Category Archives: सम्‍पादकीय

फासीवाद को हराने के लिए पूँजीवाद के खात्मे की लड़ाई लड़नी होगी!

आज का फासीवाद मुसोलीनी के इटली सरीखे और हिटलर के जर्मनी सरीखे फासीवादी मॉडल से भिन्नता लिए हुए है। 1920 के दशक की आर्थिक महामन्दी के दौर में उभरे फासीवादी आन्दोलन में आकस्मिकता का तत्व था तो 1970 से मन्द-मन्द मन्दी की शिकार व्यवस्था, जो 2008 के बाद से मन्दी के अधिक भयंकर भँवर में जा फँसी है, में धीरे-धीरे पोर-पोर में समाकर सत्ता में पहुँचने का तत्व है। भारत में फासीवादी अचानक ब्लिट्जक्रिग अंदाज़ में सत्ता में जाने की जगह धीरे-धीरे पोर-पोर में समाकर और समय-समय पर आन्दोलनों के जरिये सत्ता के करीब पहुँचे हैं।

देश में बढ़ती असमानता और नरेंद्र मोदी का नग्न प्रहसन

जिस समय दावोस में मोदी पूँजीपतियों, रसोइयों और बॉलीवुड के भाड़ों को लेकर भारत में निवेश करने व विकसित देश से तक्नोलॉजी के लिए चिरौरी-मिन्नतें कर रहा था, ऑक्सफेम ने विश्व स्तर पर असामनता की एक रिपोर्ट प्रकाशित की। इस रिपोर्ट ने आँकड़ों के जरिये यह प्रदर्शित किया कि ग़रीब आबादी को आँसुओं के समन्दर में धकेलकर ऐयाशी की मीनारों में अमीरजादों की जमात बैठी है। यह रिपोर्ट भले पूँजीवाद की पैरवी करती है और थॉमस पिकेटी सरीखे उदारवादी लेखक के उपदेशों को पेश करती है। यानी कल्याणकारी राज्य को स्थापित कर असामनता को कम करने की पैरवी करती है। परन्तु सवाल भले या बुरे पूँजीवाद का नहीं बल्कि पूँजीवाद का है। इस असमानता को ख़त्म करने के लिए पूँजीवाद को ख़त्म करना होगा।

फासीवादी दमन: तय करो तुम किस ओर हो!

फासीवाद ने आज चुनावी मोर्चे पर जीत ज़मीनी कार्यवाइयों के जरिये हासिल की है। आज फासीवाद को महज कोर्ट कचहरी और संसदीय जनवाद के जरिये परास्त नहीं किया जा सकता है। भारत में इस फासीवादी आन्दोलन ने इन बुर्जुआ उपक्रमों के अनुरूप अपने को ढाला है और आज का फासीवाद संसदीय और कानूनी ठप्पा लेकर काम कर रहा है। गुजरात के बाद उत्तर प्रदेश दंगों की नयी प्रयोग भूमि बन गया है जहाँ राजकीय ढाँचे को उलट-पलट कर बन्द और ब्रेक की नीति पर इसे फासीवादी एजेण्डे के अनुरूप ढलने को बोला जा रहा है। सड़कों पर भगवा गुण्डों का आतंक, गौ रक्षा, राजपूत सेना या एण्टी रोमियो दल के रूप में खुले आम क़त्ल, मारपीट और आगजनी कर सकती है। मीडिया आज योगी के सफलता के गुर, मोदी का हनुमान और 16 घण्टे काम करने वाले नेता के रूप में पेश करने में जुटी हुई है। वहीं योगी अब सामान्यतया कोई भी साम्प्रदायिक बयान देने से बच  रहा है और मोदी की रणनीति को लागू करते हुए “तिलक” और “टोपी” दोनों के विकास की बात कर रहा है। इस विकास का फल पिछले तीन साल के मोदी सरकार के कार्यकाल में हम देख चुके हैं।

