…वे अपना मृत्युलेख लिखते हैं
कात्यायनी
(आन्ध्र प्रदेश में एक क्रान्तिकारी वामपन्थी छात्र-कार्यकर्त्री को पुलिस द्वारा सड़कों पर निर्वस्त्र घुमाने की घटना की प्रतिक्रिया में यह कविता लिखी गयी।)
ऐसे में कोई कविता
कविता नहीं होती
कहानी कहानी नहीं बन पाती
सब कुछ महज़ एक बयान होता है,
हथेलियों में धँसी
क्रोधोन्मत्त, भिची हुई उँगलियों का
कसाव होता है,
दूर क्षितिज पर जमी हुई
सुलगती आँखों की दमक होती है,
दान्को के जलते हुए हृदय से
स्तेपी में
तूफ़ान से पहले छिटकती हुई
नीली चिगारियों की लौ होती है।
वे निर्वस्त्र करते हैं तुम्हें,
घुमाते हैं
तुम्हारे शहर की सड़कों पर
और अपने जीने का हक़
एक बार फिर खो देते हैं।
वे तुम्हें निर्वस्त्र घुमाते हैं सड़कों पर
और नब्बे करोड़ लोगों की ओर
एक चुनौती उछालते हैं।
पैंतालीस करोड़ औरतों की अस्मत
संगीनों पर लटकाये
वे परेड करते हैं,
रौंदते हैं गर्भस्थ बच्चों को।
सफ़ेद आतंक के बूटों के नीचे
दरकती है धरती की छाती,
कहीं कोई धमाका होता है,
माँओं के स्तनों से लगे बच्चे
दूर छिटक जाते हैं,
ख़ून का एक फ़व्वारा छूटता है
और सायरन बजाती हुई
एक पेट्रोल-कार गुज़र जाती है।
हाँफते हैं
सफ़ेद आतंक के पूँछ कटे खूँख़ार कुत्ते
अपनी काली कारगुज़ारियों से थककर।
और मृत्यु-उपत्यका में
दूर कहीं तुरही बजती है।
सुबह के रक्तिम आलोक में
निश्चित ही वे
अपने जीने का हक़
अन्तिम तौर पर खो देते हैं।
प्रबल ताप से झुलसने
और फिर जलकर राख हो जाने के लिए
वे कुरेद देते हैं ढँकी आग को
जब वे निर्वस्त्र घुमाते हैं
तुम्हें
संगीन की नोक पर
तुम्हारे अपने शहर की सड़कों पर।
जून, 1988
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-दिसम्बर 2012
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