ढोल की पोल
बजट 2016: जुमलों की बारिश
विराट
जब से भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने हर आदमी के खाते में 15 लाख रुपये ला देने के नरेन्द्र मोदी के वायदे को चुनावी जुमला करार दिया है तभी से सोशल मीडिया के कुछ हल्कों में जुमलेन्द्र मोदी नाम काफ़ी प्रचारित हुआ है। सिर्फ़ पूँजीपतियों की सेवा के वायदे को छोड़ दिया जाये तो भाजपा सरकार की तमाम बड़ी-बड़ी बातें जुमले ही साबित हुई हैं। इस बार के बजट में तो अरुण जेटली साहब ने जैसे जुमलों की बारिश ही कर दी है। हर बजट की तरह इस बार के बजट 2016-17 ने भी लोगों के भीतर कई उम्मीदें जगायीं हैं। बजट को सरसरी तौर पर देखकर किसी को भी यह भ्रम हो सकता है कि इस बार वाकई जनता के लिए बजट में काफ़ी कुछ है। ऐसी घोषणाओं के चलते कि वर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुनी कर दी जायेगी, कई बड़े अखबारों ने तो बजट के अगले ही दिन जनाब अरुण जेटली के सम्बन्ध में यह तक छाप दिया- ‘‘मि. राइट टर्न्स लेफ्ट’’। लेकिन जब गौर से देखते हैं कि आम जनता के लिए इस बजट में क्या है तो वही पुराना झुनझुना दिखाई पड़ता है। सामने आता है कि जनाब जेटली लेफ्ट तो कहाँ बल्कि ‘फर्दर राइट’ ही गये हैं। यह बजट ऐसे समय में आया है जब भारत समेत पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था गहरे संकट की ओर बढ़ती जा रही है। ऐसे समय पर जेटली ने देशी-विदेशी निवेशकों को लुभाने की काफ़ी कोशिशें की हैं। आम जनता के ऊपर इस बजट का क्या असर पड़ने वाला है उसे हम कुछ नुक्तों के ज़रिये समझने की कोशिश करेंगे। लेकिन पहले कुछ तथ्यों पर ध्यान देने की आवश्यकता है। वास्तव में हर साल बजट जनता को केवल सब्ज़बाग दिखाने की ही कोशिश करता है। सोचने वाली बात है कि हर वर्ष बजट पेश होने के अगले दिन सारे अख़बार बजट का गुणगान करने लगते हैं और बजट को एक रामबाण नुस्खे की तरह पेश करते हैं। कभी यह प्रचार किया जाता है कि बजट में किसानों के हितों को सर्वोपरि रखा गया है तो कभी यह कि मज़दूरों के हितों को। बजट से लोगों को ये उम्मीदें बंध जाती हैं कि सचमुच में ही एक साल के भीतर देश का कायापलट होने वाला है। हालाँकि वास्तव में ऐसा हो नहीं पाता। बजट की छानबीन से पूँजीवादी मीडिया के झूठों के तूमार भी हमारे सामने तार-तार हो जाते हैं।
एक महत्वपूर्ण तथ्य जिसको मीडिया हमेशा नजरअन्दाज कर देता है वह यह है कि बजट में जो राशि भिन्न-भिन्न मंत्रालयों और सेक्टरों को आवण्टित होती है उसका यह मतलब नहीं है कि वह उन्हें मिल गयी है अपितु वह केवल अनुमानित या घोषित राशि ही होती है। घोषित राशि और वास्तविक आवण्टित राशि के बीच का फर्क वित्तीय वर्ष के अन्त में ही पता चल पाता है। ऐसे में वित्तीय वर्ष के शुरू में बड़ी-बड़ी घोषणाएँ करना वित्त मन्त्री महोदय के लिए काफ़ी आसान होता है। बजट में कुल राजस्व की उगाही का भी अनुमान लगाया जाता है। विभिन्न प्रकार के कर सरकार के राजस्व का मुख्य हिस्सा होते हैं। बजट में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों तरह के करों का अनुमान लगाया जाता है। प्रत्यक्ष कर की उगाही पूँजीपतियों व अधिक आय वाले लोगों से की जाती है और अप्रत्यक्ष कर सभी पर एक समान लगता है। अप्रत्यक्ष कर चुकाने में सबसे बड़ा योगदान आम जनता का होता है। 