Category Archives: राष्‍ट्रीय/अर्न्‍तराष्‍ट्रीय मुद्दे

भारत का सोलहवाँ लोकसभा चुनाव: किसका, किसके लिए और किसके द्वारा

भारत के “स्‍वर्णिम” चुनावी इतिहास में मौजूदा चुनाव ने पैसा ख़र्च करने के मामले में चार चाँद लगा दिये हैं। भारत का सोलहवाँ लोकसभा चुनाव अमेरिका के बाद दुनिया का सबसे महँगा चुनाव है। यदि ख़र्च होने वाले काले धन को भी जोड़ दिया जाये तो अमेरिका क्या पूरी दुनिया के चुनावों के कुल ख़र्च को भी हमारा भारत देश टक्कर दे सकता है। दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र जो ठहरा! सिर्फ़ धन ख़र्च करने और काले धन की खपत करने के मामले में ही नहीं बल्कि झूठे नारे देकर, झूठे वायदे करके जनता को कैसे उल्लू बनाया जाये, जाति-धर्म के झगड़े-दंगे कराकर ख़ून की बारिश में वोट की फ़सल कैसे काटी जाये, जनता-जनता जपकर पूँजीपतियों का पट्टा गले में डलवाने में कैसे प्रतिस्पर्धा की जाये, इन सभी मामलों में भी भारतीय नेतागण विदेशी नेताओं को कोचिंग देने की कूव्वत रखते हैं!

चुनाव मैच रेफ़री की किसने सुनी!

जनता के सामने एकदम ‘सजग व सक्रिय’ दिखने का ढोंग करने वाला चुनाव आयोग प्रतिबन्धित क्षेत्रों में चुनाव सामग्री बँटवाने, मतदाताओं को पैसा व शराब बँटवाने, समुदाय विशेष के ख़िलाफ़ बयान देने, धार्मिक उन्माद फैलाने व आदर्श चुनाव आचार संहिता का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन करने आदि को रोक तो नहीं पाया (वैसे रोकने की इनकी कोई चाहत भी नहीं थी), हाँ, लेकिन हाथ में आदर्श चुनाव आचार संहिता का दिखावटी चाबुक लिये आयोग तमाम चुनावबाज़ पार्टियों के नेताओं को आचार संहिता के उल्लंघन पर नोटिस देता ज़रूर नज़र आया। जैसाकि इस बार अमित शाह, वसुन्धरा राजे व आजम खाँ के भड़काऊ भाषणों पर नोटिस हो या ममता बनर्जी का आयोग की बात न मानने पर नोटिस हो आदि। ये नोटिस चुनाव आयोग के दफ़्तर से अपना सफ़र शुरु करते हैं और इन नेताओं के कचरे के डिब्बे में ख़त्म! यही इनकी मंज़िल होती ही है। अगर एक-दो कार्रवाई की भी जाती है तो वह भी ज़रूरी है वरना जनता के सामने इन चुनावों को “स्‍वतन्त्र व निष्पक्ष” कैसे घोषित किया जायेगा।

यहाँ सिर्फ़ ‘पेड न्यूज़’ नहीं, बल्कि मीडिया ही पूरी तरह पेड है

यह तो तय है कि जैसे-जैसे मीडिया पर बड़ी पूँजी का शिंकजा कसता जायेगा, वैसे-वैसे मीडिया का चरित्र ज़्यादा से ज़्यादा जनविरोधी होता जायेगा और आम जनता के जीवन की वास्तविक परिस्थितियों और मीडिया में उनकी प्रस्तुति के बीच की दूरी बढ़ती ही जायेगी। आज के दौर में कारपोरेट लोग मीडिया को विज्ञापन देते हैं जिनसे मीडिया की हर साल लगभग 18 हज़ार करोड़ रुपयों की कमाई होती है। सरकारी विज्ञापनों से, काग़ज़-कोटे में मिलने वाली कमाई तो है ही। ऐसे में मीडिया जगत की पक्षधरता के बारे में भ्रमित होने की ज़रूरत नहीं है। मौजूदा मीडिया कारपोरेट जगत का मीडिया है और उसकी आलोचना नहीं करता है। साफ़ है जो जिसका खायेगा, उसी के गुण गायेगा।

