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शार्ली एब्दो और बोको हरम: साम्राज्यवादी ताक़तों का दुरंगा चरित्र

हर तरह के धार्मिक कट्टरपन्थ का इस्तेमाल उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों, जनान्दोलनों और जन संघर्षों को कमज़ोर करने, बाँटने और विसर्जित करने के लिए करता आया है। साम्राज्यवाद द्वारा धार्मिक कट्टरपन्थ के व्यवस्थित इस्तेमाल की शुरूआत हमें आज से सौ वर्ष पहले ‘साइक्स-पीको’ समझौते और दूसरे विश्व युद्ध के बाद ट्रूमैन डॉक्ट्रिन के काल से देखनी चाहिए जिसके अनुसार यूरोपीय-अमेरिकी शक्तियाँ और प्रतिक्रियावादी खाड़ी के राजशाहियों और अमीरों द्वारा अरब विश्व में इस्लामी दक्षिणपन्थी ताक़तों को हथियार के तौर पर तैयार करने की योजना थी ताकि कम्युनिज़्म के प्रेत और धर्मनिरपेक्ष अरब राष्ट्रवाद के बढ़ते ख़तरे को रोका जा सके। अमेरिकी राष्ट्रपति डीवाइट डी. आइजेनहावर ने व्हाइट हाउस के हॉल में मुस्लिम ब्रदरहुड के नेताओं का स्वागत किया था। अमेरिकी कूटनीतिज्ञ और इण्टेलिजेंस सेवाओं ने दशाब्दियों तक ‘जेहादियों’ से लेकर नरमपन्थी इस्लामी समूहों को बढ़ावा दिया। अमेरिका के नेतृत्व में ही कम्युनिज़्म के ख़िलाफ़ अफ़गान जेहादियों पर भी खाड़ी की राजशाहियों और अमीरों ने ख़ज़ाने लुटाये। विश्व भर से जेहादी अफ़गान पहुँचने लगें। यह अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर का राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रेजेंस्‍की ही था जिसने एक लाख से ज़्यादा जिहादियों के सामने अफ़गानिस्तान के वाम धड़े की सरकार के ख़िलाफ़ और सोवियत संघ को युद्ध में उलझाने के लिए खैबर दर्रे की एक पहाड़ी पर खड़ा हो एक हाथ में बन्दूक और दूसरे हाथ में कुरान लिए ऐलान किया था ‘ये दोनों तुम्हें आज़ाद करेगें!’ राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने अफ़गान मुजाहिद्दीन के नेताओं का स्वागत व्हाइट हाउस में किया था और कहा था कि ‘ये हमारे राष्ट्र के संस्थापकों के नैतिक समतुल्य हैं’। गुलबुद्दीन हिकमतयार जैसे जेहादी भाड़े के टट्टुओं को वाशिंगटन और जेफ़रसन के महान व्यक्तित्व तक ऊँचा उठाया गया!

फ़ीस वृद्धि के नाम पर शिक्षा को बिकाऊ माल बना देने की तैयारी

विश्वविद्यालय के घाटे को कम करने के नाम पर की गयी इस फ़ीस वृद्धि का असली उद्देश्य किसी भी नागरिक के समान तथा निःशुल्क शिक्षा प्राप्त करने जैसे बुनियादी अधिकार को उनसे छीन उसे एक बिकाऊ माल बना देना है। जिस तरह आज आम मेहनतकश आबादी के ख़ून-पसीने से खड़े किये गये सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों को पूँजीपतियों को कौड़ियों के दाम बेचा जा रहा है, उसी तरह आने वाले समय में सरकारी शिक्षा संस्थानों को भी निजी हाथों में सौंपने की पूरी तैयारी सरकार ने कर ली है।

मेक्सिको के जुझारू छात्रों-युवाओं को क्रान्तिकारी सलाम!

मेक्सिको के छात्रों और युवाओं ने अपने लड़ाकूपन से वहाँ के सत्ताधरियों की नींद हराम कर दी है। जिस तरीक़े से मेक्सिको के छात्र और युवा इस आन्दोलन को पूरे देश में फैला रहे हैं और जिस तरीक़े से वे मेक्सिको के आम नागरिकों सहित दुनिया-भर के इंसाफ़पसन्द लोगों को परम्परागत और आधुनिक माध्यमों का इस्तेमाल करके इस आन्दोलन से जोड़ रहे हैं, वह वाकई प्रेरणादायी है। साथ ही साथ यह भी कहना होगा कि यह बेहद अफ़सोस की बात है कि इतने जुझारू छात्र-युवा आन्दोलन की मौजूदगी के बावजूद मेक्सिको के सर्वहारा वर्ग की संगठित ताक़तें इतनी कमज़ोर हैं कि वे इस परिस्थिति का लाभ उठाकर इस देशव्यापी आन्दोलन को सर्वहारा क्रान्ति की ओर अग्रसर करने में नितान्त असमर्थ हैं। 1911-1929 की मेक्सिको की क्रान्ति के शानदार इतिहास को देखते हुए यह निश्चय ही चिन्ता का सबब है कि सर्वहारा वर्ग की ताक़तें उस देश में आज इतनी कमज़ोर हैं।

