अण्णा हज़ारे का भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान और मौजूदा व्यवस्था से जुड़े कुछ अहम सवाल
पहली किस्त
अभिनव सिन्हा
संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार का दूसरा कार्यकाल स्वातन्त्रयोत्तर भारत के इतिहास के सबसे बड़े घोटालों के लिए याद किया जायेगा: टू जी स्पेक्ट्रम घोटाला, कॉमनवेल्थ खेल घोटाला, आदर्श सोसायटी घोटाला—। फेहरिस्त लम्बी है। सैनिकों की विधवाओं के फ्लैट हथियाने, बुजुर्गों के पेंशन की रकम हड़पने और छोटे निवेशकों के निवेश में हेर-फेर से लेकर राडिया-टाटा टेप से उजागर कारपोरेट घोटाले द्वारा सरकारी ख़ज़ाने को अरबों का चूना लगाने तक, भारत के शासक वर्ग के हर धड़े ने हर किस्म के भ्रष्टाचार के हर रिकॉर्ड को ध्वस्त कर दिया। पूँजीवादी राजनीतिक दलों के नेताओं, नौकरशाहों और पूँजीपतियों द्वारा किया जाने वाला भ्रष्टाचार कोई नया मसला नहीं है। लेकिन वर्ष 2009 से 2011 तक की अवधि ने घोटालों के ज़बरदस्त आकार-प्रकार के चलते इसे देश की जनता के लिए एक बड़ा मुद्दा बना दिया। निश्चित रूप से, इसमें मीडिया की भी अहम भूमिका रही। अरबों-खरबों के घोटालों के अलावा विदेशों में जमा काले धन का मुद्दा भी जमकर उछला और यह बात सामने आयी कि विदेशों में भारत के करीब 1,400 अरब डॉलर जमा हैं, जो हवाला कारोबार समेत तमाम किस्म के अवैध रास्तों से विदेश पहुँचा है। कुल मिलाकर, इन सभी घोटालों और पर्दाफाशों ने देश के शासक वर्ग और उसकी चाकरी करने वाली सरकार और नौकरशाही को इस कदर नंगा कर दिया है कि उसके शरीर पर सूत का एक धागा भी नहीं बचा है। ऐसे में सरकार और विपक्षी दलों के बीच जो ‘तू नंगा-तू नंगा’ की चीख़-चीत्कार मची, उसने पूरी पूँजीवादी व्यवस्था के घिनौने, सड़ चुके और बदबू मारते चरित्र को और ज़्यादा उघाड़कर रख दिया।
जन्तर-मन्तर का भ्रष्टाचार-विरोधी शो, सॉरी, आन्दोलन!
इसी पूरे सन्दर्भ में अण्णा हज़ारे का भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान शुरू हुआ। वास्तव में, इस अभियान की नींव नवम्बर 2010 में दिल्ली में हुई भ्रष्टाचार-विरोधी रैली में पड़ी थी। इसके बाद 30 जनवरी 2011 को रामलीला मैदान से जन्तर-मन्तर तक एक रैली और हुई। इसी दौरान, अण्णा हज़ारे, अरविन्द केजरीवाल, किरण बेदी, स्वामी अग्निवेश और बाबा रामदेव जैसे तमाम लोग भ्रष्टाचार-विरोधी जन लोकपाल बिल का मसौदा तैयार करने के लिए एकत्र हुए। प्रशान्त भूषण को मैं अभी एक साँस में इस सूची में नहीं गिन रहा हूँ, जिसके कारण आगे जन लोकपाल बिल के मसौदे के बारे में प्रशान्त भूषण की टिप्पणियों की आलोचनात्मक विवेचना करते हुए मैं स्पष्ट करूँगा। इसके बाद, मार्च में अण्णा हज़ारे ने प्रधानमन्त्री को पत्र लिखकर भ्रष्टाचार के विरुद्ध त्वरित और प्रभावी कदम उठाने की माँग की और ऐसा न होने पर आमरण अनशन शुरू करने की चेतावनी दी। और इसके बाद शुरू हुआ जन्तर-मन्तर पर अण्णा हज़ारे का महा-शो! 5 अप्रैल से 9 अप्रैल तक हज़ारे का आमरण अनशन जारी रहा। माँग यह थी कि सरकार अपने लोकपाल बिल के मसौदे को रद्द कर उस जन लोकपाल बिल के मसौदे को ही अन्तिम रूप दे दे, जो अण्णा की “सिविल सोसायटी” मण्डली ने तैयार किया था। यहाँ एक बात का जिक्र कर देना उपयोगी होगा। सरकार अपने मसौदे को अभी अन्तिम रूप नहीं दे रही थी और राष्ट्रीय सलाहकार परिषद अपने सुझावों के साथ सरकार के पास जाने वाली थी। ग़ौरतलब है कि इस राष्ट्रीय सलाहकार परिषद में “सिविल सोसायटी” की एक दूसरी मण्डली बैठी हुई थी, जिसमें ज्याँ द्रेज़, हर्ष मन्दर और अरुणा रॉय जैसे दिग्गज खिलाड़ी थे! लेकिन, ठीक उसके पहले “सिविल सोसायटी” की अण्णा मण्डली ने अपना आन्दोलन शुरू करके सारी ‘लाइमलाइट’ छीन ली! अरुणा रॉय तो इस पर ख़ासी नाराज़ थीं। हर्ष मन्दर ने भी अण्णा के ‘गै़र-जनतान्त्रिक’ तरीके की काफी बखिया उधेड़ी। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के अन्य सदस्यों की प्रतिक्रिया भी कमोबेश ऐसी ही थी। खै़र, अण्णा के जन्तर-मन्तर तमाशे की शुरुआत के साथ ही देश के कई शहरों में पढ़े-लिखे मध्यवर्ग के लोग और “सभ्य” नागरिक और बुद्धिजीवी समर्थन में सड़कों पर उतर आये! पूरा पूँजीवादी मीडिया, जिसे हर वक़्त टीआरपी बढ़ाकर मुनाफा पीटने की चिन्ता रहती है, मौके के इस्तेमाल के लिए बदहवासी में कूद पड़ा। जन्तर-मन्तर पर ‘मेक शिफ्ट’ स्टूडियो बना लिये गये। कोई चैनल अण्णा को ‘आज का गाँधी’ बोल रहा था, तो कोई सीधा प्रसारण करते हुए ‘ग्राउण्ड ज़ीरो’ से ‘रिपोर्टिंग’ कर रहा था! जन्तर-मन्तर को फौरन ही भारत का तहरीर चौक घोषित कर दिया गया। और जब 9 अप्रैल को सरकार अण्णा की माँगों के समक्ष झुक गयी, तब तो मीडिया पागल ही हो गया! विश्व कप की जीत को अभी कुछ ही दिन हुए थे; मीडिया ने रिपोर्ट किया: ‘इण्डिया विंस अगेन! अण्णा ने अनशन तोड़ा!’ और जो वर्ग विश्व कप की विजय पर सड़कों पर कारों-मोटरसाइकिलों पर बियर की बोतलों के साथ हुड़दंग मचा रहा था, वही वर्ग हज़ारे के अनशन की विजय पर भी देशभक्ति के गाने बजाता हुआ, लगभग वैसे ही हुड़दंग मचा रहा था। यह सबकुछ देखकर भयंकर उबकाई आ रही थी। और रह-रहकर मार्क्स की वह उक्ति याद आ रही थी: ‘बुर्जुआ वर्ग का राष्ट्रवाद मण्डी में पैदा होता है।’ मीडिया इसे युवा भारत के उदय के रूप में पेश कर रहा था। वास्तव में, यह भी ख़र्च करने और मौज-मस्ती करने का एक अवसर था! खै़र, इस पूरे आन्दोलन के वर्ग चरित्र और सामाजिक आधारों का विश्लेषण हम बाद में करेंगे।