चार राज्यों में विधानसभा चुनाव के नतीजे और भावी फासीवादी उभार की आहटें

फासीवादी उभार हमेशा ही किसी न किसी किस्म के ‘फ़्हूरर’ या ‘ड्यूस’ के कल्ट पर सवार होकर आता है। भारत में यह कल्ट ‘नमो नमः’ के नारे पर सवार होकर आ रहा है। मुम्बई में एक रईसों के होटल ने मोदी की मोम की प्रतिमा का अनावरण मोदी द्वारा ही करवाया है। इसी प्रकार की कवायदें मोदी समर्थक देश भर में कर रहे हैं। ‘फ़्यूहरर’ कल्ट का भारतीय संस्करण हमारे सामने है। निश्चित तौर पर यह अभी नहीं कहा जा सकता है कि चार विधानसभा चुनावों के नतीजे लोकसभा चुनावों के नतीजों में परिवर्तित हो जायेंगे। लेकिन उतने ही ज़ोर के साथ यह भी कहा जा सकता है कि इस सम्भावना से इंकार भी नहीं किया जा सकता है। जर्मनी या इटली की तरह भारत में फासीवादी उभार होगा, इसकी सम्भावना कम है। वास्तव में, उस प्रकार का फासीवादी उभार भूमण्डलीकरण के दौर में कहीं भी सम्भव नहीं है। इतिहास अपने आपको दुहराता नहीं है। लेकिन एक नये रूप में, नये कलर-फ़्लेवर में दुनिया के कई देशों में अपनी-अपनी विशिष्टताओं के साथ फासीवादी ताक़तें सिर उठा रही हैं।

आनन्द तेलतुम्बडे को जवाबः स्व-उद्घोषित शिक्षकों और उपदेशकों के नाम

तेलतुम्बडे यहाँ असत्य वचन का सहारा ले रहे हैं कि उन्होंने मार्क्सवाद और अम्बेडकरवाद के मिश्रण या समन्वय की कभी बात नहीं की या उसे अवांछित माना है। 1997 में उन्होंने पुणे विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग में एक पेपर प्रस्तुत किया, ‘अम्बेडकर इन एण्ड फॉर दि पोस्ट-अम्बेडकर दलित मूवमेण्ट’। इसमें दलित पैंथर्स की चर्चा करते हुए वह लिखते हैं, “जातिवाद का असर जो कि दलित अनुभव के साथ समेकित है वह अनिवार्य रूप से अम्बेडकर को लाता है, क्योंकि उनका फ्रेमवर्क एकमात्र फ्रेमवर्क था जो कि इसका संज्ञान लेता था। लेकिन, वंचना की अन्य समकालीन समस्याओं के लिए मार्क्सवाद क्रान्तिकारी परिवर्तन का एक वैज्ञानिक फ्रेमवर्क देता था। हालाँकि, दलितों और ग़ैर-दलितों के बीच के वंचित लोग एक बुनियादी बदलाव की आकांक्षा रखते थे, लेकिन इनमें से पहले वालों ने सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन के उस पद्धति को अपनाया जो उन्हें अम्बेडकरीय दिखती थी, जबकि बाद वालों ने मार्क्सीय कहलाने वाली पद्धति को अपनाया जो कि हर सामाजिक प्रक्रिया को महज़ भौतिक यथार्थ का प्रतिबिम्बन मानती थी।………… अब पाठक ही बतायें कि तेलतुम्बडे जो दावा कर रहे हैं, क्या उसे झूठ की श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिए? क्या यहाँ पर ‘अम्बेडकरीय’ और ‘मार्क्सीय’ दोनों को ‘अम्बेडकरवाद’ और ‘मार्क्सवाद’ के अर्थों में यानी ‘दो विचारधाराओं’ के अर्थों में प्रयोग नहीं किया गया है? फिर तेलतुम्बडे यह आधारहीन और झूठा दावा क्यों करते हैं कि उन्होंने कभी ‘अम्बेडकरवाद’ शब्द का प्रयोग नहीं किया क्योंकि वह नहीं मानते कि ऐसी कोई अलग विचारधारा है? क्या यहाँ पर उन्होंने अम्बेडकर की विचारधारा और मार्क्स की विचारधारा और उनके मिश्रण की वांछितता की बात नहीं की? हम सलाह देना चाहेंगे कि तेलतुम्बडे के कद के एक जनपक्षधर बुद्धिजीवी को बौद्धिक नैतिकता का पालन करना चाहिए और इस प्रकार सफ़ेद झूठ नहीं बोलना चाहिए।

अमृतानन्दमयी के कुत्तों, आधुनिक धर्मगुरुओं और विघटित-विरूपित मानवीय चेतना वाले उनके भक्तों के बारे में चलते-चलाते कुछ बातें…

