Category Archives: राष्‍ट्रीय/अर्न्‍तराष्‍ट्रीय मुद्दे

मुम्बई में 200 से ज़्यादा लोगों की मौत का ज़िम्मेदार कौन

यह भी हमारे समाज की एक कड़वी सच्चाई है कि जब एक मज़दूर को दिन भर हाड़-तोड़ मेहनत करनी पड़ती है तो साथ ही साथ उसका अमानवीकरण भी होता है और शराब व अन्य व्यसन उसके लिए शौक नहीं बल्कि ज़िन्दगी की भयंकर कठिनाइयों को भुलाने और दुखते शरीर को क्षणिक राहत देने के साधन बन जाते हैं। ऐसे मूर्खों की हमारे समाज में कमी नहीं है जो कहते हैं कि मज़दूरों की समस्याओं का कारण यह है कि वे बचत नहीं करते और सारी कमाई को व्यसनों में उड़ा देते हैं। असल में बात इसके बिल्कुल उलट होती है और वे व्यसन इसलिए करते हैं कि उनकी ज़िन्दगी में पहले ही असंख्य समस्याएँ है। जो लोग कहते हैं कि बचत न करना ग़रीबों-मजदूरों की सभी परेशानियों का कारण होता है उनसे पूछा जाना चाहिए कि जो आदमी 5000-8000 रुपये ही कमा पाता हो वह अव्वलन तो बचत करे कैसे और अगर सारी ज़िन्दगी भी वह चवन्नी-अठन्नी बचायेगा तो कितनी बचत कर लेगा? क्या जो 1000-1500 रुपये एक महीने या कई महीनों में वे व्यसन में उड़ा देते हैं उसकी बचत करने से वे सम्पन्नता का जीवन बिता सकेंगे? यहाँ व्यसनों की अनिवार्यता या फिर उन्हें प्रोत्साहन देने की बात नहीं की जा रही है बल्कि समाज की इस सच्चाई पर ध्यान दिलाया जा रहा है कि एक मानवद्रोही समाज में किस तरह से ग़रीबों के लिए व्यसन दुखों से क्षणिक राहत पाने का साधन बन जाते हैं। इस व्यवस्था में जहाँ हरेक वस्तु को माल बना दिया जाता है वहाँ जिन्दगी की मार झेल रहे गरीबों के व्यसन की जरूरत को भी माल बना दिया जाता है। ग़रीब मज़दूर बस्तियों में सस्ती शराबों का पूरा कारोबार इस जरूरत से मुनाफा कमाने पर ही टिका है। इस मुनाफे की हवस का शिकार भी हर-हमेशा गरीब मज़दूर ही बनते हैं।

अन्तरराष्ट्रीय योग दिवस: भगवाकरण का एक और प्रयास

एक साथ 35,985 लोगों ने बाबा रामदेव जैसे ‘योग गुरुओं’ की देखरेख में योग किया, हालाँकि इस देखरेख के बावजूद रेल मन्त्री सुरेश प्रभु योग करते-करते सो गये! बहरहाल, संयुक्त राष्ट्र के 193 सदस्य देशों में से केवल यमन को छोड़ 192 देशों में इसी तरह के योग समारोह आयोजित किये गए जहाँ लोगों ने योग किया। योग के इस जश्न को मोदी सरकार भारत के गौरव के रूप में पेश करते हुए यह जता रही है कि पूरे विश्व ने भारत की योग विद्या की महानता को समझा है और इसी के साथ अब भारतीय लोगों को खुद पर गर्व महसूस करना चाहिए । लोगों ने अपने भारतीय होने पर गर्व केवल मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही करना शुरू किया है, ऐसी खुशफहमी के शिकार मोदी जी इस साल सिओल में दिए अपने भाषण में यह बात पहले भी कह चुके हैं (वैसे यह भी सोचने की बात है कि मोदी के पहले या बाद में वाकई कोई गर्व करने वाली चीज़ थी!)। बहरहाल, अन्तरराष्ट्रीय योग दिवस मनाने के लिए राजपथ पर खूब तैयारियाँ की गयीं। प्रधानमंत्री मोदी जर्मन स्पोर्ट्सवेयर बनाने वाली कम्पनी एडिडास द्वारा खास तौर से तैयार की गयी कस्टम पोशाक पहन नीले जापानी योगा मेट पर योग करने के लिए पधारे! साथ ही 35,000 से भी ज़्यादा लोगों की भीड़ में नेता, मंत्री, अभिनेता, वी.वी.आई.पी., स्कूली बच्चों को भी बुलाया गया। इस समारोह की तैयारियों की चर्चा पूरे मीडिया में ज़ोर-शोर से हो रही थी। 15,000 से भी ज़्यादा पुलिसकर्मी राजपथ पर सुरक्षा के लिए तैनात किये गए। 40 एम्बुलेंस के साथ 200 डॉक्टर व चिकत्साकर्मी भी राजपथ पर मौजूद थे। पी.आर. कैम्पेन की दीवानी मोदी सरकार ने आयुष (आयुर्वेद, योग, नेचुरोपैथी, यूनानी, सिद्धा और हैम्योपैथी) मंत्रालय द्वारा गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड्स में सबसे बड़े योग समारोह का खिताब हासिल करने की मंशा से इतने बड़े समारोह का आयोजन करवाया और इसी के साथ मोदी सरकार और संघ अपने भगवाकरण के एजेंडे को बढ़ाने में एक बार फिर कामयाब हो गई।

