Category Archives: राष्‍ट्रीय/अर्न्‍तराष्‍ट्रीय मुद्दे

गाज़ा में इज़रायल की हार और आगे की सम्भावनाएँ

किसी हद तक फ़िलिस्तीनी जनता का भविष्य समूचे अरब क्षेत्र में जन मुक्ति संघर्ष के आगे बढ़ने के भविष्य के साथ भी जुड़ा है। आने वाले दिनों में अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतियोगिता के नये दौर के गति पकड़ने का भी इस पर अनुकूल सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। मुक्ति की मंज़िल अभी दूर है, पर इतना सिद्ध हो चुका है कि असीम सामरिक शक्ति के बूते भी एक छोटे से देश की जनता को ग़ुलाम बनाकर रख पाना मुमकिन नहीं। जनता अजेय होती है। आने वाले दिनों में भी फ़िलिस्तीन में ज़ायनवादी ज़ुल्म और अँधेरगर्दी जारी रहेगी, लेकिन इतना तय है कि हर अत्याचार का जवाब फ़िलिस्तीनी जनता ज़्यादा से ज़्यादा जुझारू प्रतिरोध द्वारा देगी। ज़ायनवादियों को आने वाले दिनों में कुछ महत्त्वपूर्ण रियायतें देने के लिए भी मजबूर होना पड़ सकता है। और देर से ही सही, फ़िलिस्तीनी जन जब निर्णायक विजय की मंज़िल के करीब होंगे तो उनके तमाम अरब बन्धु भी तब मुक्ति संघर्ष के पथ पर आगे क़दम बढ़ा चुके रहेंगे।

थोथा चना बाजे घना

मोदी की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघी आत्मा संघ प्रचारक की है। वहाँ उपदेश धर्मवाद या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रचार का सदा एक आवश्यक अवयव रहा है। यह अनायास नहीं है कि राष्ट्रीय परिदृश्य पर मोदी के प्रायोजित उभार के प्रारम्भिक दौर से ही उनके चुनावपूर्व सार्वजनिक भाषण उपदेशात्मक मुखरता और प्रचारात्मक शैली के घोल से सिक्त था( तब उनमें कार्यक्रमपरक रिक्तता लोगों को बहुत खटकती नहीं थी परन्तु देश के प्रधानमन्त्री की हैसियत से पन्द्रह अगस्त का ठोस योजना और अमली कार्यक्रम से रिक्त वही पुराना परउपदेश कुशल बहुतेरे शैली का भाषण इस बार मन्तव्य-उघाड़ू था। शब्दजाल का गुब्बारा फट चुका था और यह बिल्कुल साफ हो गया था कि पूँजी हितैषी और जनविरोधी नीतियों को और तेज़ी तथा और कुशलता के साथ आगे बढ़ानेवाला पूँजीपति वर्ग का यह चतुर नुमाइन्दा कितनी अधीरता से अपनी भूमिका निभाने के लिए प्रस्तुत था।

पाकिस्तान का वर्तमान संकट और शासक वर्ग के गहराते अन्तरविरोध

शायद पाठकों के लिए अब कल्पना करना सम्भव हो सके कि पाकिस्तान की जनता किन भीषण परिस्थितियों का शिकार है। एक ओर वह आर्थिक संकटों से जूझ रही है तो दूसरी ओर कट्टरपंथियों और आतंकियों का दंश भी बर्दाश्त कर रही है। वह अपने सैन्य तन्त्र के ज़ुल्मों को तो बर्दाश्त करती रही है, अब उसे अमेरिकी हमलों का भी निशाना बनाया जा रहा है। आतंक के ख़िलाफ़ युद्ध के पिछले 13 वर्षों की आर्थिक लागत 102 अरब डॉलर है। यह रक़म पाकिस्तान के कुल विदेशी क़र्ज़ के बराबर है। एक बात स्पष्ट है कि पाकिस्तानी जनता के जीवन में तब तक कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं होने वाला है जब तक कि वह स्वयं अपने समाज के भीतर से नयी परिवर्तनकामी शक्तियों को संगठित कर वर्तमान पूँजीपरस्त जनविरोधी तन्त्र को ही नष्ट करने और एक नये समतामूलक समाज को बनाने की दिशा में आगे नहीं बढ़ती।

फिलिस्तीन: कुछ कविताएँ

अगर मुझे अपनी रोटी छोड़नी पड़े
अगर मुझे अपनी कमीज और अपना बिछौना
बेचना पड़े
अगर मुझे पत्थर तोड़ने का काम करना पड़े
या कुली का
या मेहतर का
अगर मुझे तुम्हारा गोदाम साफ करना पड़े
या गोबर से खाना ढूंढ़ना पड़े
या भूखे रहना पड़े
और खामोश
इनसानियत के दुश्मन
मैं समझौता नहीं करूंगा
आखिर तक मैं लड़ूंगा

ये खून बेकार नहीं जायेगा! इज़रायली ज़ि‍यनवादियों और अमेरिकी साम्राज्यवादियों की कब्र अरब की धरती पर खुदेगी!

