Category Archives: आर्थिक नीतियाँ

बेरोज़गारी की मार झेलती युवा आबादी

निजी मालिकाने पर आधारित पूँजीवादी व्यवस्था अपनी स्वाभाविक गति से समाज में एक तरफ़ कुछ लोगों के लिए विलासिता की मीनारें खड़ी करती जाती है तो दूसरी ओर करोड़ों-करोड़ छात्रों समेत आम आबादी को गरीबी और भविष्य की अनिश्चितता के अँधेरे में ढकेलती है। मुनाफ़ा पूँजीवादी व्यवस्था की चालक शक्ति होती है। आज विश्व पूँजीवाद मुनाफ़े की गिरती दर के असमाधेय संकट के दौर से गुजर रहा है। पूँजीवादी होड़ से पैदा हुई इस मंदी की कीमत छँटनी, तालाबन्दी, भुखमरी, दवा-इलाज़ का अभाव, बेरोज़गारी आदि रूपों में मेहनतकश वर्ग को ही चुकानी पड़ती है।

भारत में महिला श्रमबल भागीदारी दर में चिन्ताजनक गिराव

किसी समाज में काम करने वाली कुल आबादी में महिलाओं की भागीदारी उसके विकास का सूचक होता है। पूँजीवादी विकास और मुद्रा अर्थव्यवस्था के पदार्पण के साथ ही महिलाओं को अपने घरों की चौहद्दी को पार करने के लिए उत्प्रेरण मिलना शुरू होता है और वे ज़्यादा से ज़्यादा संख्या में श्रमबल में भागीदारी करती हैं। मुनाफ़ा कमाने की सनक में डूबे पूँजीपति वर्ग के भी यह हित में होता है कि ज़्यादा से ज़्यादा महिलाएँ श्रमबल का हिस्सा बनें ताकि मज़दूर वर्ग की तादाद बढ़ने से उसकी मज़दूरी बढ़ाने के लिए मोलभाव करने की ताक़त कम हो।

ढहती अर्थव्‍यवस्‍था, बढ़ती बेरोज़गारी

बेतहाशा बढ़ रही बेरोज़गारी को लेकर देश की छात्र-युवा आबादी में सुलगता असन्‍तोष पिछली 5 सितम्‍बर और फिर 17 सितम्‍बर को देश के कई राज्‍यों में सड़कों पर प्रदर्शनों के रूप में रूप में फूट पड़ा। शहरों ही नहीं, गाँवों के इलाक़ों में भी जगह-जगह छात्रों-युवाओं ने थाली पीटकर अपना विरोध जताया और नरेन्‍द्र मोदी के कथित जन्‍मदिवस को ‘बेरोज़गारी दिवस’ के रूप में मनाया। यह सही है कि नौजवानों की एक भारी आबादी अब भी संघी प्रचार और गोदी मीडिया व भाजपा के आईटी सेल द्वारा उछाले जा रहे झूठे मुद्दों की गिरफ़्त में है, लेकिन आने वाले दिनों में बेरोज़गारी, महँगाई और सरकारी दमन की बिगड़ती स्थिति की मार उन पर भी पड़ने वाली है।

‘अच्छे दिनों’ की मृगतृष्णा

ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार 2017 में देश के 1% लोग देश की 73% सम्पत्ति पर कब्जा करके बैठे हैं। अमित शाह के बेटे जय शाह की सम्पत्ति में 16000 गुना की वृद्धि हुई है, विजय माल्या और नीरव मोदी जो 9000 करोड़ और 11000 करोड़ रुपये लोन लेकर विदेश भाग गये। पनामा और पैराडाइज़ पेपर के खुलासे के बाद सरकार की नंगयी साफ तौर पर जगजाहिर हो गयी कि इनका मकसद काला धन लाना नहीं उसे सफ़ेद धन में तब्दील करना है। इस साल रिकॉर्ड ब्रेक करते हुए सरकार ने एनपीए के मातहत 1,44,093 करोड़ रुपये माफ़ कर दिया। एक तरफ धन्नासेठों-मालिकों के लिए पलकें बिछाकर काम किया जा रहा है वहीं दूसरी तरफ कश्मीर से तूतीकोरिन तक जनता के प्रतिरोध को डंडे और बन्दूक के दम पर दबाया जा रहा है। छात्र, नौजवान, मजदूर, किसान, दलित, महिलाएँ सब पर चौतरफा हमला किया जा रहा है। 2 करोड़ नौकरियाँ हर साल देने का वादा, नमामि गंगे में 7000 करोड़ रुपये खर्च किये जाने, 2019 तक सबको बिजली जैसे लोकलुभावन वायदों की हकीकत सबके सामने खुल रही है। अच्छे दिन आये पर धन्नासेठों के लिए, आम जनता की हालात बद से बदतर ही हुई है।

