Category Archives: राष्‍ट्रीय/अर्न्‍तराष्‍ट्रीय मुद्दे

विकास करता भारत! मगर किसका??

शिक्षा व्यवस्था ऐसी है कि आम आदमी के लिए उच्चशिक्षा आकाश-कुसुम की अभिलाषा के समान है। बारहवीं पास करने वाले सारे बच्चों में से केवल 7 प्रतिशत उच्च शिक्षा तक पहुँच पाते हैं। बड़े घर के बच्चे ही ऊँचे पद और ऊँची शिक्षा पा रहे हैं। 84 करोड़ ग्राहक जो 20 रुपये प्रति दिन की आय पर जीते हैं उसके लिए ‘जागो ग्राहक जागो’ नारे के बदले ‘भागो ग्राहक भागो’ होना चाहिए! सर्वशिक्षा अभियान के ‘सब पढ़ें, सब बढ़ें’ की जगह सही नारा होना चाहिए ‘कुछ पढ़ें, कुछ बढ़ें और बाकी मरें’! मनरेगा के तहत जो रोज़गार की बात सरकार करती है वह सरासर मज़ाक है। मनरेगा वास्तव में गाँवों में मौजूद नौकरशाही के लिए कमाई करने का अच्छा ज़रिया है। इसकी सच्चाई लगभग सभी राज्यों में उजागर हो चुकी है। दरअसल सरकार और व्यवस्था की चाकरी करने वाले मीडिया के ‘‘विकास’’ का सारा शोरगुल इस व्यवस्था द्वारा पैदा आम जन के जीवन की तबाही और बरबादी को ढकने के लिए धूम्र-आवरण खड़ा करता है। विकास के इन कथनों के पीछे अधिकतम की बर्बादी अन्तर्निहित होती है।

पूँजीवादी स्वर्ग के तलघर की सच्चाई

ग़रीबी रेखा सम्बन्धी प्राप्त आकड़ों के अनुसार 34 करोड़ की कुल अमेरिकी जनसंख्या में करीब 5 करोड़ लोग ग़रीबी-रेखा के नीचे गुजर-बसर कर रहे हैं और अन्य 10 करोड़ इस बस ऊपर ही है, यानी करीब आधी आबादी भयंकर ग़रीबी का शिकार है। खाद्य उपलब्धता सम्बन्धी आँकड़ों के बारे में अमेरिकी सरकार के कृषि विभाग के अनुसार हर चार में एक अमेरिकी नागरिक भोजन सम्बन्धी दैनिक ज़रूरतों के लिए राज्य सरकार एवं विभिन्न दाता एंजेसियों द्वारा चलाये जा रहे खाद्य योजनाओं पर निर्भर है, क्योंकि वह अपनी आय से दो जून की रोटी ख़रीद पाने में अक्षम है। अगर शिक्षा की बात की जाये तो एक उदाहरण के जरिये चीज़ें समझना ज़्यादा आसान होगा। बर्कले विश्वविद्यालय का एक छात्र, आज करीब 11,160 डॉलर प्रति वर्ष शिक्षा शुल्क के तौर पर अदा करता है; आज से दस साल पहले वो 2,716 डॉलर ख़र्च करता था और उम्मीद है कि 2015-16 तक वह 23,000 डॉलर अदा करेगा।