हवा से बम बरसाकर और मिसाइलें दागकर इज़रायल जो कर सकता था, उसने किया। लेकिन ज़मीन पर फिलिस्तीनियों का मुकाबला करना कायर ज़ि‍यनवादियों के बूते के बाहर है और आने वाले कुछ दिनों में यह साबित भी हो जायेगा। और कुछ दूर भविष्य में समूची इज़रायली जनता को अपने योजनाबद्ध फासीवादीकरण की ज़ि‍यनवादियों को इजाज़त देने की भी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। साथ ही, अरब शासकों को अपनी नपुंसकता और साम्राज्यवाद के समक्ष घुटने टेकने के लिए भी निकट भविष्य में ही भारी कीमत चुकानी होगी। फिलिस्तीन मरेगा नहीं! फिलिस्तीनी जनता मरेगी नहीं! अन्त होगा इज़रायली ज़ि‍यनवाद का और अमेरिकी साम्राज्यवाद का! अरब की धरती पर उनकी कब्र खुदने की तैयारी चल रही है।

अस्मितावादी और व्यवहारवादी दलित राजनीति का राजनीतिक निर्वाण

रामविलास पासवान का रिकॉर्ड तो वैसे भी अपनी राजनीतिक निरन्तरता को कायम रखने में बेहद ख़राब रहा है और राजनीतिक फायदे और पद की चाहत में द्रविड़ प्राणायाम करने में वह पहले ही माहिर हो चुके हैं। लेकिन रामदास आठवले की ‘रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इण्डिया’ और उदित राज की ‘जस्टिस पार्टी’ ने जिस कुशलता और चपलता के साथ अचानक पलटी मारी है, उससे अस्मितावादी दलित राजनीति के पैरोकार काफ़ी क्षुब्ध हैं और उसे अम्बेडकरवाद से विचलन और ग़द्दारी बता रहे हैं। लेकिन हमें ऐसा लगता है कि रामदास आठवले भी पहले इस बात का चयन करने में किसी आलोचनात्मक निर्णय क्षमता का परिचय नहीं देते रहे हैं कि किसकी गोद में बैठकर ज़्यादा राजनीतिक हित साधे जा सकते हैं। सत्ता और शासक वर्ग की दलाली में रामविलास पासवान और रामदास आठवले ने पहले भी ऐसे झण्डे गाड़े हैं और ऐसे किले फतह किये हैं कि उनकी मिसालों को दुहरा पाना किसी के लिए भी एक चुनौतीपूर्ण काम साबित होगा। सबसे ज़्यादा लोग उदित राज के पलटी मारने पर स्यापा कर रहे हैं।

बढ़ते स्त्री-विरोधी अपराधों का मूल और उनके समाधान का प्रश्न

पिछले कुछ वर्षों में बर्बरतम स्त्री-विरोधी अपराधों की बाढ़ सी आ गयी है। ये अपराध दिन ब दिन हिंस्र से हिंस्र होते जा रहे हैं। समाज में ऐसा घटाटोप छाया हुआ है जहाँ स्त्रियों का खुलकर सांस ले पाना मुश्किल हो गया है। बर्बर बलात्कार, स्त्रियों पर तेज़ाब फेंके जाने, बलात्कार के बाद ख़ौफनाक हत्याओं जैसी घटनाएँ आम हो गयी हैं। पिछले दिनों लखनऊ, बदायूं, भगाणा, आदि जगहों पर हुई घटनायें इसका उदाहरण हैं। आखि‍र क्या कारण है कि ऐसी अमानवीय घटनाएँ दिन प्रतिदिन बढती जा रही हैं? इस सवाल को समझना बेहद जरुरी है क्योंकि समस्या को पूरी तरह समझे बगैर उसका हल निकाल पाना संभव नहीं है। अक्सर स्त्री-विरोधी अपराधों के कारणों की जड़ तक न जाने का रवैया हमें तमाम लोगों में देखने को मिलता है। इन अपराधों के मूल को ना पकड़ पाने के कारण वे ऐसी घटनाओं को रोकने के हल के तौर पर कोई भी कारगर उपाय दे पाने में असमर्थ रहते हैं। वे इसी पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर ही कुछ कड़े क़ानून बनाने, दोषियों को बर्बर तरीके से मृत्युदण्ड देने आदि जैसे उपायों को ही इस समस्या के समाधान के रूप में देखते हैं। इस पूरी समस्या को समझने के लिए हमें इसके आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक आदि सभी कारणों की पड़ताल करनी होगी, तभी हम इस समस्या का सही हल निकालने में समर्थ हो पाएंगे।

