Category Archives: राष्‍ट्रीय/अर्न्‍तराष्‍ट्रीय मुद्दे

यह योजना महज चुनावी कार्यक्रम नहीं बल्कि व्यापारियों का मुनाफा और बढ़ाने की योजना है

यह बात सही है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पी.डी.एस.) में कई कमियाँ हैं। सबसे बड़ी कमी है ग़रीबी रेखा का निर्धारण ही सही तरीके से नहीं किया गया है। मौजूदा ग़रीबी रेखा हास्यास्पद है। उसे भुखमरी रेखा कहना अधिक उचित होगा। पौष्टिक भोजन के अधिकार को जीने के मूलभूत संवैधानिक अधिकार का दर्जा दिया जाना चाहिए तथा इसके लिए प्रभावी क़ानून बनाये जाने चाहिए। इसके लिए ज़रूरी है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली का ही पुनर्गठन किया जाए और अमल की निगरानी के लिए जिला स्तर तक प्रशासनिक अधिकारी के साथ-साथ लोकतान्त्रिक ढंग से चुनी गयी नागरिक समितियाँ हों। पर किसी पूँजीवादी व्यवस्था से ऐसी उम्मीद कम ही है; भारत समेत पूरी दुनिया जिस आर्थिक मंदी से गुज़र रही है ऐसे समय में ऐसी नीतियों का बनना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इस देश के आम लोगों के लिए खाद्य सुरक्षा को सही मायने में लागू करवाने के लिए छात्र-नौजवानों और नागरिकों का दायित्व है कि ऐसी योजनाओं की असलियत को उजागर करते हुए देश की जनता को शासक वर्ग की इस धूर्ततापूर्ण चाल के बारे में आगाह करें जिससे कि एक कारगर प्रतिरोध खड़ा किया जा सके।

दुनिया के सबसे बड़े और महँगे पूँजीवादी जनतन्त्र की तस्वीर!

गाँधी द्वारा उठाये गये इस सवाल की कसौटी पर जब हम आज के भारत की संसदीय शासन प्रणाली को कसते हैं तो पाते हैं कि ये औपनिवेशिक शासन से भी कई गुनी अधिक महँगी है। यह बात दीगर है कि जिस शासन-व्यवस्था के गाँधी पैरोकार थे, आज की सड़ी-गली व्यवस्था उसी की तार्किक परिणति है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट द्वारा जनहित याचिका के फैसले के बाद भी हमें समझने की ज़रूरत है कि पूँजीवादी संसदीय जनवाद अपनी इस ख़र्चीली धोखाधड़ी और लूटतन्त्र की प्रणाली में बदलाव नहीं लाने वाला है। असल में भारतीय राज्य व्यापक मेहनतकश जनता का राज्य नहीं बल्कि मुट्ठी भर पूँजीपतियों की तानाशाही वाला राज्य है। इसे स्पष्ट करने के लिए आँकड़ों का अम्बार लगाने की ज़रूरत नहीं है कि मौजूदा पूँजीवादी जनतन्त्र में जन तो कहीं नहीं है, बस एक बेहद ख़र्चीला तन्त्र और ढेर सारे तन्त्र-मन्त्र हैं! आम जनता के हिस्से में इसका ख़र्च उठाने के अलावा ग़रीबी, बेरोज़गारी, भुखमरी, अशिक्षा और कुपोषण ही आते हैं।

कौन जिम्मेदार है इस पाशविकता का? कौन दुश्मन है? किससे लड़ें?

स्त्री-विरोधी अपराध कोई नयी बात नहीं है। जबसे पितृसत्तात्मक समाज अस्तित्व में आया है, तबसे ये अपराध लगातार होते रहे हैं। पहले इनका रूप अलग था और आज इनका रूप अलग है। सामन्ती समाज में तो स्त्रियों के उत्पीड़न को एक प्रकार की वैधता प्राप्त थी; जिस समाज में कोई सीमित पूँजीवादी अधिकार भी नहीं थे, वहाँ परदे के पीछे और परदे के बाहर स्त्रियों के खिलाफ अपराध होते थे और वे आम तौर पर मुद्दा भी नहीं बनते थे। पूँजीवादी समाज में इन स्त्री-विरोधी अपराधों ने एक अलग रूप अख्तियार कर लिया है। अब कानूनी तौर पर, इन अपराधों को वैधता हासिल नहीं है। लेकिन इस पूँजीवादी समाज में एक ऐसा वर्ग है जिसके जेब में कानून, सरकार और पुलिस सबकुछ है। यह वर्ग ही मुख्य रूप से वह वर्ग है जो ऐसे अपराधों को अंजाम देता है।

अब हर हाथ में फउन होगा!

