Category Archives: राष्‍ट्रीय/अर्न्‍तराष्‍ट्रीय मुद्दे

पाखण्ड का नया नमूना रामपाल: आखि़र क्यों पैदा होते हैं ऐसे ढोंगी बाबा

समाज में धर्म के नाम पर लागों को आत्मसुधार का पाठ पढ़ाने वाले ये पाखण्डी ख़ुद अय्याशियों भरा जीवन जीते हैं। लोगों को परलोक सुधारने का लालच देकर इनकी तो सात पुश्तों तक का इहलोक सुधर जाता है। ये पण्डे-पुजारी, मुल्ले-मौलवी और साधु-सन्त लोगों को यह कभी नहीं बताते कि मेहनतकश जनता की बदहाली का कारण पूँजीपतियों की लूट है। ऐसा बताकर ये पूँजीपति वर्ग के हितों के खि़लाफ़ नहीं जा सकते और स्वयं के पैरों पर कुल्हाड़ी नहीं मार सकते, क्योंकि तमाम बड़े-बड़े बाबाओं के ख़ुद के पैसे व संसाधनों के बड़े-बड़े अम्बार लगे होते हैं। पूँजीवादी व्यवस्था का धर्म द्वारा सीधा वैधीकरण तो नहीं होता, लेकिन धर्म का पूँजीवादीकरण ज़रूर हो जाता है।

महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों का रियैलिटी शो

बड़जात्या परिवार की ड्रामा फ़िल्मों से भी ज़्यादा ड्रामा दिखलाने के बाद, अन्ततः भाजपा अपने नैसर्गिक साथी शिवसेना को सरकार में शामिल कर चुकी है, हालाँकि बड़जात्या परिवार की ड्रामा फ़िल्मों में आमतौर पर गोद लिये छोटे भाइयों की परिवार में जो गत बनती है, इस गठबन्धन में शिवसेना की भी वही गत बनी है! लेकिन इस ड्रामे के बीच यह ख़बर भी उड़ी थी कि शिवसेना, कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी भी साथ मिलकर सरकार बना सकती हैं; इस तरह की फुसफुसाहट भी सुनायी देती है कि कर्नाटक के ‘ऑपरेशन लोटस’ की तरह यहाँ भी अन्य पार्टियों के विधायकों को ख़रीदकर (इस्तीफ़ा दिलवाकर और फिर अपनी सीटों पर लड़ाकर) भाजपा सरकार चला सकती है! महाराष्ट्र में हुए चुनावी तमाशे ने एक बार फिर साफ़ कर दिया है कि पूँजीवादी चुनावी राजनीति में उसूल, ईमान, अवामपरस्ती जैसी कोई चीज़़ नहीं है! यह केवल किसी भी तरह से सत्ता हासिल करने और पूँजीपति वर्ग की सबसे बेहतरीन ‘मैनेजिंग कमेटी’ साबित होने की अन्धी प्रतिस्पर्द्धा है।

तीन राज्यों के आगामी विधानसभा चुनाव: तैयारियाँ, जोड़-तोड़ और सम्भावनाएँ

भाजपा अगले पाँच वर्षों में, पहले लोकलुभावन नारों-वायदों की लहर के सहारे और फिर हिन्दुत्व और अन्धराष्ट्रवाद के कार्डों के सहारे देश के ज़्यादा से ज़्यादा राज्यों की सत्ता पर काबिज़ होना चाहती है ताकि नवउदारवादी एजेण्डा को अधिक से अधिक प्रभावी ढंग से लागू किया जा सके। इस आर्थिक एजेण्डा के साथ-साथ निरंकुश दमन तथा साम्प्रदायिक विभाजन, मारकाट तथा शिक्षा और संस्कृतिकरण के हिन्दुत्ववादी फ़ासिस्ट एजेण्डा का भी अमल में आना लाजिमी है। इसका मुकाबला बुर्जुआ संसदीय चुनावों की चौहद्दी में सम्भव ही नहीं। मज़दूर वर्ग और व्यापक मेहनतकश जनता तथा मध्यवर्ग के रैडिकल प्रगतिशील हिस्से की जुझारू एकजुटता ही इसका मुकाबला कर सकती है। फासीवाद अपनी हर सूरत में एक धुर प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन होता है। एक क्रान्तिकारी प्रगतिशील सामाजिक आन्दोलन ही उसका कारगर मुकाबला कर सकता है और अन्ततोगत्वा उसे शिकस्त दे सकता है।