कांग्रेस-नीत सरकार का अण्णा के सामने “झुकना” वास्तव में झुकना था ही नहीं। इससे तो कांग्रेस सरकार को यह मौका मिला कि इस मुद्दे पर वह एक सोची-समझी और “संवेदनशील” दिखने वाली प्रतिक्रिया देकर जनता के बीच एक “सोचने वाली सरकार” की छवि को मज़बूत करे और यह दिखावा कर सके कि भ्रष्टाचार को लेकर वह गम्भीर है। भाजपा को अण्णा को अपना आदमी बताने और कांग्रेस पर हमला करने का अवसर मिल गया; अच्छा दृश्य पैदा हुआ था! भाजपा कह रही थी – ”तुम हमारे हो!” अण्णा कह रहे थे – “मैं तुम्हारा नहीं हूँ!” ख़ैर, विपक्ष की अन्य पार्टियाँ भी जल्दी ही अण्णा की तरफदारी में आ गयीं, यहाँ तक कि सीपीआई (एमएल) लिबरेशन भी! वैसे इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। सीपीआई (एमएल) वामपन्थी अवसरवाद और संकीर्णता के चरमोत्कर्ष का प्रतिनिधित्व करती है। वामपन्थी आन्दोलन के एक पुराने व्यक्ति ने एक बार मुझे बताया था, “अगर मजबूरी में किसी संशोधनवादी पर भरोसा करना पड़े, तो सबसे ज़्यादा सीपीआई वालों पर करो, वे शरीफ नागरिक होते हैं; उसके बाद सीपीएम वालों पर करो, वे चालाक कूटनीतिज्ञ होते हैं, लेकिन जितनी मदद का वायदा करते हैं, आमतौर पर उतना कर देते हैं; लेकिन एमएल वाले जो बोलें उसका विलोमार्थ निकालो और उसे ही सच मानो!” अण्णा के बाजे में संगत देने के लिए पंगत में बैठने दौड़े आये सीपीआई (एमएल) ने उस बुजुर्ग कॉमरेड की बात को शत-प्रतिशत सही साबित किया है! खै़र, अगर थोड़ा ग़ौर से देखें तो हम साफ तौर पर पायेंगे कि जल्द ही सरकार और भाजपा समेत विपक्ष की लगभग सभी पार्टियाँ (कुछ अपवादों को छोड़कर) अण्णा के पक्ष में बोलने लगीं! अब समझ में यह नहीं आ रहा था कि इस भ्रष्टाचार-विरोध का निशाना कौन था? सभी राजी थे कि भ्रष्टाचारियों के खि़लाफ एक मज़बूत जन लोकपाल अधिनियम पास होना चाहिए! इसके दो प्रमुख कारण थे। एक तो यह कि सभी पार्टियाँ जानती हैं कि किसी भी प्रकार का कोई कानून भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों पर वास्तव में लगाम नहीं कस सकता; और दूसरा कारण यह था कि इस आन्दोलन की टाइमिंग एकदम सटीक थी। पश्चिम बंगाल, असम, केरल, आन्ध्रप्रदेश और तमिलनाडु में विधानसभा चुनाव होने वाले थे और भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान और जन लोकपाल बिल के समर्थन का जुबानी जमाख़र्च करने का स्पष्ट चुनावी लाभ मिल सकता था। ऐसे में, यह स्थिति तो पैदा होनी ही थी। ऊपर से मीडिया ने, जो वास्तव में, कारपोरेट जगत के ही अधीन है और उन्हीं के हितों की सेवा करता है, भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान को ‘एक नयी क्रान्ति’, ‘नयी आज़ादी की लड़ाई’, ‘तहरीर चौक’ आदि बताकर जनता के लिए भ्रष्टाचार को ही सभी समस्याओं की जड़ बनाने के लिए हर सम्भव प्रयास किया।
कुल मिलाकर, भारत के शासक वर्गों ने एक बार फिर अपने ही विरोध का प्रारूप तैयार करने और फिर उसे कुशलतापूर्वक अपने वर्चस्व का हिस्सा बनाने में फिर से कामयाबी हासिल की। वास्तव में, हुस्नी मुबारक और बेन आबिदीन अली और अन्य अरब शासकों को भारत के शासक वर्ग से कुछ सीखना चाहिए! ज़रा ग़ौर कीजिये कि यहाँ क्या करतब किया गया है। पहले जमकर भ्रष्टाचार करो, खरबों के घोटाले करो, रिश्वतखोरी, कमीशनखोरी, सम्पत्ति कब्ज़ा और भाई-भतीजावाद की गन्ध मचा दो; और उसके बाद इस नग्नतापूर्ण भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनअसन्तोष का इस्तेमाल एक ऐसी स्थिति पैदा करने के लिए करो जिसमें शासक वर्ग भ्रष्टाचार के मुद्दे पर संवेदनशील और गम्भीर रुख़ अपनाता नज़र आये और इस प्रकार उसका वर्चस्व जनता के बीच और मज़बूत हो। मीडिया ने शासक वर्ग को एक संवेदनशील प्रतिक्रिया देते हुए दिखलाकर इस पूरे तमाशे का सही तरीके से उपसंहार करने में पूरी मदद की। मीडिया ने इस पूरे ‘शो’ को एक ‘नयी क्रान्ति’ बतलाया जो वास्तव में मौजूदा व्यवस्था के ही वर्चस्व को और गहरा बनाता है। जो कोई इस ‘नयी क्रान्ति’ की सम्भावनासम्पन्नता को लेकर सशंकित था, सवाल उठा रहा था, या आलोचना कर रहा था उसे सिरफिरा, बेवकूफ, नादान या षड्यन्त्रकारी घोषित कर दिया गया। यहाँ असहमति या विरोध के लिए कोई स्थान नहीं था। बशर्ते कि आप कपिल सिबल या अरुणा रॉय न हों!!! यानी, बस वह विरोध हानिकारक नहीं होना चाहिए, बल्कि वह भी ‘शो’ का ही एक हिस्सा होना चाहिए।