शिक्षा में सेमेस्टर प्रणाली – सुशिक्षित गुलाम तैयार करने का नुस्खा

वार्षिक प्रणाली के अधीन विद्यार्थियों के पास आपसी बहस, विचार-चर्चाएँ, सेमीनारों और सांस्कृतिक सरगर्मियों के लिए कुछ-कुछ वक़्त होता था, परन्तु सेमेस्टर प्रणाली ने विद्यार्थियों को अपने ख़ुद के लिए समय से पूरी तरह वंचित कर दिया है। सांस्कृतिक सरगर्मियाँ और सेमीनारों के नाम पर प्रशाशन से “मंजूरशुदा” कुछ दिखावे होते हैं, इससे अधिक कुछ नहीं। विद्यार्थियों की तरफ़ से ख़ुद पहलक़दमी करके बहस, सेमीनार आदि करवाने को शिक्षण संस्थानों का प्रशासन सख़्ती के साथ रोकता है, जिसके लिए विद्यार्थियों को डराने-धमकाने तक के हथकण्डे इस्तेमाल किये जाते हैं। कॉलेजों, यूनिवर्सिटियों के कैम्पसों को समाज से अलग-थलग करने में भी सेमेस्टर प्रणाली काफ़ी प्रभावी है। विद्यार्थी ग्रेड-नम्बरों के चक्कर में उलझ कर सामाजिक घटनाओं और समस्त मानवता से टूटकर रह जाते हैं और भयंकर हद तक व्यक्तिवादी चेतना का शिकार हो रहे हैं।

हज़ारों बेगुनाहों के हत्यारे की मौत और भोपाल गैस त्रासदी के अनुत्तरित प्रश्न

इस भयावह मंज़र के दोषियों की करतूत पर पर्दा डालने के लिए केन्द्र और राज्य की सरकारों और कांग्रेस, भाजपा आदि जैसी पूँजीपतियों के तलवे चाटने वाली चुनावी पार्टियों और यहाँ तक कि सुप्रीम कोर्ट से निचली अदालतों तक पूरी न्यायपालिका और स्थानीय नौकरशाही ने जिस नीचता का परिचय दिया उस पर नफ़रत से थूका ही जा सकता है। 7 जून 2010 को भोपाल की एक निचली अदालत के फ़ैसले में कम्पनी के 8 पूँजीपतियों को 2-2 साल की सज़ा सुनायी और कुछ ही देर बाद उनकी जमानत भी हो गयी और वे ख़ुशी-ख़ुशी अपने घरों को लौट गये। दरअसल इंसाफ़ के नाम पर इस घिनौने मज़ाक़ की बुनियाद 1996 में भारत के भूतपूर्व प्रधान न्यायाधीश जस्टिस अहमदी द्वारा रख दी गयी थी जिसने कम्पनी और मालिकान पर आरोपों को बेहद हल्का बना दिया था और उन पर मामूली मोटर दुर्घटना के तहत लागू होने वाले क़ानून के तहत मुक़दमा दर्ज़ किया गया जिसमें आरोपियों को 2 साल से अधिक की सज़ा नहीं दी जा सकती। और इसके बदले में अहमदी को भोपाल गैस पीड़ितों के नाम पर बने ट्रस्ट का आजीवन अध्यक्ष बनाकर पुरस्कृत किया गया।

गहराते वैश्विक साम्राज्यवादी संकट के साये में जी20 शिखर सम्मेलन

सबसे पहले तो यह साफ़ कर लेना बेहद ज़रूरी है कि हम छात्रों-नौजवानों को इस बात से क्या मतलब है कि 20 देशों के मुखिया साथ मिलकर क्या खिचड़ी पका रहे हैं और इससे हमारी ज़िन्दगियों पर क्या असर पड़ने वाला है? दरअसल, इस सम्मेलन में, जिसमें कि मोदी के साथ अन्य 19 लुटेरे शामिल हैं, उन सभी प्रश्नों पर चर्चा की गयी है, जो हमारी ज़िन्दगी के साथ बेहद करीबी से जुडे़ हुए हैं। पिछले करीब 8 वर्षों से साम्राज्यवादी संकट ने विश्व पूँजीवाद की कमर तोड़ रखी है, हालाँकि उसके पहले भी करीब तीन दशक से विश्व पूँजीवाद सतत् एक मन्द मन्दी का शिकार रहा था, जो बीच-बीच में भयंकर संकटों के रूप में टूटती रही थी। लेकिन 2007 से जारी आर्थिक संकट पिछले 80 वर्षों का सबसे भयंकर और अब तक का सबसे ढाँचागत संकट सिद्ध हुआ है। इससे कैसे उबरा जाये और विश्व-भर के मेहनतकश अवाम को कैसे और अधिक लूटा जाये, यही इस सम्मेलन का मूल मुद्दा था।

