भगतसिंह और अम्बेडकर को मिलाने की कीमियागिरी: किसके रास्ते और किसके वास्ते
विश्वस्तरीय शिक्षा के नाम पर देशी-विदेशी पूँजीपति होंगे मालामाल और जनता पामाल
उच्चतर शिक्षा को अमेरिकी शिक्षा व्यवस्था की तर्ज़ पर ढाला जा रहा है ताकि विदेशी निवेशकों को आकर्षित किया जा सके। साफ है कि एक व्यापक आबादी की पहुँच से उच्च शिक्षा को दूर किया जा रहा है। गरीब और निम्नमध्यवर्गीय आबादी के लिए लोन की स्कीम का राग सरकार अलाप रही है। क्या हुआ अगर तुम्हारे पास फीस देने के लिए पैसा नहीं है तो हम तुम्हें ज़ीरो प्रतिशत ब्याज़ दर पर लोन देंगे, नौकरी के बाद चुका देना! यह बस कहने के लिए होता है कि ब्याज दर ज़ीरो है, असलियत में जब तक आपके पास अचल सम्पत्ति गारण्टी नहीं होगी लोन नहीं मिलेगा। अब वित्तीय पूँजीपति को अपना भी मुनाफ़ा देखना होता है। दूसरे, जब आज 2 प्रतिशत की दर से नौकरियाँ कम हो रही हैं तो नौकरी की कोई गारण्टी नहीं। फिर लोन चुकाने के लिए स्वाभाविक तौर पर दूसरे रास्ते तलाशे जायेंगे जो सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर पतनशीलता का कारण बनेंगे। एक सर्वे के अनुसार अमेरिका और यूरोप के कुछ देशों में औसतन ग्रैजुएट जब नौकरी की तलाश में निकलते हैं तो उनके ऊपर दस हजार पाउण्ड से भी ज़्यादा का कर्ज़ होता है जो पढ़ाई के दौरान लोन के रूप में लिया गया होता है। एक रिपोर्ट के अनुसार, इस कर्ज़ को चुकाने के लिए छात्र शुक्राणु और अंडज तक बेचते हैं। अमेरिका के क्लिनिकों में इसकी विशेष व्यवस्था होती है ताकि सन्तानहीन दम्पत्तियों को इसका लाभ मिल सके। इसके लिए प्रदाताओं (डोनर) को 2,400 से 10,300 डॉलर तक दिये जाते हैं।
भारत के शोध संस्थानों का संकट
दर्शन, इतिहास व सामाजिक विज्ञान से कटे वैज्ञानिक ही इस संस्थान की बुनियाद होते हैं। एक संस्थान व दूसरे संस्थान के बीच बेहद सीमित बौद्धिक व्यवहार होता है व नीतियों का निर्धारण करने में किसी शोधार्थी की कोई भूमिका नहीं होती है। निर्धारक तत्व वित्त होता है जो कि शोध को तय करता है। यह सिर्फ भारत की नहीं बल्कि पूरी दुनिया के शोध संस्थानों की कहानी है, हालाँकि भारत की परिस्थिति में इस वैश्विक परिघटना में एक विशेषता भी है। भारत जैसे उत्तर औपनिवेशिक देश में जहाँ आजा़दी किसी क्रान्तिकारी आन्दोलन की गर्मी और उथल-पुथल के ज़रिये नहीं बल्कि औपनिवेशिक पूँजीपति वर्ग और भारतीय पूँजीपति वर्ग के बीच समझौता-दबाव-समझौता की प्रक्रिया से आयी, वहाँ भारतीय मानस की चेतना बेहद पिछड़ी रही जिसका प्रतिबिम्ब यहाँ की बौनी शोध संरचना में दिखता है। आज़ादी के बाद भारतीय पूँजीवाद साम्राज्यवाद के साथ भी चालाकी से समझौते-दबाव-समझौते की नीति पर काम करता रहा और अपनी स्वतंत्रता कायम रखते हुए इसने पब्लिक सेक्टर उद्योग व संरचनात्मक ढाँचा खड़ा किया। अगर उद्योग-निर्देशित विज्ञान व शोध की ही बात करें तो भी न तो भारत का पूँजीवाद अमरीकी या अन्य विकसित पूँजीवादी देशों की बराबरी कर सकता था और न ही इसका विज्ञान ही उतना विकसित हो सकता था। भारत के पूँजीपतियों ने इसका प्रयास ही नहीं किया है।