एक और बात ग़ौरतलब है। अण्णा हज़ारे जन्तर-मन्तर पर अनशन पर बैठने वाले पहले व्यक्ति नहीं थे। इसके पहले भी बहुत से लोगों ने जन्तर-मन्तर पर जायज़ माँगों को लेकर अनशन और प्रदर्शन किये हैं। लेकिन सरकार, पढ़े-लिखे खाते-पीते शहरी मध्यवर्ग की ऐसी हर्षातिरेकी प्रतिक्रिया और मीडिया का ऐसा उत्सव पहले तो कभी नहीं दिखा। इरोम शर्मिला मणिपुर में आदमखोर सशस्त्र सुरक्षा बल विशेषाधिकार कानून के खि़लाफ पिछले 10 वर्षों से भी अधिक समय से आमरण अनशन पर हैं, लेकिन सरकार उन पर कोई ध्यान नहीं देती और उनके जन्तर-मन्तर पर आने पर कोई शोर नहीं मचता। शहर के कुछ बुद्धिजीवी, कुछ छात्र और चन्देक पत्रकार पहुँचते हैं। और उसके बाद पुलिस उन्हें उठा ले जाती है और जबरन उन्हें जीवन-रक्षक द्रव दिये जाते हैं। सर्वोच्च न्यायालय और इसी “सिविल सोसायटी” के तमाम प्रतिनिधियों द्वारा इस दमनकारी कानून के खि़लाफ टिप्पणियों के बावजूद न सरकार ने इस पर कोई ध्यान दिया और न ही मीडिया ने। और न ही नव उदारवादी नीतियों का लाभप्राप्तकर्ता खाता-पीता शहरी मध्यवर्ग राष्ट्रभक्ति की भावना से लिथड़कर सड़कों पर निकला। एक और उदाहरण देखें। 125वें मई दिवस के अवसर पर हज़ारों मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन के तहत 260 श्रम कानूनों को लागू करवाने और नये श्रम कानूनों के निर्माण की माँग को लेकर जन्तर-मन्तर पर इकट्ठा हुए और उसी दिन अण्णा हज़ारे के 20-25 चेले भी जन्तर-मन्तर पर ‘मैं अण्णा हूँ’ की टोपी लगाये पहुँचे थे। लेकिन मीडिया को हज़ारों मज़दूरों का रेला नहीं दिखा, वे 25 भ्रष्टाचार-विरोधी सिपाही ज़रूर नज़र आ गये! स्पष्ट है कि मीडिया और सरकार की अण्णा के आन्दोलन पर जिस तरह की प्रतिक्रियाएँ हुईं उसके कई कारण थे, जिसमें भ्रष्टाचार के उन्मूलन की चिन्ता और ‘नयी क्रान्ति’ तो कम-से-कम कहीं नहीं ही थे!
अब कुछ अन्य सवाल जिनका जवाब मैं यहाँ नहीं दूँगा। कारण यह कि वे सवाल ही ग़लत हैं। जैसे कि अण्णा का इरादा, अण्णा की ईमानदारी, वग़ैरह। ऐसे मुद्दों पर बहस करना वैज्ञानिकों का काम नहीं होता। इस पर जितने लोग पक्ष में हो सकते हैं, उतने ही विपक्ष में। और वैसे भी इरादों और ईमान के सवाल की भूमिका इतिहास में निर्धारक नहीं होती। जो चीज़ निर्धारक होती है, वह होती है – राजनीति और विचारधारा; और अण्णा की विचारधारा और राजनीति पर हम आगे विस्तार से विचार करेंगे।
दूसरी चीज़ जिस पर मैं चर्चा नहीं करूँगा, वह है अण्णा से उन कामों की उम्मीद करना जो एक गाँधीवादी करता। अण्णा ने स्वयं भी जन्तर-मन्तर पर स्पष्ट कर दिया था कि आज गाँधी की ज़रूरत नहीं है, बल्कि शिवाजी की ज़रूरत है। मंच पर मौजूद रूपकों से लेकर वहाँ मौजूद अण्णा के चेलों के भजन, हवन, मन्त्रेच्चार और नारों तक से जो कुछ अभिव्यक्त हो रहा था, वह कुछ भी था लेकिन गाँधीवाद नहीं था। कुछ नारे नेताओं को गिद्धों को खिला देने की बात कर रहे थे, तो कुछ सभी पार्टियों को चोर बता रहे थे। मंच पर भारत के नक्शे के ऊपर एक सुदर्शन भारत माता थीं, और तमाम धार्मिक प्रतीकों की भरमार थी। इसलिए, अण्णा को गाँधीवादी मानकर हम कोई सवाल नहीं करेंगे। बल्कि हम यह मानकर अपने विश्लेषण को आगे बढ़ायेंगे कि अण्णा हज़ारे किसी भी कोण से गाँधीवादी नहीं हैं।
इससे पहले कि हम आगे बढ़ें, सबसे पहले कुछ सबसे बुनियादी सवालों के बारे में साफ हो लेना ज़रूरी है। मसलन, क्या मौजूदा बिल या कोई भी अन्य कानून भ्रष्टाचार का ख़ात्मा कर सकता है? अण्णा का जन लोकपाल बिल क्या है? भ्रष्टाचार क्या है? इसके कारण क्या हैं? इसके बाद हम अण्णा हज़ारे की विचारधारा और राजनीति के बारे में चर्चा कर सकते हैं और इस सन्दर्भ में हम अण्णा हज़ारे के ‘आदर्श’ गाँव रालेगाँव सिद्धी में उनके प्रयोग का आलोचनात्मक विवेचन करेंगे। लेकिन पहले चर्चा भ्रष्टाचार, भ्रष्टाचार-विरोधी कानून, जन लोकपाल बिल, अण्णा के आन्दोलन के वर्ग चरित्र और सामाजिक आधार और “सिविल सोसायटी” के हल्ले की।
भ्रष्टाचार: परिभाषा, अर्थ और निहितार्थ
चूँकि हमें यहाँ अण्णा हज़ारे के मौजूदा भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान के चरित्र, प्रभाविता और परिणाम को समझना है इसलिए बुनियादी सवालों से शुरू करना ही सही होगा। सबसे अहम सवाल है कि भ्रष्टाचार को परिभाषित कैसे किया जाये। हम अरुणा रॉय से गम्भीर वैचारिक और राजनीतिक मतभेद रखते हैं, लेकिन हाल ही में ‘फ्रण्टलाइन’ नामक अंग्रेज़ी पत्रिका को दिये अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने एक बात बिल्कुल सही कही है। रॉय कहती हैं कि भ्रष्टाचार दूर करने पर सबकी सहमति है लेकिन भ्रष्टाचार क्या है, यह प्रश्न उठते ही झगड़ा शुरू हो जाता है। ऐसे में, भ्रष्टाचार की सही वैज्ञानिक परिभाषा क्या हो? अर्थशास्त्र की दृष्टि से शुरू करते हैं! किसी समाज में जो भी कुल उत्पादन होता है वह समाज के अलग-अलग वर्गों में बँट जाता है। हम जब उत्पादन की बात करते हैं तो उसमें सभी वस्तुओं समेत सभी सेवाएँ भी शामिल हैं। यह किस अनुपात में समाज के अलग-अलग तबकों में बँटता है, यह इस बात से तय होता है कि समाज में उत्पादन, वितरण और मालिकाने के किस किस्म के सम्बन्ध प्रभावी हैं। आवश्यक उपभोग के बाद जो भी बेशी बचता है, उसे वही तबका हस्तगत करता है जिसके हाथ में राजनीतिक सत्ता होती है। अब भ्रष्टाचार के सवाल को लेते हैं। भ्रष्टाचार किसी समाज में इस कुल उत्पादन में कोई इज़ाफा नहीं करता है, जो