फासीवाद को हराने के लिए पूँजीवाद के खात्मे की लड़ाई लड़नी होगी!
संपादक मण्डल
कर्नाटक चुनाव के बाद लोकसभा व विधानसभा उपचुनाव में भाजपा की हार ने यह तो स्पष्ट किया है कि मोदी सरकार की नीतियों के चलते जनता में रोष है और दंगों व जुमलों के बावजूद मोदी लहर गिर रही है। यह तब है जब मोदी सरकार ने इन चुनावों को जीतने के लिए बेइन्तहा पैसे बहाये, दंगे करवाकर साम्प्रदायिक आधार पर लोगों को बाँटा, अफवाहें फैलाई, 9 किलोमीटर की सड़क बिछाकर चुनाव से एक दिन पहले आचार संहिता की धज्जियाँ उड़ाते हुए रैली निकाली परन्तु इस सबके बावजूद भी मोदी सरकार कैराना चुनाव हार गई जो कि संघ की पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुख्य प्रयोगभूमि था। पेट्रोल की बढ़ती कीमत और लगातार फुस्स साबित होते मादी के प्रचार को नया मोड़ देने के लिए पाँच सामाजिक कार्यकर्ताओं को माओवादी करार देकर गिरफ्तार किया गया है परन्तु जनता में इसकी भी वैधता नहीं बनती दिख रही है। अमित शाह से सम्बन्धित बैंकों में नोटबन्दी के दौरान 3000 करोड़ से अधिक रूपए जमा होना ही यह दिखाता है कि न सिर्फ जय शाह बल्कि उसके बाप अमित शाह ने भी इस दौरान जमकर पैसा कमाया। नोटबन्दी के बाद जीएसटी और फिर ललित मोदी के विदेश भागने, कृषि संकट, बेरोज़गारी और उपरोक्त अमित शाह द्वारा काले धन को सफ़ेद धन बनाने की प्रक्रिया जैसी घटनाओं के भण्डाफोड़ के कारण भाजपा की छवि ख़राब हुई है। इस छवि को सुधारने के लिए भाजपा ने व्यापक तौर पर प्रचार शुरू कर दिया है। ‘सम्पर्क फार समर्थन’ के नाम से चल रहे कैम्पेन में भाजपा खूब पैसा लुटा रही है। 2019 के चुनाव और राजस्थान, मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ के चुनावों की तैयारी में भाजपा लग गई है। इसके मद्देनज़र पीडीपी के साथ कश्मीर में गठबन्धन सरकार से भाजपा ने समर्थन वापस ले लिया है जिससे कि कश्मीर की घाटी को खून में डुबाकर राष्ट्रवादी आख्यान रचा जायेगा। लेकिन इन चुनावी तैयारियों से इतर आन्तरिक स्तर पर संघ बुर्जुआ जनतंत्र के स्तम्भों को अन्दर से खोखला करने की प्रक्रिया जारी रखे हुए है। इस कथन में यह तर्क अन्तरनिहित है कि फासीवादी शासन को स्थापित करने के लिए आज बुर्जुआ संसदीय जनतंत्र को ख़त्म करने की ज़रूरत ही नहीं है। इसे फासीवाद के मौजूदा दौर की विशिष्टता के रूप में समझना होगा। हमने पहले भी आह्वान के पन्नों पर इस बात की ओर इशारा किया है कि मौजूदा दौर में फासीवाद को संसदीय जनतंत्र का नाश करने की ज़रूरत नहीं है। बुर्जुआ संसदीय जनतन्त्र का सिर्फ खोल मौजूद है सार रूप में फासीवादी तंत्र कार्यरत है। यह इस कारण है कि आज बुर्जुआ वर्ग की कोई भी प्रगतिशील भूमिका नहीं बची है, इसका कोई भी हिस्सा जनपक्षधर नहीं है जो इस ढाँचे के इस्तेमाल से