चुनावी घमासान और विकल्पहीनता का चुनाव

अब इन काठ के उल्लुओं को कौन समझाये कि ‘जहाँ कूपै में भाँग पड़ी है’ यानी कि जहाँ सारे चोर हैं और उनमें से ही किसी एक को चुनना है तो इससे क्या फर्क पड़ता है कि उन्हें एक वोट से चुना जाता है या फिर सौ वोट से! या साँपनाथ और नागनाथ के चुनाव में चाहे ‘कुछ’ ले के ‘‘अमूल्य वोट’’ दिया जाय या फिर बिना ‘कुछ’ लिए, डसी तो जनता ही जायेगी! जनता सब जानती है। वह जानती है कि चुनाव के समय तो इस ‘‘अमूल्य वोट’’ से कुछ पाया जा सकता है जबकि चुनाव के बाद तो ‘‘जनप्रतिनिधियों’’ के दर्शन निराकार ब्रह्म की तरह दुर्लभ हो जायेंगे। परन्तु ये काठ के उल्लू कितना ख़्याल रखते हैं ‘‘जनप्रतिनिधियों’’ का, उनके टेंटे से ‘कुछ’ भी निकलने ही देना नहीं चाहते। इनका वह ईमानदार प्रत्याशी अमूर्त होता है। इनके ईमानदार नेता को चुनने की बात सुनकर जनता भी ‘कन्‍फ्यूज’ हो जाती है कि वह कहाँ ठप्पा मारे कि सीधे ‘‘ईमानदार’’ को जा लगे और वह अपना अमूर्त रूप छोड़कर साकार हो उठे!

एक साजि़श जिससे जनता की चेतना पथरा जाए

‘‘पूँजीवाद न सिर्फ विज्ञान और उसकी खोजों का मुनाफ़े के लिए आदमखोर तरीके से इस्तेमाल कर रहा है बल्कि आध्यात्म और धर्म का भी वह ऐसा ही इस्तेमाल कर रहा है। इसमें आध्यत्मिकता और धर्म का इस्तेमाल ज़्यादा घातक है क्योंकि इसका इस्तेमाल जनता के नियन्त्रण और उसकी चेतना को कुन्द और दास बनाने के लिए किया जाता है। पूँजीवाद विज्ञान की सभी नेमतों का उपयोग तो करना चाहता है परन्तु विज्ञान और तर्क की रोशनी को जनता के व्यापक तबकों तक पहुँचने से रोकने के लिए या उसे विकृत रूप में आम जनसमुदायों में पहुँचाने के लिए हर सम्भव प्रयास करता है।”

एक और छात्र चढ़ा अमानवीय शिक्षा व्यवस्था की बलि

एम्स में यह इस प्रकार की पहली घटना नहीं है। संस्थान में हर स्तर पर आरक्षित श्रेणी के छात्र-छात्राओं के साथ भेदभाव की बातें आम हैं। पिछले साल एक अन्य छात्र मुकुन्द भारती ने अपने साथ होने वाले भेदभाव के चलते आत्महत्या की थी। सितम्बर 2006 में संस्थान में दलितों और पिछड़े वर्ग से आने वाले छात्रों के साथ आपराधिक स्तर तक होने वाले भेदभाव की जाँच के लिए प्रो. थोराट की अगुवाई में एक समिति का गठन भी किया गया था। समिति द्वारा पेश की गयी रिपोर्ट में माना गया था कि एम्स में आरक्षित श्रेणी के विद्यार्थियों के साथ हर स्तर पर भेदभाव किया जाता है। इस भेदभाव को दूर करने के लिए समिति ने कुछ सुझाव भी पेश किये थे। लेकिन इन सिफ़ारिशों पर कितना अमल हुआ होगा यह तो अमित की आत्महत्या ने साफ़ कर दिया है।

एक ‘‘ईमानदार’’ प्रधानमन्त्री के घडि़याली आँसू

विज्ञान और गणित के क्षेत्र में भारत के पिछड़ेपन पर प्रधानमन्त्री का चकित होना भी उनकी मासूमियत नहीं बल्कि उनके घाघपन का ही परिचायक है। क्या प्रधानमन्त्री महोदय को यह नहीं पता है कि आज़ादी के छह दशक बाद भी इस देश में बच्चों की विशाल आबादी प्राथमिक शिक्षा से ही महरूम है और अपना व अपने परिवार का पेट भरने के लिए ढाबों और गैराजों में अपनी श्रम शक्ति बेचने के लिए मजबूर है या फिर शहरों की सड़कों और चौराहों पर भीख माँगकर गुज़ारा करती है। ग़रीबों के जो बच्चे किसी तरह सरकारी स्कूल में दाखि़ल हो भी जाते हैं उनकी शिक्षा भी बस नाम के लिए ही होती है। नवउदारवाद के इस दौर में सरकारी स्कूलों की स्थिति बद से बदतर हुई है। ऐसे में यह उम्मीद करना कि ये बच्चे विज्ञान और गणित में मौलिक खोजें कर देश का नाम रोशन करेंगे, एक चमत्कार की उम्मीद के समान है।

