“विकास” की बेलगाम ऊर्जा
प्रेम प्रकाश
तमिलनाडु के तिरुनेलवेली जिला का गाँव कुडनकुलम आज भारतीय मानचित्र पर ही नहीं वरन् पूरे ग्लोब पर उभरकर चर्चित हो चुका है, इण्टरनेट पर या अखबारों में अगर आप कुडनकुलम की ख़बरों की तलाश करें तो दो तस्वीरें दिखाई देती हैं। एक विशालकाय कंक्रीट का बना दानवनुमा परमाणु बिजली घर तो दूसरी तस्वीर समुद्र में तथा समुद्री किनारों पर इकठ्ठा सैकड़ों नौकाओं और स्त्रियों, बच्चों समेत हज़ारों लोग और उनको पीटती पुलिस। इण्टरनेट पर आज कुडनकुलम पर कितने हज़ार पेजों में सूचनाओं का अम्बार है इसका पता लगाना कठिन है। कुडनकुलम ने एक साथ कई प्रश्नों को उठाकर हमारे सामने और बहुत करीब खड़ा कर दिया है, परमाणु ऊर्जा और विकास का प्रश्न, शासन के विकास का मॅाडल और जनता के विकास-विरोध का प्रश्न, परमाणु ऊर्जा से सम्बन्धित सुरक्षा मानकों और प्राकृतिक आपदाओं का प्रश्न, परमाणु ऊर्जा के पक्ष और विपक्ष का प्रश्न और इन सबमें सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न भारतीय राज्य के ‘जनतान्त्रिक ढोल का पोल’ और जनता के जनवाद का प्रश्न। अगर हम अपनी आँखें व बुद्धि खुली रखते हैं, अगर हम अपने कोकून से बाहर अपने इर्द-गिर्द की दुनिया की ख़बर रखते हैं, तो ये तमाम मुद्दे हमको झकझोरते हैं, अपनी ओर खींचते हैं।
कुडनकुलम की इस त्रासद घटना की नींव तब पड़ी थी जब भारत अपने औद्योगिक विकास के नवीनतम मॉडल भूमण्डलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण की सर्वग्रासी उड़ान का लांच पैड तैयार कर रहा था। सन 1988 में भारत के प्रधानमंत्री राजीव गाँधी और सोवियत राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचोव के बीच दो परमाणु रिएक्टर लगाने का फैसला हुआ, सोवियत संघ के विघटन एवं राजनीतिक-आर्थिक कारणों से इसका निर्माण सन 2000 तक लम्बित पड़ा रहा और दुबारा 2001 में 13615 करोड़ की अनुमानित लागत से शुरू हुआ।
भारत-रूस की इस संयुक्त परियोजना में रूस-निर्मित वी.वी.आई.आर. 1000 (पी डब्ल्यू आर) रिएक्टरों को लगाया गया है, जिसमें से एक इकाई का निर्माण 99.7 प्रतिशत पूर्ण हो चुका है तथा दूसरी इकाई 97.26 फ़ीसदी पूरी हो चुकी है। कोई भी बहस निरपेक्ष एवं शून्य में नहीं होती। वह सापेक्ष और देश काल में होती है और उसी आधार पर पक्ष व विपक्ष निर्धारित होते है। लेकिन इससे इतर सरकार और उसकी संस्थाएँ व वैज्ञानिक परमाणु ऊर्जा एवं “विकास” का निरपेक्ष रूप से पक्ष-पोषण कर रहे हैं। स्वयं देश के अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कुडनकुलम नाभिकीय परमाणु संयंत्र (के.