यमन पर हमला अरब के शेखों और शाहों की मानवद्रोही सत्ताओं की बौखलाहट की निशानी है

ग़ौरतलब है कि 1932 में इब्न सऊद द्वारा सऊदी राजतंत्र स्थापित करने और सऊदी अरब में तेल की खोज के बाद उसके अमेरिका से गँठजोड़ से पहले यमन अरब प्रायद्वीप का सबसे प्रभुत्वशाली देश था। सऊदी राजतंत्र के अस्तित्व में आने के दो वर्ष के भीतर ही सऊदी अरब व यमन में युद्ध छिड़ गया जिसके बाद 1934 में हुए ताईफ़ समझौते के तहत यमन को अपना कुछ हिस्सा सऊदी अरब को लीज़ पर देना पड़ा और यमन के मज़दूरों को सऊदी अरब में काम करने की मंजूरी मिल गई। नाज़रान, असीर, जिज़ान जैसे इलाकों की लीज़ ख़त्म होने के बावजूद सऊदी अरब ने वापस ही नहीं किया जिसको लेकर यमन में अभी तक असंतोष व्याप्त है। ग़ौरतलब है कि ये वही इलाके हैं जहाँ शेखों के निरंकुश शासन के खि़लाफ़ बग़ावत की चिंगारी भी समय-समय पर भड़कती रही हैं। यमन पर सऊदी हमले की वजह से जहाँ एक ओर यमन के भीतर राष्ट्रीय एकता की भावना पैदा हुई है वहीं सऊदी अरब के इलाकों में भी बग़ावत की चिंगारी एक बार फिर भड़कने की सम्भावना बढ़ गई है।

नेपाल त्रासदी

नेपाल को मदद भेजने के पीछे भारत का अपना आर्थिक हित भी निहित है। एशिया की एक क्षेत्रीय साम्राज्यवादी शक्ति होने के नाते भारत अपने ग़रीब पड़ोसी देशों को, फिर चाहे वो भूटान हो, बांग्लादेश हो या नेपाल, अपने हित में इस्तेमाल करने की मंशा से लैस है। इसलिए किसी भी त्रासदी में ऐसे देशों को मदद भेजना उसके लिए फायदेमंद साबित हो सकता है, क्योंकि आपदाओं के समय दी गयी मदद को एक साम्राज्यवादी देश हमेशा एक निवेश के रूप में ही देखता है जिसे वह आगे जा कर सूद समेत वसूल कर सकता है। नेपाल के संसाधनों और उसके श्रम को लूटने की भाग दौड़ में भारत भी अपना हिस्सा पक्का करना चाहता है। केवल भारत ही एक आदर्श पड़ोसी देश होने का फर्ज नहीं निभा रहा, चीन भी नेपाल को मदद भेजने में पीछे नहीं है। इन दोनों देशों के इतने तत्पर प्रयासों के पीछे का मकसद नेपाल की जनता में अपनी साख़ बनाना हैं। तिब्बत पर चीन का कब्ज़ा हो जाने के बाद से नेपाल को भारत अपने व्यापार के लिए एक नए व्यापारिक रास्ते के रूप में देखता है। नेपाल को भारत और चीन दोनों ही ‘नए सिल्क रूट’ की तरह देखते है और दोनों देशों में से जो भी नेपाल के साथ बेहतर सम्बन्ध बनाने में सफल हो जाता है उसके लिए एशिया से यूरोप तक अपने आर्थिक रिश्ते सशक्त करने के रास्ते खुल जाते है। इस ‘डिज़ास्टर ब्रांड’ राजनीति के चलते ही नेपाल में भूकम्प आने के तुरन्त बाद भारत ने औपचारिक तौर पर ‘ऑपरेशन फ्रेंडशिप’ शुरू करने की घोषणा की जिसके तहत बचाव और राहत कार्य करने के लिए दस्तों को रवाना किया गया। भूकम्प के बाद नेपाल में सबसे बड़ा काम है वहाँ के लोगों का पुर्नवासन करना और बुनियादी सुविधाओं जैसे बिजली, सड़कों का नवर्निमाण आदि।

