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अब चीन की मन्दी से बेहाल विश्व पूँजीवाद

आज चीन की आर्थिक व्यवस्था डाँवाडोल है। विश्व आर्थिक व्यवस्था में पुएर्तो रिको, ब्राज़ील, पुर्तगाल, आइसलैण्ड, इटली, यूनान, स्पेन व अन्य देश अभी भी मन्दी से उबर नहीं पाए हैं, वहीं चीन वैश्विक व्यवस्था को एक और बड़े संकट की तरफ खींच कर ले जा रहा है जो दुनिया भर के पूँजीपतियों के लिए चिन्ता का सबब है। अगर हम चीन के राजनीतिक इतिहास पर एक नज़र डाल लें तो इस विषय में गहराई में उतरने में आसानी रहेगी। आज चीन में “बाज़ार समाजवाद” का जुमला नंगा हो चुका है। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी एक सामाजिक फासीवादी पार्टी है। माओ की मृत्यु के बाद देंग सियाओ पिंग ने कम्युनिस्ट पार्टी पर बुर्जुआ वर्ग का नियंत्रण पक्का किया। चीन ने 1976 से पूँजीवाद में संक्रमण किया था और आज पूर्ण रूप से वित्तीय पूँजी के विकराल भूमण्डलीय तंत्र का एक अभिन्‍न हिस्सा है। अमरीका की सबसे बड़ी आईटी कम्पनियों को सस्ता श्रम और ज़मीन देकर चीन की अर्थव्यवस्था विस्तारित हुई है। इस मुकाम तक पहुँचने के लिए ‘बाज़ार समाजवाद’ कई दौर से होकर गुज़रा। कम्यून और क्रान्तिकारी कमिटियों को भंग करने के बाद 1990 के दशक में बड़े स्तर पर राज्य द्वारा संचालित कम्पनियों का निजीकरण शुरू हुआ और 21वीं शताब्दी में प्रवेश के दौरान कई विदेशी कम्पनियों ने चीन में प्रवेश किया। चीनी राज्य ने मज़दूरों को मिलने वाली स्वास्थ्य, शिक्षा सुविधाओं से भी अपने हाथ खींच लिए। आज के चीन की बात करें तो चीन में अमीर-ग़रीब की खाई पिछले 10 सालों में बेहद अधिक बढ़ी है। चीन की नामधारी कम्युनिस्ट पार्टी के खरबपति “कॅामरेड” और उनकी ऐय्याश सन्तानों का गिरोह व निजी पूँजीपति चीन की सारी सम्पत्ति का दोहन कर रहे हैं। चीन के सिर्फ़ 0.4 फीसदी घरानों का 70 फीसदी सम्पत्ति पर कब्ज़ा है। यह सब राज्य ने मज़दूरों के सस्ते श्रम को लूट कर हासिल किया है।

कुछ अहम सवाल जिनका जवाब जाति उन्मूलन की ऐतिहासिक परियोजना को आगे बढ़ाने के लिए अनिवार्य है

अभी हमारी चर्चा का मूल विषय है एक निहायत ज़हीन, संजीदा, इंसाफ़पसन्द नौजवान की असमय मौत और उसके नतीजे के तौर पर हमारे सामने उपस्थित कुछ यक्षप्रश्न जिनका उत्तर दिये बग़ैर हम जाति के उन्मूलन की ऐतिहासिक परियोजना में ज़रा भी आगे बढ़ने की उम्मीद नहीं कर सकते हैं। कार्ल सागान जैसा वैज्ञानिक बनने की आकांक्षा रखने वाले रोहित ने आत्महत्या क्यों की? तारों की दुनिया, अन्तरिक्ष और प्रकृति से बेपनाह मुहब्बत करने वाले इस नौजवान ने जीवन की बजाय मृत्यु का आलिंगन क्यों किया? वह युवा जो इंसानों से प्यार करता था, वह इस कदर अवसाद में क्यों चला गया? वह युवा जो न्याय और समानता की लड़ाई में अगुवा कतारों में रहा करता था और जिसकी क्षमताओं की ताईद उसके विरोधी भी किया करते थे, वह अचानक इस लड़ाई और लड़ाई के अपने हमसफ़रों को इस तरह छोड़कर क्यों चला गया? इन सवालों की पहले ही तमाम क्रान्तिकारी कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों और छात्र-युवा साथियों ने अपनी तरह से जवाब देने का प्रयास किया है। हम कोई बात दुहराना नहीं चाहते हैं और इसलिए हम इस मसले पर जो कुछ सोचते हैं, उसके कुछ अलग पहलुओं को सामने रखना चाहेंगे।

