बिरादराने वतन के नाम क़ब्र के किनारे से पैग़ाम
काकोरी ऐक्शन के शहीद अशफ़ाक़ उल्ला खाँ के यौमे-पैदाइश (22 अक्टूबर) पर उनका अन्तिम पैग़ाम
काकोरी ऐक्शन के शहीद अशफ़ाक़ उल्ला खाँ के यौमे-पैदाइश (22 अक्टूबर) पर उनका अन्तिम पैग़ाम
इतिहास का निर्माण जनता करती है। फ़ासिस्ट ताक़तें जनता की इतिहास-निर्मात्री शक्ति से डरती हैं। इसलिए वे न केवल इतिहास के निर्माण में जनता की भूमिका को छिपा देना चाहती हैं, बल्कि इतिहास का ऐसा विकृतिकरण करने की कोशिश करती हैं जिससे वह अपनी विचारधारा और राजनीति को सही ठहरा सकें। संघ परिवार हमेशा से ही इतिहास का ऐसा ही एक फ़ासीवादी कुपाठ प्रस्तुत करता रहा है। 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद के विध्वंस की घटना इस फ़ासीवादी मुहिम की एक प्रतीक घटना है।
भारत छोड़ो आन्दोलन की 79वीं बरसी : एक विश्लेषण वारुणी भारत छोड़ो आन्दोलन का पूरे स्वतन्त्रता संग्राम में एक अलग महत्व है। यह एक ऐतिहासिक जन आन्दोलन के रूप में…
सत्ता में आते ही सरकार ने तमाम शैक्षणिक और अकादमिक संस्थानों के उच्च पदों पर संघ के लोगों को भरना शुरू कर दिया था। 2014 में ही आरएसएस ने ‘भारतीय शिक्षा नीति आयोग’ बनाया जिसका मक़सद ही शिक्षा का भगवाकरण करना था। इसके बाद संस्थागत तरीके से स्कूली पाठ्यक्रमों की किताबों में साम्प्रदायिक सामग्री परोसकर और इतिहास के विकृतीकरण के ज़रिये हिन्दुत्ववादी फ़ासिस्टों द्वारा हमारे बच्चों में साम्प्रदायिक ज़हर भरने की कोशिश जारी है। ‘इण्डियन एक्सप्रेस’ की एक रिपोर्ट के अनुसार साल 2014 से 18 के बीच नेशनल काउंसिल ऑफ एजुकेशन रिसर्च एण्ड ट्रेनिंग (एनसीईआरटी) की स्कूली टेक्स्ट की 182 किताबों में से 1334 बदलाव किये जा चुके थे।
बेहद कठिन परिस्थिति में सम्पन्न अक्टूबर क्रान्ति के पहले प्रयोग ने मात्र चार दशकों में स्त्री मुक्ति की यात्रा में जो ऊँचाइयाँ तय की वह आगे भी एक आलोकित शिखर के समान चमकता रहेगा और आने वाली क्रान्तियों को भी दिशा दिखाता रहेगा. अक्टूबर क्रान्ति की शिक्षा हमें बताती है कि पूँजीवादी आर्थिक संरचना को नष्ट किये बिना और समाजवादी समाज की स्थापना के बिना स्त्रियों की वास्तविक मुक्ति हासिल नहीं की जा सकती. इसके लिये स्त्री मुक्ति आन्दोलन को सामाजिक मुक्ति से जोड़ना होगा और सामाजिक आन्दोलन के एजेंडे पर स्त्री प्रश्न को प्रमुखता से स्थान देना होगा.
भगवे फासीवादी इतिहास से इस कदर डरते हैं कि वे इतिहास को तोड़ -मरोड़ कर पाठ्यक्रमों में बदलाव करके दलितों और औरतों के संघर्षों के इतिहास को भी दबा देना चाहते हैं क्योंकि वह नहीं चाहते कि कोई भी अपने हकों-अधिकारों के प्रति जागरूक हो। यदि ऐसा हो गया तो इन फासीवादियों को कौन बचाएगा ?