‘‘स्‍वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव’’ की असलियत

पूँजीवादी जनतन्त्र के खेल में चुनाव आयोग की भूमिका महज़ एक रेफरी की ही होती है। इस खेल में शामिल होने की जो शर्त है, जो नियम और तौर-तरीके हैं उसके चलते ग़रीब मेहनतकश जनता तो इस खेल में खिलाड़ी के रूप में शामिल हो ही नहीं सकती है (और उसे इस खेल में शामिल होने की कोई दरकार भी नहीं है!)। वह इस खेल में महज़ एक मोहरा या अधिक से अधिक मूकदर्शक ही होती है। एक अच्छे रेफरी के बतौर चुनाव आयोग की भूमिका बस इतनी होती है कि खिलाड़ी ‘फाउल’ न खेले जिससे खेल में दिलचस्पी बनी रहे और मोहरे बिदक न जायें। पिछले कई चुनावों से इस खेल में शामिल खिलाडि़यों के बीच ‘फाउल’ खेलकर ही जीतने की होड़ मची हुई है। इसलिए चुनाव आयोग अति सजग और सक्रिय होने की कोशिश करता है। उसकी चिन्ता रहती है कि कहीं सारा खेल ही चौपट न हो जाये। एक बार अगर यह मान भी लिया जाये कि यह चुनाव वाकई स्वतन्त्र और निष्पक्ष हो जाए तो भी सच्चे मायनों में आम जनता के जनप्रतिनिधि का चुनाव नहीं हो सकता। जिन चुनावों में एक आम आदमी चुनाव में खड़ा होने की हैसियत ही न रखता हो; जहाँ चुनाव में कोई नेता एक बार चुने जाने के बाद जनता का विश्वास खोने पर भी पाँच साल के लिए जनता की छाती पर मूंग दलने के लिए आज़ाद हो; जहाँ विशालकाय निर्वाचक मण्डलों में होने वाले चुनाव अपने आपमें करोड़ों रुपये के निवेश वाला व्यवसाय बन जाते हों, जो कि सिर्फ पूँजी के दम पर लड़े जा सकते हों; जहाँ जनतन्त्र धनतन्त्र पर टिका हो; जहाँ समाज की अस्सी फीसदी आबादी भयंकर ग़रीबी में जीती हो; वहाँ चुनाव प्रणाली को स्वतंत्र; और निष्पक्ष कहा ही नहीं जा सकता है।

‘‘आनर किलिंग’’- सम्मान के नाम पर हत्या या सम्मान के साथ ना जीने देने का जुनून

दरअसल ‘‘सम्मान’’ के नाम पर हत्याओं की यह अमानवीय परिघटना उन्हीं देशों में अधिक है जहाँ बिना किसी जनवादी क्रान्ति के, धीमे सुधारों की क्रमिक प्रक्रिया के जरिये पूँजीवादी विकास हुआ है। इन देशों में पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्ध तो कायम हुए हैं, लेकिन यह पूँजीवाद यूरोपीय देशों की तरह यहां जनवादी मूल्य लेकर नहीं आया। सामाजिक-सांस्कृतिक धरातल पर आज भी यहाँ सामन्ती मूल्यों की जकड़ बेहद मजबूत है। इन देशों (भारत भी इनमें से एक है) के सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने में गैरजनवादी मूल्य गहरे रचे-बसे हैं। इसी कारण यहां व्यक्तिगत आज़ादी और निजता जैसी अवधारणाओं के लिए कोई जगह नहीं है। व्यक्ति के जीवन के हर फैसले में समाज दखल देता है चाहे वह प्रेम का सवाल हो, शादी का, रोजगार का या कोई अन्य।