सवाल की तरह खड़ी है हक़ीक़त

विदर्भ की गर्मी और आठ फुट की झुग्गियों में गुज़र करती यह आबादी जिसमें बच्चे भी शामिल हैं, सुबह से शाम तक काम करते देखे जा सकते हैं। अधिकांश परिवारों में महिलाएँ और बच्चे भी काम करते हैं। अधिकतर मज़दूर 40 से कम उम्र के हैं और अपने बच्चों को पढ़ाना भी चाहते हैं परन्तु न तो आस-पास कोई सरकारी स्कूल है और न ही क्रेच की सुविधा। कुछ बड़े बच्चे माँ-बाप के साथ ही काम पर भी लग जाते हैं। गर्भवती महिलाओं को न तो किसी स्वास्थ्य सम्बन्धी सुविधा की व्यवस्था है और न ही उनको आँगनबाड़ी आदि की जानकारी। इन मज़दूरों के आश्रित माता-पिता दूर इनके पैतृक निवास पर ही रहते हैं और उनके देख-रेख की ज़िम्मेदारी भी इन्हीं के कन्धों पर होती है। केन्द्र सरकार की न्यूनतम मज़दूरी मानक के अनुसार इस सर्वेक्षण के समय अकुशल मज़दूर की मज़दूरी दर 207 रुपये प्रतिदिन और कुशल की 279 रुपये प्रतिदिन थी। ऐसा इसलिए क्योंकि वर्धा केन्द्र सरकार द्वारा मज़दूरी के जोन ‘ग’ में स्थित है। मज़दूरों से पूछे जाने पर पता चला की अकुशल मज़दूर को रुपये 200 और कुशल को 350 से 400 रुपये तक मज़दूरी मिलती है जो सरकारी मानक के आसपास ही ठहरती है, परन्तु महीने में बमुश्किल से 20 दिन ही काम मिल पाने के कारण आमदनी बहुत कम है।

रेलवे सेक्टर को भी लुटेरों के हाथों में सौंपने की तैयारी

ये सभी क़दम उठाने के पीछे जो कारण बताये जा रहे हैं, वे वही पुराने कारण हैं जिनका बहाना लेकर एक-एक सार्वजनिक क्षेत्र को निजी लुटेरों के हाथों कौड़ियों के भाव बेचा गया। एक तर्क यह दिया जा रहा है कि रेलवे सेक्टर बेहद घाटे में चल रहा है और नक़दी की किल्लत के चलते यह काफ़ी जीर्ण-शीर्ण हो गया है। इसके जीर्णोद्धार के लिए निजी निवेश के बग़ैर काम नहीं चलेगा, और ऐसे ही तमाम मूर्खतापूर्ण तर्क। इन सभी तर्कों की नग्नता को जनता का बड़ा हिस्सा पहले ही देख चुका है। फिर भी एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा ऐसा है जो कि मानता है कि निजीकरण से सारी समस्याएँ दूर हो जायेंगी, जिसमें ख़ासकर मध्यवर्गीय आबादी शामिल है। पढ़े-लिखे मध्यवर्गीय नौजवान भी इस भ्रम के शिकार हैं कि निजीकरण से सारी मौजूदा समस्याएँ दूर हो जायेंगी। वे आसानी से कहीं भी यह तर्क देते हुए मिल जाते हैं कि निजी क्षेत्रों में रखरखाव ज़्यादा बेहतर होता है और काम अधिक नियमितता से होता है। लेकिन तथ्य बेरहम होते हैं और दूध का दूध व पानी का पानी कर देते हैं। 1991 से जो निजीकरण की प्रक्रिया में तेज़ी आयी और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की बाढ़ आयी, उसका जनता पर क्या असर पड़ा है यह तो ख़ुद सरकारी आँकड़ों से ही देखा जा सकता है।

बोतल बन्द पानी का गोरख धन्धा!

पानी मनुष्य की बुनियादी ज़रूरतों में से एक है। यह मानव जीवन का आधार है। प्रकृति ने हमें शुद्ध पानी के स्रोतों से नवाज़ा है, पर आज पूरे विश्व में पूँजीपतियों ने इस पर भी अपने मुनाफ़े के लिए क़ब्ज़ा करना शुरू कर दिया है। पानी आज एक माल बन चुका है और मुनाफ़े का बड़ा स्रोत बनता जा रहा है। विश्व के पैमाने पर बोतलबन्द पानी का 10 बिलियन डॉलर से अधिक का कारोबार है जो लगातार तेज़ी से बढ़ रहा है। आज हर गली-मुहल्ले, रेलवे स्टेशन, बस अड्डे, स्कूल-कॉलेज व अन्य सार्वजनिक स्थानों पर बोतलों में बिकता पानी दिखायी दे जाता है। इसका उपभोग दिन-ब-दिन बढ़ता ही जा रहा है। पानी का यह निजीकरण पूँजीवाद के बर्बर होते जाने की निशानी है। इस धोखेबाज़ी और लूट का ख़ामियाज़ा भी आम लोगों को ही भुगतना पड़ता है।