जनता की आवाज़ उठा सके। अधूरी आज़ादी से मिला भारतीय राज्यतंत्र तो पहले ही जनता के दमन और शोषण का इतना जबरदस्त औजार है जो पहले भी आपातकाल का तानाशाहाना प्रयोग कर चुका है। फासीवादी सरकार भी इसे महज रूप के स्तर पर बरकरार रख कर अपनी नीतियों को लागू कर रही है। यह फासीवादियों की रिडेम्पटिव एक्टिविटी है। यानी इन्होंने पुरानी गलतियों के अपने अनुभवों से सीखकर सीखा है। फासीवाद के चरित्र पर बहस करने वाले तमाम कम्युनिस्ट दलील देते हैं कि बुर्जुआ संसदीय जनतंत्र के रहते फासीवाद नहीं आ सकता है। परन्तु हालिया घटनाक्रम किसी अन्य बात की ओर ही इशारा कर रहा है। कर्नाटक चुनाव में विधायकों की खरीद फरोख्त को राज्यपाल ने मुमकिन बना दिया। राज्यपाल की भूमिका इस दौरान बस कठपुतली की तरह बन गयी है। इलेक्शन कमीशन का पिछले कुछ चुनावों में रवैया भी साफ़ कर देता है कि यह भी अब स्वतंत्र संस्था नहीं बल्कि मोदी के चुनिन्दा अफसरों की जमात है। सुप्रीम कोर्ट में आधार पर चली बहस में जज द्वारा सरकार के स्वीकार किये गए तर्क, सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट के फैसले की गलतबयानी पर कोर्ट की चुप्पी और सबसे ऊपर जज लोया केस और चीफ जस्टिस पर मुक़दमे का खुद फैसला सुनाना आदि भी सुप्रीम कोर्ट पर सवाल उठाता है। आइये इन पहलुओं पर सिलसिलेवार बात करें।
कर्नाटक चुनाव में स्पष्ट बहुमत न आने की सूरत में राज्यपाल ने भाजपा को सरकार बनाने को न्योता दिया जबकि इसके उलट गोवा और मेघालय में राज्यपाल ने चुनाव के बाद बने गठबन्धन को सरकार बनाने का न्योता दिया था। ऊपर से कर्नाटक के राज्यपाल ने येदियुरप्पा को बहुमत साबित करने के लिए 15 दिन का समय भी दे दिया। इस पर त्वरित कार्यवाही करते हुए कांग्रेस सुप्रीम कोर्ट पहुँची तो कोर्ट ने अपनी साख बचाने के लिए बहुमत साबित करने के लिए दी गयी समयसीमा को घटाकर एक दिन कर दिया। यह 15 दिन साफ़ तौर पर विधायकों की खरीद-फरोख्त करने का मौका देते थे। इस खरीद-फरोख्त से डरकर ही कांग्रेस और जेडीएस अपने विधायकों को बसों में बैठाकर होटलों में घुमा रहे थे! वहीं एक न्यूज़ चैनल पर साक्षात्कार के दौरान भाजपा का राम माधव यह सवाल पूछे जाने पर कि वे बहुमत कैसे साबित करेंगे दाँत निपोरते हुए बोला कि उनके पास अमित शाह है। साफ़ है कि यह संसदीय जनतंत्र खोखला और ऊपरी आवरण भर है। फासीवादी सत्ताधारियों को इसे उतारने की ज़रूरत ही नहीं है। कांग्रेस और अन्य पार्टियों से भी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता की बात करना चुटकुला लगता है। इस बुर्जुआ जनतंत्र की कमजोरियों को समझते हुए ही फासीवादियो का यह उभार समझा जा सकता है।