2015-16 के बजट में जेटली ने 7 लाख 91 हजार करोड़ के प्रत्यक्ष कर वसूलने का लक्ष्य रखा था लेकिन 2015-16 के संशोधित अनुमानों (रिवाइज्ड एस्टिमेट्स) में यह केवल 7 लाख 44 हजार के आस-पास ही रह गया। वास्तविक आँकड़े जब सामने आयेंगे तो काफ़ी सम्भावना है कि यह और भी नीचे जाये। वहीं दूसरी ओर मालों व सेवाओं पर लगने वाले करों यानी कि अप्रत्यक्ष करों का अनुमानित लक्ष्य बजट 2015-16 में 6 लाख 48 हजार रखा गया था लेकिन संशोधित अनुमानों में यह बढ़कर 7 लाख 4 हजार करोड़ रुपये हो गया। वास्तविक आँकड़ों में यह राशि और अधिक ऊपर जायेगी। हम देख सकते हैं कि प्रत्यक्ष कर की वसूली में कमी आयी है और अप्रत्यक्ष करों से सरकार राजस्व की अधिक उगाही कर रही है। प्रत्यक्ष करों में लगभग 46,000 करोड़ रुपयों की कटौती और अप्रत्यक्ष करों में लगभग 55,000 करोड़ रुपयों की बढ़ोत्तरी सरकार की राजस्व नीति को भी बेपर्दा करती है। एक जनहितैषी बजट में प्रत्यक्ष करों से अधिक व अप्रत्यक्ष करों से कम राजस्व की वसूली होनी चाहिये। हालाँकि प्रत्यक्ष करों को भी पूँजीपति और धन्नासेठ आम जनता पर विभिन्न तरीकों से हस्तांतरित कर देते हैं। तथा इस रूप में बजट का लगभग 90 प्रतिशत से अधिक हिस्सा आम मेहनतकश आबादी की कमाई से आता है। कुल राजस्व में प्रत्यक्ष करों का गिरता अनुपात दिखाता है कि सरकार अमीरों को रियायत देने और आम जनता पर बोझ लादने की नीति पर चल रही है।
जेटली ने इस वर्ष के बजट को मुख्य तौर पर किसानों के हितों को सर्वोपरि रखने वाले बजट के रूप में पेश किया। जेटली ने घोषणा की कि किसानों की आय को सन 2022 तक दोगुना कर दिया जायेगा। इस काम को अंजाम देने के लिए कृषि बजट के हिस्से में 35,983 करोड़ रुपये आये हैं। यदि इस रकम की तुलना पिछले वित्तीय वर्ष के संशोधित अनुमानों (15,809 करोड़) से की जाये तो कोई भी कहेगा कि यह तो कृषि बजट में वाकई उल्लेखनीय वृद्धि है। लेकिन यहाँ पर जेटली साहब ने एक बारीक झोल दी है। 2015-16 के बजट में 15,000 करोड़ रुपये किसानों को अल्पकालिक कर्ज देने के लिए वित्त मंत्रालय ने पास रखे थे। अब यह श्रेणी गायब करके राशि को कृषि बजट की श्रेणी में डाल दिया गया है। वास्तविक कृषि बजट में बेहद मामूली सी ही वृद्धि हुई है। श्रेणियों के हेर-फेर की वजह से ही कृषि बजट इतना बड़ा नजर आ रहा है। बजट में कुछ ऐसी भी चीजें हैं जिनका कृषि क्षेत्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। मिसाल के तौर पर कृषि उत्पादों के बाजार में विदेशी निवेश को अनुमति और सरकारी खरीद का विकेन्द्रीकरण। कृषि उत्पादों के बाजार में 100 प्रतिशत विदेशी निवेश का किसानों पर क्या प्रभाव पड़ेगा इसका अन्दाज़ा लगाया जा सकता है। छोटे किसानों के तबाह होने की रफ़्तार इससे और अधिक तेज़ होगी। खरीद के विकेन्द्रीकरण के तहत अब खाद्य पदार्थों की सरकारी खरीद में भारतीय खाद्य निगम (एफ.सी.