इबोला महामारी: प्राकृतिक? या साम्राज्यवाद-पूँजीवाद की देन

इबोला के कारण आकस्मिक नहीं हैं बल्कि अफ़्रीका के सामाजिक-आर्थिक इतिहास में उसके कारण निहित हैं। उपनिवेशवाद द्वारा ढाँचागत तौर पर अफ़्रीका को पिछड़ा बनाया जाना और उसके बाद भी साम्राज्यवादी-पूँजीवादी लूट और प्रकृति के दोहन ने ही वे स्थितियाँ पैदा की हैं, जिनका प्रकोप अफ़्रीका को आये दिन नयी-नयी महामारियों के रूप में झेलना पड़ता है। इबोला इन महामारियों की श्रृंखला में सबसे भयंकर साबित हो रही है। लेकिन निश्चित तौर पर, साम्राज्यवादी-पूँजीवादी व्यवस्था के रहते यह आख़िरी महामारी नहीं साबित होगी। अफ़्रीका की जनता को समय रहते इस आदमखोर व्यवस्था की असलियत को समझना होगा और उसे उखाड़ फेंकना होगा।

विज्ञान के इतिहास का विज्ञान (पहली किस्त)

E=mc2 का फ़ार्मूला आइन्स्टीन और उनके विज्ञान के प्रति समर्पित जीवन के बारे में कुछ नहीं बोलता। न ही यह फार्मूला इस सिद्धान्त को विकसित करने में लगे परिश्रम व इसके उद्भव से जुड़ी बहसों को दिखाता है। हम अकादमिक किताबों में गैलीलियो के सापेक्षिकता के सिद्धान्त के बाद सीधे आइन्स्टीन के सापेक्षिकता के सिद्धान्त को पढ़ते हैं! समय का प्रभाव यानी ऐतिहासिकता अकादमिक विमर्शों में गायब होती है। विज्ञान का कोई भी अध्ययन या आकलन, जो कि ऐतिहासिकता से रिक्त हो, सतही होगा क्योंकि इन खोजों के नीचे उन लोगों की ज़िन्दगियाँ और उनकी बहसें दबी हुई हैं जिन्होंने इसे विकसित किया। यह विकास बेहद जटिल गति लिए हुए है। इस जटिल गति की छानबीन करना उन लोगों की ज़िन्दगियों में भी झाँकने को मजबूरकरता है जिन्होंने प्राकृतिक विज्ञान को उसका यह स्वरूप दिया, या कहें कि प्राकृतिक विज्ञान के मील के पत्थर इन व्यक्तियों के जीवन को भी कहा जा सकता है, जिन्होंने विज्ञान के सिद्धान्तों या खोजों में अपना जीवन लगा दिया।

ड्रोन हमले – अमेरिकी हुक्मरानों का खूँखार चेहरा

‘कण्ट्रोल रूम’ में बैठे आपरेटरों के लिए यह सब एक वीडियो गेम की तरह होता है। सामने खड़े इन्सानों को मारने की तुलना में कम्प्यूटर स्क्रीन पर दिखायी दे रहे ‘टारगेट’ को बटन दबाकर उड़ा देना कहीं आसान होता है। इसलिए हमले की क्रूरता और भी बढ़ जाती है। शादी, मातम, या अन्य अवसरों पर इकट्ठा हुए लोगों के भारी समूह एक बटन दबाकर उड़ा दिये जाते हैं। घरों में सो रहे लोगों को एक पल में मलबे के ढेर में मिला दिया जाता है। बसों-कारों में बैठी सवारियों की ज़िन्दगी का सफ़र किसी “आतंकवादी” के सवार होने के शक के आधार पर ख़त्म कर दिया जाता है। यहाँ तक कि अकसर हमले के बाद घायलों और मृतकों के पारिवारिक सदस्यों, आम लोगों, सामाजिक कार्यकर्ताओं तक को फिर से मिसाइल दाग कर निशाना बनाया जाता है।

पाकिस्तान का वर्तमान संकट और शासक वर्ग के गहराते अन्तरविरोध

शायद पाठकों के लिए अब कल्पना करना सम्भव हो सके कि पाकिस्तान की जनता किन भीषण परिस्थितियों का शिकार है। एक ओर वह आर्थिक संकटों से जूझ रही है तो दूसरी ओर कट्टरपंथियों और आतंकियों का दंश भी बर्दाश्त कर रही है। वह अपने सैन्य तन्त्र के ज़ुल्मों को तो बर्दाश्त करती रही है, अब उसे अमेरिकी हमलों का भी निशाना बनाया जा रहा है। आतंक के ख़िलाफ़ युद्ध के पिछले 13 वर्षों की आर्थिक लागत 102 अरब डॉलर है। यह रक़म पाकिस्तान के कुल विदेशी क़र्ज़ के बराबर है। एक बात स्पष्ट है कि पाकिस्तानी जनता के जीवन में तब तक कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं होने वाला है जब तक कि वह स्वयं अपने समाज के भीतर से नयी परिवर्तनकामी शक्तियों को संगठित कर वर्तमान पूँजीपरस्त जनविरोधी तन्त्र को ही नष्ट करने और एक नये समतामूलक समाज को बनाने की दिशा में आगे नहीं बढ़ती।