नेपाल त्रासदी
नेपाल को मदद भेजने के पीछे भारत का अपना आर्थिक हित भी निहित है। एशिया की एक क्षेत्रीय साम्राज्यवादी शक्ति होने के नाते भारत अपने ग़रीब पड़ोसी देशों को, फिर चाहे वो भूटान हो, बांग्लादेश हो या नेपाल, अपने हित में इस्तेमाल करने की मंशा से लैस है। इसलिए किसी भी त्रासदी में ऐसे देशों को मदद भेजना उसके लिए फायदेमंद साबित हो सकता है, क्योंकि आपदाओं के समय दी गयी मदद को एक साम्राज्यवादी देश हमेशा एक निवेश के रूप में ही देखता है जिसे वह आगे जा कर सूद समेत वसूल कर सकता है। नेपाल के संसाधनों और उसके श्रम को लूटने की भाग दौड़ में भारत भी अपना हिस्सा पक्का करना चाहता है। केवल भारत ही एक आदर्श पड़ोसी देश होने का फर्ज नहीं निभा रहा, चीन भी नेपाल को मदद भेजने में पीछे नहीं है। इन दोनों देशों के इतने तत्पर प्रयासों के पीछे का मकसद नेपाल की जनता में अपनी साख़ बनाना हैं। तिब्बत पर चीन का कब्ज़ा हो जाने के बाद से नेपाल को भारत अपने व्यापार के लिए एक नए व्यापारिक रास्ते के रूप में देखता है। नेपाल को भारत और चीन दोनों ही ‘नए सिल्क रूट’ की तरह देखते है और दोनों देशों में से जो भी नेपाल के साथ बेहतर सम्बन्ध बनाने में सफल हो जाता है उसके लिए एशिया से यूरोप तक अपने आर्थिक रिश्ते सशक्त करने के रास्ते खुल जाते है। इस ‘डिज़ास्टर ब्रांड’ राजनीति के चलते ही नेपाल में भूकम्प आने के तुरन्त बाद भारत ने औपचारिक तौर पर ‘ऑपरेशन फ्रेंडशिप’ शुरू करने की घोषणा की जिसके तहत बचाव और राहत कार्य करने के लिए दस्तों को रवाना किया गया। भूकम्प के बाद नेपाल में सबसे बड़ा काम है वहाँ के लोगों का पुर्नवासन करना और बुनियादी सुविधाओं जैसे बिजली, सड़कों का नवर्निमाण आदि।