मोदी सरकार के दो साल: जनता बेहाल, पूँजीपति मालामाल

मोदी सरकार के दो वर्षों में उपरोक्त आर्थिक नीतियों के कारण आम मेहनतकश जनता को अभूतपूर्व महँगाई का सामना करना पड़ रहा है। इन दो वर्षों में ही रोज़गार सृजन में भारी कमी आयी है और साथ ही बेरोज़गारों की संख्या में भी खासा इज़ाफ़ा हुआ है। मज़दूरों के शोषण में भी तेज़ी से बढ़ोत्तरी हुई है क्योंकि मन्दी के दौर में मज़दूरों को ज़्यादा निचोड़ने के लिए जिस प्रकार के खुले हाथ और विनियमन की पूँजीपति वर्ग को ज़रूरत है, वह मोदी सरकार ने उन्हें देनी शुरू कर दी है। कृषि क्षेत्र भी भयंकर संकट का शिकार है। यह संकट एक पूँजीवादी संकट है। साथ ही, सरकारी नीतियों के कारण ही देश कई दशकों के बाद इतने विकराल सूखे से गुज़र रहा है। इन सभी कारकों ने मिलकर व्यापक मज़दूर आबादी और आम मेहनतकश जनसमुदायों के जीवन को नर्क बना दिया है। यही कारण है कि मोदी सरकार ने हाफपैण्टिया ब्रिगेड को दो चीज़ों की पूरी छूट दे दी है: पहला, सभी शैक्षणिक, शोध व सांस्कृतिक संस्थानों को खाकी चड्ढीधारियों के नियंत्रण में पहुँचा दिया है ताकि देशभर में आम राय के निर्माण के प्रमुख संस्थान संघ परिवार के हाथ में आ जायें और दूसरा, देश भर में आम मेहनतकश अवाम के भीतर इस भयंकर जनविरोधी सरकार के प्रति विद्रोह की भावना न पनपे इसके लिए उन्हें दंगों, साम्प्रदायिक तनाव, गौरक्षा, घर-वापसी जैसे बेमतलब के मुद्दों में उलझाकर रखने के प्रयास जारी हैं।

“सदाचारी” संघी फ़ासीवादी सत्ताधारियों के ‘चाल-चरित्र-चेहरे’ की सच्चाई

भगवा फ़ासीवादी सत्ताधारियों के असली मंसूबों का पर्दाफाश करना आज हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। क्रांतिकारी ताकतों को जनता के बीच अपनी खन्दकें खोदनी होंगी, और इन हिन्दुत्ववादी धर्मध्वजधारियों की ‘संस्कृति’, ‘सभ्यता’, ‘नैतिकता’, ‘शुचिता’, ‘सदाचार’ आदि की असलियत को बेनकाब करना होगा। इनके न सिर्फ मुसलमान विरोधी चेहरे को बल्कि दलित विरोधी चेहरे को भी जनता के सामने उजागर करना होगा। देशभक्ति पर इनके हर झूठे दावे को ध्वस्त करना होगा। गद्दारियों, माफीनामों, मुखबिरियों से भरे इनके काले शर्मनाक इतिहास को उजागर करना होगा।