ऑक्यूपाई यूजीसी आन्दोलनः शिक्षा का यह संघर्ष, संघर्ष की सोच को बचाने का संघर्ष है
वर्तमान सरकार उच्च शिक्षा को विश्व व्यापार संगठन में शामिल करने के लिए प्रतिबद्ध है। दिसम्बर 2015 के दोहा बैठक में उच्च शिक्षा को गैट (जनरल एग्रीमेण्ट ऑन ट्रेड) के तहत लाने का प्रस्ताव था। भारत सरकार ने इस मुद्दे पर दोहा सम्मलेन में कोई विरोध दर्ज नहीं किया और न ही इसको चर्चा के लिए खोला। इससे यह स्पष्ट है कि भारत सरकार उच्च शिक्षा में डब्ल्यूटीओ के समझौते को लाने वाली है। एक बार अगर उच्च शिक्षा को इस समझौते के तहत लाया जाता है तो न तो सरकार किसी भी सरकारी विश्वविद्यालय को कोई अनुदान देगी और न ही शिक्षा से सम्बन्धित अधिकार संविधान के दायरे में होंगे। क्योंकि किसी भी देश के लिए जो डब्ल्यूटीओ और गैट्स पर हस्ताक्षर करता है उसके लिए इसके प्रावधान बाध्यताकारी होते हैं। इससे देश में रहा-सहा उच्च शिक्षा का ढाँचा भी तबाह हो जायेगा और यह इतना महँगा हो जायेगा कि देश की ग़रीब जनता की बात तो दूर मध्यवर्ग के एक ठीक-ठाक हिस्से के लिए भी यह दूर की कौड़ी होगा। एमिटी यूनिवर्सिटी, लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी और शारदा यूनिवर्सिटी तथा अन्य निजी शिक्षा संस्थानों की फीस आज भी सामान्य पाठ्क्रमों के लिए 50,000 से 1,00,000 रुपये प्रति सेमेस्टर है। अगर यह समझौता उच्च शिक्षा में लागू होता है तो जहाँ एक और देशी-विदेशी पूँजीपतियों के लिए शिक्षा से मुनाफा वसूलने की बेलगाम छूट मिल जायेगी वहीं जनता से भी शिक्षा का मौलिक अधिकार छिन जायेगा। जिस तरह से आज सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा के बाद निजी अस्पतालों का मुनाफा लोगों की ज़िन्दगी की कीमतों पर फल रहा है उसी तरह शिक्षा के रहे-सहे ढाँचे में जो थोड़ी बहुत ग़रीब आबादी आम घरों से पहुँच रही है वह भी बन्द हो जायेगी। इस प्रकार यह पूरी नीति हमारे बच्चों से न सिर्फ़ उनके पढ़ने का अधिकार छीन लेगी वरन उनसे सोचने, सपने देखने का हक भी छीनेगी।
युद्ध, शरणार्थी एवं प्रवासन संकट पूँजीवाद की नेमतें हैं
इतने बड़े पैमाने पर विस्थापन की वजह समझने के लिए हमें यह जानना होगा कि वे कौन से क्षेत्र हैं जहाँ से आज विस्थापन सबसे अधिक हो रहा है। आँकड़े इस बात की ताईद करते हैं कि हाल के वर्षों में जिन देशों में साम्राज्यवादी दख़ल बढ़ी है वो ही वे देश हैं जहाँ सबसे अधिक लोगों को विस्थापन का दंश झेलना पड़ रहा है, मसलन सीरिया, अफ़गानिस्तान, फ़िलिस्तीन, इराक व लीबिया। पिछले डेढ़ दशक में इन देशों में अमेरिका के नेतृत्व में साम्राज्यवादी दख़ल से पैदा हुई हिंसा और अराजकता ने इन इलाकों में रहने वाले लोगों के लिए अस्तित्व का संकट पैदा कर दिया है। इस हिंसा में भारी संख्या में जानमाल की तबाही हुई है और जो लोग बचे हैं वे भी सुरक्षित जीवन के लिए अपने रिहायशी इलाकों को छोड़ने पर मज़बूर कर दिये गये हैं। अमेरिका ने 2001 में अफ़गानिस्तान पर तथा 2003 में इराक़ पर हमला किया जिसकी वजह से इन दो देशों से लाखों लोग विस्थापित हुए जो आज भी पड़ोसी मुल्कों में शरणार्थी बनकर नारकीय जीवन बिताने को मज़बूर हैं। 