एन.पी.पी.) के विरोध के लिए विदेशी एन.जी.ओ. को जिम्मेदार ठहरा रहें हैं। परमाणु ऊर्जा आयोग के पूर्व चेयरमैन श्रीनिवासन नें कहा की यह संयंत्र पूरी तरह सुरक्षित है। इस पर 14,000 करोड़ रुपये ख़र्च किये जा चुके हैं और अगर यह तत्काल शुरू नहीं किया गया तो देश की आर्थिक स्थिति पर प्रभाव पडे़गा। संयंत्र के तकनीकी पहलू पर केन्द्र सरकार द्वारा गठित पैनल के संयोजक और नाभिकीय वैज्ञानिक डा. मुथुनायागम व भारत सरकार के प्रधान वैज्ञानिक सलाहकार राजगोपाल चिदंबरम तथा परमाणु ऊर्जा कारपोरेशन लिमिटेड (एन.पी.सी.आई.एल.) के मुख्य प्रबन्धन अधिकारी के.सी. पुरोहित ने कहा कि संयंत्र ठीक एवं सुरक्षित है। पूर्व राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम ने कहा कि संयंत्र भूकंप केंद्र से 1300 किमी दूर तथा समुद्र तल से 13 मीटर ऊपर स्थित है। वह इसे पूर्णतया सुरक्षित बता रहे हैं और इसे देश की प्रगति व विकास के लिए आवश्यक बता रहे हैं।
एक वैज्ञानिक विश्लेषण की जगह अगर कोई इन सरकारी दलीलों पर ग़ौर करे तो स्पष्ट है की जनान्दोलनों को फण्ड के नाम पर बदनाम करना या देश के आर्थिक विकास और आर्थिक स्थिरता का राग अलापना कोई नयी बात नहीं है। राष्ट्रवाद का राग तो पूँजीवाद की मण्डी में ही पैदा होता है। तिरुनेलवेली, तूतीकोरन, कन्याकुमारी और अन्य हिस्सों के लाखों लोग पुलिस दमन के बावजूद विरोध में अडे़ हैं। क्या विकास और स्थिरता के चिन्तक यह बता पायेंगें कि लाखों लोगों को बेघर कर उनका रोज़गार छीन वे किस विकास की बात कर रहे हैं? दरअसल परमाणु ऊर्जा की पूरी बहस तथाकथित विकास के राष्ट्रीय एवं वैश्विक चरित्र के अनुकूल है जहाँ अति तीव्र ऊर्जा माँग तीव्र मशीनीकरण के उस उद्योग की जरूरत है जो मनुष्य के विकास को नहीं वरन् वर्तमान पूँजीवादी विश्व द्वारा सारे आर्थिक क्रियाकलाप को मुनाफे की अधिकतम पैदावार एवं संकेन्द्रण के रूप में व्याख्यायित करती है। आज जहाँ एक ओर पश्चिमी देश अपने रिएक्टरों और यूरेनियम को बेचकर पूँजी निर्यात द्वारा मंदी से लड़ सकते हैं व अपनी स्थिति मज़बूत कर सकते हैं वहीं भारतीय पूँजीपति वर्ग को तथाकथित विकास रथ को सरपट दौड़ाकर श्रम की लूट को तेज करने के लिए सस्ती ऊर्जा की तीव्र जरूरत है। चाहे यह लोगों की जिन्दगी और आने वाली पीढ़ियों की कीमत पर ही क्यों न हो!
