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प्रथम विश्वयुद्ध के साम्राज्यवादी नरसंहार के सौ वर्षों के अवसर पर

आज प्रथम विश्व युद्ध के 100 वर्ष पश्चात फ़िर से इसके कारणों की जाँच-पड़ताल करना कोई अकादमिक कवायद नहीं है। आज भी हम साम्राज्यवाद के युग में ही जी रहे हैं और आज भी साम्राज्यवाद द्वारा आम मेहनतकश जनता पर अनेकों युद्ध थोपे जा रहे हैं। इसलिये यह समझना आज भी ज़रूरी है कि साम्राज्यवाद क्यों और किस तरह से युद्धों को जन्म देता है। वैसे तो हर कोई प्रथम विश्व युद्ध के बारे में जानता है लेकिन इसके ऐतिहासिक कारण क्या थे, इस बारे में बहुत सारे भ्रम फैले हुए हैं या फिर अधिक सटीक शब्दों में कहें तो फैलाये गये हैं। अनेकों भाड़े के इतिहासकार इस युद्ध को इस तरह से पेश करते हैं मानो यह कुछ शासकों की निजी महत्त्वाकांक्षा व सनक के कारण हुआ था। अधिकतर इसकी पूरी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को ग़ायब कर देते हैं

‘पंजाब (सार्वजनिक व निजी जायदाद नुकसान रोकथाम) क़ानून- 2014’ जनसंघर्षों को कुचलने की नापाक कोशिश

यह क़ानून भारत के बेहद ख़तरनाक जनविरोधी काले क़ानूनों में से एक है। इस क़ानून में कहा गया है कि किसी व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह, संगठन, या कोई पार्टी द्वारा की गयी कार्रवाई जैसे “ऐजीटेशन, स्ट्राइक, हड़ताल, धरना, बन्द, प्रदर्शन, मार्च, जुलूस”, रेल या सड़क परिवहन रोकने आदि से अगर सरकारी या निजी जायदाद को कोई नुकसान, घाटा, या तबाही हुई हो तो उस कार्रवाई को नुकसान करने वाली कार्रवाई माना जायेगा। किसी संगठन, यूनियन या पार्टी के एक या अधिक पदाधिकारी जो इस नुकसान करने वाली कार्रवाई को उकसाने, साजिश करने, सलाह देने, या मार्गदर्शन, में शामिल होंगे उन्हें इस नुकसान करने वाली कार्रवाई का प्रबन्धक माना जायेगा। सरकार द्वारा तय किया गया अधिकारी अपने तय किए गये तरीक़े से देखेगा कि कितना नुकसान हुआ है। नुकसान की भरपाई दोषी माने गये व्यक्ति या व्यक्तियों द्वारा अगर नहीं की जाती तो उनकी ज़मीन जब्त की जायेगी।

उतरती “मोदी लहर” और फासीवाद से मुक़ाबले की गम्भीर होती चुनौती

फासीवादियों की पुरानी फितरत रही है कि राजनीतिक तौर पर सितारे गर्दिश में जाने पर वे ज़्यादा हताशा में क़दम उठाते हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध में हारते हुए नात्सी जर्मनी में यहूदियों व कम्युनिस्टों का फासीवादियों ने ज़्यादा बर्बरता से क़त्ले-आम किया था; उसी प्रकार हारते हुए फासीवादी इटली में मुसोलिनी के गुण्डा गिरोहों ने हर प्रकार के राजनीतिक विरोध का ज़्यादा पाशविकता के साथ दमन किया था। इसलिए कोई यह न समझे कि नरेन्द्र मोदी की फासीवादी सरकार गिरती लोकप्रियता के बरक्स देश के मेहनत-मशक़्क़त करने वाले लोगों और छात्रों-युवाओं पर अपने हमले में कोई कमी लायेगी। वास्तव में, मोदी को 5 साल के लिए पूर्ण बहुमत दिलवा कर देश के बड़े पूँजीपति वर्ग ने सत्ता में पहुँचाया ही इसीलिए है कि वह पूँजी के पक्ष में हर प्रकार के क़दम मुक्त रूप से उठा सके और 5 वर्षों के भीतर मुनाफ़े के रास्ते में रोड़ा पैदा करने वाले हर नियम, क़ानून या तन्त्र को बदल डाले। 5 वर्ष के बाद मोदी की सरकार चली भी जाये तो इन 5 वर्षों में वह शिक्षा, रोज़़गार से लेकर श्रम क़ानूनों तक के क्षेत्र में ऐसे बुनियादी बदलाव ला देगी, जिसे कोई भावी सरकार, चाहे वह वामपंथियों वाली संयुक्त मोर्चे की ही सरकार क्यों न हो, रद्द नहीं करेगी। यही काम करने के लिए अम्बानी, अदानी, टाटा, बिड़ला आदि ने नरेन्द्र मोदी को नौकरी पर रखा है।