2011 में मिस्र में होस्नी मुबारक की सत्ता के पतन के बाद सीरिया में स्वतःस्फूर्त तरीके से एक जनबग़ावत की शुरुआत हुई थी जिसका लाभ उठाकर अमेरिका ने सऊदी अरब की मदद से इस्लामिक स्टेट नामक सुन्नी इस्लामिक कट्टरपन्थी संगठन को वित्तीय एवं सैन्य प्रशिक्षण के ज़रिये मदद पहुँचाकर सीरिया के गृहयुद्ध को और भी ज़्यादा विनाशकारी बनाने में अपनी भूमिका निभायी जिसका नतीजा यह हुआ है कि 2011 के बाद से अकेले सीरिया से ही 1 करोड़ से भी अधिक लोग विस्थापित हो चुके हैं जिनमें से 40 लाख लोग तो वतन तक छोड़ चुके हैं।
खट्टर सरकार का एक साल-जनता का हाल बेहाल
खट्टर सरकार ने नये रोज़गार देना तो दूर उल्टे आशा वर्कर, रोडवेज़, बिजली विभाग आदि सरकारी विभागों में निजीकरण-ठेकाकरण की नीतियों के तहत छँटनी की तैयारी कर दी है। कर्मचारियों के रिटायरमेण्ट की उम्र 60 से 58 कर दी। सरकार ने अपने बजट में मनरेगा के तहत खर्च होने वाली राशि में भारी कटौती की है जो कि ग्रामीण मज़दूर आबादी के हितों पर सीधा हमला है। चुनाव के समय भाजपा द्वारा 12वीं पास नौजवानों को 6,000 रुपये और स्तानक नौजवानों को 9,000 रुपये बेरोज़गारी भात्ता देने का वादा किया गया था। लेकिन अब खट्टर सरकार की कथनी-करनी में ज़मीन-असमान का अन्तर आ चुका है। पिछले एक वर्ष में सरकार ने बेरोज़गारी भत्ते देने की कोई योजना नहीं बनायी जबकि हरियाणा में पढ़े-लिखे बेरोज़गार नौजवानों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ रही है। मौजूदा समय में रोज़गार कार्यालय में 8 लाख नौजवानों के नाम दर्ज हैं। हम सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि असल में बेरोज़गारों की संख्या इससे कहीं अधिक है। नौजवानों की अच्छी-खासी आबादी रोज़गार दफ्तर में अपना नाम दर्ज ही नहीं कराती है क्योंकि उसे अहसास है कि इससे उनकी स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आने वाला है। कौशल विकास योजना में भारी नौजवान आबादी को प्रशिक्षु बनाकर उसे सस्ते श्रम के रूप में देशी-विदेशी पूँजीपतियों के सामने परोसा जा रहा है। मोदी सरकार ‘अपरेण्टिस एक्ट 1961’ में बदलाव करके इसे प्रबन्धन के हितानुरूप ढाल रही है। असल में इस कानून के तहत काम करने वाली नौजवान आबादी को न तो न्यूनतम मज़दूरी मिलेगी, न स्थायी होने की सुविधा। खट्टर सरकार भी अधिक से अधिक विदेशी पूँजी निवेश को ललचाने के लिए नौजवान आबादी को चारे की तरह इस्तेमाल करना चाहती है।
अब चीन की मन्दी से बेहाल विश्व पूँजीवाद