हस्तगत किये जाने के लिए शासक तबकों के समक्ष उपलब्ध है। भ्रष्टाचार वास्तव में शासक वर्गों को पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा तय नियमों और “कानूनों” का उल्लंघन करके किसी दिये गये क्षेत्र या सेक्टर के उत्पादन के अधिशेष में अपना हिस्सा बढ़ाने और अपने बीच उसका वितरण करने का अवसर देता है। यानी, कुल उत्पादन में अपने द्वारा निचोड़े जाने वाले अधिशेष के अनुपात को उन तरीकों और प्रणालियों से बढ़ाना जिन्हें स्वयं पूँजीवादी संविधान और कानून-व्यवस्था “अनुचित” मानती है। यह है पूँजीवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के अनुसार भ्रष्टाचार की परिभाषा। यह पूरी प्रक्रिया रिश्वतखोरी, कमीशनखोरी, भाई-भतीजावाद, अनुचित ‘फेवर’ दिये जाने के रूप में सम्पन्न होती है और इसे अंजाम देने वाले होते हैं राजनेता, नौकरशाह और पूँजीपति वर्ग।
लेकिन इससे भी अहम एक सवाल पर ग़ौर करें। व्यवस्था यह अधिशेष पैदा ही किस प्रकार करती है? इसका हस्तगतीकरण और पुनर्वितरण किस प्रकार होता है? अगर इस दृष्टिकोण से सवाल को देखें, तो हम पाते हैं कि वास्तविक भ्रष्टाचार वह पूरी व्यवस्था ही है जिसके तहत उत्पादन और वितरण होता है और स्वामित्व के सम्बन्ध स्थापित हैं। सबसे पहले मैक्रो दृष्टि से इसे समझते हैं। आज से करीब तीन वर्ष पहले के एक आँकड़े के मुताबिक देश की ऊपर की दस फीसदी आबादी के पास देश की कुल परिसम्पत्ति का करीब 85 फीसदी है, जबकि नीचे की 60 प्रतिशत आबादी के पास महज़ 2 प्रतिशत है। अगर राष्ट्रीय आय में बँटवारे की बात करें तो नेशनल काउंसिल फॉर एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च के अनुसार 2009-10 में कुल राष्ट्रीय आय में नीचे की 80 फीसदी आबादी का हिस्सा आधे से भी कम है। जबकि ऊपर के 20 फीसदी अमीरों की आय कुल राष्ट्रीय आय के आधे से भी ज़्यादा है। हम सभी जानते हैं कि ये नीचे के 80 फीसदी लोग कौन हैं। यह वह आबादी है जो हर चीज़ बनाती और चलाती है, एक पिन से लेकर गगनचुम्बी इमारतों तक, अनाज से लेकर सभी सेवाओं तक। प्रत्यक्षतः अर्थव्यवस्था में समस्त मूल्य के सर्जक यही 80 फीसदी लोग हैं, लेकिन उन्हें इसका 10 फीसदी भी नहीं मिलता। यह कैसे होता है? वैसे तो यह एक लम्बी चर्चा का विषय है, लेकिन संक्षेप में एक माइक्रो दृष्टि डाल लेने से कुछ चीज़ें साफ हो जाती हैं। एक पूँजीपति का उदाहरण लीजिये। मान लीजिये कि वह एक घड़ी का कारख़ाना लगाता है। इस कारख़ाने में काम करने वाला मज़दूर अपने ज़रूरत लायक मूल्य का उत्पादन तो मात्र 3 या 4 घण्टे में ही कर लेता है, लेकिन वह (अगर कानूनन काम करे तो) 8 घण्टे तक काम करता है। लेकिन बदले में पूँजीपति उसे उसके द्वारा पैदा किये गये मूल्य के बराबर मज़दूरी नहीं देता। वह उसे सिर्फ इतना देता है कि वह अपनी मेहनत करने की ताकत का पुनरुत्पादन कर सके और अपने परिवार को जीने की खुराक दे सके। और यह सब तब होता है जब न्यूनतम मज़दूरी के नियम का पालन किया जाये! हम सब जानते हैं कि न्यूनतम मज़दूरी कुल मज़दूर आबादी के 93 प्रतिशत को नहीं मिलती और वह मूँगफलियों के मोल अपनी पूरी जिन्दगी का आधा वक़्त कोल्हू के बैल की तरह खटता है। लेकिन अभी एक सन्त ‘अभ्रष्टाचारी’ पूँजीवाद की कल्पना करते हैं, जिसमें सभी श्रम कानूनों को लागू किया जाता है। तब भी, यहाँ स्पष्टतः भ्रष्ट+आचार हो रहा है। यह आचार व्यवस्था सदाचार तो कतई नहीं है कि 80 फीसदी मेहनतकश दिनों-रात खटने के बाद हरेक वस्तु और सेवाएँ पैदा करें और उन्हें बदले में उसका जायज़ हिस्सा भी न मिले। वैसे तो सवाल महज़ यह जायज़ हिस्सा मिलने का नहीं है। सवाल तो यह है कि यह 80 फीसदी लोग ही उत्पादक हैं, यही समाज की बहुसंख्या हैं, यही आवश्यक सामग्रियों के प्रमुख उपभोक्ता हैं, यही खेतों-खलिहानों से लेकर कल-कारख़ानों तक को रोशन करते हैं और इसलिए उन्हें यह तय करने का भी अधिकार होना चाहिए कि क्या पैदा करना है, कैसे पैदा करना है और किनके लिए पैदा करना है और साथ ही समस्त संसाधनों पर उन्हीं का सामूहिक नियन्त्रण होना चाहिए। यही सबसे न्यायसंगत और उचित व्यवस्था होगी। कुछ लोग यह कह सकते हैं कि कारख़ाना पूँजीपति का है, पूँजी उसकी है, इसलिए मुनाफा कमाना, या अधिशेष को हस्तगत करना उसका जन्मसिद्ध अधिकार (मानो ‘दिव्य’ रूप से प्रदत्त!) है। आइये, अब इस दावे पर भी करीबी से विचार करें।
