सवाल सिर्फ़ तरह-तरह के नये-पुराने काले कानूनों, फर्ज़ी मुठभेड़ों, पुलिस हिरासत में यातना से हुई मौतों, हड़तालों पर प्रतिबन्ध, उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं के बर्बर दमन और प्रतिवर्ष सैकड़ों की तादाद में व्यवस्था-विरोधी क्रान्तिकारियों की हत्याओं व गिरफ़्तारीयों का ही नहीं है बल्कि शिक्षा पद्धति, संस्कृति, न्याय व्यवस्था के फासिस्टीकरण व सर्वसत्तावादीकरण का भी है। मज़दूरों के लिए सत्तातन्त्र पहले भी कभी जनवादी नहीं था, लेकिन फासीवादियों के सत्ता में आने पर उनपर दमन और भी भयंकर हो जाता है। गुजरात में मोदी के ‘मॉडल’ का मज़दूरों के लिए क्या अर्थ है? यह मोदी ने खुद ही बता दिया था जब उसने कहा था कि गुजरात में हमें श्रम विभाग की कोई ज़रूरत नहीं है क्योंकि मालिक कभी कारखाने में ख़राब मशीने लगाता ही नहीं है; वह तो मज़दूरों के संरक्षक/पिता के समान होता है! हर मज़दूर जानता है कि यह “संरक्षण” और “पितृत्व” किस प्रकार का होता है! ज़ाहिर है, मोदी सत्ता में आयेगा तो वह पहली चोट मज़दूर आन्दोलन और क्रान्तिकारी व जनवादी ताक़तों पर ही करेगा। यही कारण है कि टाटा, बिड़ला, अम्बानी, जिन्दल, मित्तल जैसे लुटेरे मोदी की प्रशंसा करते अघा नहीं रहे हैं। देश में आज फासीवादी उभार की पूरी ज़मीन पूँजीवादी व्यवस्था के संकट के कारण तैयार हो रही है। यह सच है कि इस नग्न और बेशर्म फासीवाद के सत्ता में आये बग़ैर भी भारतीय राज्यसत्ता का चरित्र दमनकारी और जनविरोधी था और रहेगा। आवर्ती क्रम में आने वाला पूँजीवादी संकट आवर्ती क्रम में मोदी जैसे फासीवादियों की ज़रूरत भी पैदा करता रहता है। आज यही हो रहा है। निश्चित तौर पर, भारतीय राज्यसत्ता के पूरे दमनकारी चरित्र के ख़िलाफ़ संघर्ष तो ज़रूरी है ही लेकिन इस समय साम्प्रदायिक फासीवादी उभार से निपटने के लिए अलग से विशिष्ट रणनीति की ज़रूरत है और सभी जनपक्षधर क्रान्तिकारी ताक़तों को इस पर काम करना चाहिए।