सहिष्णुता के विरुद्ध और असहिष्णुता के पक्ष में

आज हमारे सामने जो तमाम समस्याएँ हैं, उन्हें असहिष्णुता की समस्या के तौर पर पेश किया जाता है। असमानता, अन्याय और शोषण-उत्पीड़न की समस्याओं को भी सहिष्णुता और असहिष्णुता की छद्म ‘बाइनरी’ में विचारधारात्मक तौर पर अपचयित व विनियोजित किया जाता है। इस तर्क के अनुसार, इन तमाम समस्याओं का समाधान मुक्तिकामी राजनीति नहीं है, बल्कि सहिष्णुता है। यह पूरी तर्क प्रणाली वास्तव में उत्तरआधुनिक पूँजीवाद के बहुसंस्कृतिवाद की तर्क प्रणाली है। इसे ज़िज़ेक ने ठीक ही नाम दिया है-राजनीति का संस्कृतिकरण (culturelization of politics)। सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक अन्तरविरोधों का सांस्कृतिक अन्तर (difference) के रूप में नैसर्गिकीकरण और सारभूतीकरण कर दिया जाता है। वे विभिन्न “जीवन पद्धतियों” और “संस्कृतियों” के अन्तर के तौर पर पेश किये जाते हैं। ये ऐसे अन्तर हैं जिन्हें दूर नहीं किया जा सकता है, जिन पर विजय नहीं पायी जा सकती है। ऐसे में आपके पास, ऐसा प्रतीत होता है, दो ही विकल्प बचते हैं- इन अन्तरों को ‘टॉलरेट’ किया जाय या न ‘टॉलरेट’ किया जाय! और अगर हम अधिक करीबी से देखें तो हम पाते हैं कि ये वास्तव में दो विकल्प हैं ही नहीं! ये एक ही विकल्प है। इस प्रकार की कोई भी सहिष्णुता एक पत्ता टूटने से असहिष्णुता में तब्दील हो सकती है। एक बुत के टूटने या गाय के मरने से सहिष्णु के असहिष्णु बनते देर नहीं लगती है। ऐसी सहिष्णुता बेहद नाजुक सन्तुलन पर टिकी होती है। क्या आज पूरे यूरोप में बहुसंस्कृतिवाद का संकट और हमारे देश में साम्प्रदायिक फासीवाद का उभार इसी नाजुक सन्तुलन के अस्थिर हो जाने के चिन्ह नहीं हैं? हमें इस छद्म युग्म को ही नकारना होगा। वॉल्टर बेंजामिन से कुछ शब्द उधार लेकर बात करें तो राजनीति के इस संस्कृतिकरण या सौन्दर्यीकरण का जवाब हमें संस्कृति और सौन्दर्य के राजनीतिकरण से देना चाहिए;एक ऐसी राजनीति से देना चाहिए जो मानव-मुक्ति की राजनीति हो। ऐसी राजनीति किसी भी सूरत में ‘सहिष्णु’ नहीं हो सकती है; वह संघर्ष के ज़रिये अन्तरविरोधों के समाधान की राजनीति ही हो सकती है; ऐसी राजनीति ‘सहिष्णुता’ के नाम पर पार्थक्यपूर्ण असम्पृक्तता (segregative disengagement) की राजनीति नहीं होगी, बल्कि बेहद उथल-पुथल भरे, अन्तरविरोधों और टकरावों से भरी सम्पृक्तता की राजनीति ही हो सकती है। ऐसी राजनीति ‘डिसइंगेज’ करके ‘टॉलरेट’ करने की वकालत नहीं कर सकती, बल्कि ‘इंगेजिंग इण्टॉलरेंस’ (फासीवादी ‘डिसइंगेज्ड इण्टॉलरेंस’ के बरक्स) की राजनीति होगी।

