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‘आप’ के उभार के मायने

‘आप’ पूरी पूँजीवादी व्यवस्था को कभी कठघरे में खड़ा नहीं करती। केजरीवाल ने एक कारपोरेट घराने के ‘काम करने के तरीकों’ पर सवाल उठाना शुरू किया था, लेकिन इस मुद्दे पर जल्द ही वह चुप्पी साध गये। बाकी कारपोरेट घरानों पर केजरीवाल ने कभी मुँह तक नहीं खोला। उल्टे पूँजीपति वर्ग को भी वह ‘विक्टिम’ और पीड़ित के रूप में दिखलाते हैं! अपने घोषणापत्र में केजरीवाल लिखते हैं कि कांग्रेस और भाजपा जैसी भ्रष्ट पार्टियों के कारण मजबूर होकर पूँजीपतियों को भ्रष्टाचार करना पड़ता है! यह दोगलेपन की इन्तहाँ नहीं तो क्या है? आप देख सकते हैं कि भ्रष्टाचार के मुद्दे को किस प्रकार नंगी और बर्बर पूँजीवादी लूट को छिपाने के लिए इस्तेमाल किया गया है। पूँजीपति जो श्रम कानूनों का उल्लंघन करते हैं क्या वह मजबूरी के कारण करते हैं? ठेकाकरण क्या वह भ्रष्टाचार से मजबूर होकर करते हैं? यह तो पूरी तस्वीर को ही सिर के बल खड़ा करना है। वास्तव में, सरकार (चाहे किसी की भी हो!) और पूँजीपति वर्ग मिलकर मज़दूरों के विरुद्ध लूट और हिंसा को अंजाम देते हैं! केजरीवाल की इस महानौटंकी के पहले अध्याय के लिखे जाते समय ही दिल्ली के पड़ोस में मारुति सुजुकी के मज़दूरों का संघर्ष चल रहा था लेकिन केजरीवाल ने इस पर एक शब्द नहीं कहा; दिल्ली में ही मेट्रो के रेल मज़दूरों को न्यूनतम मज़दूरी और ठेका प्रथा ख़त्म करने के लिए संघर्ष चल रहा था, इस पर भी केजरीवाल ने एक बयान तक नहीं दिया! क्या केजरीवाल को यह सारी चीज़ें पता नहीं है? ऐसा नहीं है! यह एक सोची-समझी चुप्पी है! मज़दूरों के लिए कुछ कल्याणकारी कदमों जैसे कि पक्के मकान देना आदि की बात करना एक बात है, और मज़दूरों के सभी श्रम अधिकारों के संघर्षों को समर्थन देना एक दूसरी बात।

भारतीय राज्यसत्ता का निरंकुश एवं जनविरोधी चरित्र पूँजीवादी संकट का लक्षण है

सवाल सिर्फ़ तरह-तरह के नये-पुराने काले कानूनों, फर्ज़ी मुठभेड़ों, पुलिस हिरासत में यातना से हुई मौतों, हड़तालों पर प्रतिबन्ध, उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं के बर्बर दमन और प्रतिवर्ष सैकड़ों की तादाद में व्यवस्था-विरोधी क्रान्तिकारियों की हत्याओं व गिरफ़्तारीयों का ही नहीं है बल्कि शिक्षा पद्धति, संस्कृति, न्याय व्यवस्था के फासिस्टीकरण व सर्वसत्तावादीकरण का भी है। मज़दूरों के लिए सत्तातन्त्र पहले भी कभी जनवादी नहीं था, लेकिन फासीवादियों के सत्ता में आने पर उनपर दमन और भी भयंकर हो जाता है। गुजरात में मोदी के ‘मॉडल’ का मज़दूरों के लिए क्या अर्थ है? यह मोदी ने खुद ही बता दिया था जब उसने कहा था कि गुजरात में हमें श्रम विभाग की कोई ज़रूरत नहीं है क्योंकि मालिक कभी कारखाने में ख़राब मशीने लगाता ही नहीं है; वह तो मज़दूरों के संरक्षक/पिता के समान होता है! हर मज़दूर जानता है कि यह “संरक्षण” और “पितृत्व” किस प्रकार का होता है! ज़ाहिर है, मोदी सत्ता में आयेगा तो वह पहली चोट मज़दूर आन्दोलन और क्रान्तिकारी व जनवादी ताक़तों पर ही करेगा। यही कारण है कि टाटा, बिड़ला, अम्बानी, जिन्दल, मित्तल जैसे लुटेरे मोदी की प्रशंसा करते अघा नहीं रहे हैं। देश में आज फासीवादी उभार की पूरी ज़मीन पूँजीवादी व्यवस्था के संकट के कारण तैयार हो रही है। यह सच है कि इस नग्न और बेशर्म फासीवाद के सत्ता में आये बग़ैर भी भारतीय राज्यसत्ता का चरित्र दमनकारी और जनविरोधी था और रहेगा। आवर्ती क्रम में आने वाला पूँजीवादी संकट आवर्ती क्रम में मोदी जैसे फासीवादियों की ज़रूरत भी पैदा करता रहता है। आज यही हो रहा है। निश्चित तौर पर, भारतीय राज्यसत्ता के पूरे दमनकारी चरित्र के ख़िलाफ़ संघर्ष तो ज़रूरी है ही लेकिन इस समय साम्प्रदायिक फासीवादी उभार से निपटने के लिए अलग से विशिष्ट रणनीति की ज़रूरत है और सभी जनपक्षधर क्रान्तिकारी ताक़तों को इस पर काम करना चाहिए।

चेतन भगत: बड़बोलेपन और कूपमण्डूकता का एक साम्प्रदायिक संस्करण

चेतन भगत जैसे भाड़े के कलमघसीट जिन्हें समाज, विज्ञान, इतिहास के बारे में ज़रा भी ज्ञान नहीं होता केवल अपने मूर्खतापूर्ण बड़बोलेपन के बूते ही अपनी बौद्धिक दुकानदारी खड़ी कर लेते हैं। महानगरों में मध्यम वर्ग के युवा आपको मेट्रो आदि में चेतन भगत की “रचनाएँ” पढ़ते आसानी से दिख जायेंगे। भारत जैसे देश में जो औपनिवेशिक दौर से ही बौद्धिक कुपोषण का शिकार है, चेतन भगत जैसों की दाल आसानी से गल जाती है। किन्तु इस प्रकार के बगुला भगतों की ख़बर लेना बेहद ज़रूरी है। इनके बौद्धिक ग़रूर को ध्वस्त करना मुश्किल नहीं है, किन्तु ज़रूरी अवश्य है।