2008 में अमेरिका से हुए परमाणु क़रार के बाद भारत सरकार 150 बिलियन डालर के सौदे के लिए सहमत हुई थी। नाभिकीय आपूर्ति समूह (एन.एस.जी.) के 45 देश भारत में यूरेनियम बेचने की होड़ कर रहे हैं। फ्रांस, अमेरिका और रूस की कम्पनियाँ अपने यहाँ बने रिएक्टरों की आपूर्ति कर रही हैं। फ्रांस से करीब 300 टन और रूस से 30 टन यूरेनियम भारत मंगाया जा चुका है। इससे देशी और विदेशी पूँजी दोनों का हित जुड़ा है।
कुडनकुलम परमाणु ऊर्जा संयंत्र के बारे में यह दलील भी दी जा रही है कि जब इतना पैसा खर्च किया जा चुका है तो कैसे बन्द किया जा सकता है? इससे यह लग सकता है कि लोगों ने शुरू में ही विरोध क्यों नहीं किया? पहली बात यह है कि ग़लत काम को बन्द करने एवं सही काम को शुरू करने में कभी भी देर नहीं होती। दूसरी बात यह है कि इस परमाणु संयंत्र का शुरू से ही विरोध हो रहा है, और सरकार ने कभी भी जनता की राय को तरजीह नहीं दी। सन 1988 में जब यह समझौता हुआ तभी कुछ महीनों के अन्दर छात्रों एवं अन्य लोगों के 10 लाख हस्ताक्षर 1989 में मिखाइल गोर्बाचोव के भारत आगमन पर दिये एवं काला झण्डा दिखाकर विरोध किया। तमाम शहरों में विरोध प्रदर्शन हुए। 1 मई 1989 में मछुआरे और निवासी कन्याकुमारी में इसके विरोध में एकत्र हुए। बीच में जब यह योजना ठप्प पड़ी तो विरोध भी मन्द था परन्तु जब पुनः इसे शुरू किया गया तो विरोध का स्वर तीव्र हो गया।
इस योजना में शुरू से ही सरकार का चरित्र वर्चस्ववादी एवं जनवाद-विरोधी रहा है। शुरू में सरकार ने कुडनकुलम के लोगों को गुमराह किया कि 10,000 लोगों को नौकरी दी जाएगी और कन्याकुमारी जिले में पेचिपोराई बाँध से पानी छोड़ा जायेगा तथा क्षेत्र का शानदार विकास किया जायेगा। बिना लोगों की सहमति लिए, पर्यावरण प्रभाव अनुमान (ई.आई.ए.)को लोगों से साझा किये बगैर, तथा सार्वजनिक सुनवाई के बिना काम शुरू कर दिया गया। तमिलनाडु सरकार के लोक निर्माण विभाग का सरकारी आदेश (जी.ओ.828 , 19-04-1991, पी.डब्ल्यू.डी.) स्पष्ट रूप से कहता है कि संयंत्र से दो से पाँच किमी तक लोगों को हटाया जा सकता है लेकिन के.एन.पी.पी. के अधिकारी इस पर मौन हैं और लिखित रूप से कोई बात नहीं कर रहे है जिससे विस्थापन का भय बरकरार है। संयंत्र के 30 किमी के दायरे में दस लाख से अधिक लोग रहते हैं जो कि नाभिकीय ऊर्जा नियामक बोर्ड के मानकों से अधिक है और आपदा के समय उनसे इलाका खाली नहीं कराया जा सकता। लाखों लीटर गरम पानी समुद्र में डाला जायेगा जिससे मछली उत्पादन में समस्याएँ पैदा होंगी और दक्षिणी तमिलनाडु एवं केरल में मछुआरों की भयंकर बेरोज़गारी और खाद्य संकट पैदा होगा। तारापुर परमाणु संयंत्र जब शुरू हुआ था तो वहाँ मछली व्यवसाय में 700 नौकाएँ थी जो आज महज 20 रह गयी है। संयंत्र से पर्यावरणीय सुरक्षा एवं जैव विविधता को भी खतरा है। मंत्री जयराम रमेश ने कुछ माह पूर्व कहा कि समुद्रतटीय पर्यावरणीय नियमों के कारणों से कुडनकुलम में चार अन्य संयंत्रों के लिए अनुमति नहीं दी जाएगी तो यह समझा जा सकता है की शेष दो संयंत्र भी वही पर्यावरणीय प्रभाव पैदा करेंगें जिसके आधार पर चार को मना किया जा रहा है।