आई.) के साथ-साथ निजी संस्थान भी सरकार की ओर से इस मैदान में उतरेंगे। ऐसे में एक ओर सट्टेबाजी की सम्भावनाएँ और अधिक बढ़ जायेंगी वहीं दूसरी ओर ये निजी खिलाड़ी खाद्य पदार्थों के समूचे बाज़ार पर एक बार अपना वर्चस्व स्थापित कर लेने के बाद खाद्य पदार्थों के दामों और किसानों के भविष्य तक को और अधिक नियन्त्रण में रख सकेंगे। दूसरी बात, मनरेगा के लिए सरकार ने सिर्फ़ 38,500 करोड़ रुपयों की ही घोषणा की है। वित्त मंत्री ने बजट भाषण में कहा कि यह अब तक मनरेगा के लिए दी जाने वाली सबसे बड़ी रकम है। यह दावा कोरे झूठ के अलावा कुछ नहीं है। पिछले वर्षों में मनरेगा के लिए इससे अधिक के बजट की घोषणा हो चुकी है। यदि मुद्रास्फ़ीति को ध्यान में रखा जाये तो यह पिछले वर्षों के मुकाबले में ज़्यादा नहीं बल्कि कम ही साबित होता है। इतनी रकम से 100 दिनों के रोज़गार की गारण्टी देना असम्भव है। जहाँ सरकार कह रही है कि वह 200 दिनों तक रोज़गार देने का मंसूबा रखती है, वहीं इतने छोटे बजट में 40 दिनों का रोज़गार भी अगर वह दे पाती है तो बड़ी बात होगी। क्या 40 दिनों के रोजगार के ज़रिये ग्रामीण आबादी की आय दोगुनी हो सकती है? देखा जा सकता है कि आय को दोगुना करने का सरकार का दावा महज़ एक जुमला ही है।
एक दूसरी बड़ी घोषणा बजट में ग्रामीण क्षेत्रों में एलपीजी गैस के कनेक्शन पहुँचाने की हुई है। इस योजना को तीन सालों में पूरा करने का लक्ष्य रखा गया है और इस साल इसके लिए 2,000 करोड़ रुपये का बजट रखा गया है। जेटली जी को शायद इस बात का तो अनुमान होगा ही कि ग्रामीण इलाकों में बड़ी आबादी की आय बेहद कम है। जैसा कि हम देख चुके हैं कि ग्रामीण आबादी की आय बढ़ाना सरकार का एक जुमला ही है इसलिए यहाँ एलपीजी कनेक्शन का लाभ उठाने का मामला भी आय से जुड़ जाता है। ग्रामीण इलाकों के 74 प्रतिशत परिवारों की मासिक कमाई 5,000 रुपये से भी कम है। सवाल उठता है कि इतनी कम आय में एलपीजी का खर्चा कैसे उठाया जा सकता है। यदि इन इलाकों में गैस कनेक्शन देना है तो ज़ाहिर है कि इस गैस पर काफ़ी बड़ी सब्सिडी देनी पड़ेगी लेकिन 2,000 करोड़ की छोटी सी रकम से जेटली कैसे 4 करोड़ से अधिक घरों को सब्सिडी पर गैस दे पायेंगे इसका गणित वही जानें। इस तरह पहली बड़ी घोषणा की तरह दूसरी घोषणा भी एक जुमला ही साबित होती है।
तीसरी बड़ी घोषणा बजट में ग़रीबी रेखा से नीचे रह रहे परिवारों को 1 लाख रुपये की स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध कराने की की गयी है। असल में यह घोषणा भी एक जुमले से अधिक कुछ नहीं है। वास्तव में यह निजी कम्पनियों को मुनाफ़ा कमाने देने और राज्य का स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र से हाथ खींचने की ओर इशारा हो रहा है। निजी बीमा कम्पनियों को इससे बड़ा लाभ होगा। इस योजना के लिए 19,000 करोड़ रुपये का बजट रखा गया है। सवाल यह है कि इस रकम से 8-9 करोड़ परिवारों को किस तरह की स्वास्थ्य सुविधाएँ दी जा सकेंगी। मान लीजिए सरकार इस रकम में से 15,000 करोड़ रुपये भी सीधे-सीधे प्रीमियम के तौर पर बीमा कम्पनियों को दे देती