यूनानी त्रासदी के भरतवाक्य के लेखन की तैयारी

अगर हम 2010 से अब तक यूनान को मिले साम्राज्यवादी ऋण के आकार और उसके ख़र्च के मदों पर निगाह डालें तो हम पाते हैं कि इसका बेहद छोटा हिस्सा जनता पर ख़र्च हुआ और अधिकांश पुराने ऋणों की किश्तें चुकाने पर ही ख़र्च हुआ है। दूसरे शब्दों में इस बेलआउट पैकेज से भी तमाम निजी बैंकों, वित्तीय संस्थाओं और यूरोपीय संघ, ईसीबी व आईएमएफ़ में जमकर कमाई की है! मार्च 2010 से लेकर जून 2013 तक साम्राज्यवादी त्रयी ने यूनान को 206.9 अरब यूरो का कर्ज़ दिया। इसमें से 28 प्रतिशत का इस्तेमाल यूनानी बैंकों को तरलता के संकट से उबारने के लिए हुआ, यानी, दीवालिया हो चुके बैंकों को यह पैसा दिया गया। करीब 49 प्रतिशत हिस्सा सीधे यूनान के ऋणदाताओं के पास किश्तों के भुगतान के रूप में चला गया, जिनमें मुख्य तौर पर जर्मन और फ्रांसीसी बैंक शामिल थे। कहने के लिए 22 प्रतिशत राष्ट्रीय बजट में गया, लेकिन अगर इसे भी अलग-अलग करके देखें तो पाते हैं कि इसमें से 16 प्रतिशत कर्ज़ पर ब्याज़ के रूप में साम्राज्यवादी वित्तीय एजेंसियों को चुका दिया गया। बाकी बचा 6 प्रतिशत यानी लगभग 12.1 अरब यूरो। इस 12.1 अरब यूरो में से 10 प्रतिशत सैन्य ख़र्च में चला गया। यानी कि जनता के ऊपर जो ख़र्च हुआ वह नगण्य था! 2008 में यूनान का ऋण उसके सकल घरेलू उत्पाद का 113.9 प्रतिशत था जो 2013 में बढ़कर 161 प्रतिशत हो चुका था! सामाजिक ख़र्चों में कटौती के कारण जनता के उपभोग और माँग में बेहद भारी गिरावट आयी है। इसके कारण पूरे देश की अर्थव्यवस्था का आकार ही सिंकुड़ गया है। 2008 से लेकर 2013 के बीच यूनान के सकल घरेलू उत्पाद में 31 प्रतिशत की गिरावट आयी है, जिस उदार से उदार अर्थशास्त्री महामन्दी क़रार देगा। आज नौजवानों के बीच बेरोज़गारी 60 प्रतिशत के करीब है।

सी.बी.सी.एस. : “च्‍वाइस” के ड्रामे के बहाने विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में पधारने का न्यौता

शिक्षा व्यवस्था में यह बदलाव होना कोई नयी बात नहीं है। जहाँ तमाम क्षेत्रों में निजी पूँजी को बढ़ावा दिया जा रहा है वहीं शिक्षा भी इससे अछूती नहीं रही है। चाहे 2008 में लागू हुई सेमेस्टर प्रणाली की बात कर लें या चार वर्षीय पाठ्यक्रम की बात कर लें या अभी सीबीसीएस का मुद्दा हो, उच्चतर शिक्षा में लाये जा रहे इन बदलावों के कुछ ठोस कारण हैं जो मौजूदा आर्थिक-राजनीतिक ढाँचे के साथ जुड़े हुए हैं। जब तक हम शिक्षा में हो रहे इन बदलावों को इस व्यवस्था से जोड़कर नहीं देखेंगे तब तक परदे के पीछे की सच्चाई को हम नहीं जान पाएँगे।