सहिष्णुता के विरुद्ध और असहिष्णुता के पक्ष में

आज हमारे सामने जो तमाम समस्याएँ हैं, उन्हें असहिष्णुता की समस्या के तौर पर पेश किया जाता है। असमानता, अन्याय और शोषण-उत्पीड़न की समस्याओं को भी सहिष्णुता और असहिष्णुता की छद्म ‘बाइनरी’ में विचारधारात्मक तौर पर अपचयित व विनियोजित किया जाता है। इस तर्क के अनुसार, इन तमाम समस्याओं का समाधान मुक्तिकामी राजनीति नहीं है, बल्कि सहिष्णुता है। यह पूरी तर्क प्रणाली वास्तव में उत्तरआधुनिक पूँजीवाद के बहुसंस्कृतिवाद की तर्क प्रणाली है। इसे ज़िज़ेक ने ठीक ही नाम दिया है-राजनीति का संस्कृतिकरण (culturelization of politics)। सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक अन्तरविरोधों का सांस्कृतिक अन्तर (difference) के रूप में नैसर्गिकीकरण और सारभूतीकरण कर दिया जाता है। वे विभिन्न “जीवन पद्धतियों” और “संस्कृतियों” के अन्तर के तौर पर पेश किये जाते हैं। ये ऐसे अन्तर हैं जिन्हें दूर नहीं किया जा सकता है, जिन पर विजय नहीं पायी जा सकती है। ऐसे में आपके पास, ऐसा प्रतीत होता है, दो ही विकल्प बचते हैं- इन अन्तरों को ‘टॉलरेट’ किया जाय या न ‘टॉलरेट’ किया जाय! और अगर हम अधिक करीबी से देखें तो हम पाते हैं कि ये वास्तव में दो विकल्प हैं ही नहीं! ये एक ही विकल्प है। इस प्रकार की कोई भी सहिष्णुता एक पत्ता टूटने से असहिष्णुता में तब्दील हो सकती है। एक बुत के टूटने या गाय के मरने से सहिष्णु के असहिष्णु बनते देर नहीं लगती है। ऐसी सहिष्णुता बेहद नाजुक सन्तुलन पर टिकी होती है। क्या आज पूरे यूरोप में बहुसंस्कृतिवाद का संकट और हमारे देश में साम्प्रदायिक फासीवाद का उभार इसी नाजुक सन्तुलन के अस्थिर हो जाने के चिन्ह नहीं हैं? हमें इस छद्म युग्म को ही नकारना होगा। वॉल्टर बेंजामिन से कुछ शब्द उधार लेकर बात करें तो राजनीति के इस संस्कृतिकरण या सौन्दर्यीकरण का जवाब हमें संस्कृति और सौन्दर्य के राजनीतिकरण से देना चाहिए;एक ऐसी राजनीति से देना चाहिए जो मानव-मुक्ति की राजनीति हो। ऐसी राजनीति किसी भी सूरत में ‘सहिष्णु’ नहीं हो सकती है; वह संघर्ष के ज़रिये अन्तरविरोधों के समाधान की राजनीति ही हो सकती है; ऐसी राजनीति ‘सहिष्णुता’ के नाम पर पार्थक्यपूर्ण असम्पृक्तता (segregative disengagement) की राजनीति नहीं होगी, बल्कि बेहद उथल-पुथल भरे, अन्तरविरोधों और टकरावों से भरी सम्पृक्तता की राजनीति ही हो सकती है। ऐसी राजनीति ‘डिसइंगेज’ करके ‘टॉलरेट’ करने की वकालत नहीं कर सकती, बल्कि ‘इंगेजिंग इण्टॉलरेंस’ (फासीवादी ‘डिसइंगेज्ड इण्टॉलरेंस’ के बरक्स) की राजनीति होगी।

फ़ासीवाद, जर्मन सिनेमा और असल ज़िन्दगी के बारे में जर्मनी के प्रचार मंत्री, डॉक्टर गोएबल्स को खुला पत्र

आपकी हिम्मत कैसे हुई अपने सिनेमा से जीवन के यथार्थ का सच्चा चित्रण करने का आह्वान करने की जबकि उसका पहला कर्तव्य होना चाहिए चीख-चीख कर पूरी दुनिया को उन हज़ारों-लाखों लोगों के बारे में बताना जो आपकी जेलों की काल-कोठरियों में सड़ रहे हैं जिनका उत्पीड़न कर आपके यातना शिविरों में मौत के घाट उतरा जा रहा है?