‘लव जेहाद’ के शोर के पीछे की सच्चाई

यदि पूरे देश के आँकड़े जुटाये जायें तो वैवाहिक जीवन में स्त्रियों की प्रताड़ना एवं अलगाव तथा प्रेम में धोखा देने की लाखों घटनाएँ मिलेंगी। इनमें से उन अन्तर-धार्मिक प्रेम विवाहों और प्रेम प्रसंगों को छाँट लिया जाये जिनमें पति/प्रेमी मुस्लिम हों और पत्नी/प्रेमिका हिन्दू। विवाद की गर्मी में पत्नी/प्रेमिका की ओर से स्वयं या किसी प्रेरणा-सुझाव के वशीभूत होकर कोई भी आरोप लगाया जा सकता है, जिसमें धर्मान्तरण का आरोप भी शामिल हो सकता है। हो सकता है कुछ मामलों में धर्मान्तरण के दबाव का आरोप सच भी हो, लेकिन मात्र इस आधार पर यह भयंकर नतीजा कत्तई नहीं निकाला जा सकता कि संगठित तरीक़े से कुछ मुस्लिम संगठन मुस्लिम युवाओं को तैयार करके हिन्दू युवतियों को बहला-फुसलाकर प्रेमजाल में फँसाने की मुहिम चला रहे हैं।

नौजवान का रास्ता-मुक्तिबोध का प्रसिद्ध लेख

नौजवानी के गीत बहुत लोगों ने गाये हैं। हुस्नोइश्‍क़ और इन्‍क़लाब का क़ाबा नौजवानी ही समझी गयी है। लेकिन जिन तकलीफ़ों में से नौजवान गुज़रता है, उनके बारे में क़लम चलाने का साहस थोड़े ही लोगों ने किया है। यथार्थ कुछ और है, और काल्पनिक लोक कुछ और। माना कि साधारण रूप से नौजवान अपने बाप के घर रहता है, बड़ों की छत्रछाया में पलता है। और दुनिया से लोहा लेने का जोश और उमंग उसमें भले ही रहे, उनके पास अनुभव न होने के कारण उसे पग-पग ठोकर खाना पड़ता है।

ये खून बेकार नहीं जायेगा! इज़रायली ज़ि‍यनवादियों और अमेरिकी साम्राज्यवादियों की कब्र अरब की धरती पर खुदेगी!

हवा से बम बरसाकर और मिसाइलें दागकर इज़रायल जो कर सकता था, उसने किया। लेकिन ज़मीन पर फिलिस्तीनियों का मुकाबला करना कायर ज़ि‍यनवादियों के बूते के बाहर है और आने वाले कुछ दिनों में यह साबित भी हो जायेगा। और कुछ दूर भविष्य में समूची इज़रायली जनता को अपने योजनाबद्ध फासीवादीकरण की ज़ि‍यनवादियों को इजाज़त देने की भी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। साथ ही, अरब शासकों को अपनी नपुंसकता और साम्राज्यवाद के समक्ष घुटने टेकने के लिए भी निकट भविष्य में ही भारी कीमत चुकानी होगी। फिलिस्तीन मरेगा नहीं! फिलिस्तीनी जनता मरेगी नहीं! अन्त होगा इज़रायली ज़ि‍यनवाद का और अमेरिकी साम्राज्यवाद का! अरब की धरती पर उनकी कब्र खुदने की तैयारी चल रही है।

गाब्रियल गार्सिया मार्खेस : यथार्थ का मायावी चितेरा

गाब्रियाल गार्सिया मार्खेस, यथार्थ के कवि, जो इतिहास से जादू करते हुए उपन्यास में जीवन का तानाबाना बुनते हैं, जिसमें लोग संघर्ष करते हैं, प्यार करते हैं, हारते हैं, दबाये जाते हैं और विद्रोह करते हैं। ब्रेष्ट ने कहा था साहित्य को यथार्थ का “हू-ब-हू” चित्रण नहीं बल्कि पक्षधर लेखन करना चाहिए। मार्खेस के उपन्यासों में, विशेष कर “एकान्त के सौ वर्ष”, “ऑटम ऑफ दी पेट्रियार्क” और “लव एण्ड दी अदर डीमन” में उनकी जन पक्षधरता स्पष्ट दिखती है। मार्खेस के जाने के साथ निश्चित तौर पर लातिन अमेरिकी साहित्य का एक गौरवशाली युग समाप्त हो गया। उनकी विरासत का मूल्यांकन अभी लम्बे समय तक चलता रहेगा क्योंकि उनकी रचनाओं में जो वैविध्य और दायरा मौजूद है, उसका आलोचनात्मक विवेचन एक लेख के ज़रिये नहीं किया जा सकता है। लेकिन इस लेख में मार्खेस के जाने के बाद उन्हें याद करते हुए हम उनकी रचना संसार पर एक संक्षिप्त नज़र डालेंगे। आगे हम ‘आह्वान’ में और भी विस्तार से मार्खेस की विरासत का एक आलोचनात्मक विश्लेषण रखेंगे।

आ गये “अच्छे दिन”!

