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भारत छोड़ो आन्दोलन की 79वीं बरसी : एक विश्लेषण

भारत छोड़ो आन्दोलन की 79वीं बरसी : एक विश्लेषण वारुणी भारत छोड़ो आन्दोलन का पूरे स्वतन्त्रता संग्राम में एक अलग महत्व है। यह एक ऐतिहासिक जन आन्दोलन के रूप में…

मौजूदा धनी किसान आन्‍दोलन और कृषि प्रश्‍न पर कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में मौजूद अज्ञानतापूर्ण और अवसरवादी लोकरंजकतावाद के एक दरिद्र संस्‍करण की समालोचना

कुतर्क की आड़ में पीआरसी सीपीआई (एमएल) की मज़दूर वर्ग-विरोधी अवस्थिति छिप नहीं सकी है! सच यह है कि पीआरसी सीपीआई (एमएल) का नेतृत्‍व मौजूदा धनी किसान-कुलक आन्‍दोलन की गोद में बैठने की ख़ातिर तरह-तरह के राजनीतिक द्रविड़ प्राणायाम कर रहा है, तथ्‍यों को तोड़-मरोड़ रहा है, गोलमोल बातें कर रहा है, समाजवाद के सिद्धान्‍त और इतिहास का विकृतिकरण कर रहा है और अवसरवादी लोकरंजकतावाद में बह रहा है। लेकिन इस क़वायद के बावजूद, वह कोई सुसंगत तर्क नहीं पेश कर पा रहा है और लाभकारी मूल्‍य के सवाल पर गोलमोल अवस्थिति अपनाने और उसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली से जोड़ने से लेकर “सामान्‍य पूँजीवादी खेती” और “कॉरपोरेट पूँजीवादी खेती” की छद्म श्रेणियाँ बनाकर मार्क्‍सवाद-लेनिनवाद का विकृतिकरण करने तक, सोवियत समाजवाद के बारे में झूठ बोलने और “उचित दाम” का भ्रामक नारा उठाने से लेकर तमाम झूठों और मूर्खताओं का अम्‍बार लगा रहा है।

कैथी कॉलवित्ज़ –एक उत्कृष्ट सर्वहारा कलाकार

कॉलवित्ज़, जो एक महान जर्मनप्रिंटमेकर व मूर्तिकार थीं, अपने समय के कलाकारों से अलग एक स्वतन्त्र और रैडिकल कलाकार के रूप में उभर कर आती है। उन्होंने शुरू से ही कलाकार होने के नाते समाज के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को समझा और अपनी पक्षधरता तय की। उनके चित्रों में हम शुरुआत से ही गरीब व शोषित लोगों को पाते हैं, एक ऐसे समाज का चेहरा देखते हैं जहाँ भूख है, गरीबी है, बदहाली है और संघर्ष है! उनकी कला ने जनता के अनन्त दुखों को आवाज़ देने का काम किया है। उनकी कलाकृतियों में ज़्यादातर मज़दूर तबके से आने वाले लोगों का चित्रण मिलता है। वह “सौंदर्यपसंद” कलाकारों से बिलकुल भिन्न थीं। प्रचलित सौंदर्यशास्त्र से अलग उनके लिए ख़ूबसूरती का अलग ही पैमाना था, उनमें बुर्जुआ या मध्य वर्ग के तौर-तरीकों व ज़िन्दगी के प्रति कोई आकर्षण नहींं महसूस होता।

सी.बी.सी.एस. : “च्‍वाइस” के ड्रामे के बहाने विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में पधारने का न्यौता

शिक्षा व्यवस्था में यह बदलाव होना कोई नयी बात नहीं है। जहाँ तमाम क्षेत्रों में निजी पूँजी को बढ़ावा दिया जा रहा है वहीं शिक्षा भी इससे अछूती नहीं रही है। चाहे 2008 में लागू हुई सेमेस्टर प्रणाली की बात कर लें या चार वर्षीय पाठ्यक्रम की बात कर लें या अभी सीबीसीएस का मुद्दा हो, उच्चतर शिक्षा में लाये जा रहे इन बदलावों के कुछ ठोस कारण हैं जो मौजूदा आर्थिक-राजनीतिक ढाँचे के साथ जुड़े हुए हैं। जब तक हम शिक्षा में हो रहे इन बदलावों को इस व्यवस्था से जोड़कर नहीं देखेंगे तब तक परदे के पीछे की सच्चाई को हम नहीं जान पाएँगे।

भारत में वॉलमार्ट

खुदरा क्षेत्र में भी विदेशी पूँजी के आने के साथ छोटी पूँजी की तबाही और तेज़ होगी और निम्न पूँजीपति आबादी का एक बड़ा हिस्सा सर्वहारा की कतारों में आकर खड़ा होगा। समाज में बेरोज़़गारी बढ़ेगी। ऐसी स्थिति में लोगों के बीच व्यवस्था के प्रति असन्तोष व गुस्सा बढ़ेगा और हमें उनके बीच क्रान्तिकारी प्रचार करना होगा क्योंकि पूँजीवादी व्यवस्था की इस चौहद्दी के भीतर निम्न पूँजीपति वर्ग बचा नहीं रह सकता। इस तबाही को रोकने का एक ही तरीक़ा है इस पूँजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकना। इस एकमात्र विकल्प को टालने के लिए जितने भी तरीक़े तात्कालिक राहत के लिए अपनाये जायें उससे जनता का दुखदर्द और बढ़ता ही जायेगा।

नरेन्द्र मोदी, यानी झूठ बोलने की मशीन!

हिटलर के प्रचार तन्त्र के ही समान नरेन्द्र मोदी का व्यापक प्रचार तंत्र वैसे तो झूठ और ग़लत बातें तो हमेशा से ही करता आया है। मोदी ने चीन से शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद का 20 प्रतिशत ख़र्च करवाया (असल में सिर्फ़ 4 प्रतिशत), तो कभी अपने प्रदेश में सबसे अधिक निवेश का दम्भ भरा जबकि इस मामले में भी दिल्ली और महाराष्ट्र उनसे आगे हैं। तो कभी अपनी पार्टी भाजपा के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी को भारत को आज़ादी मिलने से पहले ही मार दिया गया और उनकी अस्थियों को भी विदेश पहुँचा दिया! अपनी पार्टी के ही संस्थापक के बारे में यह भी बोला कि उनका विवेकानन्द से सम्पर्क था, जबकि श्यामाप्रसाद मुखर्जी विवेकानन्द की मृत्यु के समय दूध पीता बच्चा था!