‘एम.एस.जी.’ फिल्म को प्रदर्शन की अनुमति देने के पीछे की राजनीति
कविता कृष्णपल्लवी
डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख गुरमीत राम रहीम की फिल्म ‘एम.एस.जी.’ उर्फ ‘मेसेंजर ऑफ गॉड’ पर सेंसर बोर्ड को आपत्ति थी कि यह फिल्म अंधविश्वास को फैलाने वाली है। फिर ट्रिब्युनल ने इस फिल्म को चौबीस घण्टे के भीतर पास कर दिया, जबकि आम तौर पर सेंसर बोर्ड की आपत्ति के बाद ट्रिब्युनल को भेजी गयी फिल्में वहाँ महीनों लटकी रहती हैं। जाहिर है कि इसके पीछे भाजपा सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय का प्रत्यक्ष हस्तक्षेप है। इस हड़बड़ी के पीछे की पूरी राजनीति को समझने की ज़रूरत है।
पंजाब में डेरों की राजनीति का एक लम्बा इतिहास रहा है। यूँ तो पंजाब में डेरों का इतिहास काफी पुराना रहा है। लेकिन आज़ादी के बाद के वर्षों में सिख धर्म के गुरुद्वारों पर शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के माध्यम से जाट सिखों के खुशहाल मालिक किसान वर्ग का राजनीतिक-सामाजिक वर्चस्व मज़बूत होने के बाद और उनके अकाली दल की राजनीति का मुख्य सामाजिक अवलम्ब बनने के बाद अलग-अलग डेरे दलित और पिछड़ी जातियों की सिख और हिन्दू आबादी को एकजुट करने वाले केन्द्र बनते चले गये। यूँ तो पंजाब-हरियाणा में ऐसे कुल 9000 डेरे हैं। इनमें से कुछ के अनुयायी लाखों हैं तो कुछ के सैकड़ों में। इन डेरों में राधा स्वामी (ब्यास), सच्चा सौदा, निरंकारी, नामधारी, सतलोक आश्रम, दिब्य ज्योति जागरण संस्थान (नूरमहल), डेरा संत भनियारवाला, डेरा सचखण्ड (बल्लान), डेरा सन्त फुरीवाला, डेरा बाबा बुध दल, डेरा बेगोवाल नानकसर वाले आदि प्रमुख हैं। ये डेरे सिख गुरुओं के अतिरिक्त कबीर, रविदास आदि को भी महत्व देते हैं, दसवें गुरू को अंतिम मानने की जगह जीवित गुरुओं की परम्पराको मानते रहे हैं तथा कबीर-रविदास से लेकर अपने जीवित गुरुओं तक की वाणी को गुरग्रंथ साहिब के बराबर महत्व देते रहे हैं। इसके चलते जाट सिखों के साथ इन डेरों का प्राय: टकराव होता रहा है। लेकिन इस धार्मिक टकराव की अन्तर्वस्तु अतीत में मुख्यत: जाट मालिक किसानों और भूमिहीन दलित और पिछड़ी जातियों के बीच के अन्तरविरोध में निहित थी। कालान्तर में पंजाब की इन दलित व पिछड़ी जातियों के बीच से भी एक खुशहाल मध्यवर्गीय तबका पैदा हुआ जो सामाजिक-राजनीतिक दायरे में अपनी दखल बढ़ाने के लिए कोशिशें करने लगा। नतीजतन डेरों और जाट सिखों के वर्चस्व वाले गुरुद्वारों के बीच के टकराव का चरित्र बदल गया। ज्यादातर डेरे अब दलितों-पिछड़ों के बीच से उभरे नये बुर्जुआ और निम्न बुर्जुआ वर्ग की राजनीतिक आकांक्षाओं के केन्द्र और नये ‘पावर सेक्टर’ बन गये। धार्मिक भावनाओं के सहारे जहाँ कुलक जाट सिख गरीब जाट सिखों को अपने साथ जोड़ लिया करते थे, वहीं इसी हथकण्डे के सहारे दलित और पिछड़ी जातियों के बुर्जुआ और निम्न बुर्जुआ इन जातियों के गरीबों को अपने साथ जोड़ने में कामयाब हो जाते थे। इस तरह पंजाब में वर्गीय अन्तरविरोध जातिगत पहचान की धार्मिक राजनीति की विकृति-विरूपित चेतना के रूप में अभिव्यक्त होते रहे हैं।
पारम्परिक तौर पर पंजाब में जाट सिख मालिक किसानों का बहुलांश अकाली दल का सामाजिक आधार हुआ करता था और हिन्दू और सिख शहरी मध्य वर्ग के साथ गाँगों-शहरों की दलित एवं पिछड़ी जातियाँ मुख्यत: कांग्रेस का वोट बैंक हुआ करती थीं। मुख्यत: 1990 के दशक में बहुजन समाज पार्टी ने कांग्रेस के इस परम्परागत वोट बैंक में सीमित सेंध लगायी। गुरुद्वारों की राजनीति का मुकाबला कांग्रेस मुख्यत: डेरा प्रमुखों की सहायता से किया करती थी। फिर डेरों के सामाजिक आधार का लाभ उठाने के लिए अकाली दल के नेताओं ने भी अलग-अलग डेरों के साथ सौदेबाजी और जोड़-तोड़ की राजनीति शुरु की और डेरा प्रमुख भी इस सौदेबाजी में पीछे नहीं रहे। वस्तुत: यह जाट कुलकों और पूँजीपतियों के साथ दलित और पिछड़ी जातियों के पूँजीपतियों और उच्च मध्यवर्ग की सत्ता के लिए सौदेबाजी का ही एक रूप था।
डेरा सच्चा सौदा पहले हरियाणा और पंजाब की राजनीति में कांग्रेस का पक्षधर माना जाता था। फिर कांग्रेस के पराभव के साथ ही इस डेरे ने अपने अन्य राजनीतिक विकल्पों की तलाश और सौदेबाजी भी शुरू कर दी। उल्लेखनीय है कि विगत लोकसभा चुनावों में डेरा सच्चा सौदा ने अकाली दल उम्मीदवार और सुखवीर सिंह बादल की पत्नी हरसिमरन कौर की जीत में अहम भूमिका निभायी। इन चुनावों के दौरान और हरियाणा के विधान सभा चुनावों के दौरान डेरा सच्चा सौदा ने पर्दे के पीछे से अपना पूरा समर्थन भाजपा को दिया था।
भाजपा पंजाब के भावी विधान सभा चुनावों में अपने पूर्व सहयोगी अकाली दल को किनारे लगाकर अकेले सत्तासीन होने का मंसूबा पाले हुए है। इसके लिए वह डेरा सच्चा सौदा के संत गुरमीत राम रहीम को किसी भी कीमत पर साथ रखना चाहती है। कांग्रेस के पारम्परिक वोट बैंक को छीनने के लिए अन्य प्रमुख डेरों पर भी डोरे डालने का सिलसिला जारी है। अभी दिल्ली विधान सभा के चुनाव सिर पर हैं और दिल्ली में भी आम काम काजू आबादी में डेरा सचचा सौदा के अनुयाइयों की अच्छी-खासी तादाद है। यही कारण है कि मोदी सरकार संत राम रहीम पर विशेष रूप से मेहरबान है। इसी वजह से पूरे सेंसर बोर्ड को ठिकाने लगाकर उनकी फिल्म को प्रदर्शन की अनुमति दी गयी है। और फिर हरियाणा विधान सभा चुनावों में साथ देने के एहसान का कर्ज भी तो उतारना था ही।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-अप्रैल 2015
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