कारख़ाना भी पूँजी का ही एक स्वरूप है। पूँजीपति जो मुद्रा निवेश करता है, वह भी पूँजी है। पूँजी क्या है? पूँजी वास्तव में भण्डारित श्रम होती है। सभी वस्तुओं का उत्पादन श्रम से होता है; यह श्रम पूँजीपति नहीं करता। यह मज़दूर वर्ग ही करता है। जहाँ तक मुद्रा पूँजी का प्रश्न है, मुद्रा पूँजी वास्तव में उत्पादित वस्तु या सेवा का ही मौद्रिक प्रतिबिम्बन है। ऐसा न समझना बचकाना होगा। मेरे ख़याल से हर बच्चा बचपन में मुद्रा के सम्पर्क में आने और पहली बार अभाव या कमी से साबका पड़ने पर यह कल्पना ज़रूर करता है कि सरकार ज़्यादा नोट क्यों नहीं छाप देती? तब तक बच्चा यह नहीं समझता कि वास्तव में रिज़र्व बैंक अपनी सुनिश्चित मौद्रिक नीति के अनुसार ही मुद्रा छाप सकता है, जो कि देश के सकल घरेलू उत्पाद, कुल राष्ट्रीय आय, आदि के आधार पर निर्धारित होती है। देश में होने वाले कुल उत्पादन के आधार पर ही मुद्रा पूँजी अस्तित्वमान होती है। और यह कुल उत्पादन क्या है? यह वस्तुकृत श्रम (Objectified labour) है, जिसका मौद्रिक प्रतिबिम्बन मुद्रा होती है जो कि मूल्य के भण्डारण का कार्य करती है। इस रूप में पूँजी और कुछ नहीं बल्कि भण्डारित श्रम (Stored labour) है। और श्रम का एक ही स्रोत है – मज़दूर वर्ग। पूँजीपति जिस भी चीज़ का मालिक है वह वास्तव में श्रम की ही पैदावार है, वह मज़दूर वर्ग का हक है। लेकिन वर्ग समाज के पूरे इतिहास में मालिकाने के बदलते स्वरूप और उत्तराधिकार के वर्ग कानून की बदौलत उसे कारख़ाने और अन्य संसाधनों का मालिकाना प्राप्त होता है। यह उसकी निजी क्षमता के कारण उसे नहीं मिलता, उसके बाप के चलते उसे मिलता है! जहाँ तक प्रबन्धन की क्षमता और कुशलता का सवाल है, पूँजीवाद के प्रादुर्भाव के बाद के कुछ समय को छोड़ दिया जाये तो पूँजीपति वर्ग की सामाजिक रूप से उपयोगी भूमिका समाप्त हो चुकी है। उत्पादन से लेकर प्रबन्धन तक का काम अब उजरत पर खटने वाले मज़दूर करते हैं। आज का पूँजीपति कोई काम का जानकार या उस्ताद भी नहीं है जिसके प्रत्यक्ष पर्यवेक्षण में मज़दूर कुशल बनते हों और काम सीखते हों। तकनोलॉजी के उन्नत होने के साथ वैसे भी कुशलता कोई अहम सवाल नहीं रह गया है। अधिकांश पेशों के यन्त्रों और उपकरणों को चलाने में कुशल होना अब कुछ घण्टों का मामला होता है। और यह अल्पकालिक प्रशिक्षण भी पूँजीपति वर्ग नहीं कराता, बल्कि पहले से कुशल मज़दूर या पर्यवेक्षक ही कराते हैं। पिछले 200 और विशेष रूप से 150 वर्षों से पूँजीपति पूर्ण रूप से परजीवी वर्ग में तब्दील हो चुका है। यह एक ‘कूपन काटू’, शेयर बाज़ार में सट्टेबाज़ी और दलाली करने वाला, वित्त पूँजी की हेरा-फेरी पर मुनाफा पीटने वाला एक जोंक बन चुका है। इसका उत्पादन से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं रह गया है। किसी भी दृष्टि से देखें तो इसका उत्पादन के किसी हिस्से पर कोई जायज़ हक नहीं है। लेकिन पूँजीवादी संविधान के अनुसार, उसे पूँजी संचय करने, मुनाफा कमाने और बिना कोई भी काम किये ऐशो-आराम की जिन्दगी बिताने और साथ ही मज़दूर वर्ग को सबकुछ पैदा करने और बनाने के बावजूद बदहाली, दरिद्रता, भुखमरी, बीमारी, असुरक्षा और कुपोषण के गर्त में धकेल देने का हक कानूनी तौर पर प्राप्त है! क्यों? जवाब सरल और सीधा है! क्योंकि यह एक पूँजीवादी व्यवस्था और समाज है! विधायिका, कार्यकारिणी से लेकर न्यायपालिका तक राजसत्ता के सभी उपकरण और पूँजीवादी मीडिया पूँजीपति वर्ग के हितों के अनुरूप ही बने होते हैं और काम करते हैं। ऐसे में, निश्चित रूप से इनसे यही उम्मीद की जा सकती है कि ये मूल और मुख्य रूप से पूँजीपति वर्ग के हितों की हिफाज़त करें। हाँ, पूँजीवादी जनतन्त्र के विभ्रमों को बरकरार रखने के लिए आम जनता को भी कुछ हक ज़रूर दिये जाते हैं, जिनमें से अधिकांश का व्यावहारिक तौर पर कोई अर्थ नहीं होता।
मेरे विचार में यह स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि अगर पूँजीवादी व्यवस्था अपने द्वारा बनाये गये नियमों और कानूनों के अनुरूप भी काम करे तो भी वास्तव में यह स्वयं एक भ्रष्टाचार है। पूँजीवाद अपने आप में पूरी जनता के विरुद्ध एक जघन्य अपराध और भ्रष्टाचार है। भ्रष्टाचार की सही परिभाषा वही है जो पूँजीवादी व्यवस्था की परिभाषा है! 15 फीसदी धनिकों का 80 फीसदी आम मेहनतकश जनता पर “जनतान्त्रिक” शासन!! या, 15 फीसदी धनिकों की 80 फीसदी आम मेहनतकश जनता पर तानाशाही।
हम देख सकते हैं कि बिल्कुल “कानूनी” और “उचित” तरीके से काम करने पर भी पूँजीवादी व्यवस्था मेहनतकशों की लूट पर टिके भ्रष्टाचार का ही दूसरा नाम है। लेकिन यह कभी अपने बनाये कानून और उचित तरीकों से भी काम नहीं करती। पूँजीवादी व्यवस्था निजी लाभ की प्रेरक शक्ति पर टिकी होती है। इसका मूल होता है मुनाफा, लालच, लोभ। यही कारण है कि पूँजीवादी व्यवस्था की एक वि(कु!?)ख्यात चिन्तक आयन रैण्ड का नारा है – “इट्स गुड टू बी ग्रीडी!” (लालची होना अच्छा है)! एक मुनाफा-केन्द्रित व्यवस्था और समाज में शासक वर्ग कभी नियमबद्ध लूट और मुनाफे से सन्तुष्ट नहीं होता। इसका प्रमुख कारण यह है कि पूँजी का नियम ही यही है कि वह अधिक से अधिक मात्र में संचित हो, फूले, विस्तारित हो या फिर ख़त्म हो जाये। यही पूँजीवादी व्यवस्था का मूलमन्त्र है। इसी की एक अभिव्यक्ति पूँजीपति वर्ग का वर्ग चरित्र है। इसके सभी हिस्सों की मूल पहचान इनका असीमित लालच और लोभ है। लोगों की जान की कीमत पर भी मुनाफा और अधिकतम मुनाफा! इसलिए जल्दी ही कानूनी दायरों में सीमित लूट कानूनी दायरों की धज्जियाँ उड़ा देती है। यह एक विच्युति के रूप में नहीं बल्कि नियम के रूप में होता है। जो भ्रष्टाचार को पूँजीवादी व्यवस्था की विच्युति समझता है, वह न तो भ्रष्टाचार को ही समझता है न ही पूँजीवादी व्यवस्था को। पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर यह होना ही होता है। जब लूट पूँजीवाद के ही खेल के नियमों को तोड़ देती है और रिश्वतखोरी, कमीशनखोरी और भाई-भतीजावाद के रूप में नंगी होकर जनता के सामने उपस्थित हो जाती है, तब उसे ‘भ्रष्टाचार’ कहा जाने लगता है। यह परिघटना सिर्फ शासन के ऊपरी संस्तरों पर नहीं घटित होती है, हालाँकि यह वहाँ शुरू ज़रूर होती है, क्योंकि नियमों और कानूनों को तोड़ने-मरोड़ने के लिए सबसे बेहतर स्थिति में उच्च नेता, नौकरशाह और बड़े कारपोरेट होते हैं। लेकिन यह एक शीर्ष से नीचे की ओर बहने वाली धारा है। प्रशान्त भूषण ने एक साक्षात्कार में ठीक ही कहा है कि भ्रष्टाचार एक ‘टॉप-डाउन फेनॉमेनन’ है। पूँजीवादी समाज में लालच, लोभ और लूट की संस्कृति पूरे समाज के पोर-पोर में समा जाती है। ऊपर अरबों रुपये के वारे-न्यारे होते हैं तो पी.डब्ल्यू.डी. या म्यूनिसिपैलिटी के दफ्तर में बैठने वाला एक छोटा बाबू कुछ सौ या हज़ार से अपनी जेब गरम करता है। निजी मालिकाने और निजी मुनाफे पर टिकी व्यवस्था और समाज में आप अन्य किसी चीज़ की उम्मीद भी नहीं कर सकते हैं। लोभ और लालच नियम और कानून नहीं जानते हैं। हाँ, जब कानून और नियम को लुटेरे अपने नौनिहालों का पोतड़ा बनाने पर आमादा हो जाते हैं, तब आम जनता में इसके खि़लाफ आक्रोश पैदा होता है और इस आक्रोश को वास्तविक भ्रष्टाचार, यानी कि पूँजीवाद, तक पहुँचने से रोकने के लिए व्यवस्था अपनी सहज गति से कोई हज़ारे, बेदी, केजरीवाल, या अग्निवेश पैदा करती रहती है। ऐसा न किया जाये, तो व्यवस्था के वर्चस्व में दरारें पैदा होने लगेंगी और उसके पीछे रुका हुआ जन-असन्तोष का सैलाब उसे तहस-नहस कर देगा। यहाँ मैं ऐसे लोगों की नीयत पर बात नहीं कर रहा हूँ; मैं पहले ही बता आया हूँ कि नीयत के सवाल पर बहस ट्रेनों और बसों में लोग अपनी बोरियत दूर करने के लिए करते हैं। संजीदगी से बात की जाये तो किसी की भी राजनीति और विचारधारा पर बात की जा सकती है। यह एक सच है कि पूँजीवादी व्यवस्था अपनी नैसर्गिक गति से अपने विरोध को पैदा करती है। यही बात पूँजीवादी व्यवस्था को सामन्ती और दास व्यवस्था से अलग करती है। पूँजीवाद सहमति (कन्सेण्ट) लेकर राज करता है और इस सहमति का निर्माण चुनाव, मीडिया और सुधारवाद के ज़रिये पूँजीवाद स्वयं करता है। कोई भी व्यक्ति जो पूँजीवाद के ही मूल तर्क पर सवाल न खड़ा करते हुए केवल पूँजीवादी कानून द्वारा परिभाषित भ्रष्टाचार, यानी रिश्वतखोरी, कमीशनखोरी, या भाई-भतीजावाद पर सवाल खड़ा करता है तो वह जाने या अनजाने पूँजीवादी व्यवस्था के वर्चस्व को ही और गहरा और व्यापक बनाने वाली मशीनरी का एक अंग होता है, चाहे वह माननीय अण्णा हज़ारे ही क्यों न हों!
अब तक की बात का संक्षेप में समाहार कर लेते हैं। पहली बात यह है कि पूँजीवाद अपने आप में भ्रष्टाचार है। दूसरी बात यह कि यदि अपने बनाये नियमों और कानूनों के तहत काम करे तो भी (जो कि असम्भव है) पूँजीवादी व्यवस्था बहुसंख्यक मेहनतकश जनता की लूट के बूते चलती है। तीसरी बात, पूँजीवादी व्यवस्था और समाज का मूल तर्क और प्रेरक शक्ति निजी मुनाफा, लालच, लूट और लोभ होता है। ऐसी कोई पूँजीवादी व्यवस्था न तो आज तक हुई है और न होगी, जिसमें पूँजीवादी लूट, शोषण और उत्पीड़न उसके द्वारा ही बनाये गये नियमों और कानूनों की सीमा के भीतर रहे। मुनाफे की हवस कोई नियम और सीमा नहीं देखती। पूँजी का आन्तरिक तर्क कभी पूँजीपतियों को संयमी नहीं बनने देता। वह तबाह हो जायेगा, ख़त्म हो जायेगा अगर संयमी बनेगा। चौथी बात, लोभ, लालच और मुनाफे का यह पूरा तर्क समाज के निचले हिस्सों में भी प्रवाहित होता है और पूरी की पूरी नौकरशाही, सत्ता वर्ग, और मध्यवर्ग के सभी संस्तरों तक के मनोविज्ञान में पैठ जाता है। इसके अलावा, किसी और चीज़ की उम्मीद करना व्यर्थ है। कुछ लोग चन्देक ईमानदार नौकरशाहों आदि का उदाहरण दे सकते हैं, जो आज के युग में बाण्टेंग (जंगली बैल की एक दुर्लभ प्रजाति) के समान हैं! यह भी बहस करने योग्य या जवाब देने योग्य बात नहीं है। अपवादों पर बहस नहीं होती और अपवाद नियम को ही पुष्ट करते हैं। यह सामान्य रुझान नहीं है, और न ही हो सकता है। पाँचवीं बात, जब भी पूँजीवादी कानूनी परिभाषा वाला भ्रष्टाचार हद पार कर जाता है तो व्यवस्था अपने आन्तरिक नैसर्गिक तर्क से सहज तरीके से कोई अण्णा हज़ारे, मूपनार, खैरनार, शेषन, किरण बेदी या केजरीवाल पैदा करती है। इनकी नीयत कुछ भी हो यह व्यवस्था की पाचन-शक्ति बढ़ाने का काम करते हैं। ‘सरकारी सन्त’ विनोबा भावे, ‘सम्पूर्ण क्रान्तिधर्मा’ जयप्रकाश नारायण, ‘पर्यावरण योद्धा’ सुनीता नारायण और राजेन्द्र पचौरी और इस तरह के तमाम लोग यही करते आये हैं और ऐसे तमाम लोग यही करेंगे।
अब आगे बढ़ते हैं। क्या अण्णा हज़ारे का “आन्दोलन” पूँजीवादी कानून द्वारा परिभाषित प्रत्यक्ष भ्रष्टाचार पर भी कोई असर डाल सकता है? अण्णा हज़ारे का जन लोकपाल बिल क्या है? जन लोकपाल को चुनने वाले कौन होंगे? प्रस्तावित जन लोकपाल की शक्तियाँ क्या होंगी? अण्णा हज़ारे के “आन्दोलन” का वर्ग चरित्र और सामाजिक आधार क्या है?