श्रम की लूट व मुनाफ़े की हवस का दस्तावेज़

1991 से शुरू हुई भूमण्डलीकरण और उदारीकरण की नीतियों ने पूँजीपतियों को मुनाफा निचोड़ने का अभूतपूर्व अवसर प्रदान किया। तमाम क्षेत्रों में पूँजी द्वारा श्रम को निचोड़ने के साथ शासक वर्ग मैनुफैक्चरिंग क्षेत्र में शोषण के नये तरीके ईजाद कर रहा है। जिस तरह से उदारीकरण के शुरू में लोगों को लुभावनी बातें सुनायी गयी थी कि नयी नीतियों के आने के बाद रोजगार का सृजन होगा, लोगों की आय बढ़ेगी, समाज के उच्च शिखरों पर जब समृद्धि आयेगी तो वह रिसकर नीचे भी पहुँचेगी। लेकिन 1991 के बाद मज़दूरों को लूटने की दर अभूतपूर्व बढ़ गयी है। ठीक उसी तर्ज़ पर राष्ट्रीय मैनुफैक्चरिंग नीति द्वारा ‘राष्ट्रीय मैनुफैक्चरिंग एवं निवेश जोन’ (एन.एम.आई.ज़ेड.) बनाने का प्रस्ताव है जिसमें मज़दूरों के तमाम अधिकारों को समाप्त किया जा रहा है। वैसे तो इस देश में पहले से मौजूद श्रम कानून व आम जनता तथा मज़दूरों के कानूनी अधिकार अपर्याप्त हैं और जो हैं भी उसे वह प्राप्त नहीं कर सकता क्योंकि पूँजी की दुनिया में न्याय व अधिकार पैसे की ताक़त का बन्धक है। विशेष आर्थिक क्षेत्र एवं इसी तरह की तमाम श्रम विरोधी नीतियाँ मौजूद है। पूँजीपतियों को देश की अकूत प्राकृतिक सम्पदा औने-पौने दामों पर लुटाया जा रहा है। शासक वर्ग का लोभ-लूट-लालच इतने से ही शान्त नहीं हो रहा है और लूट की नित नयी नीतियाँ बनायी जाती हैं।

फिर से मुनाफ़े की हवस की भेंट चढ़े सैंकड़ों मज़दूर

शराबखोरी पूँजीवादी समाज का एक यथार्थ है। लेकिन हर सामाजिक बुराई की तरह यह निर्वात में अस्तित्वमान नहीं है। शराबखोरी पूँजीवाद-जनित सामाजिक बुराई है। गरीब, मजदूर जो महँगी अंग्रेजी शराब खरीदने की कूव्वत नहीं रखते, वे अवैध तरीके से बनाई जाने वाली देसी शराब पीते हैं और इसलिए प्रायः ऐसे हादसों का शिकार वही होते हैं। अमीरी और गरीबी की खाई जो पूँजीवाद पैदा करता है वह इसके बाज़ारों में भी प्रतिबिम्बित होता है। इसलिए उपभोक्ता वस्तुओं से लेकर संगीत, फिल्मों आदि तक के क्षेत्र में हर हमेशा दो बाज़ार मौजूद होते है। जाहिरा तौर पर एक ऐसी व्यवस्था जिसमें आम बहुसंख्यक आबादी का श्रम और जीवन कौड़ियों के मोल बिकता हो, उनके लिए बाज़ार में मिलने वाली वस्तुएँ भी मिलावटभरी, सस्ती, घटिया और नकली होंगी। महँगी, अच्छी ब्राण्डों की शराब पीने से कोई नहीं मरता! इसलिए शराबखोरी में ऐसे हादसों का कारण तलाशना सच्चाई से मुँह चुराना है। जब तक इतिहास की सबसे बड़ी सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, पर्यावरणीय बुराई, यानी पूँजीवाद का अन्त नहीं होता तब तक इससे उपजी तमाम बुराइयों का भी ख़ात्मा सम्भव नहीं हैं।