पोर्नोग्राफ़ी पर प्रतिबन्ध: समर्थन और विरोध के विरोधाभास

महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि वेश्यावृत्ति, अश्लीलता, स्त्रियों व बच्चों की तस्करी या यौन उत्पीड़न पोर्नोग्राफ़ी से पैदा हुआ है या मामला उल्टा है? कुछ लोगों ने इस प्रकार के भी विचार प्रस्तुत किये कि पोर्न साइट्स के कारण स्त्रियों व बच्चों के यौन शोषण व तस्करी को बढ़ावा मिल रहा है। यह भी एक पहलू है, मगर मूल बात यह है कि स्त्रियों व बच्चों की तस्करी व यौन उत्पीड़न के संस्थाबद्ध उद्योग के कारण ही पोर्न साइट्स को बढ़ावा मिल रहा है। बल्कि कह सकते हैं कि पोर्नोग्राफ़ी उस उद्योग के तमाम उपोत्पादों में से महज़ एक उत्पाद है। जैसा कि हमने पहले बताया, पोर्न साइट्स व सीडी-डीवीडी के उद्योगों के पहले से ही वेश्यावृत्ति व मानव तस्करी का उद्योग फलता-फूलता रहा है और वैसे तो पोर्नोग्राफ़ी को ख़त्म करने का कार्य पूँजीवाद कर ही नहीं सकता है, लेकिन यदि इस पर कोई प्रभावी रोक लगा भी दी जाय तो वेश्यावृत्ति व मानव तस्करी का धन्धा ख़त्म या कम हो जायेगा, यह मानना नादानी होगा।

क़तर में होने वाला फुटबॉल विश्व कप : लूट और हत्या का खेल

पूँजीवाद के हर जश्न और उल्लास के पीछे शोषण से पिसते मेहनतकशों के लहूलुहान जिस्म और दुखों का समन्दर है। इस व्यवस्था में यह जितना सच ‘वैभव’ और अट्टालिकाओं के बारे में है उतना ही सच पूँजीवादी कला आयोजनों और खेलों के बारे में भी है। खेल मुनाफ़े के कारोबार का एक अभिन्न हिस्सा हैं। दुनियाभर की तमाम सरकारें जनता की बुनियादी ज़रूरतों को परे रखते हुए खेलों पर अन्धाधुन्ध पैसा लुटा रही हैं। क्योंकि आज खेल उपभोक्ता बाज़ार का बड़ा हिस्सेदार है। इसी वजह से खेल वित्तीय पूँजी के इशारों पर नाचता है। अरब जगत से लेकर एशियाई और अफ्रीकी देशों में जो अच्छी-ख़ासी मध्यवर्गीय आबादी खड़ी हुई है इस पर वित्तीय जगत अपनी गिद्ध-दृष्टि टिका कर बैठा है। इसी के मद्देनज़र फ़ीफ़ा के अध्यक्ष सेप ब्लैटर द्वारा 2010 में प्रस्ताव रखा गया था कि किसी अरब देश में फ़ीफ़ा वर्ल्ड कप का आयोजन किया जाना चाहिए। 2 दिसम्बर 2010 को तय हुआ कि 2022 में होने वाले फीफ़ा वर्ल्डकप को क़तर में आयोजित किया जायेगा। वर्ल्डकप की मेज़बानी मिलने के समय बताया गया कि इससे क़तर में मूलभूत ढाँचागत संरचनाओं का विकास होगा, पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा, आदि-आदि। दरअसल यह सारा विकास मुख्यतः विदेशी पूँजी को रिझाने के लिये किया जा रहा है। लेकिन जिन ढाँचागत संरचनाओं की बात की गयी थी वह मेहनतकशों की ज़िन्दगियों को मौत के मुँह में धकेल कर हो रही है।

‘एम.एस.जी.’ फिल्‍म को प्रदर्शन की अनुमति देने के पीछे की राजनीति

डेरा सच्‍चा सौदा पहले हरियाणा और पंजाब की राजनीति में कांग्रेस का पक्षधर माना जाता था। फिर कांग्रेस के पराभव के साथ ही इस डेरे ने अपने अन्‍य राजनीतिक विकल्पों की तलाश और सौदेबाजी भी शुरू कर दी। उल्लेखनीय है कि विगत लोकसभा चुनावों में डेरा सच्‍चा सौदा ने अकाली दल उम्‍मीदवार और सुखवीर सिंह बादल की पत्‍नी हरसिमरन कौर की जीत में अहम भूमिका निभायी। इन चुनावों के दौरान और हरियाणा के विधान सभा चुनावों के दौरान डेरा सच्‍चा सौदा ने पर्दे के पीछे से अपना पूरा समर्थन भाजपा को दिया था।

पेशावर की चीख़ें

पाकिस्तान और ऐसे ही कई मुल्कों में आतंकवाद दरअसल साम्राज्यवादी पूँजीवाद और देशी पूँजीवाद की सम्मिलित लूट की शिकार जनता के प्रतिरोध को बाँटने के लिए खड़े किये गये धार्मिक कट्टरपन्थ का नतीजा है। इस दुरभिसन्धि में जनता दोनों ही आतंक का निशाना बनती है चाहे वह धार्मिक कट्टरपन्थी आतंकवाद हो या फिर उसके नाम पर राज्य द्वारा किया जाने वाला दमनकारी आतंकवाद।