प्रस्तावित जन लोकपाल बिल,
अण्णा हज़ारे का भ्रष्टाचार-विरोधी “आन्दोलन”, उसका वर्ग चरित्र और सामाजिक आधार:
क्या दूर होगा इनसे भ्रष्टाचार?
चलिये अभी पूँजीवाद के सवाल को थोड़ी देर के लिए छोड़ देते हैं, क्योंकि कुछ आवाज़ें मुझे सुनायी दे रही हैं जो कह रही हैं कि ‘आप लोग तो हर चीज़ में ही पूँजीवाद को लेते आते हैं! अब अण्णा रिश्वतखोरी, कमीशनखोरी आदि के रूप में सीधे तौर पर हो रहे भ्रष्टाचार के खि़लाफ आन्दोलन चला रहे हैं तो इसमें भी आपको दिक्कत है!’ मैं इस प्रतीकात्मक किन्तु वास्तविक आवाज़ का जवाब इस रूप में देकर आगे बढ़ना चाहूँगा: ‘हम पूँजीवाद को नहीं लाते, वह पहले से वहाँ बुनियादी कारण के तौर पर मौजूद है! बस देखने और न देखने का सवाल है। अण्णा के आन्दोलन से हमें कोई दिक्कत नहीं। हम बस इसका एक तार्किक विश्लेषण कर रहे हैं। अब इस विश्लेषण के नतीजे हमारी और आपकी इच्छा से स्वतन्त्र हैं! क्या करें?’ अब इस सवाल पर भी आ जाते हैं कि क्या अण्णा के आन्दोलन से भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों की सेहत पर कुछ विशेष प्रभाव पड़ने वाला है?
अण्णा हज़ारे का आन्दोलन किस तरह से शुरू हुआ – यह हम पहले ही देख आये हैं। इस आन्दोलन में मीडिया ने क्या-क्या नौटंकियाँ कीं – यह भी देख आये हैं। जन्तर-मन्तर पर जो भीड़ जुटी थी, उसके बारे में भी कुछ मोटे ऑब्ज़र्वेशन हमने रखे थे। मंच सज्जा से छनकर आती अण्णा हज़ारे की सोच पर हमने कुछ शब्द कहे थे, लेकिन उस पर हम आगे विस्तार में भी जायेंगे। फिलहाल, अण्णा हज़ारे के प्रस्तावित जन लोकपाल बिल के बारे में कुछ विचार।
अण्णा हज़ारे और उनकी “सिविल सोसायटी” मण्डली ने जो जन लोकपाल बिल का मसौदा तैयार किया है, स्वीकार कर लिये जाने पर वह राजसत्ता की सबसे शक्तिशाली संस्थाओं में से एक को जन्म देगा। जन लोकपाल के पास विधानपालिका, कार्यपालिका और एक हद तक न्यायपालिका की भी शक्तियाँ होंगी (जिस हद तक न्यायपालिका जाँच निकाय का भी काम करती है)। वह एक पुलिस अधिकारी के समान होगा, एक जाँच अधिकारी के समान होगा, जो भ्रष्टाचार-विरोधी कानून 1988 या किसी भी अन्य कानून के तहत भ्रष्टाचार के मामलों की जाँच कर सकता है। इसकी जाँच के दायरे में प्रधानमन्त्री से लेकर मुख्य न्यायाधीश तक, सभी आते हैं। अब देखें कि इसे नियुक्त कौन करता है।
हज़ारे और उनकी मण्डली ने जन लोकपाल के लिए जो नियुक्ति प्रणाली सुझायी है, वह निराली है। जन लोकपाल को नियुक्त करने के लिए एक कॉलेजियम होगा जिसमें भारतीय मूल के नोबेल पुरस्कार विजेता, मैगसेसे पुरस्कार विजेता, भारत रत्न विजेता, सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के वरिष्ठ न्यायाधीश, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष, लोकसभा और राज्यसभा के अध्यक्ष, और निवर्तमान लोकपाल समिति के सदस्य होंगे। यानी कि कॉलेजियम में लोकसभा अध्यक्ष के अतिरिक्त एक भी चुना हुआ व्यक्ति नहीं होगा। जन लोकपाल को नियुक्त करने वाले लोगों पर बुर्जुआ चुनाव के ज़रिये भी कोई नियन्त्रण या जवाबदेही नहीं होगी। इसके अलावा, वह कौन-सी चीज़ है जो भारतीय मूल के किसी नोबेल पुरस्कार विजेता, भारत रत्न विजेता या मैगसेसे पुरस्कार विजेता को भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए जवाबदेह राज्य अधिकारी की नियुक्ति की समिति में होने के योग्य बनाती है? कल्पना करें कि वी.एस. नॉयपॉल उस समिति में है, जोकि अपने प्रतिक्रियावादी विचारों की लिए कुख्यात है; और अन्य भारतीय मूल के नोबेल पुरस्कार विजेता क्या करेंगे इस समिति में? क्या उन्हें भ्रष्टाचार के उन रूपों के बारे में पता है जो हमारे देश में मौजूद हैं? क्या वे इस देश में इस पर लगाम लगाने की योग्यता रखने वाले व्यक्तियों के बारे में कुछ जानते हैं? या फिर भारत रत्न विजेता इसमें क्या करेंगे? मिसाल के तौर पर लता मंगेशकर क्या करेंगी ऐसी किसी समिति में? या कल को सचिन तेन्दुलकर को अगर भारत रत्न मिल जाता है तो वे भी इस समिति में होने की अर्हता को पूरा कर लेंगे! इसके अलावा जो भी लोग इस कॉलेजियम में होने के लिए प्रस्तावित हैं, वे इस दिल्ली के लोधी गार्डन में सुबह घूमने वाले कुलीन वर्ग के सदस्य हैं। विशेषाधिकार प्राप्त एक छोटा से अल्पशासक वर्ग इस कॉलेजियम में निर्णायक भूमिका में होगा। इसमें जनता कहीं भी नहीं है। यह ज्ञानी लोगों की एक परिषद होगी जो आगे भारत के पूँजीवादी जनतन्त्र में एक अहम निर्णायक भूमिका में होगी। यह ज्ञानी परिषद कुछ वैसी ही होगी जैसे कि ईरान में विलायत-ए-फकीह है, यानी, संरक्षक परिषद (गार्डियंस काउंसिल)! जिन लोगों ने यह मसौदा पढ़ा है उनमें से इसका समर्थन वही लोग कर रहे हैं जो सन्नी देयोल की फिल्में काफी पसन्द करते हैं, जिसमें भ्रष्टाचारियों और अपराधियों से ‘ऑन दि स्पॉट, इंस्टैण्ट’ न्याय कर देने वाला एक नायक होता है। इस आन्दोलन का सामाजिक आधार भी उन्हीं वर्गों में है जो किसी प्रभावी क्रान्तिकारी हस्तक्षेप की अनुपस्थिति या अभाव में फासीवादी सर्वसत्तावाद और ग़ैरजनवाद की ओर रुख़ करता है। अभी हम इस बात पर चर्चा नहीं कर रहे हैं कि भारतीय शासक वर्ग भी ऐसी कोई व्यवस्था स्वीकार नहीं करने जा रहा है। अभी हम सिर्फ इस बात पर चर्चा कर रहे हैं कि हज़ारे और उनकी मण्डली का प्रस्ताव क्या है, और अगर वह लागू होता है, तो क्या वह भ्रष्टाचार की सेहत पर कोई असर डालेगा।