है, तब भी प्रति परिवार के हिस्से में आने वाली स्वास्थ्य सेवा की रकम कितनी होगी? लगभग 1800 रुपये क्या इस रकम में वाकई सरकार किसी जटिल बीमारी का इलाज उपलब्ध करवा पायेगी? इस पर हमें शक है क्योंकि निजी बीमा कम्पनियाँ चाहे कुछ भी हो जाये नुकसान तो नहीं ही उठायेंगी। ये कम्पनियाँ मुनाफ़ा कमाने के लिए ही इस क्षेत्र में उतरेंगी। इस लिहाज से प्रति परिवार इलाज के लिए रुपयों की उपलब्धता 1800 से भी काफ़ी कम हो जायेगी। यदि सरकार को निजी कम्पनियों के मुनाफ़े की नहीं बल्कि आम जनता के स्वास्थ्य का ज़रा भी ध्यान होता तो वह 19,000 करोड़ रुपये की राशि को स्वास्थ्य सेवाओं का वास्तविक विकास करने में लगा सकती थी। तब एक सम्भावना थी कि इस रकम से वाकई स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में कुछ प्रगति होती। हालाँकि यह तब भी काफ़ी कम रकम होती। जहाँ भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का केवल 1 प्रतिशत ही वास्तविक स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करता है वहीं ब्रिटेन जैसे देश अपने जीडीपी का लगभग 8 प्रतिशत तक स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करते हैं। यही कारण है कि भारत में स्वास्थ्य सेवाओं की दुर्गति हो चुकी है। स्वास्थ्य सेवाओं में यदि सरकार को वाकई कोई मूलभूत सुधार करना है तो कम से कम जीडीपी का 3 प्रतिशत खर्च करना चाहिए। लेकिन सरकार ने पीपीपी के तहत 1 लाख रुपये के स्वास्थ्य बीमा का झुनझुना थमाकर ही काम चला लिया है। यह है मोदी सरकार की एक और खोखली घोषणा!
शिक्षा के क्षेत्र में भी इस बार जेटली ने बड़ा झटका दिया है। यूजीसी के बजट में सीधे-सीधे लगभग 55 प्रतिशत की कटौती कर दी गयी है। 2015-16 के बजट में यूजीसी के लिए 9,315 करोड़ रुपये रखे गये थे लेकिन इस वर्ष यह रकम आधे से भी कम करके मात्रा 4,287 करोड़ ही रखी गयी है। समझा जा सकता है कि इसका छात्रों व विश्वविद्यालयों पर क्या प्रभाव पड़ेगा। शिक्षा को बाज़ार के हवाले करने की दिशा में एक कदम और आगे बढ़ाते हुए सरकार ने कुछ गरम-गरम घोषणाओं के बीच महत्वपूर्ण चीजों को बारीकी से छुपाने का प्रयास किया है लेकिन छिपा नहीं पायी। मिसाल के तौर पर 62 नये नवोदय विद्यालय खोलने की घोषणा! शिक्षा के सम्पूर्ण ढाँचे को सुधारने की बजाय 62 ऐसे विद्यालय खोले जायेंगे जहाँ प्रति वर्ष प्रत्येक स्कूल में केवल 80 छात्रों का दाखिला होगा। यानी कि हर वर्ष लगभग 5,000 छात्रों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने की घोषणा देकर सरकार करोड़ों अन्य छात्रों के भविष्य को जो चूना लगाने वाली है उसको जेटली साहब ने काफ़ी सफ़ाई से छुपा लिया है। यूजीसी का फण्ड सरकार ने ‘उच्च शिक्षा वित्तपोषक एजेंसी’ (एच.ई.एफ.ए.) की ओर मोड़ा है। इस एजेंसी को 1,000 करोड़ रुपये की उद्घाटन राशि देकर खोला गया है। वरिष्ठ शिक्षाविद अनिल सदगोपाल इस बात की भारी आशंका जता रहे हैं कि यह एजेंसी पीपीपी के तहत सार्वजनिक धन को निजी संस्थानों के हाथों में सौंपने का काम करेगी। अन्य सार्वजनिक संस्थानों के बजट में कई सालों से लगातार कटौती की जा रही है जिसके फलस्वरूप बहुत सम्भव है कि इन संस्थानों की फ़ीसों में भारी बढ़ोत्तरी हो। अभी हाल ही में यह घोषणा हुई है कि आई.आई.टी. की फीस 90,000 जो पहले ही काफ़ी अधिक थी, से बढ़कर अब 2 लाख रुपये होने वाली है। ऐसे में सोचा जा सकता है कि आम छात्रों के लिये आई.आई.टी. जैसे संस्थानों के सपने मात्रा सपने ही रह जायेंगें।