पिछले कुछ साल के दौरान रिकार्डतोड़ घोटाले हुए। लाखों टन अनाज सड़ गया पर लोग भूख से मरते रहे। स्वास्थ्य सेवा के अभाव में भी कई लोग मारे गये। अच्छे स्कूल नहीं होते जिसमें गुणवत्ता वाली शिक्षा प्राप्त हो सके। बड़ी आबादी के सिर के ऊपर छत नहीं है। ऐसे में, जनता को मोबाइल नहीं जीवन की बुनियादी ज़रूरतें चाहिए। लेकिन सरकार भी यह योजना इसलिए लेकर नहीं आयी है कि कोई वास्तविक समस्या हल हो। वह तो इस योजना को महज़ इसलिए लेकर आयी है कि व्यवस्था का भ्रम कुछ और दीर्घजीवी हो जाये। लेकिन हताशा में उठाये गये ऐसे कदमों से कोई भ्रम भी नहीं पैदा होगा और ग़रीबी, बेघरी और भुखमरी का दंश झेल रही जनता इसे अपने साथ एक भद्दा मज़ाक ही समझेगी। जिन नौजवानों को यह बात समझ में आती है, उन्हें जनता के बीच उतरकर इस सच्चाई को समझाना चाहिए।

सूखा प्राकृतिक आपदा या पूँजीवादी व्यवस्था का प्रकोप

आज सूखे की जिस गम्भीर हालात का महाराष्ट्र और कमोबेश देश के अन्य कई राज्य सामना कर रहे हैं, वह अनायास या संयोगवश नहीं पैदा हो गयी है, बल्कि पूँजीवादी विकास का परिणाम भी है और पूँजीवादी विकास का एक विशेष, महत्वपूर्ण और अभिन्न हिस्सा भी। सरकारी अधिकारियों-नेताओं-मन्त्रियों-धनाढ्यों की देश की ग़रीब जनता के प्रति घृणा और उनके दुःखों के प्रति उदासीनता का आज जो कुरूपतम और रुग्णतम चेहरा सामने आ रहा है वह पूँजी के सबसे मानवद्रोही और परजीवी रूप, यानी वित्तीय पूँजी की जकड़बन्दी, का ही एक उदाहरण है। जैसे पानी के लिए तरसते ठाणे के कुछ गाँवों में भीख-स्वरूप पानी के कुछ गिलास भर बँटवा देना “जनप्रतिनिधियों” द्वारा मानवीय संवेदनाओं और बेबसी के साथ किये जाने वाले घृणित खिलवाड़ की ऐसी ही एक ऐसी मिसाल पेश करता है जिसे शायद शब्द में व्यक्त नहीं किया जा सकता।

यूनान के चुनाव और वैश्विक संकट

लाख प्रयासों के बावजूद पूँजीवादी व्यवस्था अपने संकट से मुक्त नहीं हो पा रही है। इस संकट का बोझ निश्चित रूप से हर सूरत में जनता के ऊपर ही डाला जाता है। इसके कारण इस संकट के कुछ राजनीतिक और सामाजिक परिणाम भी सामने आने ही हैं। ऐसे में, दुनिया भर की सरकारें और ख़ास तौर पर विकासशील देशों की सरकारें अपने काले कानूनों के संकलन को अधिक से अधिक समृद्ध बनाने में लगी हुई हैं; अपने सशस्त्र बलों को अधिक से अधिक चाक-चौबन्द कर रही हैं; हर प्रकार की नागरिक, राजनीतिक और बौद्धिक स्वतन्त्रताओं को छीन रही हैं; राजसत्ता को अधिक से अधिक दमनकारी बनाने में लगी हुई हैं।

दलित मुक्ति का रास्ता मज़दूर इंकलाब से होकर जाता है, पहचान की खोखली राजनीति से नहीं!