एफ़.टी.आई.आई. के छात्रों का संघर्ष ज़िन्दाबाद

एफ़.टी.आई.आई. पर मौजूदा हमला कोई अलग-थलग अकेली घटना नहीं है। यह एक ट्रेण्ड का हिस्सा है। यह एक फ़ासीवादी राजनीतिक एजेण्डा का अहम हिस्सा है, ठीक उसी प्रकार जिस तरह से मज़दूरों और ग़रीब किसानों के हक़ों पर हमला और अम्बानियों-अदानियों के लिए देश को लूट की खुली चरागाह बना देना भी इस फासीवादी एजेण्डा का अहम अंग है। बेर्टोल्ट ब्रेष्ट ने 1937 में लिखा था, हमें तुरन्त या सीधे तौर पर इस बात का अहसास नहीं हुआ कि यूनियनों और कैथेड्रलों या संस्कृति की अन्य इमारतों पर हमला वास्तव में एक ही चीज़ था। लेकिन ठीक यही जगह थी जहाँ संस्कृति पर हमला किया जा रहा था।—अगर चीज़ें ऐसी ही हैं—अगर हिंसा की वही लहर हमसे हमारा मक्खन और हमारे सॉनेट्स दोनों ही छीन सकती है; और अगर, अन्ततः, संस्कृति वाकई एक इतनी भौतिक चीज़ है, तो इसकी हिफ़ाज़त के लिए क्या किया जाना चाहिए?” और अन्त में ब्रेष्ट स्वयं ही इसका जवाब देते हैं, “—वह संस्कृति महज़ केवल किसी स्पिरिट का उद्भव नहीं है बल्कि सबसे पहले यह एक भौतिक चीज़ है। और भौतिक हथियारों के साथ ही इसकी रक्षा हो सकती है।” एफ़.टी.आई.आई. पर यह हमला केवल एक शिक्षा संस्थान पर हमला नहीं है बल्कि यह हमला है कला के उस स्रोत पर जिसका इस्तेमाल ये फ़ासीवादी अपने फायदे के लिए करना चाहते हैं।

यूनानी त्रासदी के भरतवाक्य के लेखन की तैयारी

अगर हम 2010 से अब तक यूनान को मिले साम्राज्यवादी ऋण के आकार और उसके ख़र्च के मदों पर निगाह डालें तो हम पाते हैं कि इसका बेहद छोटा हिस्सा जनता पर ख़र्च हुआ और अधिकांश पुराने ऋणों की किश्तें चुकाने पर ही ख़र्च हुआ है। दूसरे शब्दों में इस बेलआउट पैकेज से भी तमाम निजी बैंकों, वित्तीय संस्थाओं और यूरोपीय संघ, ईसीबी व आईएमएफ़ में जमकर कमाई की है! मार्च 2010 से लेकर जून 2013 तक साम्राज्यवादी त्रयी ने यूनान को 206.9 अरब यूरो का कर्ज़ दिया। इसमें से 28 प्रतिशत का इस्तेमाल यूनानी बैंकों को तरलता के संकट से उबारने के लिए हुआ, यानी, दीवालिया हो चुके बैंकों को यह पैसा दिया गया। करीब 49 प्रतिशत हिस्सा सीधे यूनान के ऋणदाताओं के पास किश्तों के भुगतान के रूप में चला गया, जिनमें मुख्य तौर पर जर्मन और फ्रांसीसी बैंक शामिल थे। कहने के लिए 22 प्रतिशत राष्ट्रीय बजट में गया, लेकिन अगर इसे भी अलग-अलग करके देखें तो पाते हैं कि इसमें से 16 प्रतिशत कर्ज़ पर ब्याज़ के रूप में साम्राज्यवादी वित्तीय एजेंसियों को चुका दिया गया। बाकी बचा 6 प्रतिशत यानी लगभग 12.1 अरब यूरो। इस 12.1 अरब यूरो में से 10 प्रतिशत सैन्य ख़र्च में चला गया। यानी कि जनता के ऊपर जो ख़र्च हुआ वह नगण्य था! 2008 में यूनान का ऋण उसके सकल घरेलू उत्पाद का 113.9 प्रतिशत था जो 2013 में बढ़कर 161 प्रतिशत हो चुका था! सामाजिक ख़र्चों में कटौती के कारण जनता के उपभोग और माँग में बेहद भारी गिरावट आयी है। इसके कारण पूरे देश की अर्थव्यवस्था का आकार ही सिंकुड़ गया है। 2008 से लेकर 2013 के बीच यूनान के सकल घरेलू उत्पाद में 31 प्रतिशत की गिरावट आयी है, जिस उदार से उदार अर्थशास्त्री महामन्दी क़रार देगा। आज नौजवानों के बीच बेरोज़गारी 60 प्रतिशत के करीब है।

