदर्शन और नारेबाज़ी शुरू होते ही इन गुण्डो ने फैक्टरी की छत पर चढ़कर निहत्थे मज़दूरों पर फायरिंग शुरू कर दी, जिसमें 19 मज़दूर घायल हो गये।

विकास पुरुष नीतीश कुमार का ऐतिहासिक जनादेश और सुशासन का सच!

नीतीश कुमार की सरकार की जनपक्षधरता अभी हाल के ही एक और मसले में भी सामने आ गयी। अभी चैनपुर-बिशुनपुर इलाक़े में एक पूँजीपति एस्बेस्टस का कारख़ाना लगाने वाला है। इस इलाक़े की पूरी जनता इसके ख़िलाफ है और सड़कों पर उतर रही है। लेकिन नीतीश कुमार की सरकार इन पर लाठियाँ बरसाने और इन्हें गिरफ़्तार करने का काम कर रही है। इसी से पता चलता है कि नीतीश कुमार की सरकार किनके लिए विकास करना चाहती है। यह विकास पूँजीपतियों को ध्यान में रखकर किया जा रहा है और इसकी सच्चाई आने वाले पाँच वर्षों में और अच्छी तरह से उजागर हो जायेगी।

बिनायक सेन: पूँजीवादी न्याय की स्वाभाविक अभिव्यक्ति

वैसे तो इस देश की अभागी जनता को पूँजीवादी लोकतन्त्र के मानकों पर खरा उतरने वाला लोकतन्त्र भी कभी नहीं मिला, लेकिन पहले के मुकाबले आज की स्थितियों में फ़र्क़ ज़रूर है। उदारीकरण और निजीकरण के पिछले दो दशकों के इतिहास ने राज्य की भूमिका को दो स्तरों पर परिवर्तित किया है। निजी पूँजी की लूट को रोक पाना या एक हद तक नियमित कर पाना भी उसके लिए असम्भव है। वस्तुगत तौर पर उसकी भूमिका सहायक की ही हो सकती है, क्योंकि यह पूँजीवाद की ज़रूरत है। ऐसे में निजी पूँजी के विस्तार के ख़िलाफ अगर तात्कालिक दृष्टि से भी कोई व्यक्ति या संगठन कार्य करता है, उसे अवरुद्ध करता है तो राज्य उसका निर्मम दमन करेगा। दूसरे इन नीतियों के प्रभाव में जहाँ एक तरफ छोटे से मध्यवर्ग के लिए अकूत धन-सम्पदा और ख़ुशहाली पैदा हुई है, वहीं देश की व्यापक जनता के लिए ग़रीबी, बेरोज़गारी, भुखमरी और महँगाई के रूप में भारी विपन्नता पैदा हुई है। देश के शासक वर्ग भी जानते हैं कि वे ज्वालामुखी के दहाने पर बैठकर रंगरेलियाँ मना रहे हैं और यह ज्वालामुखी भविष्य में जनविद्रोह के रूप में फूटेगा ही, जिसके आसार अभी से नज़र आने लगे हैं। इस विस्फोट को यथासम्भव विलम्बित करने के लिए राज्य अपने दमनतन्त्र को तीखा करते हुए दबे पाँव एक अघोषित आपातकाल पैदा करने की ओर अग्रसर है।

प्रशासनिक सेवा की तैयारी में लगे “होनहारों” के सपने-कामनाएँ, व्यवस्था की ज़रूरत और एक मॉक इण्टरव्यू

“नौकरशाही” का यह चरित्र कोई नयी चीज़ नहीं है। अंग्रेज़़ों के समय में भी यह नौकरशाही ही थी, जिसने अंग्रेज़ी व्यवस्था की सेवा में जनता को लूटा, निचोड़ा, लाठियों-गोलियों से बेदर्दी से शिकार किया और बड़े-बड़े कीर्तिमान स्थापित किये। हर घण्टे हर दिन हर महीने व हर साल, आज़ादी तक अंग्रेज़ों की नौकरशाही ने जनता पर जु़ल्म ढाये। ग़ौरतलब है कि अंग्रेज़ों की नौकरशाही का केवल एक चरित्र, एक रंग-रूप होता है – मौजूदा व्यवस्था की हर हाल में हिफ़ाज़त करना। आज़ादी के बाद चूँकि शोषणकारी व्यवस्था में केवल एक परिवर्तन आया, बकौल भगतसिंह, गोरे साहबों के स्थान पर भूरे साहबों का काबिज़ होना। इससे लूट-शोषण का न केवल वही मूल ढाँचा बना रहा, बल्कि आज़ादी के बाद कितने जलियाँवाला बाग़ को भारतीय नौकरशाही ने अंज़ाम दिया इसकी कोई गिनती नहीं है।