जनता पार्टी के बिखरे घटकों को एक करने की चाहतें और कोशिशें : मजबूरियाँ, मुगालते और ज़मीनी हक़ीक़त

इतना तय है कि बुनियादी तौर पर एक ही नस्ल का होने के बावजूद अलग-अलग रंगों वाले ये परिन्दे बहुत लम्बे समय तक साथ-साथ नहीं उड़ सकते। वर्तमान समय में अस्तित्व का संकट पुरानी जनता पार्टी से बिखरे दलों को एक साथ आने के लिए भले ही प्रेरित कर रहा हो, लेकिन इनकी एकता बन पाना मुश्किल है। इन छोटे बुर्जुआ दलों की नियति है कि ये केन्द्र में कांग्रेसनीत या भाजपानीत गठबन्धनों के पुछल्ले बनकर सत्ता-सुख में थोड़ा हिस्सा पाते रहें या बीच के अन्तरालों में ‘स्टॉप गैप अरेंजमेण्ट’ की भूमिका निभाते रहें और कुछ अलग-अलग राज्यों में जोड़-तोड़ कर सरकारें चलाते रहें। पुरानी जनता पार्टी फिर से बन नहीं सकती और बन भी जाये तो बहुत दिनों तक बनी नहीं रह सकती। काठ की हाँड़ी सिर्फ़ एक ही बार चढ़ सकती है।

इबोला महामारी: प्राकृतिक? या साम्राज्यवाद-पूँजीवाद की देन

इबोला के कारण आकस्मिक नहीं हैं बल्कि अफ़्रीका के सामाजिक-आर्थिक इतिहास में उसके कारण निहित हैं। उपनिवेशवाद द्वारा ढाँचागत तौर पर अफ़्रीका को पिछड़ा बनाया जाना और उसके बाद भी साम्राज्यवादी-पूँजीवादी लूट और प्रकृति के दोहन ने ही वे स्थितियाँ पैदा की हैं, जिनका प्रकोप अफ़्रीका को आये दिन नयी-नयी महामारियों के रूप में झेलना पड़ता है। इबोला इन महामारियों की श्रृंखला में सबसे भयंकर साबित हो रही है। लेकिन निश्चित तौर पर, साम्राज्यवादी-पूँजीवादी व्यवस्था के रहते यह आख़िरी महामारी नहीं साबित होगी। अफ़्रीका की जनता को समय रहते इस आदमखोर व्यवस्था की असलियत को समझना होगा और उसे उखाड़ फेंकना होगा।

अहमदनगर में दलित परिवार का बर्बर क़त्लेआम और दलित मुक्ति की परियोजना के अहम सवाल

दलित जातियों का एक बेहद छोटा सा हिस्सा जो सामाजिक पदानुक्रम में ऊपर चला गया है, वह आज पूँजीवाद की ही सेवा कर रहा है। यह हिस्सा ग़रीब मेहनतकश दलित आबादी पर होने वाले हर अत्याचार पर सन्दिग्ध चुप्पी साधता रहा है। यह खाता-पीता उच्च-मध्यवर्गीय तबका आज किसी भी रूप में ग़रीब दलित आबादी के साथ नहीं खड़ा है। फ़िलहाल यह तबका बीमा और बँगलों की किश्तें भरने में व्यस्त है। इस व्यस्तता से थोड़ी राहत मिलने पर यह तमाम गोष्ठियों में दलित मुक्ति की गरमा-गरम बातें करते हुए मिल जाता है। हालाँकि कई बार इसे भी अपमानजनक टीका-टिप्पणियों का शिकार होना पड़ता है, लेकिन इसका विरोध प्रतीकात्मक कार्रवाइयों और दिखावटी रस्म-अदायगी तक ही सीमित है। यह पूँजीवाद से मिली समृद्धि की कुछ मलाई चाटकर सन्तोष कर रहा है।