एक अन्य बात जो महत्त्वपूर्ण है वह यह कि दुर्घटना की स्थिति में जिम्मेदारी से रिएक्टर निर्माता कम्पनी को मुक्त रखा गया है। अन्तर-सरकारी समझौता के नियम 13 में पूर्ण जिम्मेदारी एन.पी.सी.आई.एल. पर ही डाली गयी है और मुआवज़े को अत्यन्त कम रखा गया है। दरअसल दुर्घटनाओं से भारतीय पूँजीपति वर्ग को कोई मतलब नहीं है चाहे कितनी भी जानें क्यों न जाएँ उनकी अट्ट्टालिकाएँ सुरक्षित रहनी चाहिए।
मौजूदा तकनीकी विकास और वर्तमान मानव द्रोही व्यवस्था में परमाणु ऊर्जा से जुड़ी समस्या विकिरण की है। परमाणु संयंत्र से निकलने वाले विकिरण में आयोडीन, सीशियम व अन्य रेडियोधर्मी कणों का उत्सर्जन होता है। समुद्री बालू से निकाले जाने वाले थोरियम से निकलने वाले विकिरण द्वारा तमाम रोग पैदा हो रहे हैं। परमाणु बिजली घरों से निकलने वाले नाभिकीय मलबे की बड़ी मात्रा एक बड़ा संकट पैदा करती है। 1000 मेगावाट के एक संयंत्र से एक वर्ष में 30 टन रेडियोधर्मी मलबा निकलेगा और मुनाफा-केन्द्रित व्यवस्था में उससे कैसे निपटारा किया जायेगा यह सहज ही समझा जा सकता है। झारखण्ड के जादूगोडा की खदान से यूरेनियम निकाला जाता है। 1000 किलोग्राम खनिज से महज़ 300 ग्राम यूरेनियम प्राप्त होता है शेष 999.70 किग्रा रेडियोधर्मी पदार्थ छोड़ दिया जाता है जिससे खदान मज़दूर तो प्रभावित होते ही हैं पूरे इलाके में लोगों में प्राथमिक अनुवर्रता, जन्मजात विकृति एवं विकलांगता व कैंसर जैसी भयंकर बीमारियाँ पैदा होती हैं, न्यूयार्क विज्ञान अकादमी से वर्ष 2009 में प्रकाशित रिपोर्ट में बताया गया की दुनिया भर में 1986-2004 के बीच 10 लाख लोग विकिरण के कारण पैदा किये गए रोगों से मर गए। जिन भारतीय संयंत्रों के बारे में यह कहा जाता है की वे बहुत सुरक्षित हैं उनकी सच्चाई यह है कि दुर्घटना की खबरें बाहर ही नहीं आ पाती हैं। केवल कलपक्कम संयंत्र में 1987 में रिएक्टर कोर क्षतिग्रस्त हुई, 1991 में मजदूरों को भारी जल (हेवी वाटर )से समस्या हुई, 1999 में 42 मजदूर रेडियोधर्मी विकिरण से प्रभावित हुए एवं वर्ष 2002 में 100 किग्रा रेडियोएक्टिव सोडियम पर्यावरण में चला गया। नवम्बर 2009 में कर्नाटक के कैगा नाभिकीय संयंत्र में 55 मजदूर विकिरण से प्रभावित हुए। थ्री माइलआइलैंड (अमेरिका, 1979), चेर्नोबिल (रूस , 1986), या फ़ुकुशिमा (जापान, 2011)हों, आज के इस वैश्विक विकास के माडल में पूँजीवादी मुनाफे की भेंट हमेशा जनता ही चढ़ती है। सरकार और पूँजीपतियों को जनता व कामगारों की चिन्ता नहीं रहती है। तमाम प्रयोगशालाओं में काम करने वाले वैज्ञानिकों आदि को वह सुरक्षा उपलब्ध होती है कि वे विकिरण से बिना प्रभावित हुए काम कर सकें जबकि वहीं मज़दूरों के लिए सारे सुरक्षा मानक एवं उपकरण मज़ाक भर रह जाते हैं। यह समस्या