बाज़ार के हाथों में उच्च शिक्षा को बेचने का षड्यंत्र

यह बात भी उतनी ही सच है कि ज्यादतर निजी शिक्षण संस्थान गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध नहींं कराते। एक तरफ बाज़ार के हाथों में उच्च शिक्षा को निजी विश्वविद्यालय कुकुरमुत्ते की तरह खुलते रहे वहीं सरकारी विश्वविद्यालयों की हालत बद से बदतर होती रही। 2014 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 677 विश्वविद्यालय है जिनके अन्तर्गत करीब 37,204 कॉलेज है। लेकिन वास्तविकता में इनमे से ज्यादातर सिर्फ डिग्री देने वाले संस्थान भर है। एक हालिया सर्वे के अनुसार सिर्फ 18 प्रतिशत इंजीनियरिंग स्नातक ही नौकरी कर पाने के लायक है वहीं केवल 5 प्रतिशत अन्य विषयों के स्नातक छात्र नौकरी करने के लायक है। देशभर के विश्वविद्यालयों में करीब 65000 शिक्षकों के पद खाली हैं। राज्य विश्वविद्यालय की बात छोड़ भी दें तो देश के सैंतालीस केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में करीब 47 प्रतिशत शिक्षकों के पद खाली हैं। यहाँ तक की आईआईटी जैसे संस्थानों में भी करीब 40 प्रतिशत पद खाली हैं। ऐसे वक़्त में जब उच्च शिक्षा पर सरकारी खर्चे बढ़ाने की जरूरत है उस वक्त सरकार शिक्षा से विनिवेश की तैयारी कर रही है।

ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट के अनुसार भारत बेरोजगारी दर में एशिया में शीर्ष पर

इसी साल फरवरी महीने में भारत के सबसे बड़े सार्वजनिक क्षेत्र रेलवे द्वारा 89,409 पदों के लिए रिक्तियाँ निकाली गयीं, जिसके लिए 2.8 करोड़ से भी अधिक आवेदन प्राप्त किये गये। मतलब हर पद के लिए औसतन 311 लोगों के बीच मुकाबला होगा। आवेदन भरने वालों में मैट्रिक पास से लेकर पी.एच.डी. डिग्री धारक तक लोग मौजूद थे। आवेदकों की उम्र 18 साल से लेकर 35 साल के बीच है, अर्थात् एक पूर्ण युवा और नौजवान आबादी। उपरोक्त संख्या अपने आप में यह बताने के लिए काफी है कि भारत में बेरोजगारी का आलम क्या है। यह सरकार द्वारा किये गये हर उस दावे को झुठलाने के लिए काफी है जिसमें वह दावा करती है कि उसने देश में रोजगार पैदा किया है। साथ ही यह सरकार की मेक इन इंडिया और स्किल इंडिया जैसी योजनाओं की पोल भी खोल कर रख देती है। यह कोई ऐसी पहली घटना नहींं है। इससे पहले भी उत्तर प्रदेश में चपरासी के 315 पदों के लिए 23 लाख आवेदन भरे गये थे, वहीं पश्चिम बंगाल में भी चपरासी और गार्ड की नौकरी की लिए 25 लाख लोगों ने आवेदन भरा था। दोनों ही जगह स्नातक, स्नातकोत्तर तथा पीएचडी डिग्री धारक लोग भी उस भीड़ में मौजूद थे। ऐसे तमाम और भी कई उदाहरण हैं जो देश में बेरोजगारी की तस्वीर खुलेआम बयाँ करते हैं।

2022 तक सबको मकान देने का जुमला उछालने वाली मोदी सरकार ने फिर से किया दिल्ली में सैकड़ों झुग्गियों को ज़मींदोज़!