अक्टूबर क्रान्ति न सिर्फ़ सर्वहारा वर्ग की क्रान्तियों का एक मील का पत्थर है बल्कि वो लाइट हाउस है जो आने वाले समय की क्रान्तियों का पथ प्रदर्शक रही। यह एक युगान्तरकारी क्रान्ति थी। सोवियत संघ में कृषि का सामूहिकीकरण, उद्योगों का राष्ट्रीयकरण और पूरे विश्व को फासीवाद के चंगुल से छुड़ाने का श्रेय अक्टूबर क्रान्ति को जाता है। लेकिन उसके बावजूद सोवियत संघ में पूँजीवादी पुनर्स्थापना होने के पीछे के कारणों की पड़ताल करना आज अक्टूबर क्रान्ति के नये संस्करणों की रचना करने के लिये बेहद ज़रूरी है। मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के मुताबिक़ उत्पादन सम्बन्ध के तीन पहलू होते हैं – पहला उत्पादन के साधनों का स्वामित्व, दूसरा वितरण की प्रक्रिया, तीसरा श्रम प्रक्रिया और उत्पादन प्रक्रिया। उत्पादन के साधनों के बदलाव में समाजवादी उत्पादन सम्बन्ध कोई स्थिर वस्तु नहीं है, वह एक संक्रमणकालिक व्यवस्था है जिसमेंं समाजवादी उत्पादन सम्बन्ध और पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्ध साथ-साथ मौजूद रहते हैं।
उपनिवेशों-अर्द्धउपनिवेशों, में चाहे आज़ादी जितनी भी कम हो और जनवाद जितना भी सीमित हो, आज राष्ट्रवाद का नारा इन देशों में भी अपनी प्रगतिशीलता और प्रासंगिता पूरी तरह से खो चुका है। अब यह केवल जनता में अन्धराष्ट्रवादी लहर उभारने का हथकण्डा मात्र है। आज राष्ट्रवाद का मतलब ही है अन्धराष्ट्रवाद। चाहे जितना भी द्रविड़ प्राणायाम कर लिया जाये, आज राष्ट्रवाद के किसी प्रगतिशील संस्करण का निर्माण सम्भव नहीं है, और न ही जनता को इसकी कोई ज़रूरत है।
16 नवम्बर 1915 को मात्र उन्नीस वर्ष की आयु में शहादत पाने वाले करतार सिंह सराभा का जन्म लुधियाना जिले के सराभा गाँव में सन् 1896 में हुआ था। माता–पिता का साया बचपन में ही इनके सिर से उठ जाने पर दादा जी ने इनका पालन–पोषण किया। लुधियाना से मैट्रिक पास करने के बाद ये इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के लिए सान फ्रांसिस्को, अमेरिका चले गये। 1907 के बाद से काफी भारतीय विशेषकर पंजाबी लोग अमेरिका और कनाडा में मज़दूरी के लिए जा कर बस चुके थे। इन सभी को वहाँ आये दिन ज़िल्लत और अपमान का सामना करना पड़ता था। अमेरिकी गोरे इन्हें काले और गन्दे लोग कहकर सम्बोधित करते थे। इनसे अपमानजनक सवाल–जवाब किए जाते और खिल्ली उड़ाई जाती थी कि 33 करोड़ भारतीय लोगों को 4-5 लाख गोरों ने गुलाम बना रखा है! जब इन भारतीयों से पूछा जाता कि तुम्हारा झण्डा कौन–सा है तो वे यूनियन जैक की तरफ इशारा करते, इस पर अमेरिकी गोरे ठहाका मारते हुए कहते कि ये तो अंग्रेज़ों का झण्डा है तुम्हारा कैसे हो गया। प्रवासी भारतीयों को अब खोयी हुई आज़ादी की क़ीमत समझ में आयी। देश को आज़ाद कराने की कसमसाहट पैदा हुई और मीटिंगों के दौर चले।
इतने बड़े पैमाने पर विस्थापन की वजह समझने के लिए हमें यह जानना होगा कि वे कौन से क्षेत्र हैं जहाँ से आज विस्थापन सबसे अधिक हो रहा है। आँकड़े इस बात की ताईद करते हैं कि हाल के वर्षों में जिन देशों में साम्राज्यवादी दख़ल बढ़ी है वो ही वे देश हैं जहाँ सबसे अधिक लोगों को विस्थापन का दंश झेलना पड़ रहा है, मसलन सीरिया, अफ़गानिस्तान, फ़िलिस्तीन, इराक व लीबिया। पिछले डेढ़ दशक में इन देशों में अमेरिका के नेतृत्व में साम्राज्यवादी दख़ल से पैदा हुई हिंसा और अराजकता ने इन इलाकों में रहने वाले लोगों के लिए अस्तित्व का संकट पैदा कर दिया है। इस हिंसा में भारी संख्या में जानमाल की तबाही हुई है और जो लोग बचे हैं वे भी सुरक्षित जीवन के लिए अपने रिहायशी इलाकों को छोड़ने पर मज़बूर कर दिये गये हैं। अमेरिका ने 2001 में अफ़गानिस्तान पर तथा 2003 में इराक़ पर हमला किया जिसकी वजह से इन दो देशों से लाखों लोग विस्थापित हुए जो आज भी पड़ोसी मुल्कों में शरणार्थी बनकर नारकीय जीवन बिताने को मज़बूर हैं। 2011 में मिस्र में होस्नी मुबारक की सत्ता के पतन के बाद सीरिया में स्वतःस्फूर्त तरीके से एक जनबग़ावत की शुरुआत हुई थी जिसका लाभ उठाकर अमेरिका ने सऊदी अरब की मदद से इस्लामिक स्टेट नामक सुन्नी इस्लामिक कट्टरपन्थी संगठन को वित्तीय एवं सैन्य प्रशिक्षण के ज़रिये मदद पहुँचाकर सीरिया के गृहयुद्ध को और भी ज़्यादा विनाशकारी बनाने में अपनी भूमिका निभायी जिसका नतीजा यह हुआ है कि 2011 के बाद से अकेले सीरिया से ही 1 करोड़ से भी अधिक लोग विस्थापित हो चुके हैं जिनमें से 40 लाख लोग तो वतन तक छोड़ चुके हैं।