मानवीय जिन्दगियों को उनके पैसे और हैसियत के आधार पर बाँटने के कारण और भी भयावह हो जाती है। फ्रांस जैसे विकिसत देश में भी 20 से 30 हज़ार मजदूर नाभिकीय घुमक्कड़ (न्यूक्लियर नोमैड) के रूप में कार्य करते हैं जिसमें 100 से अधिक ठेका कम्पनियाँ कार्यरत हैं। यह श्रमिक संयंत्रों की साफ-सफाई एवं दुर्घटनाओं के समय काम करते हैं और अपनी जिन्दगी का जोखिम उठाते हैं। कुडनकुलम में मछुआरे भी इसी आशंका से ग्रस्त हैं और आपदा प्रबन्धन योजना को देखना चाहते हैं लेकिन सरकार उन्हें दिखाने से इंकार रही है। सी.ए.जी. की रिपोर्ट जो अगस्त 2012 में आई है में स्पष्ट कहा गया है कि नाभिकीय ऊर्जा के क्षेत्र में भारत सरकार के पास पर्याप्त मानक नहीं हैं और पर्याप्त सुरक्षा मानकों को बनाने की ज़रूरत है। इससे समझा जा सकता है कि पर्याप्त मानक ही नहीं हैं तो सुरक्षा के प्रश्नों को कैसे हल किया जाता होगा।
विकास और ऊर्जा की पूरी बहस में परमाणु ऊर्जा पर इतने ज़ोर का कारण तेजी से मुनाफा कमाने की हवस है। इसी कारण वैकल्पिक ऊर्जा के विकास को उपेक्षित रखा गया है। वर्तमान बिजली की माँग 150 हजार मेगावाट से 2030 तक 950 हजार मेगावाट तक बतायी जा रही है और इसके लिए परमाणु ऊर्जा की ज़रूरत का प्रचार किया जा रहा है जबकि भारत में अभी तक परमाणु ऊर्जा का योगदान मात्र 3 फीसदी है। आज़ादी के बाद 60 वर्षों में वैकल्पिक ऊर्जा का योगदान 10 फीसदी से अधिक और बड़े पनबिजली संयंत्रों का योगदान 22 फ़ीसदी है। भारत अपनी विशेष अवस्थिति के कारण वैकल्पिक उर्जा के विकास की सम्भावना से सम्पन्न है। भारत के पवन ऊर्जा एसोसिएशन के अनुसार पवन ऊर्जा क्षमता 65,000 मेगावाट है। छोटे पनबिजली संयंत्रों की क्षमता 15,000 मेगावाट है और बायोमास ऊर्जा की क्षमता 21,000 मेगावाट है।
भारत जैसे देश में सौर उर्जा की न्यूनतम क्षमता 400,000 मेगावाट है। पवन ऊर्जा के पुराने संयंत्रों को बदलकर उसकी क्षमता छः गुना तक बढ़ायी जा सकती है। भारत का समुद्री तट लगभग 7000 किमी का है और व्यापक स्तर पर ज्वारीय ऊर्जा के विकास की सम्भावना को विकसित किया जा सकता है। भूकम्पीय उर्जा आदि में भी अनुसंधान किये जा सकते हैं। पिछले 15 वर्षों में भारत ने 17,000 मेगावाट वैकल्पिक उर्जा जोड़ी है जिसे चीन ने मात्र 1 वर्ष में पूरा कर लिया, दूसरी तरफ भारत में पूँजीवादी विकास मॅाडल द्वारा ऊर्जा की भयंकर बर्बादी की जाती है तमाम भवनों की डिजाइन ठीक रखकर प्राकृतिक प्रकाश से काम चलाया जा सकता है। शॅापिंग मॉल, आई.टी. कम्पनियाँ और तमाम सरकारी एवं निजी प्रतिष्ठान दिन रात ऊर्जा बर्बाद करते हैं। भारत में कुल ऊर्जा उत्पादन का लगभग 40 फीसदी बर्बाद हो जाता है। अगर दक्षता 90 फीसदी तक बढ़ायी जा सके तो 60,000 मेगावाट बिजली बचाई जा सकती है जो कुडनकुलम जैसे 60 रिएक्टरों के बराबर होगी। यदि लैम्पों को बदलकर दक्ष व कम खपत वाले लैम्प लगाये जाएँ तो 2000 मेगावाट ऊर्जा बचाई जा सकती है। लेकिन वैकल्पिक ऊर्जा के विकास एवं उर्जा बचत से मुनाफे की व्यवस्था और परमाणु ऊर्जा के राजनीतिक अर्थशास्त्र में बाधा पैदा होगी। आज विज्ञानं एवं अनुसन्धान उसी दिशा में बढाया जायेगा जिससे पूँजी का हित सुरक्षित हो न कि आम आदमी का।