आज चीन की आर्थिक व्यवस्था डाँवाडोल है। विश्व आर्थिक व्यवस्था में पुएर्तो रिको, ब्राज़ील, पुर्तगाल, आइसलैण्ड, इटली, यूनान, स्पेन व अन्य देश अभी भी मन्दी से उबर नहीं पाए हैं, वहीं चीन वैश्विक व्यवस्था को एक और बड़े संकट की तरफ खींच कर ले जा रहा है जो दुनिया भर के पूँजीपतियों के लिए चिन्ता का सबब है। अगर हम चीन के राजनीतिक इतिहास पर एक नज़र डाल लें तो इस विषय में गहराई में उतरने में आसानी रहेगी। आज चीन में “बाज़ार समाजवाद” का जुमला नंगा हो चुका है। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी एक सामाजिक फासीवादी पार्टी है। माओ की मृत्यु के बाद देंग सियाओ पिंग ने कम्युनिस्ट पार्टी पर बुर्जुआ वर्ग का नियंत्रण पक्का किया। चीन ने 1976 से पूँजीवाद में संक्रमण किया था और आज पूर्ण रूप से वित्तीय पूँजी के विकराल भूमण्डलीय तंत्र का एक अभिन्न हिस्सा है। अमरीका की सबसे बड़ी आईटी कम्पनियों को सस्ता श्रम और ज़मीन देकर चीन की अर्थव्यवस्था विस्तारित हुई है। इस मुकाम तक पहुँचने के लिए ‘बाज़ार समाजवाद’ कई दौर से होकर गुज़रा। कम्यून और क्रान्तिकारी कमिटियों को भंग करने के बाद 1990 के दशक में बड़े स्तर पर राज्य द्वारा संचालित कम्पनियों का निजीकरण शुरू हुआ और 21वीं शताब्दी में प्रवेश के दौरान कई विदेशी कम्पनियों ने चीन में प्रवेश किया। चीनी राज्य ने मज़दूरों को मिलने वाली स्वास्थ्य, शिक्षा सुविधाओं से भी अपने हाथ खींच लिए। आज के चीन की बात करें तो चीन में अमीर-ग़रीब की खाई पिछले 10 सालों में बेहद अधिक बढ़ी है। चीन की नामधारी कम्युनिस्ट पार्टी के खरबपति “कॅामरेड” और उनकी ऐय्याश सन्तानों का गिरोह व निजी पूँजीपति चीन की सारी सम्पत्ति का दोहन कर रहे हैं। चीन के सिर्फ़ 0.4 फीसदी घरानों का 70 फीसदी सम्पत्ति पर कब्ज़ा है। यह सब राज्य ने मज़दूरों के सस्ते श्रम को लूट कर हासिल किया है।
कुछ अहम सवाल जिनका जवाब जाति उन्मूलन की ऐतिहासिक परियोजना को आगे बढ़ाने के लिए अनिवार्य है
अभी हमारी चर्चा का मूल विषय है एक निहायत ज़हीन, संजीदा, इंसाफ़पसन्द नौजवान की असमय मौत और उसके नतीजे के तौर पर हमारे सामने उपस्थित कुछ यक्षप्रश्न जिनका उत्तर दिये बग़ैर हम जाति के उन्मूलन की ऐतिहासिक परियोजना में ज़रा भी आगे बढ़ने की उम्मीद नहीं कर सकते हैं। कार्ल सागान जैसा वैज्ञानिक बनने की आकांक्षा रखने वाले रोहित ने आत्महत्या क्यों की? तारों की दुनिया, अन्तरिक्ष और प्रकृति से बेपनाह मुहब्बत करने वाले इस नौजवान ने जीवन की बजाय मृत्यु का आलिंगन क्यों किया? वह युवा जो इंसानों से प्यार करता था, वह इस कदर अवसाद में क्यों चला गया? वह युवा जो न्याय और समानता की लड़ाई में अगुवा कतारों में रहा करता था और जिसकी क्षमताओं की ताईद उसके विरोधी भी किया करते थे, वह अचानक इस लड़ाई और लड़ाई के अपने हमसफ़रों को इस तरह छोड़कर क्यों चला गया? इन सवालों की पहले ही तमाम क्रान्तिकारी कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों और छात्र-युवा साथियों ने अपनी तरह से जवाब देने का प्रयास किया है। हम कोई बात दुहराना नहीं चाहते हैं और इसलिए हम इस मसले पर जो कुछ सोचते हैं, उसके कुछ अलग पहलुओं को सामने रखना चाहेंगे।
सहिष्णुता के विरुद्ध और असहिष्णुता के पक्ष में