साम्प्रदायिक फासीवादी सत्ताधारियों के गन्दे चेहरे से उतरता नकाब़

दरअसल, पिछले दस साल से भाजपाई सत्ता को तरस गये थे; पूँजीपति वर्ग से गुहारें लगा रहे थे कि एक बार उनके हितों की सेवा करने वाली ‘मैनेजिंग कमेटी’ का काम कांग्रेस के हाथों से लेकर उसके हाथों में दे दिया जाय; वे अम्बानियों-अदानियों को लगातार याद दिला रहे थे कि गुजरात में, मध्य प्रदेश में और छत्तीसगढ़ में उन्होंने मज़दूरों-मेहनतकशों की आवाज़ को किस कदर दबा कर रखा है, उन्होंने किस तरह से कारपोरेट घरानों को मुफ़्त बिजली, पानी, ज़मीन, कर से छूट आदि देकर मालामाल बना दिया है! ये सारी दुहाइयाँ देकर भाजपाई लगातार देश की सत्ता को लपकने की फि़राक़ में थे! वहीं दूसरी ओर 2007 में शुरू हुई वैश्विक मन्दी के बाद पूँजीपति वर्ग को भी किसी ऐसी सरकार की ज़रूरत थी जो उसे लगातार छँटनी, तालाबन्दी के साथ-साथ और भी सस्ती दरों पर श्रम को लूटने की छूट दे और श्रम कानूनों से छुटकारा दिलाये। बिरले ही लागू होने वाले श्रम कानून भी मन्दी की मार से कराह रहे पूँजीपति वर्ग की आँखों में चुभ रहे हैं क्योंकि जहाँ कहीं कोई मज़बूत मज़दूर आन्दोलन संगठित होता है वहाँ कुछ हद तक वह श्रम कानूनों की कार्यान्वयन के लिए सत्ता को बाध्य भी करता है। इस ज़रूरत को पूरा करने के लिए देश के पूँजीपति वर्ग को भाजपा जैसी फासीवादी पार्टी को सत्ता में पहुँचाना अनिवार्य हो गया। यही कारण था कि 2014 के संसद चुनावों में मोदी के चुनाव प्रचार पर देश के पूँजीपतियों ने अभूतपूर्व रूप से पैसा ख़र्च किया, इस कदर ख़र्च किया कि कांग्रेस भी रो पड़ी कि मोदी को सारे कारपोरेट घरानों का समर्थन प्राप्त है और मोदी उन्हीं का आदमी है! यह दीगर बात है कि कांग्रेस की इस कराह का कारण यह था कि मन्दी के दौर में फासीवादी भाजपा पूँजीपति वर्ग के लिए उससे ज़्यादा प्रासंगिक हो गयी थी। मोदी ने सत्ता में आने के बाद देश-विदेश के कारपोरेट घरानों के जिस अश्लीलता से तलवे चाटे हैं, वह भी एक रिकॉर्ड है। श्रम कानूनों को बरबाद करने, ट्रेड यूनियन बनाने के अधिकार को एक प्रकार से रद्द करने, करों और शुल्कों से पूँजीपति वर्ग को छूट देने, विदेशों में भारतीय कारपोरेट घरानों के विस्तार के लिए मुफ़ीद स्थितियाँ तैयार करने से लेकर हर प्रकार के जनप्रतिरोध को मज़बूती से कुचलने में मोदी ने नये कीर्तिमान स्थापित किये हैं। लेकिन एक दिक्कत भी है

‘आम आदमी पार्टी’ की ज़बरदस्त जीत के निहितार्थ और क्रान्तिकारी आन्दोलन की चुनौतियाँ

पूँजीवादी राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था के संकट और अन्तरविरोध जब भी एक हद आगे से बढ़ते हैं तो किसी न किसी ‘मिस्टर क्लीन’ का उदय होता है, जो कि गर्म से गर्म जुमलों का इस्तेमाल कर जनता के गुस्से को अभिव्यक्ति देता है और इस प्रकार उसे निकालता है; जो जनता के दुख-दर्द का एक काल्पनिक कारण जनता के सामने पेश करता है, जैसे कि भ्रष्टाचार और अच्छी-बुरी नीयत जैसे कारक; वह पूँजीवादी व्यवस्था में मौजूद शोषण और उत्पीड़न को पूँजीवादी व्यवस्था की आकस्मिकता (कण्टिंजेंसी) बताता है जो कि उसमें मौजूद भ्रष्टाचार के कारण पैदा हुई है, और यह भ्रष्टाचार स्वयं पूँजीवादी व्यवस्था का एक नैसर्गिक गुण नहीं बल्कि उसका विचलन बन जाता है, जो कि कुछ ‘ग़लत नीयत’ वाले लोगों के कारण पैदा होता है। यह श्रीमान सुथरा वर्गों के संघर्ष को बार-बार नकारता है और वर्ग समन्वय की बातें करता है, जैसे कि केजरीवाल ने अमीरों और ग़रीबों के बँटवारे को ही नकार दिया है और बार-बार केवल सदाचारी और भ्रष्टाचारी के बँटवारे पर बल दिया है। केजरीवाल और ‘आम आदमी पार्टी’ इस समय पूँजीवादी व्यवस्था की ज़रूरत हैं।

