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बजट 2016: जुमलों की बारिश

एक महत्वपूर्ण तथ्य जिसको मीडिया हमेशा नजरअन्दाज कर देता है वह यह है कि बजट में जो राशि भिन्न-भिन्न मंत्रालयों और सेक्टरों को आवण्टित होती है उसका यह मतलब नहीं है कि वह उन्हें मिल गयी है अपितु वह केवल अनुमानित या घोषित राशि ही होती है। घोषित राशि और वास्तविक आवण्टित राशि के बीच का फर्क वित्तीय वर्ष के अन्त में ही पता चल पाता है। ऐसे में वित्तीय वर्ष के शुरू में बड़ी-बड़ी घोषणाएँ करना वित्त मन्त्री महोदय के लिए काफ़ी आसान होता है।

उद्यमशीलता, पूँजी-निर्माण एवं बचत की आड़ में मेहनतकशों के श्रम की लूट की माँग!

ये सब कुछ बस यूँ ही इत्तेफाकन नहीं होता है। इसके कारण इस पूँजीवादी अर्थशास्त्र में ही निहित हैं। क्योंकि यहाँ उद्यमशीलता, बचत एवं पूँजी निर्माण का सम्बन्ध आम जनता से कतई नहीं होता कि वह अपनी क्षमताओं के आधार पर सामूहिक तौर पर जोखिम उठाकर समाज के विकास में कोई योगदान दे सके। यह मौका केवल इस व्यवस्था के पूँजीपतियों, दलालों एवं ठेकेदारों को ही दिया जाता है। आम मेहनतकश को इस बात के लिए मजबूर किया जाता है कि इन उद्यमी व्यक्तियों की उद्यमशीलता को बढ़ाने में सहयोग करें। उनकी बचतों एवं पूँजीनिर्माण में सहयोग करें। और यह सहयोग आम मेहनतकश जनता अपने हाड़-मांस को खेतों एवं फैक्ट्रियों में गलाकर करती है। यह पूँजी निर्माण एवं बचतें भी मेहनतकश वर्ग का भण्डारित श्रम ही है जिसे ये पूँजीपति वर्ग पूरी शोषणयुक्त उत्पादन व्यवस्था के दौरान पूँजी के रूप में इकठ्ठा कर लेता है। दोबारा फिर इसी चक्र को पूरा करने में इसे इस्तेमाल करता है। यह चक्र चलता रहता है एवं मेहनतकश वर्ग की ग़रीबी और दरिद्रता बढ़ती जाती है। दूसरी तरफ इन पूँजीपतियों की आय में लगातार वृद्धि होती जाती है। अर्थात ग़रीबी एवं अमीरी की खाई लगातार गहराती जाती है। जबकि पूँजीपतियों एवं उनके उच्च आय वाले लोगों पर सरकार द्वारा कम टैक्स लगाया जाता है।

बजट 2012-13 : आम जनता की जेबें झाड़कर पूँजीपतियों की तिजोरियाँ भरने का पूरा बन्दोबस्त

वित्तमन्त्री प्रणब मुखर्जी अपने पूर्ववर्ती पी. चिदम्बरम के अच्छे उत्तराधिकारी सिद्ध हो रहे हैं। पी. चिदम्बरम ने जितने व्यवस्थित तरीके से नवउदारवादी नीतियों को अर्थव्यवस्था में लागू किया था, प्रणब मुखर्जी ने उससे भी ज़्यादा निर्णायक तरीके से उन्हें जारी रखा है। वित्तीय वर्ष 2012-13 में वास्तव में कुछ भी नया नहीं किया गया है, सिवाय एक चीज़ के। इस बार सरकार ने नवउदारवादी लूट के साथ कुछ ‘मानवीय’ और ‘‍कल्याणकारी’ चेहरा दिखलाने का प्रयास छोड़ दिया है! उन तमाम योजनाओं और नीतियों पर इस बजट में आबण्टन को घटा दिया गया है जिसके आधार पर सरकार जनता के हितों की परवाह करने का दावा कर सकती थी। मिसाल के तौर पर, महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी योजना।