साम्प्रदायिक फासीवादी सत्ताधारियों के गन्दे चेहरे से उतरता नकाब़

दरअसल, पिछले दस साल से भाजपाई सत्ता को तरस गये थे; पूँजीपति वर्ग से गुहारें लगा रहे थे कि एक बार उनके हितों की सेवा करने वाली ‘मैनेजिंग कमेटी’ का काम कांग्रेस के हाथों से लेकर उसके हाथों में दे दिया जाय; वे अम्बानियों-अदानियों को लगातार याद दिला रहे थे कि गुजरात में, मध्य प्रदेश में और छत्तीसगढ़ में उन्होंने मज़दूरों-मेहनतकशों की आवाज़ को किस कदर दबा कर रखा है, उन्होंने किस तरह से कारपोरेट घरानों को मुफ़्त बिजली, पानी, ज़मीन, कर से छूट आदि देकर मालामाल बना दिया है! ये सारी दुहाइयाँ देकर भाजपाई लगातार देश की सत्ता को लपकने की फि़राक़ में थे! वहीं दूसरी ओर 2007 में शुरू हुई वैश्विक मन्दी के बाद पूँजीपति वर्ग को भी किसी ऐसी सरकार की ज़रूरत थी जो उसे लगातार छँटनी, तालाबन्दी के साथ-साथ और भी सस्ती दरों पर श्रम को लूटने की छूट दे और श्रम कानूनों से छुटकारा दिलाये। बिरले ही लागू होने वाले श्रम कानून भी मन्दी की मार से कराह रहे पूँजीपति वर्ग की आँखों में चुभ रहे हैं क्योंकि जहाँ कहीं कोई मज़बूत मज़दूर आन्दोलन संगठित होता है वहाँ कुछ हद तक वह श्रम कानूनों की कार्यान्वयन के लिए सत्ता को बाध्य भी करता है। इस ज़रूरत को पूरा करने के लिए देश के पूँजीपति वर्ग को भाजपा जैसी फासीवादी पार्टी को सत्ता में पहुँचाना अनिवार्य हो गया। यही कारण था कि 2014 के संसद चुनावों में मोदी के चुनाव प्रचार पर देश के पूँजीपतियों ने अभूतपूर्व रूप से पैसा ख़र्च किया, इस कदर ख़र्च किया कि कांग्रेस भी रो पड़ी कि मोदी को सारे कारपोरेट घरानों का समर्थन प्राप्त है और मोदी उन्हीं का आदमी है! यह दीगर बात है कि कांग्रेस की इस कराह का कारण यह था कि मन्दी के दौर में फासीवादी भाजपा पूँजीपति वर्ग के लिए उससे ज़्यादा प्रासंगिक हो गयी थी। मोदी ने सत्ता में आने के बाद देश-विदेश के कारपोरेट घरानों के जिस अश्लीलता से तलवे चाटे हैं, वह भी एक रिकॉर्ड है। श्रम कानूनों को बरबाद करने, ट्रेड यूनियन बनाने के अधिकार को एक प्रकार से रद्द करने, करों और शुल्कों से पूँजीपति वर्ग को छूट देने, विदेशों में भारतीय कारपोरेट घरानों के विस्तार के लिए मुफ़ीद स्थितियाँ तैयार करने से लेकर हर प्रकार के जनप्रतिरोध को मज़बूती से कुचलने में मोदी ने नये कीर्तिमान स्थापित किये हैं। लेकिन एक दिक्कत भी है