5 नवम्बर 2018 को दिल्ली के शाहबाद डेरी इलाके के सैकड़ों झुग्गीवालों के घरों को डी.डी.ए. ने ज़मींदोज़ कर दिया। 300 से भी ज़्यादा झुग्गियों को चंद घण्टों में बिना किसी नोटिस या पूर्वसूचना के अचानक मिट्टी में मिला दिया गया। सालों से शाहबाद डेरी के मुलानी कैंप की झुग्गियों में रहने वाले लोगों को सड़क पर पटक दिया गया। न तो केंद्र सरकार ने झुग्गीवालों के रहने के लिए कोई इंतज़ाम किया और न ही राज्य सरकार ने उनकी टोह ली। दिल्ली जैसे महानगर में पिछले कई सालों में सर्दी शुरू होने के साथ झुग्गियाँ टूटने की ऐसी खबरें जैसे आम सी बात बन चुकी है। आवास एवं भूमि अधिकार नेटवर्क (हाउसिंग एंड लैंड राइट्स नेटवर्क) की फरवरी 2018 की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में अकेले 2017 में ही राज्य एवं केंद्र सरकारों द्वारा 53,700 झुग्गियों को ज़मींदोज़ किया गया जिसके चलते 2.6 लाख से ज़्यादा लोग बेघर हो गये।इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर घण्टे 6 घरों को तबाह किया गया।

‘पहाड़ों में जवानी ठहर सकती है’, बशर्ते…

कहते हैं कि ‘पहाड़ों में पानी और जवानी ठहर नहीं सकती’। यह कहावत पहाड़ के दर्द को बताती है। इसी ‘दर्द’ ने पहाड़ की जनता को अलग राज्य बनाने के संघर्ष के लिए उकसाया। लेकिन राज्य बनने के बाद भी जिन कारणों से पहाड़ की जनता की सारी उम्मीदें, आकांक्षाएँ टूटी हैं उन कारणों की पड़ताल किये बिना उत्तराखण्ड राज्य में किसी भी समस्या का समाधान सम्भव नहीं है। अलग राज्य बनने के सत्रह वर्षों के दौरान जिस तरह पूँजी का प्रवेश, कॉरपोरेटों, भू-खनन माफियाओं की पहुँच बढ़ी है, उसने पूरे पहाड़ की जैव विविधता, पर्यावरण, नदियों, खेतों, वनों-बगीचों को तबाह कर दिया है।

तूतीकोरिन क़त्लेआम- राज्य प्रायोजित हत्याकांड

जो बर्बरता 22 मई को तूतीकोरिन की सड़कों पर बरपी थी उसके तार सीधे इस देश की राज्यसत्ता पर काबिज रही दो मुख्य राजनीतिक पार्टियों से जुड़ें हैं। जैसा कि बेर्टोल्ट ब्रेष्ट ने कहा था कि बर्बरता बर्बरता से पैदा नहीं होती वह उन सौदों से पैदा होती है जो इस बर्बरता के बिना सम्भव नहीं होते। तूतीकोरिन के क़त्लेआम के बाद मोदी सरकार कांग्रेस पर तो कांग्रेस मोदी सरकार पर दोष मढ़ने में मशगूल हैं। लेकिन सच क्या है उसकी पड़ताल कोई भी तर्कसंगत व्यक्ति ठोस तथ्यों से कर सकता है। हाल ही में केंद्रीय बजट का जो सत्र समाप्त हुआ था उसमें अरुण जेटली ने बड़ी चालाकी से वित्त विधेयक 2018 में एक संशोधन पास करवाया था।

यूरोप में यूनानी त्रासदी के बाद इतालवी कामदी!

इटली के इतिहस को कामदी के मोड़ पर लाकर खड़ा करने वाले इस आन्दोलन का स्थापक एक कॉमेडियन बेप्पे ग्रिल्लो था। इस आन्दोलन ने सत्ता और भ्रष्ट नेताओं के खिलाफ अपशब्द नामक विरोध दिवस मनाये। यह आन्दोलन मुख्यतः भ्रष्टाचार, किफायतसारी और संकट के कारण बढ़ती बेरोज़गारी व गरीबी के खिलाफ था व इसमें नेताओं की ईमानदारी की बात कही गयी। इस आन्दोलन ने एक तरफ यूरोपियन यूनियन से अलग होने की बात कही तो दूसरी ओर सम्प्रभु कर्ज को मिटा देने की बात भी की। भारत में अन्ना हजारे आन्दोलन भी कुछ ऐसा ही था। ‘इण्डिया अगेंस्ट करप्शन” के उत्पाद के तौर पर केजरीवाल की सरकार बनी तो हजारे ने इस सरकार से खुद को अलग कर लिया है वहीं बेप्पे ग्रिल्लो भी इस आन्दोलन से व पार्टी से अलग हो चुका है।