बस जेटली एक ही बात पर सीना चौड़ा किये जा रहे हैं कि उन्होंने वित्तीय घाटा जीडीपी के 3-9 प्रतिशत पर सीमित रखा। लेकिन इसकी असलियत यदि सबके सामने आ जाये तो शायद जेटली को कहीं दुबककर बैठना पड़े। वित्तीय घाटा मोटे तौर पर राजस्व से होने वाली कुल प्राप्ति और कुल व्यय के बीच का अन्तर होता है। जब राजस्व की उगाही कम हो पाये और व्यय अधिक होता है तो इसे वित्तीय घाटा कहते हैं। यह बात सही है कि जेटली ने अपने पिछले वर्ष के वायदे के अनुरूप वित्तीय घाटे को 3-9 प्रतिशत पर सीमित रखा है, लेकिन किस कीमत पर? इसकी कीमत भी आम मेहनतकश जनता को ही चुकानी पड़ी है। वित्तीय घाटे को बढ़ने से रोकने के लिए दो रास्ते हैं – या तो राजस्व की वसूली व्यय से अधिक हो या फिर व्यय ही कम कर दिया जाये। जेटली ने दोनों ही रास्तों का बखूबी इस्तेमाल किया है। राजस्व की वसूली बढ़ाने के लिए जेटली ने पूँजीपतियों पर कोई दबाव नहीं बनाया है बल्कि सारा बोझ जनता पर ही डाला है। हम पहले ही देख चुके हैं कि किस तरह से राजस्व की उगाही के मामले में प्रत्यक्ष करों की भूमिका घटी है और अप्रत्यक्ष करों की भूमिका बढ़ी है। दूसरी ओर सार्वजनिक व्यय में भी लगातार कटौतियाँ की जाती रही हैं। यानी कि जेटली जिस बात पर सीना फुला रहे हैं वह है जनता पर बोझ लादकर वित्तीय घाटे को स्थिर रखना। वैश्विक पैमाने पर कच्चे तेल की गिरी हुई कीमतों का इस सन्दर्भ में विशेष योगदान रहा। पिछले वर्ष के बजट में तेल पर लगने वाले उत्पाद शुल्क से सरकार को 1,86,787 करोड़ की आय होने का अनुमान था। लेकिन कच्चे तेल की कीमतें गिरने पर सरकार ने उसपर उत्पाद शुल्क बढ़ा दिया और इससे सरकार को 2,63,172 करोड़ रुपये की आय हुई। यही वजह थी कि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर तेल की कीमतों के औंधे मुँह गिरने पर भी आम लोगों को कोई राहत नहीं मिल सकी। वित्तीय घाटे को स्थिर रखने की जीतोड़ कोशिश करने के पीछे एक मुख्य कारण वैश्विक मन्दी है। मन्दी के दौर में विश्वभर के पूँजीपति कहीं भी निवेश करने में घबरा रहे हैं। वे किसी अस्थिर अर्थव्यवस्था में निवेश करने का जोखिम तो कतई नहीं उठाना चाहते। यही वजह है कि जेटली वित्तीय घाटे को स्थिर दिखाने के ज़रिये विश्व भर के पूँजीपतियों को यह यकीन दिलाना चाहते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था स्थिर है। हालाँकि यह बात अलग है कि जेटली जी अभी तक उन्हें बरगलाने में नाकामयाब रहे हैं। मोदी का मेक इन इण्डिया इस तरह से फ़ेल हुआ है जिस तरह कोई बड़ा व बहुचर्चित सेटेलाइट अपने पहले ही मिशन में फ़ेल हो जाता है। बजट में जनता को लूटने के लिये ई.पी.एफ. पर कर लगाने की भी घोषणा की गयी थी जिसको जनदबाव के चलते सरकार को वापस लेना पड़ा। ई.पी.एफ. पर कर लगाना मोदी सरकार की एक और जनविरोधी नीति थी। जेटली उस फण्ड पर कर लगाने की फ़िराक में थे जिसपर पहले ही एक बार कर लग चुका है।