डॉ. विनायक सेन को रिहा करो

सभी ने एक स्वर में विनायक सेन के आजीवन कारावास की सज़ा का विरोध किया, और इसे जनता के जनवादी लोकतान्त्रिक अधिकारों पर राज्य का घिनौना हमला घोषित किया। नौजवान भारत सभा और संयुक्त मज़दूर अधिकार संघर्ष मोर्चा के संयोजक तपिश ने कहा कि यह अकेले डॉ. सेन का मामला नहीं है। देश के हुक्मरान चाहते हैं कि देशवासी सभी अन्याय-अत्याचार चुपचाप बर्दाश्त करते रहें, लोकतान्त्रिक विरोध की सभी सीमित गुंजाइशें तक उन्हें नागवार गुज़र रही हैं।

कश्मीर समस्या का समाधान

इस बार कश्मीर का उभार एक इन्तिफादा या जनविद्रोह का रूप लेकर सामने आया है। अगर यह भारतीय सैन्य दमन से जीत नहीं सकता तो भारतीय सैन्य दमन भी इसे हरा नहीं सकता है। भारतीय शासक वर्ग भी इस बात को समझ रहा है। यही कारण है कि सैन्य समाधान की बजाय किसी राजनीतिक समाधान और इस समाधान में पाकिस्तान को भी शामिल करने की बात प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह कर रहे हैं। यह काफी समय बाद है कि किसी भारतीय प्रधानमन्त्री ने खुले तौर पर कश्मीर मुद्दे के समाधान के लिए पाकिस्तान की भागीदारी आमन्त्रित की है। गिलानी की सारी माँगों को मानने के लिए भारतीय शासक वर्ग कतई तैयार नहीं है। कश्मीर पर अपने दमनकारी रुख़ को ख़त्म करने के लिए भी भारतीय शासक वर्ग तैयार नहीं है, क्योंकि उसे भय है कि कश्मीर पर शिकंजा ढीला करते ही वह पाकिस्तान के पास चला जायेगा। लेकिन हाल में दिये गये राजनीतिक पैकेज में भारतीय शासकों ने कुछ बातें मानी हैं। गिरफ्तार लोगों को छोड़ने की बात की गयी है और साथ ही सर्वपक्षीय प्रतिनिधि मण्डल को कश्मीर भेजा गया।

15 अगस्त के मौक़े पर कुछ असुविधाजनक सवाल!

क्या प्रधानमन्त्री जी को पता है कि जब वे लालकिला की प्राचीर से भारतीय जन-गण को सम्बोधित कर रहे थे, उसके ठीक 24 घण्टा पहले अलीगढ़ में पुलिस इस देश की ‘जन’ पर गोलियाँ बरसा कर कइयों को लहूलुहान कर चुकी थी और तीन को मौत के घाट उतार चुकी थी। मारे गये किसानों की महज़ इतनी भर माँग थी कि ‘यमुना एक्सप्रेस वे’ के नाम जे.पी. समूह के लिए उनसे जो ज़मीन सरकार ने हथिया लिया है उसका उचित मुआवज़ा दिया जाये। बस इतनी सी बात।

फर्जी मुठभेड़ों और हिरासती मौतों के रिकॉर्ड तोड़े उत्तर प्रदेश पुलिस ने

पिछले तमाम सालों में मुठभेड़ों के जरिये देश में हुई हत्याओं के लिए उत्तर प्रदेश कुख्यात रहा है। आँकड़ों पर नज़र डालें तो हम पाते हैं कि 2006 में भारत में मुठभेड़ों में हुई कुल 122 मौतों में से 82 अकेले उत्तर प्रदेश में हुई। 2007 में यह संख्या 48 थी जो देश में हुई 95 मौतों के 50 फीसदी से भी ज़्यादा थी। 2008 में जब देश भर में 103 लोग पुलिस मुठभेड़ों में मारे गये तो उत्तर प्रदेश में यह संख्या 41 थी। 2009 में उत्तर प्रदेश पुलिस ने 83 लोगों को मुठभेड़ों में मारकर अपने ही पिछले सभी रिकॉर्ड ध्वस्त कर डाले।

गुजरात : पूँजीवादी इंसाफ का रास्ता बेइन्तहा लम्बा, टेढ़ा–मेढ़ा और थकाऊ है

आज गुजरात में हुआ, कल कहीं और होगा। आज मोदी ने किया, कल कोई और करेगा। क्या आज़ादी के बाद के 63 वर्ष इस बात की गवाही नहीं देते ? अगर इस कुचक्र से मुक्ति पानी है तो पूरी पूँजीवादी व्यवस्था, सभ्यता और समाज के ही विकल्प के बारे में सोचना होगा। हर इंसाफ़पसन्द नौजवान का आज यही फ़र्ज़ बनता है।