पिछले दिनों में सुप्रीम कोर्ट के फैसलों ने भी इस संस्थान के स्वतन्त्र होने व न्यायपूर्ण होने के पवित्र आवरण को “नुकसान” पहुँचाया है। उत्तराखण्ड हाई कोर्ट में चीफ जस्टिस के पद के लिए प्रस्तावित कुरिएन जोसेफ के नाम को सरकार द्वारा ठुकराने पर चीफ जस्टिस आगे नहीं भेजते हैं, चीफ जस्टिस के खिलाफ मेडिकल कॉलेज घोटाले की सुनवाई को चीफ जस्टिस द्वारा खुद सुनकर केस बन्द करने से लेकर जज लोया की मौत के मुकदमे को पर्याप्त संदेह होने के बावजूद बन्द करने सरीखी घटनाओं ने सुप्रीम कोर्ट की ‘पवित्र’ निष्पक्षता को आम लोगों के समक्ष प्रश्नीय बनाया है। गरीब जनता के बीच यह स्पष्ट न भी हुआ हो तो भी यह इस कथन को ही पुष्ट करता है कि फासीवाद बुर्जुआ जनतंत्र के संस्थानों को ख़त्म किये बगैर उन्हें अन्दर से खोखला बना रहा है और फासीवादी कार्यप्रणाली को लागू कर रहा है।
इलेक्शन कमीशन की निष्पक्षता तो आम जनता के बीच और अधिक धूमिल हुई है। कैराना चुनाव में मोदी ने चुनाव से एक दिन पहले 9 किलोमीटर की सड़क को एक्सप्रेस वे घोषित कर उसका उद्घाटन किया और एक चुनावी रैली आयोजित की। इलेक्शन कमीशन इस पर मौन रहा। अब यह मौन रहेगा भी क्योंकि मौजूदा समय में इस कमीशन के अन्दर अधिकतम अफसरान मोदी के लोग चुने गए हैं। इतना सबकुछ करने के बाद भी भाजपा को यहाँ हार का सामना करना पड़ा। कर्नाटक चुनाव से एक दिन पहले भी प्रधानमंत्री मोदी की नेपाल यात्रा के दौरान उनके द्वारा मन्दिर के घंटे बजाने को शॉट बदल बदल कर मीडिया ने दिखाया, नरेंद्र मोदी की एप्प नमो चलती रही पर सिद्धारमैय्या की एप्प को बन्द करवा दिया गया।
इन चुनावों में और इसके पहले भाजपा के मंत्रियों की कुरीतियों को मीडिया ने जिस तरह पेश किया है वह भी यह दर्शाता है कि आज मीडिया हाउस पूरी तरह स्वतंत्रता का चोगा उतार कर फेंक चुका है और इस समय मोदी का गोदी मीडिया बना हुआ है। कठुआ और उन्नाव में बलात्कार को झुठलाने का प्रयास करने से लेकर, मोदी की सुपरमैन छवि का निर्माण करने में और भाजपा आईटी सेल की तरह झूठी ख़बरों का प्रचार प्रसार करने में मदद पहुँचाई है। हाल ही में कोबरा पोस्ट द्वारा किया गया स्टिंग ऑपरेशन यह दिखाता है कि आज मीडिया किस तरह हिंदुत्व, नकली ख़बरों और भाजपा-संघ का प्रचार करने के लिए तत्पर है। कभी जनतंत्र का चौथा स्तम्भ कहे जाने वाला मीडिया आज फासीवाद के रथ में घोड़े के रूप में नथ चुका है।
इन बातों को समेटकर कहें तो दरअसल यह यही स्पष्ट करता है कि भाजपा और संघ को अपनी नीतियों को लागू करने के लिए संसदीय जनतंत्र को ख़त्म करने की ज़रूरत नहीं है। जब संसदीय जनतंत्र का खोल बरक़रार कर अपनी नीतियों को लागू करवाया जा सकता है तो इसे ख़त्म करने की ज़रूरत ही नहीं है। भाजपा ने सोशल मीडिया व मुख्य धारा के मीडिया के कुशल प्रयोग से झूठ को सच में तब्दील करने में महारत हासिल किया है। भाजपा आईटी सेल में लाखों लोग रोज़ झूठी ख़बरें लोगों