गहराते वैश्विक साम्राज्यवादी संकट के साये में जी20 शिखर सम्मेलन

सबसे पहले तो यह साफ़ कर लेना बेहद ज़रूरी है कि हम छात्रों-नौजवानों को इस बात से क्या मतलब है कि 20 देशों के मुखिया साथ मिलकर क्या खिचड़ी पका रहे हैं और इससे हमारी ज़िन्दगियों पर क्या असर पड़ने वाला है? दरअसल, इस सम्मेलन में, जिसमें कि मोदी के साथ अन्य 19 लुटेरे शामिल हैं, उन सभी प्रश्नों पर चर्चा की गयी है, जो हमारी ज़िन्दगी के साथ बेहद करीबी से जुडे़ हुए हैं। पिछले करीब 8 वर्षों से साम्राज्यवादी संकट ने विश्व पूँजीवाद की कमर तोड़ रखी है, हालाँकि उसके पहले भी करीब तीन दशक से विश्व पूँजीवाद सतत् एक मन्द मन्दी का शिकार रहा था, जो बीच-बीच में भयंकर संकटों के रूप में टूटती रही थी। लेकिन 2007 से जारी आर्थिक संकट पिछले 80 वर्षों का सबसे भयंकर और अब तक का सबसे ढाँचागत संकट सिद्ध हुआ है। इससे कैसे उबरा जाये और विश्व-भर के मेहनतकश अवाम को कैसे और अधिक लूटा जाये, यही इस सम्मेलन का मूल मुद्दा था।

उतरती “मोदी लहर” और फासीवाद से मुक़ाबले की गम्भीर होती चुनौती

फासीवादियों की पुरानी फितरत रही है कि राजनीतिक तौर पर सितारे गर्दिश में जाने पर वे ज़्यादा हताशा में क़दम उठाते हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध में हारते हुए नात्सी जर्मनी में यहूदियों व कम्युनिस्टों का फासीवादियों ने ज़्यादा बर्बरता से क़त्ले-आम किया था; उसी प्रकार हारते हुए फासीवादी इटली में मुसोलिनी के गुण्डा गिरोहों ने हर प्रकार के राजनीतिक विरोध का ज़्यादा पाशविकता के साथ दमन किया था। इसलिए कोई यह न समझे कि नरेन्द्र मोदी की फासीवादी सरकार गिरती लोकप्रियता के बरक्स देश के मेहनत-मशक़्क़त करने वाले लोगों और छात्रों-युवाओं पर अपने हमले में कोई कमी लायेगी। वास्तव में, मोदी को 5 साल के लिए पूर्ण बहुमत दिलवा कर देश के बड़े पूँजीपति वर्ग ने सत्ता में पहुँचाया ही इसीलिए है कि वह पूँजी के पक्ष में हर प्रकार के क़दम मुक्त रूप से उठा सके और 5 वर्षों के भीतर मुनाफ़े के रास्ते में रोड़ा पैदा करने वाले हर नियम, क़ानून या तन्त्र को बदल डाले। 5 वर्ष के बाद मोदी की सरकार चली भी जाये तो इन 5 वर्षों में वह शिक्षा, रोज़़गार से लेकर श्रम क़ानूनों तक के क्षेत्र में ऐसे बुनियादी बदलाव ला देगी, जिसे कोई भावी सरकार, चाहे वह वामपंथियों वाली संयुक्त मोर्चे की ही सरकार क्यों न हो, रद्द नहीं करेगी। यही काम करने के लिए अम्बानी, अदानी, टाटा, बिड़ला आदि ने नरेन्द्र मोदी को नौकरी पर रखा है।