अम्बेडकर की कोई भी आलोचना नहीं की जा सकती! यदि कोई क्रान्तिकारी परिप्रेक्ष्य से अम्बेडकर की राजनीतिक परियोजना की सीमाओं और अन्तरविरोधों की तरफ़ ध्यान आकर्षित करता है, तो दलितवादी बुद्धिजीवी और संगठन और साथ ही दलित आबादी को तुष्टिकरण और विचारधारात्मक आत्मसमर्पण के जरिये जीतने का सपना पालने वाले “क्रांन्तिकारी” कम्युनिस्ट भी उस पर टूट पड़ते हैं और आनन-फानन में उसे दलित-विरोधी, सवर्णवादी आदि घोषित कर दिया जाता है!

जस्टिस काटजू का विधवा-विलाप और भारतीय मीडिया की असलियत

मुनाफ़ाखोर मीडिया से यह अपेक्षा करना कि वह जनता का पक्ष लेगा और वैज्ञानिक तथा प्रगतिशील दृष्टिकोण बनाने में सहायक होगा, आकाश-कुसुम की अभिलाषा के समान लगता है। यह तो तय है कि जैसे-जैसे मीडिया पर बड़ी पूँजी का शिकंजा कसता जायेगा, वैसे-वैसे मीडिया का चरित्र ज़्यादा से ज़्यादा जनविरोधी होता जायेगा और आम जनता के जीवन की वास्तविक परिस्थितियों और मीडिया में उनकी प्रस्तुति के बीच की दूरी बढ़ती ही जायेगी। जस्टिस काटजू की यह बात तो सही है कि भारत में पत्र-पत्रिकाओं का एक गौरवशाली अतीत रहा है और विशेषकर स्वतन्त्रता संघर्ष के दौरान उनकी बेहद सकारात्मक और प्रगतिशील भूमिका रही है। लेकिन वह यह बात भूल जाते हैं कि ऐसी सभी पत्र-पत्रिकाएँ जनता के संघर्षों की तपन में उपजी और पनपी थीं और उनका उद्देश्य मुनाफ़ा कमाना हरगिज़ नहीं था। आज के दौर में पूँजीवादी मीडिया से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती की वह जनता का पक्ष ले।

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार का “समाजवाद”

आज साँपनाथ की जगह नागनाथ को चुनने या कम बुरे-ज़्यादा बुरे के बीच चुनाव करने का कर्तव्य, जनता का बुनियादी कर्तव्य बताया जा रहा है। 2014 को लोकसभा के चुनाव में हमसे फिर इन्हीं में से किसी को चुनने की अपील की जायेगी। पाँच साल तक मायावती की निरंकुशता, तानाशाही, गुलामी झेली अब पाँच साल के लिए सपा की झेलनी है। ऐसे में सभी सचेत व इंसाफपसन्द लोगों का कर्तव्य है कि वे अपने दिमाग़ पर ज़ोर डालें। रास्ता ज़रूर निकलेगा, परन्तु एक बात साफ है इस वर्तमान चुनावी नौटंकी से कोई रास्ता नहीं निकलने वाला।

‘‘दबंग’’ से बदरंग होते मतदाता

मौजूदा निगम चुनाव में उम्मीदवारों को देखकर साफ़ पता चलता है कि वह किसी व्यवसाय में पैसा लगा रहे हैं। वैसे तो असलियत पहले भी यही थी पर इस पर पड़े बचे-खुचे भ्रम के परदे भी हर चुनाव के साथ उतर रहे हैं। इस निगम चुनाव में टिकट बँटवारे के समय जो घमासान मचा उसमें पैसे का बोल-बाला साफ तौर पर नज़र आया। यूँ तो चुनाव आयोग ने चुनावी खर्च की सीमा 4 लाख रुपये तय की थी लेकिन उम्मीदवारों ने चुनाव प्रचार से पहले ही 40 से 80 लाख रुपये तो टिकट पाने में ही ख़र्च कर दिये! बताने की ज़रूरत नहीं है कि ये तमाम धनपति ‘जन-सेवा’ के लिए यह भारी-भरकम निवेश नहीं कर रहे हैं, बल्कि ‘धन-मेवा’ पाने के लालच में पसीना बहा रहे हैं! जाहिरा तौर पर ये लोग जीतते ही अपनी रकम को दोगुना, तिगुना करने में लगेंगे न कि अपने इलाके के विकास पर ध्यान देंगे जिसका ताज़ा उदाहरण पिछले पाँच साल रहे निगम पार्षदों की सम्पत्ति को देखकर समझा जा सकता है! इसमें भाजपा के 26 पार्षद ऐसे हैं जो लखपति से करोड़पति हो गये!