बजट 2011-2012 : पूँजीपतियों का, पूँजीपतियों के द्वारा, पूँजीपतियों के लिए

प्रणब मुखर्जी अब बजट पेश करने की कला में माहिर हो चुके हैं। चिदम्बरम सख़्ती से सरकार की नवउदारवादी नीतियाँ प्रस्तुत करते थे। फालतू कम बोलते थे। मुखर्जी वही सारी नीतियाँ लागू कर रहे हैं, लेकिन वे अपने बजट भाषण में फालतू बातें इतनी बोलते हैं कि असल मुद्दे उनके बीच में खो-से जाते हैं। शायद इसीलिए चिदम्बरम को गृहमन्त्री बना दिया गया! क्योंकि वहाँ आवश्यकता से अधिक स्पष्टवादिता ही ज़्यादा काम आती है! वित्तमन्त्री को तो फालूदेबाज़ी में निपुण होना चाहिए। इस मामले में बाबू मोशाय का तजुरबा ज़्यादा काम आ रहा है!

‘‘सक्षमकारी राज्य’’ का फण्डा यानी धनपतियों की चाँदी और जनता की बरबादी

इस बार के आर्थिक सर्वेक्षण में सरकार ने पहली बार एक ऐसा हिस्सा रखा था जो मौजूदा सरकार के आर्थिक दर्शन को खोलकर रख देता है। पहले के आर्थिक सर्वेक्षण अधिकांशत: आय–व्यय की गणनाओं और लाभ–घाटे के आकलन में ही ख़त्म हो जाया करते हैं। प्रणब मुखर्जी मौजूदा संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार के सबसे अनुभवी राजनीतिज्ञों में से एक हैं, बल्कि शायद सबसे अनुभवी राजनीतिज्ञ हैं। अपने लम्बे राजनीतिक जीवन और पूँजीवादी अर्थनियोजन की गहरी समझदारी के आधार पर अपनी टीम के साथ मिलकर उन्होंने आर्थिक सर्वेक्षण में कहा है कि सरकार का काम जनता की ज़रूरतों को पूरा करना नहीं होना चाहिए। इसकी उन्होंने काफ़ी आलोचना की है और कहा है कि ऐसी सरकार उद्यमिता और कर्मठता की राह में बाधा होती है। वास्तव में तो सरकार को एक “सक्षमकारी” भूमिका में होना चाहिए। उसका काम यह सुनिश्चित करना होना चाहिए कि लोग बाज़ार के खुले स्पेस में एक–दूसरे की ज़रूरतों को पूरा करें, एक–दूसरे से प्रतिस्पर्द्धा करें और बाज़ार की प्रणाली में हस्तक्षेप किये बगैर उसे सामाजिक–आर्थिक समतुलन करने दें! वित्त मन्त्री महोदय आगे फरमाते हैं कि जो राज्य जनता की आवश्यकताओं जैसे शिक्षा, चिकित्सा, रोज़गार, आवास, भोजन आपूर्ति आदि को पूरा करने का काम अपने हाथ में ले लेता है वह लोगों को “सक्षम” नहीं बनाता; प्रणब मुखर्जी की राय में ऐसी सरकार एक “सक्षमकारी” सरकार नहीं होती बल्कि “हस्तक्षेपकारी” सरकार होती है! हमें ऐसी सरकार से बचना चाहिए! वाह! क्या क्रान्तिकारी आर्थिक दर्शन पेश किया है वित्तमन्त्री महोदय ने! लेकिन अगर आप पिछले कुछ दशकों की विश्व बैंक व अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की आर्थिक रपटों का अध्‍ययन करें, तो आपको इस आर्थिक दर्शन की मौलिकता पर शक़ होने लगेगा। जिस शब्दावली और लच्छेदार भाषा में प्रणब मुखर्जी ने विश्व बैंक और अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा अनुशंसित नवउदारवादी नीतियों को लागू करने के इरादे को जताया है, वह कई लोगों को सतही तौर पर काफ़ी क्रान्तिकारी नज़र आ सकता है। लेकिन वास्तविकता क्या है, यह बजट 2010–2011 के विश्लेषण पर साफ़ ज़ाहिर हो जाता है।