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नौजवान का रास्ता-मुक्तिबोध का प्रसिद्ध लेख

नौजवानी के गीत बहुत लोगों ने गाये हैं। हुस्नोइश्‍क़ और इन्‍क़लाब का क़ाबा नौजवानी ही समझी गयी है। लेकिन जिन तकलीफ़ों में से नौजवान गुज़रता है, उनके बारे में क़लम चलाने का साहस थोड़े ही लोगों ने किया है। यथार्थ कुछ और है, और काल्पनिक लोक कुछ और। माना कि साधारण रूप से नौजवान अपने बाप के घर रहता है, बड़ों की छत्रछाया में पलता है। और दुनिया से लोहा लेने का जोश और उमंग उसमें भले ही रहे, उनके पास अनुभव न होने के कारण उसे पग-पग ठोकर खाना पड़ता है।

ये खून बेकार नहीं जायेगा! इज़रायली ज़ि‍यनवादियों और अमेरिकी साम्राज्यवादियों की कब्र अरब की धरती पर खुदेगी!

हवा से बम बरसाकर और मिसाइलें दागकर इज़रायल जो कर सकता था, उसने किया। लेकिन ज़मीन पर फिलिस्तीनियों का मुकाबला करना कायर ज़ि‍यनवादियों के बूते के बाहर है और आने वाले कुछ दिनों में यह साबित भी हो जायेगा। और कुछ दूर भविष्य में समूची इज़रायली जनता को अपने योजनाबद्ध फासीवादीकरण की ज़ि‍यनवादियों को इजाज़त देने की भी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। साथ ही, अरब शासकों को अपनी नपुंसकता और साम्राज्यवाद के समक्ष घुटने टेकने के लिए भी निकट भविष्य में ही भारी कीमत चुकानी होगी। फिलिस्तीन मरेगा नहीं! फिलिस्तीनी जनता मरेगी नहीं! अन्त होगा इज़रायली ज़ि‍यनवाद का और अमेरिकी साम्राज्यवाद का! अरब की धरती पर उनकी कब्र खुदने की तैयारी चल रही है।

गाब्रियल गार्सिया मार्खेस : यथार्थ का मायावी चितेरा

गाब्रियाल गार्सिया मार्खेस, यथार्थ के कवि, जो इतिहास से जादू करते हुए उपन्यास में जीवन का तानाबाना बुनते हैं, जिसमें लोग संघर्ष करते हैं, प्यार करते हैं, हारते हैं, दबाये जाते हैं और विद्रोह करते हैं। ब्रेष्ट ने कहा था साहित्य को यथार्थ का “हू-ब-हू” चित्रण नहीं बल्कि पक्षधर लेखन करना चाहिए। मार्खेस के उपन्यासों में, विशेष कर “एकान्त के सौ वर्ष”, “ऑटम ऑफ दी पेट्रियार्क” और “लव एण्ड दी अदर डीमन” में उनकी जन पक्षधरता स्पष्ट दिखती है। मार्खेस के जाने के साथ निश्चित तौर पर लातिन अमेरिकी साहित्य का एक गौरवशाली युग समाप्त हो गया। उनकी विरासत का मूल्यांकन अभी लम्बे समय तक चलता रहेगा क्योंकि उनकी रचनाओं में जो वैविध्य और दायरा मौजूद है, उसका आलोचनात्मक विवेचन एक लेख के ज़रिये नहीं किया जा सकता है। लेकिन इस लेख में मार्खेस के जाने के बाद उन्हें याद करते हुए हम उनकी रचना संसार पर एक संक्षिप्त नज़र डालेंगे। आगे हम ‘आह्वान’ में और भी विस्तार से मार्खेस की विरासत का एक आलोचनात्मक विश्लेषण रखेंगे।

आ गये “अच्छे दिन”!

आने वाले पाँच वर्षों तक नरेन्द्र मोदी की सरकार देशी-विदेशी पूँजी को अभूतपूर्व रूप से छूट देगी कि वह भारत में मज़दूरों और ग़रीब किसानों और साथ ही निम्न मध्यवर्ग को जमकर लूटे। इस पूरी लूट को “राष्ट्र” के “विकास” का जामा पहनाया जायेगा और इसका विरोध करने वाले “राष्ट्र-विरोधी” और “विकास-विरोधी” करार दिया जायेगा; मज़दूरों के हर प्रतिरोध को बर्बरता के साथ कुचलने का प्रयास किया जायेगा; स्त्रियों और दलितों पर खुलेआम दमन की घटनाओं को अंजाम दिया जायेगा; देश के अलग-अलग हिस्सों में साम्प्रदायिक दंगों और नरसंहारों को अंजाम दिया जायेगा और अगर इतना करना सम्भव न भी हुआ तो धार्मिक अल्पसंख्यकों को दंगों और नरसंहारों के सतत् भय के ज़रिये अनुशासित किया जायेगा और उन्हें दोयम दर्जे़ का नागरिक बनाया जायेगा। निश्चित तौर पर, यह प्रक्रिया एकतरफ़ा नहीं होगी और देश भर में आम मेहनतकश अवाम इसका विरोध करेगा। लेकिन अगर यह विरोध क्रमिक प्रक्रिया में संगठित नहीं होता और एक सही क्रान्तिकारी नेतृत्व के मातहत नहीं आता तो बिखरा हुआ प्रतिरोध पूँजी के हमलों का जवाब देने के लिए नाक़ाफ़ी होगा। इसलिए ज़रूरत है कि अभी से एक ओर तमाम जनसंघर्षों को संगठित करने, उनके बीच रिश्ते स्थापित करने और उन्हें जुझारू रूप देने के लिए काम किया जाये और दूसरी ओर एक सही राजनीतिक नेतृत्वकारी संगठन के निर्माण के कामों को पहले से भी ज़्यादा द्रुत गति से अंजाम दिया जाये।