पूँजीवादी उत्पादन-प्रणाली अपनी स्वतःस्फूर्त आन्तरिक गति से धार्मिक विश्वास के पुराने रूपों का पोषण करती है और नये-नये आधुनिक रूपों को जन्म देती रहती है। माल उत्पादन और अधिशेष-विनियोजन की मूल गतिकी जनता की नज़रों से ओझल रहती है और अपने जीवन की तमाम आपदाओं का कारक उसके लिए अदृश्य बना रहता है। इसी अदृश्यता का विरूपित परावर्तन सामाजिक मानस में अलौकिक शक्तियों की अदृश्यता के रूप में होता है। इसी से धार्मिक चेतना नित्य प्रति पैदा होती रहती है और आम लोग अलौकिक शक्तियों और उनके एजेण्टों (धर्मगुरुओं) के शरणागत होते रहते हैं। ये अलग-अलग धर्मगुरु अलग-अलग बीमा कम्पनियों के एजेण्ट के समान होते हैं जो तरह-तरह के प्रॉडक्ट ज़्यादा से ज़्यादा आकर्षक बनाकर उपभोक्ताओं को बेचते रहते हैं।

‘आप’ के उभार के मायने

‘आप’ पूरी पूँजीवादी व्यवस्था को कभी कठघरे में खड़ा नहीं करती। केजरीवाल ने एक कारपोरेट घराने के ‘काम करने के तरीकों’ पर सवाल उठाना शुरू किया था, लेकिन इस मुद्दे पर जल्द ही वह चुप्पी साध गये। बाकी कारपोरेट घरानों पर केजरीवाल ने कभी मुँह तक नहीं खोला। उल्टे पूँजीपति वर्ग को भी वह ‘विक्टिम’ और पीड़ित के रूप में दिखलाते हैं! अपने घोषणापत्र में केजरीवाल लिखते हैं कि कांग्रेस और भाजपा जैसी भ्रष्ट पार्टियों के कारण मजबूर होकर पूँजीपतियों को भ्रष्टाचार करना पड़ता है! यह दोगलेपन की इन्तहाँ नहीं तो क्या है? आप देख सकते हैं कि भ्रष्टाचार के मुद्दे को किस प्रकार नंगी और बर्बर पूँजीवादी लूट को छिपाने के लिए इस्तेमाल किया गया है। पूँजीपति जो श्रम कानूनों का उल्लंघन करते हैं क्या वह मजबूरी के कारण करते हैं? ठेकाकरण क्या वह भ्रष्टाचार से मजबूर होकर करते हैं? यह तो पूरी तस्वीर को ही सिर के बल खड़ा करना है। वास्तव में, सरकार (चाहे किसी की भी हो!) और पूँजीपति वर्ग मिलकर मज़दूरों के विरुद्ध लूट और हिंसा को अंजाम देते हैं! केजरीवाल की इस महानौटंकी के पहले अध्याय के लिखे जाते समय ही दिल्ली के पड़ोस में मारुति सुजुकी के मज़दूरों का संघर्ष चल रहा था लेकिन केजरीवाल ने इस पर एक शब्द नहीं कहा; दिल्ली में ही मेट्रो के रेल मज़दूरों को न्यूनतम मज़दूरी और ठेका प्रथा ख़त्म करने के लिए संघर्ष चल रहा था, इस पर भी केजरीवाल ने एक बयान तक नहीं दिया! क्या केजरीवाल को यह सारी चीज़ें पता नहीं है? ऐसा नहीं है! यह एक सोची-समझी चुप्पी है! मज़दूरों के लिए कुछ कल्याणकारी कदमों जैसे कि पक्के मकान देना आदि की बात करना एक बात है, और मज़दूरों के सभी श्रम अधिकारों के संघर्षों को समर्थन देना एक दूसरी बात।

आई.पी.एल.: बाज़ारू खेल बिकते खिलाड़ी!

प्रायोजक दो तरह से आकर्षित होते हैं। एक, टीम के अन्दर नामी खिलाड़ियों के होने से दूसरा, टीम के प्रदर्शन से। टीम का अच्छा प्रदर्शन करना निश्चित नहीं होता तब टीम में नामी खिलाड़ियों के होने की आवश्यकता और बढ़ जाती है जिसके लिए फ्रेंचाइज़ी नामी खिलाड़ियों की ज़्यादा से ज़्यादा बोली लगाती है और वही लागत कम करने के लिए टीम के बाकी सदस्यों को कम-से-कम में ख़रीदना चाहती है। हर खिलाड़ी ज़्यादा से ज़्यादा कीमत पर बिकने को हर वक़्त तैयार रहता है। ऐसे में आईपीएल या ऐसे आयोजनों से जुड़े खिलाड़ी, बोर्ड, फ्रेंचाइजी व अन्य घटक अपने-अपने स्तर पर अपने मुनाफ़े तथा अधिकाधिक धन बटोरने की अनियन्त्रित भूख के चलते तथाकथित नियमों व कानूनों के बाहर जाकर इस तरह की घटनाओं को अंजाम देते हैं। यहाँ प्रश्न व्यक्तिगत नैतिकता एवं शुचिता का नहीं वरन् उस समाज के मूलभूत नियम का है जो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को वैसे ही अनुशासित करता है। और अपनी गतिकी से एक ऐसी सभ्यता एवं जीवन रूप को रचता है जो व्यक्तिवाद व धनतन्त्र के दृष्टिहीन और दिशाहीन रास्ते पर बढ़ती है। इस घटना में शामिल खिलाड़ी, सटोरिये, अम्पायर, प्रबन्धक आदि पूँजीवाद के आम नियम-श्रम की लूट तथा धन एवं पूँजी को बढ़ाते जाने के अन्धे उन्माद से पैदा होने वाले उपोत्पाद हैं। यह भ्रष्टाचार पूँजी के किसी भी क्षेत्र की स्वाभाविक नियति का नमूना है चाहे यह खेल का क्षेत्र ही क्यों न हो।