कुडनकुलम ने एक बात साफ कर दी है कि शान्ति और प्रजातंत्र की रट लगाने वाली सरकार की नजरों में जनता के लिए कोई जनवाद नहीं है। आन्दोलन की अगुआई कर रहे ‘परमाणु ऊर्जा के विरुद्ध जनांदोलन’ (पी.एम.ए.एन.ई.) के लोगों की मुख्य माँग यह है किः 1. परमाणु संयंत्र में ईंधन डालने की प्रक्रिया पर रोक, 2. परमाणु ऊर्जा का विरोध कर रहे नेताओं को छोड़ना, 3. प्रभावित लोगों को मुआवजा, 4. हिरासत में लिए गए लोगों को छोड़ना। इसमे से ऐसी कोई भी माँग नहीं है जिसे नहीं माना जा सकता। जब तक कुडनकुलम के लोगों की सहमति नहीं बनती तब तक इसे रोककर, मुद्दे को बातचीत से हल करने की बजाय राज्य दमन के हथियार का प्रयोग कर रहा है। अगस्त 2012 में मद्रास उच्च न्यायालय ने के.एन.पी.पी. की पहली और दूसरी इकाई को चालू करने को चुनौती देने वाली दोनों याचिकाओं को ख़ारिज कर दिया। सितम्बर 2012 में भारी संख्या में आये प्रदर्शनकारियों, मछुआरों और निवासियों को 400 आर.ए.एफ. एवं 2000 पुलिसकर्मियों ने रोक दिया। शुरुआत में जहाँ लोग यह समझ रहे थे कि यह केवल मछुआरों की समस्या है अब ऐसा नहीं है और 2007 से आन्दोलन ने दुबारा ज़ोर पकड़ना शुरू किया। जापान के फ़ुकुशिमा दुर्घटना के बाद इस संयंत्र को लेकर विरोध तेज़ हो गया, 9 सितम्बर 2012 को विरोध में कुडनकुलम कुट्टापुल्ली, पेरूमनल, कुट्टापाना और अन्य गाँव से लोग आये। पुलिस की 10 कम्पनियों के लगभग 4000 पुलिस ने शांतिपूर्ण आन्दोलन पर लाठी चार्ज किया और बर्बरतम दमन किया। महिलाओं और बच्चों तक को नहीं बख्शा गया, मछुआरों पर गोली चलाने से 40 वर्षीय एण्टनी मर गया। पुलिस ने घर-घर घुसकर तलाशी ली हज़ारों लोगों पर राजद्रोह एवं राज्य के खिलाफ़ युद्ध का झूठा मुकदमा लगाया गया। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् की सदस्य अरुणा राय ने पुलिस कार्यवाही की निन्दा करते हुए कहा कि करीब 7000 प्रदर्शनकारियों के खिलाफ़ पुलिस देशद्रोह का मुकदमा करने जा रही है। 10 सितम्बर 1012 शाम को 65 लोग कुडनकुलम गाँव से गिरफ्तार किये गए, सुनामी कालोनी में घर-घर तलाशी ली गयी। इदिन्थाकराई गाँव को पानी की आपूर्ति बन्द कर दी गयी और पाँच गाँवों की बिजली आपूर्ति काट दी गयी। दुबारा अक्टूबर 2012 में तिरुनेल्वेली, तूतीकोरन और कन्याकुमारी से 1000 नावों में सवार होकर लगभग 10000 लोग इसके विरोध में इकठ्ठा हुए थे। तिरुनेल्वेली के नौ गाँव के 23000 लोगों ने विरोध में अपने वोटर कार्ड वापस कर दिए और दिन-प्रतिदिन विरोध का स्वर तेज़ होता जा रहा है। यह विरोध करने वाले कोई आतंकवादी नहीं वरन् इसी देश के मछुआरे, किसान, दलित मज़दूर एवं बीड़ी बनाने वाले लोग हैं जिसमें से 200 से अधिक लोगों पर मुकदमे दर्ज़ हैं। सितम्बर 2012 की घटना के बाद 20 से अधिक लोगों को अस्पताल में भरती कराया गया था परन्तु अस्पताल से छूटने के बाद उनके घर वापस आने की कोई ख़बर नहीं थी, जैतापुर में फ़्रांस की कम्पनी अरेवा के परमाणु बिजली घर के लिए 940 हेक्टेअर भूमि अधिग्रहण कर 2375 परिवारों को उजाड़ दिया गया है। गुजरात के मिथिविर्दी, आन्ध्र प्रदेश के कोवाडा में अमेरिकी कम्पनी परमाणु संयंत्र बनाएंगी। पश्चिमी बंगाल के हरिपुर, उड़ीसा के सोनापुर में भी परमाणु संयंत्र लगाने की योजनायें है। परमाणु दुर्घटना होने पर विकिरण के कारण 25,000 साल तक वह स्थान रहने लायक नहीं होगा। भोपाल गैस त्रासदी में 20,000 लोगों की जानें गयी और 57,000 लोग घायल हुए जिनको आज तक मुआवज़ा नहीं मिला और यूनियन कार्बाइड का मालिक साफ बच गया। नर्मदा बाँध के विस्थापितों को पुनर्वास और मुआवज़ा आज तक नहीं मिला पाया। आज सभी चुनावी पार्टियाँ विकास के इसी माडल के पक्ष में हैं और अगर इक्की-दुक्की इसका विरोध करती दिख रही हैं तो वह महज़ वोट बैंक की राजनीति के लिए।
आज चाहे शहरों की झुग्गियों को उजाड़ना हो या जगह, जंगल, ज़मीन को पूँजी के हाथों लुटाना हो; चाहे फ़ैक्ट्रियों में नियमों को ताक पर रखकर मज़दूरों की हत्या करनी हो अथवा परमाणु ऊर्जा के नाम पर विकास का राग अलापते हुए लोगों की जीविका एवं जीवन से खिलवाड़ करना हो; मुनाफे के भूखे पूँजीपति इसी में संलग्न हैं।
प्रश्न नाभिकीय उर्जा के निरपेक्ष विरोध का नहीं है, ऊर्जा के विभिन्न रूपों का उपयोग उपलब्ध तकनीक, समय एवं विज्ञान के विकास के सापेक्ष ही हो सकता है। मौजूदा तकनीक एवं व्यवस्था में नाभिकीय उर्जा के सुरक्षित प्रयोग की सम्भावना नहीं है। इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि कभी ऐसी तकनीक ईजाद नहीं होगी। लेकिन पूँजीवादी व्यवस्था के तहत इसकी उम्मीद कम ही है, क्योंकि ऐसे उपक्रम में निवेश करने की बजाय कोई भी पूँजीपति मरघट पर लकड़ी बेचने का व्यवसाय करना पसन्द करेगा। जनता की सुरक्षा और बेहतर जिन्दगी के लिए उपयोगी तकनोलॉजी के शोध और विकास में कोई निवेश नहीं करने वाला है। नतीजतन, परमाणु ऊर्जा का सुरक्षित और बेहतर इस्तेमाल आज मुश्किल है। लेकिन एक मानव-केन्द्रित व्यवस्था और समाज में यह सम्भव हो सकता है।
आज शासक वर्गों के मुनाफे की माँग और विकास की बेलगाम ऊर्जा का प्रासाद जनता की जिन्दगी की कीमत पर खड़ा हो रहा है। यह जीवन, पर्यावरण, पारिस्थितिकी और मानवता की बलि देकर मुठ्ठी भर लोगों के मुनाफे की हवस को पोषित कर रही है। आज लोग सत्ता के जन-विरोधी चरित्र को समझने लगे हैं तथा आज यह विरोध परमाणु ऊर्जा तक ही नहीं वरन् सत्ता द्वारा जीविका और भूमि के अधिग्रहण के प्रत्येक रूप के विरोध में सामने आ रहा है और उसी की एक कड़ी के रूप में कुडनकुलम में आज भी यह युद्ध जारी है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-जून 2013
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