भारत में वॉलमार्ट

खुदरा क्षेत्र में भी विदेशी पूँजी के आने के साथ छोटी पूँजी की तबाही और तेज़ होगी और निम्न पूँजीपति आबादी का एक बड़ा हिस्सा सर्वहारा की कतारों में आकर खड़ा होगा। समाज में बेरोज़़गारी बढ़ेगी। ऐसी स्थिति में लोगों के बीच व्यवस्था के प्रति असन्तोष व गुस्सा बढ़ेगा और हमें उनके बीच क्रान्तिकारी प्रचार करना होगा क्योंकि पूँजीवादी व्यवस्था की इस चौहद्दी के भीतर निम्न पूँजीपति वर्ग बचा नहीं रह सकता। इस तबाही को रोकने का एक ही तरीक़ा है इस पूँजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकना। इस एकमात्र विकल्प को टालने के लिए जितने भी तरीक़े तात्कालिक राहत के लिए अपनाये जायें उससे जनता का दुखदर्द और बढ़ता ही जायेगा।

ब्राज़ील में फ़ुटबाल वर्ल्ड कप का विरोध

यह वर्ल्ड कप फुटबॉल की धरती पर भले ही खेला गया हो पर यह ब्राज़ील की आम जनता के लिए नहीं था। यह महज़ फुटबॉल प्रेमी (अगर कोई न हो तब भी प्रचार उसे बना देगा) शरीर के भीतर उपभोक्ता आत्मा तक कुछ निश्चित विज्ञापनों द्वारा उपभोग का आह्वान था। ये खेल आज सिर्फ़ पूँजी की चुम्बक बन कर रह गये हैं। जिस तरह वर्ल्ड बैंक व आई.एम.एफ. जैसे संगठन वित्तीय पूँजी के निवेश के लिए रास्ता सुगम बनाते हैं और बड़ी-बड़ी इज़ारेदार कम्पनियों द्वारा (मुख्यतः उनके देश अमेरिका से) नियंत्रित होते हैं उसी प्रकार फ़ीफा जैसे संघ भी वित्तीय पूँजी और बड़ी-बड़ी इज़ारेदार कम्पनियों के निर्देशन पर ही चलते हैं।

मालिन गाँव हादसा – यह प्राकृतिक नहीं पूँजी-जनित आपदा है

ये मुनाफ़ाखोर पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा मानवता पर थोपी गयी आपदाएँ हैं। इन आपदाओं की क़ीमत हमेशा की तरह आम मेहनतकश अवाम को सबसे ज़्यादा और सबसे पहले चुकानी पड़ती है, जैसा कि मालिन गाँव में हुआ है। मौजूदा मुनाफ़ाखोर व्यवस्था के दायरे के भीतर इस समस्या का समाधान सम्भव नहीं है।

इस्लामिक स्टेट (आईएस): अमेरिकी साम्राज्यवाद का नया भस्मासुर

आईएस जैसे बर्बर इस्लामिक कट्टरपन्थी संगठन की अमेरिकी साम्राज्यवादी नीतियों द्वारा पैदाइश और उनका पालन-पोषण कोई नयी बात नहीं है। दरअसल द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से ही कम्युनिज़्म और धर्मनिरपेक्ष अरब राष्ट्रवाद को मात देने के लिए अमेरिका इस्लामिक दक्षिणपन्थ के साथ गठजोड़ बनाता आया है जिसकी वजह से समय-समय पर वहाँ ऐसे इस्लामिक कट्टरपन्थी संगठन उभरते रहे हैं।