उत्तराखण्ड त्रासदीः यह पूँजीवादी विकास की तार्किक परिणति है!

पिछले कुछ वर्षों से आश्‍चर्यजनक रूप से नियमित अन्तराल पर दुनिया के किसी न किसी कोने में ऐसी विभीषिकाएँ घटित हो रही हैं जो इस बात के स्पष्ट संकेत देती हैं कि पूँजीवादी व्यवस्था का अस्तित्व न सिर्फ मानवता के लिए घातक है बल्कि यह पृथ्वी और उस पर रहने वाले तमाम जीव-जन्तुओं और वनस्पतियों या यूँ कहें कि उसके समूचे पारिस्थितिक तन्त्र के लिए विनाश का सबब है। गत जून के दूसरे पखवाड़े में उत्तराखण्ड में बादल फटने, भूस्खलन, हिमस्खलन और बाढ़ से आयी तबाही का जो ख़ौफ़नाक मंज़र देखने में आया वह ऐसी ही विनाशकारी घटनाओं का एक प्रातिनिधिक उदाहरण है। इस त्रासदी से निपटने में पूरी तरह विफल साबित होने के बाद अपनी छीछालेदर से बचने के लिए उत्तराखण्ड सरकार ने अभी भी इस त्रासदी में मारे गये लोगों की ठीक-ठीक संख्या नहीं बतायी है, परन्तु विभिन्न गैर सरकारी संस्थाओं और स्वतन्त्र एजेंसियों का दावा है कि यह संख्या 10 से 15 हज़ार हो सकती है। यही नहीं उत्तराखण्ड के सैकड़ों गाँव तबाह हो गये हैं और लाखों लोगों के लिए जीविका का संकट उत्पन्न हो गया है।

जाति उन्मूलन का रास्ता मज़दूर इंक़लाब और समाजवाद से होकर जाता है, संसदवादी, अस्मितावादी या सुधारवादी राजनीति से नहीं!

सुखविन्दर ने अपने आलेख में प्रदर्शित किया कि अम्बेडकर के चिन्तन में कोई निरन्तरता नहीं है। सामाजिक एजेण्डे के प्रश्न पर पहले वह हिन्दू धर्म में ही सुधार करना चाहते थे; बाद में उन्होंने बुद्धवाद में धर्मान्तरण के रास्ते की वकालत की; और मरने से पहले उन्होंने इसे भी नाकाफ़ी करार दिया। उनका चिन्तन निरीश्वरवादी चिन्तन भी नहीं था और उनका मानना था कि समाज में धर्म रहना चाहिए क्योंकि इसी से समाज में कोई आचार या अच्छे मूल्य रहते हैं। इसलिए वे कम्युनिस्टों और निरीश्वरवादियों की नास्तिकता पर हमला करते थे। आर्थिक पहलू देखें तो अम्बेडकर के पास जो आर्थिक कार्यक्रम था वह पब्लिक सेक्टर पूँजीवाद का ही कार्यक्रम था; बल्कि नेहरू का पब्लिक सेक्टर पूँजीवाद का एजेण्डा कुछ मायनों में अम्बेडकर से ज़्यादा रैडिकल था, या कम-से-कम दिखता था। जाति के ख़ात्मे के लिए उन्होंने जो रास्ता सुझाया वह शहरीकरण और उद्योगीकरण का था। लेकिन इतिहास ने दिखलाया है कि शहरीकरण और उद्योगीकरण ने जाति का स्वरूप बदल डाला है, लेकिन उसका ख़ात्मा नहीं किया। अम्बेडकर राजनीतिक तौर पर पूँजीवाद का कोई विकल्प नहीं देते थे। उनकी राजनीति अधिक से अधिक रैडिकल व्यवहारवाद और संविधानवाद तक जाती थी। जनता इतिहास को बदलने वाली शक्ति होती है, इसमें उनका कभी यकीन नहीं था, बल्कि वे नायकों की भूमिका को प्रमुख मानते थे।