किसी भी महत्वपूर्ण सार्वजनिक क्षेत्र में सरकार व्यय करने से बच रही है और यहाँ तक कि तय व्यय में भी कटौती करती रही है। ऐसे में जनता के हिस्से में बजट से कुछ खास नहीं आ पाता। तो फिर मिलता किसको है? चिदम्बरम की तर्ज पर ही, बल्कि कहें कि उनसे कहीं ज़्यादा बढ़-चढ़कर जेटली ने पूँजीपतियों की सेवा में खुद को प्रस्तुत किया है। पूँजीपतियों को कुल मिलाकर लगभग 5 लाख 51 हजार करोड़ रुपये की कर्ज माफ़ी व अन्य छूटें दी गयी हैं। पिछले वर्ष यह रकम 5 लाख करोड़ के आस-पास था। यदि इसकी तुलना हम जनता को दी जाने वाली सब्सिडी से करें तो पता चलता है कि यह बेहद कम है। कांग्रेस और भाजपा दोनों के राज में पूँजीपतियों को दी जाने वाली रियायतों में लगातार बढ़ोत्तरी हुई है जबकि जनता को दी जाने वाली सब्सिडी लगातार कम होती जा रही है। 2005-06 से लेकर अब तक कुल मिलाकर 42,08,347 करोड़ रुपये पूँजीपतियों को रियायतों के रूप में दिये जा चुके हैं। इस वर्ष यदि सब्सिडी की बात करें तो हम पाते हैं कि यह केवल 2-5 लाख करोड़ ही रखी गयी है, यानी कि पूँजीपतियों को दी जाने वाली रियायतों के आधे से भी कम। 2012 में जहाँ सब्सिडी कुल व्यय का 18-23 प्रतिशत थी वहीं इस वर्ष यह 13 प्रतिशत से भी नीचे चली गयी है। ऊपर से तुर्रा यह कि पूँजीपतियों को मिलने वाली छूटों को रियायत या छूट नहीं कहा जाता बल्कि उसे प्रोत्साहन (इंसेण्टिव) कहा जाता है। इस वर्ष तो सरकार ने इसके चरित्र को छुपाने के लिए शब्दावली में भी हेर-फेर किया है। पहले इन छूटों का ब्यौरा देने के लिए सरकार ‘स्टेटमेण्ट ऑफ़ रिवेन्यू फॉरगॉन’ जारी करती थी। फॉरगॉन यानी जो राजस्व वसूल किया जाना था लेकिन नहीं किया गया, मतलब छोड़ दिया गया। इस शब्दावली से एक हद तक साफ़ पता चल जाता था कि सरकार पूँजीपतियों की ताबेदारी में क्या गुल खिला रही है। लेकिन इस वर्ष यह शब्दावली भी बदल दी गयी है और अब इसे ‘स्टेटमेण्ट ऑफ़ रिवेन्यू इम्पैक्ट ऑफ़ टैक्स इंसेण्टिव्स अण्डर द सेण्ट्रल टैक्स सिस्टम’ कर दिया गया है। रिवेन्यू फॉरगॉन के स्थान पर रिवेन्यू इम्पैक्ट चिपकाकर सरकार इस महाघोटाले को छुपाना चाहती है। यह एक महाघोटाला ही है, एक कानूनन मान्यता प्राप्त महाघोटाला! जहाँ हर वर्ष लाखों करोड़ रुपयों की छूटें कॉरपोरेट जगत को दी जाती हैं।
जब हम इन छूटों की तुलना शिक्षा, रोज़गार, स्वास्थ्य, महिला व बाल विकास, कृषि विकास आदि पर किये जाने वाले सार्वजनिक व्यय से करते हैं तो पाते हैं कि आखिर बजट में सरकार के पास किसके लिए पैसा है और किसके लिए नहीं? दरअसल यह बजट भी कॉरपोरेट जगत की सेवा में खुद को प्रस्तुत करने के लिए ही बनाया गया है। इससे आम मेहनतकश आबादी को जुमलों व खोखली घोषणाओं के अलावा ज़्यादा कुछ नहीं मिलने वाला।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मार्च-अप्रैल 2016
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