के बीच फैलाते रहते हैं जो साम्प्रदायिक दंगों और भीड़ द्वारा की जाने वाली हत्यायों को जन्म देती हैं। कांग्रेस भी अपना आई टी सेल स्थापित कर अब भाजपा को इस काम में चुनौती देना चाहती है परन्तु यह इस काम में पिछड़ रही है। आज भाजपा को कांग्रेस से अधिक कॉर्पोरेट चन्दा मिल रहा है जिससे वह अपनी काडर शक्ति के साथ-साथ धनबल के दम पर भी कांग्रेस को पीछे छोड़ रही है। पिछले साल ही मिले कुल कॉर्पोरेट चन्दे का सबसे बड़ा हिस्सा भाजपा को मिला है इस कारण ही भाजपा चन्दा देने की प्रक्रिया को हर तरह के क़ानून से मुक्त कर रही है क्योंकि वह जानती है कि सबसे अधिक चन्दा वही पा रही है। वित्तीय तंत्र की तानाशाही को भाजपा कानूनी जामा पहनाकर और बुर्जुआ संसदीय जनतंत्र का विधान पहनाकर लागू कर रही है। इस बुर्जुआ संसदीय जनतंत्र को कांग्रेस धुर दक्षिणपन्थी नीतियों के लिए पहले भी लागू करती रही है परन्तु भाजपा इसका फासीवादी कार्यप्रणाली के अन्तर्गत इस्तेमाल कर रही है। भारत की अधूरी आज़ादी से उपजा जनतंत्र जन्म से ही औपनिवेशिक गुलामी के चिन्ह लिए हुआ था। जनता की आज़ादी को सुनिश्चित करने वाले हर क़ानून को ख़ारिज करने का प्रति-क़ानून भारत के संविधान में मौजूद है। यू. ए. पी. ए., आफ्सपा जैसे कानून इस जनतंत्र की ही देन हैं। भाजपा ने एक लम्बी प्रक्रिया में राज्य मशीनरी के अणुओं तक में प्रवेश किया है व समाज के स्तर पर भी गली-मोहल्ले में अपनी पकड़ बनायी है। सामाजिक क्रान्ति के अभाव में और औपनिवेशिक गुलामी के कारण जहाँ देश अपनी प्रगतिगामी संस्कृति से कट गया वहीं इसके सभी सामन्ती मूल्य मान्यताएँ बरक़रार रहीं। यह भी भाजपा के हिंदुत्व के प्रचार के लिए भौतिक आधार प्रदान करती हैं।
आज का फासीवाद मुसोलीनी के इटली सरीखे और हिटलर के जर्मनी सरीखे फासीवादी मॉडल से भिन्नता लिए हुए है। 1920 के दशक की आर्थिक महामन्दी के दौर में उभरे फासीवादी आन्दोलन में आकस्मिकता का तत्व था तो 1970 से मन्द-मन्द मन्दी की शिकार व्यवस्था, जो 2008 के बाद से मन्दी के अधिक भयंकर भँवर में जा फँसी है, में धीरे-धीरे पोर-पोर में समाकर सत्ता में पहुँचने का तत्व है। भारत में फासीवादी अचानक ब्लिट्जक्रिग अंदाज़ में सत्ता में जाने की जगह धीरे-धीरे पोर-पोर में समाकर और समय-समय पर आन्दोलनों के जरिये सत्ता के करीब पहुँचे हैं। भारत में फासीवादियों ने 2014 में भगवा निष्क्रिय क्रान्ति को सफल किया है। यह एक अन्तरराष्ट्रीय परिघटना है। दुनिया भर में आज आर्थिक संकट के कारण एक तरफ तो वित्तीय महाप्रभुओं के मुनाफे पर चोट हुई है तो वहीं इसने निम्न मध्य वर्ग के बड़े हिस्से को तबाह बर्बाद कर सामाजिक पदानुक्रम में नीचे की ओर धकेला है। यही कारण है कि यह वर्ग बेहद छटपटा रहा है जिसकी राजनीतिक अभिव्यक्ति सही राजनीति के