बढ़ते स्त्री-विरोधी अपराधों का मूल और उनके समाधान का प्रश्न

पिछले कुछ वर्षों में बर्बरतम स्त्री-विरोधी अपराधों की बाढ़ सी आ गयी है। ये अपराध दिन ब दिन हिंस्र से हिंस्र होते जा रहे हैं। समाज में ऐसा घटाटोप छाया हुआ है जहाँ स्त्रियों का खुलकर सांस ले पाना मुश्किल हो गया है। बर्बर बलात्कार, स्त्रियों पर तेज़ाब फेंके जाने, बलात्कार के बाद ख़ौफनाक हत्याओं जैसी घटनाएँ आम हो गयी हैं। पिछले दिनों लखनऊ, बदायूं, भगाणा, आदि जगहों पर हुई घटनायें इसका उदाहरण हैं। आखि‍र क्या कारण है कि ऐसी अमानवीय घटनाएँ दिन प्रतिदिन बढती जा रही हैं? इस सवाल को समझना बेहद जरुरी है क्योंकि समस्या को पूरी तरह समझे बगैर उसका हल निकाल पाना संभव नहीं है। अक्सर स्त्री-विरोधी अपराधों के कारणों की जड़ तक न जाने का रवैया हमें तमाम लोगों में देखने को मिलता है। इन अपराधों के मूल को ना पकड़ पाने के कारण वे ऐसी घटनाओं को रोकने के हल के तौर पर कोई भी कारगर उपाय दे पाने में असमर्थ रहते हैं। वे इसी पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर ही कुछ कड़े क़ानून बनाने, दोषियों को बर्बर तरीके से मृत्युदण्ड देने आदि जैसे उपायों को ही इस समस्या के समाधान के रूप में देखते हैं। इस पूरी समस्या को समझने के लिए हमें इसके आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक आदि सभी कारणों की पड़ताल करनी होगी, तभी हम इस समस्या का सही हल निकालने में समर्थ हो पाएंगे।

वज़ीरपुर के गरम रोला मज़दूरों का ऐतिहासिक आन्दोलन

पूरी हड़ताल के दौरान मज़दूरों ने न सिर्फ हर दिन मालिकों, पुलिस, श्रम विभाग, गुंडों और नेताओं-मंत्रियों के चरित्र को समझा व इनके खिलाफ अपनी रणनीति बनायी बल्कि हड़ताल के मंच का प्रयोग मज़दूर वर्ग को संघर्षों के गौरवशाली इतिहास से परिचित कराने के लिए भी किया गया। पेरिस कम्यून की कहानी, अक्टूबर क्रान्ति, स्त्री मज़दूरों की भूमिका से लेकर छत्तीसगढ़ के मज़दूर आन्दोलन व ट्रेड यूनियन के जनवादी तरीकों पर समय-समय पर बिगुल मज़दूर दस्ता, नौजवान भारत सभा, स्त्री मज़दूर संगठन के कार्यकर्ताओं ने बात रखी। हड़ताल के प्रत्येक दिन मंच का संचालन कर रहे बाबूराम व सनी ने गरम रोला मज़दूर एकता समिति के सदस्यों व बिगुल मज़दूर दस्ता के सदस्यों को आन्दोलन व मज़दूर वर्ग के इतिहास पर बात रखने के लिए आमंत्रित किया।

कारपोरेट पूँजीवादी मीडिया का वर्चस्व और क्रान्तिकारी वैकल्पिक मीडिया की चुनौतियाँ

21वीं सदी की क्रान्तियों के एजेण्डे पर संस्कृति का प्रश्न काफ़ी ऊपर आ गया है। क्योंकि आज के पूँजीपति वर्ग ने संस्कृति और मीडिया का अपने वर्ग शासन के लिए वर्चस्व निर्मित करने के लिए ज़बरदस्त इस्तेमाल किया है। हमें उस वर्चस्व को चुनौती देनी होगी। और इसके लिए एक नये क्रान्तिकारी पुनर्जागरण और प्रबोधन की ज़रूरत है। और ऐसे नये क्रान्तिकारी पुनर्जागरण और प्रबोधन के लिए निश्चित तौर पर हमें ऐसा क्रान्तिकारी वैकल्पिक मीडिया चाहिए!