आज हमारे सामने जो तमाम समस्याएँ हैं, उन्हें असहिष्णुता की समस्या के तौर पर पेश किया जाता है। असमानता, अन्याय और शोषण-उत्पीड़न की समस्याओं को भी सहिष्णुता और असहिष्णुता की छद्म ‘बाइनरी’ में विचारधारात्मक तौर पर अपचयित व विनियोजित किया जाता है। इस तर्क के अनुसार, इन तमाम समस्याओं का समाधान मुक्तिकामी राजनीति नहीं है, बल्कि सहिष्णुता है। यह पूरी तर्क प्रणाली वास्तव में उत्तरआधुनिक पूँजीवाद के बहुसंस्कृतिवाद की तर्क प्रणाली है। इसे ज़िज़ेक ने ठीक ही नाम दिया है-राजनीति का संस्कृतिकरण (culturelization of politics)। सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक अन्तरविरोधों का सांस्कृतिक अन्तर (difference) के रूप में नैसर्गिकीकरण और सारभूतीकरण कर दिया जाता है। वे विभिन्न “जीवन पद्धतियों” और “संस्कृतियों” के अन्तर के तौर पर पेश किये जाते हैं। ये ऐसे अन्तर हैं जिन्हें दूर नहीं किया जा सकता है, जिन पर विजय नहीं पायी जा सकती है। ऐसे में आपके पास, ऐसा प्रतीत होता है, दो ही विकल्प बचते हैं- इन अन्तरों को ‘टॉलरेट’ किया जाय या न ‘टॉलरेट’ किया जाय! और अगर हम अधिक करीबी से देखें तो हम पाते हैं कि ये वास्तव में दो विकल्प हैं ही नहीं! ये एक ही विकल्प है। इस प्रकार की कोई भी सहिष्णुता एक पत्ता टूटने से असहिष्णुता में तब्दील हो सकती है। एक बुत के टूटने या गाय के मरने से सहिष्णु के असहिष्णु बनते देर नहीं लगती है। ऐसी सहिष्णुता बेहद नाजुक सन्तुलन पर टिकी होती है। क्या आज पूरे यूरोप में बहुसंस्कृतिवाद का संकट और हमारे देश में साम्प्रदायिक फासीवाद का उभार इसी नाजुक सन्तुलन के अस्थिर हो जाने के चिन्ह नहीं हैं? हमें इस छद्म युग्म को ही नकारना होगा। वॉल्टर बेंजामिन से कुछ शब्द उधार लेकर बात करें तो राजनीति के इस संस्कृतिकरण या सौन्दर्यीकरण का जवाब हमें संस्कृति और सौन्दर्य के राजनीतिकरण से देना चाहिए;एक ऐसी राजनीति से देना चाहिए जो मानव-मुक्ति की राजनीति हो। ऐसी राजनीति किसी भी सूरत में ‘सहिष्णु’ नहीं हो सकती है; वह संघर्ष के ज़रिये अन्तरविरोधों के समाधान की राजनीति ही हो सकती है; ऐसी राजनीति ‘सहिष्णुता’ के नाम पर पार्थक्यपूर्ण असम्पृक्तता (segregative disengagement) की राजनीति नहीं होगी, बल्कि बेहद उथल-पुथल भरे, अन्तरविरोधों और टकरावों से भरी सम्पृक्तता की राजनीति ही हो सकती है। ऐसी राजनीति ‘डिसइंगेज’ करके ‘टॉलरेट’ करने की वकालत नहीं कर सकती, बल्कि ‘इंगेजिंग इण्टॉलरेंस’ (फासीवादी ‘डिसइंगेज्ड इण्टॉलरेंस’ के बरक्स) की राजनीति होगी।
फ़ासीवाद, जर्मन सिनेमा और असल ज़िन्दगी के बारे में जर्मनी के प्रचार मंत्री, डॉक्टर गोएबल्स को खुला पत्र
आपकी हिम्मत कैसे हुई अपने सिनेमा से जीवन के यथार्थ का सच्चा चित्रण करने का आह्वान करने की जबकि उसका पहला कर्तव्य होना चाहिए चीख-चीख कर पूरी दुनिया को उन हज़ारों-लाखों लोगों के बारे में बताना जो आपकी जेलों की काल-कोठरियों में सड़ रहे हैं जिनका उत्पीड़न कर आपके यातना शिविरों में मौत के घाट उतरा जा रहा है?