अभाव में फासीवादी राजनीति या धुर-दक्षिणपन्थी राजनीति में होती है। इस वर्ग की अपनी खोयी हुई अवस्थिति और ऊपर उठने की चाहत को फासीवादी राजनीति नस्लीय या धार्मिक श्रेष्ठता की अन्धता में बुनकर रामराज्य या सपनों के राज्य में पूरा करने का वायदा करती है और मौजूदा संकट का दोषी ‘अदर’ (अन्य) यानी किसी धर्म या नस्ल विशेष को बताती है। जर्मनी में यह ‘अदर’ यहूदी थे तो भारत में ये ‘अदर’ मुसलमान बनते हैं। निम्न मध्य वर्ग के आन्दोलन ने ही दुनिया भर में दक्षिणपन्थी सरकारों और फासीवादियों को सत्ता में पहुँचाया है। इस वर्ग के मिथकीय उभार को फासीवादी पार्टी अपने काडर और वित्तीय पूँजी के धनबल के दम पर संगठित कर नीचे से तूफ़ान खड़ा कर सत्ता में पहुँचती है। फासीवाद निम्न मध्य वर्ग के आन्दोलन पर स्थापित होने वाली वित्तीय पूँजी की तानाशाही है। भारत में आज फासीवाद समाज और राज्य के पोर-पोर में समा चुका है। इसका मुकाबला भी सड़क पर उतरकर ही किया जा सकता है। जो लोग अभी भी संसद के जरिये फासीवाद को हराने का सपना देखते हैं उन्हें खासतौर पर समझना चाहिए कि यह सम्भव नहीं है।
अगर 2019 में विपक्षीय पार्टी एकजुट होकर लड़ें तब भी इस बात को पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता है कि भाजपा की हार होगी ही। और अगर 2019 में भाजपा हार भी जाती है तो इससे फासीवाद की हार कत्तई नहीं होगी। फासीवाद को हराने का काम इस व्यवस्था को बदलने की लड़ाई से जुड़ा हुआ है। जैसा ब्रेष्ट ने कहा था- “जो लोग पूँजीवाद का विरोध किये बिना फ़ासीवाद का विरोध करते हैं, जो उस बर्बरता पर दुखी होते हैं जो बर्बरता के कारण पैदा होती है, वे ऐसे लोगों के समान हैं जो बछड़े को जिबह किये बिना ही मांस खाना चाहते हैं। वे बछड़े को खाने के इच्छुक हैं लेकिन उन्हें ख़ून देखना नापसन्द है। वे आसानी से सन्तुष्ट हो जाते हैं अगर कसाई मांस तौलने से पहले अपने हाथ धो लेता है। वे उन सम्पत्ति सम्बन्धों के ख़िलाफ़ नहीं हैं जो बर्बरता को जन्म देते हैं, वे केवल अपने आप में बर्बरता के ख़िलाफ़ हैं। वे बर्बरता के विरुद्ध आवाज़ उठाते हैं, और वे उन देशों में ऐसा करते हैं जहाँ ठीक ऐसे ही सम्पत्ति सम्बन्ध हावी हैं, लेकिन जहाँ कसाई मांस तौलने से पहले अपने हाथ धो लेता है।” जब तक मेहनतकश जनता गोलबन्द होकर सड़क पर नहीं उतरती; फासीवाद के खतरे से निपटने का कोई संसदीय रास्ता नहीं निकलने वाला है। 2019 में भाजपा हार भी जाए तो भी यह हार फासीवादी राजनीति को पुनः सत्ता में आने से नहीं रोक सकती है। यह सतत मौजूद संकट है जिसका खात्मा इस संकट की जनक पूँजीवादी व्यवस्था को नष्ट कर ही किया जा सकता है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मई-जून 2018
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