सोशल नेटवर्किंग का विस्तार

मध्यवर्ग से आने वाले 50 फ़ीसदी सोशल नेटवर्किंग यूज़र 24 साल से कम उम्र के हैं और सामान्य रूप से इनकी राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक जानकारी का स्रोत सोशल नेटवर्किग या टीवी है। यह वर्ग बिना कोई ख़ास सोचने का प्रयास किये सभी सूचनाओं को कचरा-पेटी की तरह ग्रहण कर लेता है। जो काम किताबों और संजीदा लेखों के माध्यम से होना चाहिए उसकी जगह इन साइटों पर एक-दो लाइनों की टिप्पणियों ने ले ली है, जोकि आजकल की नयी ‘जेन-जी’ (नवयुवा) पीढ़ी के “ज्ञान” और सूचनाओं का स्रोत माना जा रहा है। एक या दो लाइनों की टिप्पणियों से कोई व्यक्ति अपने व्यावहारिक अनुभव और वर्गीय विश्व-दृष्टि के अनुरूप अनुभवसंगत रूप से सहमत या असहमत तो हो सकता है, लेकिन अपने विचारों का कोई विश्लेषण प्रस्तुत नहीं कर सकता। साथ ही इन छोटी-छोटी टिप्पणियों के माध्यम से किसी को सोचने के लिए मजबूर भी नहीं किया जा सकता, न ही आलोचनात्मक विवेक पैदा किया जा सकता है। पूँजीवादी मीडिया द्वारा किया जाने वाला तथ्यों का चुनाव और सूचनाओं का प्रस्तुतीकरण भी पूँजीवादी वर्ग हित से मुक्त नहीं हो सकता, इसलिए ज़्यादातर सूचनाएँ भी समाज के यथार्थ को सही ढंग से प्रस्तुत नहीं करतीं। ऐसे में निश्चित है कि सोशल नेटवर्किंग पर मौजूद कई समूहों से आम लोगों को जो सूचनाएँ मिलती हैं, वे समाज को देखने के उनके छिछले और अवैज्ञानिक नज़रिये का निर्माण करने में एक अहम भूमिका निभा रही हैं।

पीट सीगर (1919-2014) – जनता की आवाज़ का एक बेमिसाल नुमाइन्दा

सीगर 1990 के दशक में भी अपनी काँपती आवाज़ में जनसभाओं और आन्दोलनों में गाते रहे। उनकी आवाज़ में एक ऐसी ईमानदारी, जीवन के प्रति भरोसा और प्यार, इंसानियत के प्रति विश्वास और साथीपन झलकता था कि लगभग हमेशा ही समूची भीड़ उनके साथ गाने लगती थी। 2000 के दशक में भी वयोवृद्ध होने के बाद भी उन्होंने अपनी सांगीतिक सक्रियता को छोड़ा नहीं। यहाँ तक कि उन्होंने ‘ऑक्युपाई’ आन्दोलन में भी गाया।

पूँजीवादी विज्ञापन जगत का सन्देश: ‘ख़रीदो और खुश रहो!’

एक सांस्कृतिक उत्पाद के तौर पर भी विज्ञापनों का असर लम्बे समय तक रहता है। क्योंकि लगातार दुहराव के ज़रिये ये लोगों के मस्तिष्क पर लगातार प्रभाव छोड़ते रहते हैं। हमें पता भी नहीं चलता कि हम कब विज्ञापनों में इस्तेमाल किये जाने वाले जिंगल गुनगुनाने लगते हैं या फिर उनके स्लोगन और टैगलाइन ख़ुद दोहराने लगते हैं। पूँजीवाद विज्ञापनों द्वारा माल अन्धभक्ति (कमोडिटी फ़ेटिशिज़्म) को एक नये मुक़ाम पर पहुँचा देता है। बार-बार लगातार विज्ञापनों के ज़रिये हमें यह बताने का प्रयास किया जाता है कि यदि हमारे पास फलाना सामान नहीं है तो हम ज़िन्दगी में कितना कुछ ‘मिस’ कर रहे हैं। हमें बार-बार लगातार यह बताया जाता है कि सुखी-सन्तुष्ट जीवन का एकमात्र रास्ता बाज़ार के ज़रिये वस्तुओं का उपभोग है। केवल माल और सामान ही हमें खुशी और सामाजिक रुतबा प्रदान कर सकते हैं। बिना किसी अपवाद के हर विज्ञापन का यही स्पष्ट सन्देश होता है – चाहे वह विज्ञापन किसी कार कम्पनी का हो या किसी बीमा कम्पनी का, किसी सौन्दर्य प्रसाधन के ब्राण्ड का हो या फिर किसी शराब या मोबाइल फ़ोन की कम्पनी का – यही सन्देश बार-बार रेखांकित किया जाता है। सामानों, वस्तुओं, मालों को प्रसन्नता, स्वतन्त्रता और रुतबे का समतुल्य बना दिया जाता है।