आने वाले पाँच वर्षों तक नरेन्द्र मोदी की सरकार देशी-विदेशी पूँजी को अभूतपूर्व रूप से छूट देगी कि वह भारत में मज़दूरों और ग़रीब किसानों और साथ ही निम्न मध्यवर्ग को जमकर लूटे। इस पूरी लूट को “राष्ट्र” के “विकास” का जामा पहनाया जायेगा और इसका विरोध करने वाले “राष्ट्र-विरोधी” और “विकास-विरोधी” करार दिया जायेगा; मज़दूरों के हर प्रतिरोध को बर्बरता के साथ कुचलने का प्रयास किया जायेगा; स्त्रियों और दलितों पर खुलेआम दमन की घटनाओं को अंजाम दिया जायेगा; देश के अलग-अलग हिस्सों में साम्प्रदायिक दंगों और नरसंहारों को अंजाम दिया जायेगा और अगर इतना करना सम्भव न भी हुआ तो धार्मिक अल्पसंख्यकों को दंगों और नरसंहारों के सतत् भय के ज़रिये अनुशासित किया जायेगा और उन्हें दोयम दर्जे़ का नागरिक बनाया जायेगा। निश्चित तौर पर, यह प्रक्रिया एकतरफ़ा नहीं होगी और देश भर में आम मेहनतकश अवाम इसका विरोध करेगा। लेकिन अगर यह विरोध क्रमिक प्रक्रिया में संगठित नहीं होता और एक सही क्रान्तिकारी नेतृत्व के मातहत नहीं आता तो बिखरा हुआ प्रतिरोध पूँजी के हमलों का जवाब देने के लिए नाक़ाफ़ी होगा। इसलिए ज़रूरत है कि अभी से एक ओर तमाम जनसंघर्षों को संगठित करने, उनके बीच रिश्ते स्थापित करने और उन्हें जुझारू रूप देने के लिए काम किया जाये और दूसरी ओर एक सही राजनीतिक नेतृत्वकारी संगठन के निर्माण के कामों को पहले से भी ज़्यादा द्रुत गति से अंजाम दिया जाये।

बढ़ते स्त्री-विरोधी अपराधों का मूल और उनके समाधान का प्रश्न

पिछले कुछ वर्षों में बर्बरतम स्त्री-विरोधी अपराधों की बाढ़ सी आ गयी है। ये अपराध दिन ब दिन हिंस्र से हिंस्र होते जा रहे हैं। समाज में ऐसा घटाटोप छाया हुआ है जहाँ स्त्रियों का खुलकर सांस ले पाना मुश्किल हो गया है। बर्बर बलात्कार, स्त्रियों पर तेज़ाब फेंके जाने, बलात्कार के बाद ख़ौफनाक हत्याओं जैसी घटनाएँ आम हो गयी हैं। पिछले दिनों लखनऊ, बदायूं, भगाणा, आदि जगहों पर हुई घटनायें इसका उदाहरण हैं। आखि‍र क्या कारण है कि ऐसी अमानवीय घटनाएँ दिन प्रतिदिन बढती जा रही हैं? इस सवाल को समझना बेहद जरुरी है क्योंकि समस्या को पूरी तरह समझे बगैर उसका हल निकाल पाना संभव नहीं है। अक्सर स्त्री-विरोधी अपराधों के कारणों की जड़ तक न जाने का रवैया हमें तमाम लोगों में देखने को मिलता है। इन अपराधों के मूल को ना पकड़ पाने के कारण वे ऐसी घटनाओं को रोकने के हल के तौर पर कोई भी कारगर उपाय दे पाने में असमर्थ रहते हैं। वे इसी पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर ही कुछ कड़े क़ानून बनाने, दोषियों को बर्बर तरीके से मृत्युदण्ड देने आदि जैसे उपायों को ही इस समस्या के समाधान के रूप में देखते हैं। इस पूरी समस्या को समझने के लिए हमें इसके आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक आदि सभी कारणों की पड़ताल करनी होगी, तभी हम इस समस्या का सही हल निकालने में समर्थ हो पाएंगे।

वज़ीरपुर के गरम रोला मज़दूरों का ऐतिहासिक आन्दोलन

पूरी हड़ताल के दौरान मज़दूरों ने न सिर्फ हर दिन मालिकों, पुलिस, श्रम विभाग, गुंडों और नेताओं-मंत्रियों के चरित्र को समझा व इनके खिलाफ अपनी रणनीति बनायी बल्कि हड़ताल के मंच का प्रयोग मज़दूर वर्ग को संघर्षों के गौरवशाली इतिहास से परिचित कराने के लिए भी किया गया। पेरिस कम्यून की कहानी, अक्टूबर क्रान्ति, स्त्री मज़दूरों की भूमिका से लेकर छत्तीसगढ़ के मज़दूर आन्दोलन व ट्रेड यूनियन के जनवादी तरीकों पर समय-समय पर बिगुल मज़दूर दस्ता, नौजवान भारत सभा, स्त्री मज़दूर संगठन के कार्यकर्ताओं ने बात रखी। हड़ताल के प्रत्येक दिन मंच का संचालन कर रहे बाबूराम व सनी ने गरम रोला मज़दूर एकता समिति के सदस्यों व बिगुल मज़दूर दस्ता के सदस्यों को आन्दोलन व मज़दूर वर्ग के इतिहास पर बात रखने के लिए आमंत्रित किया।