बाबाडम और माताडम: दिव्यता के नये कामुक और बाज़ारू अवतार

बाबाडम और माताडम के बाज़ार का भी एक राजनीतिक अर्थशास्त्र है। वहाँ भी किसी भी अन्य पूँजीवादी बाज़ार के समान प्रतिस्पर्द्धा है। ऐसे में एक नये उपभोक्ता आधार को पैदा करने नयी माँग को समझने को अनिवार्य बना देता है। राधे माँ और इसी प्रकार के नये बाज़ारू बाबाओं और माताओं का उदय इसी माँग की आपूर्ति है। लेकिन इस बाज़ार में भी, ठीक पूँजीवादी समाज के ही समान स्त्रियों की स्थिति अधीनस्थ है और राधे माँ की परिघटना इस बात को ही सिद्ध करती है। स्त्रियों की दिव्य शक्ति का स्रोत हर-हमेशा उसके कुमारी (वर्जिन) होने में निहित होता है मिसाल के तौर पर दुर्गा या काली। किसी पुरुष देवता की पत्नियाँ हर-हमेशा शान्त और निर्मल भाव-मुद्रा में चुपचाप खड़ी या बैठी रहती हैं! एक दौर में सन्तोषी माँ का कल्ट भी पैदा हुआ था और इस पर आयी हिन्दी फिल्म ने इसे काफ़ी बढ़ावा दिया था। लेकिन सन्तोषी माँ का काम घर के झगड़े और कलह निपटाने तक ही सीमित था। उदारीकरण से पहले के दौर में इस प्रकार की देवियों के कल्ट ही निर्मित किये जा सकते थे और जो माताएँ पैदा होती थीं, उनकी धार्मिक वैधता भी इन्हीं कल्टों से निकलती थी। लेकिन उदारीकरण के बाद के दौर में औरतों का मालकरण व वस्तुकरण भी बड़े पैमाने पर हुआ है और इसके अंग के तौर पर ही उनका एक पूँजीवादी समाजीकरण भी हुआ है। इस दौर में शक्ति पंथ की कुमारी देवियों की प्रासंगिकता माताडम के धन्धे में बढ़ना स्वाभाविक है। यह सच है कि राधे माँ स्वयं शादीशुदा है, लेकिन प्रतीकात्मक और लक्षणात्मक स्तर पर उसके तमाम प्रोजेक्टेड रूप उसी इमेजरी को उभारते हैं जो कि एक कुमारी देवी की यौनिक-कामुक व शारीरिक शक्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं। लेकिन हूबहू उसी रूप में नहीं जिस रूप में प्राचीन हिन्दू धर्म में होता है। इसका एक नया आधुनिक नवउदारवादी अवतार हमें राधे माँ के तौर पर दिखता है। इण्टरनेट पर लाल मिनी ड्रेस और लाल कैप में राधे माँ की जो तस्वीरें फैल गयीं थीं, उनमें राधे माँ का जो रूप है वह एक डॉमिनेट्रिक्स जैसा है। ज़ाहिर है यह रूप और साथ ही एक आधुनिक ड्रेस में बॉलीवुड के गानों पर नृत्य करते हुए एक बाग़ में उछल-कूद मचाना नवउदारवादी युग के उच्च मध्यवर्ग की पतित फैंसीज़ द्वारा प्रस्तुत माँगों की आपूर्ति करता है।

विज्ञान के विकास का विज्ञान

औज़ार का इस्तेमाल, ख़तरे को भाँपना, कन्द-मूल की पहचान, शिकार की पद्धति से लेकर जादुई परिकल्पना को भी आने वाली पीढ़ी को सिखाया जाता है। इंसान ने औज़ारों और अपने उन्नत दिमाग से ज़िन्दा रहने की बेहतर पद्धति का ईजाद की। इसकी निरन्तरता मनुष्य संस्कृति के ज़रिए बरकरार रखता है। यह इतिहास मानव की संस्कृति का इतिहास है न कि उसके शरीर का! विज्ञान औज़ारों और जादुई परिकल्पना और संस्कृति में गुँथी इंसान की अनन्त कहानी में प्रकृति के नियमों का ज्ञान है। कला, संगीत और भाषा भी निश्चित ही यही रास्ता तय करते हैं। विज्ञान और कला व संगीत सामाजिकता का उत्पाद होते हुए भी अलग होते हैं। लेकिन हर दौर के कला व संगीत पर विज्ञान की छाप होती है। बुनियादी तौर पर देखा जाए तो ये इतिहास की ही छाप होती है।

सी.बी.सी.एस. : “च्‍वाइस” के ड्रामे के बहाने विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में पधारने का न्यौता

शिक्षा व्यवस्था में यह बदलाव होना कोई नयी बात नहीं है। जहाँ तमाम क्षेत्रों में निजी पूँजी को बढ़ावा दिया जा रहा है वहीं शिक्षा भी इससे अछूती नहीं रही है। चाहे 2008 में लागू हुई सेमेस्टर प्रणाली की बात कर लें या चार वर्षीय पाठ्यक्रम की बात कर लें या अभी सीबीसीएस का मुद्दा हो, उच्चतर शिक्षा में लाये जा रहे इन बदलावों के कुछ ठोस कारण हैं जो मौजूदा आर्थिक-राजनीतिक ढाँचे के साथ जुड़े हुए हैं। जब तक हम शिक्षा में हो रहे इन बदलावों को इस व्यवस्था से जोड़कर नहीं देखेंगे तब तक परदे के पीछे की सच्चाई को हम नहीं जान पाएँगे।