स्पष्ट है कि जन लोकपाल के पास इतनी शक्तियाँ होने के बावजूद उसकी नियुक्ति में जनता या जनता की राय का कोई स्थान नहीं होगा। अण्णा हज़ारे की सोच भी यही है। जनता की राय को वह कुछ नहीं समझते। उनके अनुसार चुनाव के सिद्धान्त का ही कोई असर नहीं है और जनता बेवकूफ होती है! हज़ारे ने जन्तर-मन्तर पर स्पष्ट शब्दों में कहा कि इस देश में वोटर 100 रुपये, साड़ी या टीवी की ख़ातिर बिक जाता है। वह जनवाद के काबिल ही नहीं है। यानी, ऐसे में, जनता को संरक्षक, नायक और विजिलाण्टे (निगरानी करने वाला) चाहिए, जो ज्ञानी और नैतिकतावादी हो! बैटमैन या सुपरमैन जैसी कोई चीज़। ‘लीग ऑफ डिफेण्डर्स’ जैसी कोई परिषद! यह एक ख़ास सोच है, जिस पर हम आगे विस्तार से विचार करेंगे, जब हम अण्णा हज़ारे की पूरी सोच पर विचार करेंगे। जन लोकपाल की जो प्रस्तावित संस्था है वह कतई जनतान्त्रिक नहीं है।
इससे यह भ्रम न पैदा हो कि हम पूँजीवादी जनतन्त्र के हामी या समर्थक हैं। निश्चित तौर पर, नहीं! हम मानते हैं कि हम पूँजीवादी जनतन्त्र से बेहतर, न्यायसंगत और समानतामूलक व्यवस्था बना सकते हैं। लेकिन, पूँजीवादी जनतन्त्र का समर्थक न होने का अर्थ यह नहीं है कि हम तानाशाही, प्रबुद्ध निरंकुशतावादी शासन या पूँजीवादी सर्वसत्तावाद की तरफ जाना चाहते हैं। अण्णा हज़ारे का जन लोकपाल यही करेगा, अगर वह सच में बनता है तो! यह एक ऐसी संस्था होगी जिसके नियुक्ति, निर्माण से लेकर कार्य तक में जनता की कोई दख़ल नहीं होगी। यह पूरी तरह से ज्ञानी लोगों के गिरोह का काम होगा! यह शक्ति को और ज़्यादा संकेन्द्रित करेगा और पूँजीवादी शासन को और ज़्यादा निरंकुश बनायेगा। हमें बर्बर अनियमबद्ध पूँजीवादी लम्पटों की अनाधिकारिक निरंकुशता की जगह ज्ञानी प्रबुद्ध संरक्षणकारी आधिकारिक नियमबद्ध पूँजीवादी निरंकुशता नहीं चाहिए! हालाँकि, यह नियमबद्ध और प्रबुद्ध होने का वायदा कभी अमल में नहीं आ सकता। बस फर्क यह आयेगा कि अपने ज्ञानी और नैतिक होने के दावे के तहत पूँजीवादी राजसत्ता और ज़्यादा वर्चस्वकारी और निरंकुश हो जायेगी, जो जनता के प्रश्नों के दायरे से और ज़्यादा दूर होगी। जन लोकपाल जो सर्वश्रेष्ठ नतीजा दे सकता है, वह यही है। इसके अन्य कारणों पर भी एक निगाह डालते हैं।
एक ऐसे समाज में जिसमें पैसे की ताकत सबसे बड़ी ताकत है, जिसमें लालच, लोभ और मुनाफे का ही राज हो, वहाँ जन लोकपाल की अभ्रष्टीयता पर ऐसा दिव्य विश्वास क्यों? जन लोकपाल को नहीं ख़रीदा जा सकता, वह भ्रष्ट नहीं होगा, वह लालच-लोभ के वशीभूत नहीं होगा, या कारपोरेट घरानों की ताकत के आगे घुटने नहीं टेक देगा, इसकी क्या गारण्टी है? जब ऐसे जन लोकपाल को नियुक्त करने वाली समिति के प्रस्तावित सदस्य तक आज बिक रहे हैं, तो जन लोकपाल क्यों नहीं बिक सकता? सन्दर्भ आप समझ गये होंगे। न्यायपालिका में पोर-पोर तक में समाये भ्रष्टाचार के बारे में आज सभी जानते हैं। और यह जिला मजिस्ट्रेट के स्तर से लेकर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों तक में मौजूद है। एक पूँजीवादी समाज में जहाँ भौतिक प्रोत्साहन ही सबसे बड़ा प्रोत्साहन है, वहाँ हर चीज़ बिक सकती है। ऐसे में, जन लोकपाल के रूप में एक भस्मासुर ही पैदा होगा और कुछ नहीं। कुल मिलाकर, शासक वर्ग और उसके चाकर भ्रष्टाचार करने में और अधिक निपुण हो जायेंगे, उन पर कोई भी नियन्त्रण नहीं होगा। अब यह एक दीगर बात है कि भारत का पूँजीपति वर्ग ऐसा जन लोकपाल नहीं बनाने जा रहा है क्योंकि वह ऐसी संस्था की कोई ज़रूरत नहीं महसूस करता है। लोकपाल निश्चित रूप से बनेगा लेकिन वैसा नहीं जैसा हज़ारे और उनकी मण्डली चाहती है। और वे भी इस पर मानेंगे और समझौते करेंगे। मेरे ख़याल से हज़ारे को भी जन लोकपाल बिल पर विचार करने वाली समिति के विचार-विमर्श सत्रों में समझ आ जायेगा कि ऐसा लोकपाल कितने भी भारी-भरकम नैतिक दावे के साथ एण्ट्री मारे, लम्बी दूरी में वह सत्ता को अधिक निरंकुश और दमनकारी बनायेगा और ऐसे में प्रतिरोध की सम्भावनाएँ भी ज़्यादा होंगी। लोकपाल की संस्था का लक्ष्य कुल मिलाकर जनता के बीच पूँजीवाद के विभ्रमों को बढ़ाना और जिन्दा रखना है। और लोकपाल ऐसा ही बनाया जाना चाहिए जो इतना करे।
जन लोकपाल बिल का मसौदा तैयार करने वालों में से एक प्रसिद्ध वकील प्रशान्त भूषण ने एक पत्रिका को दिये साक्षात्कार में कहा है कि जन लोकपाल बन भी गया तो यह भ्रष्टाचार की समस्या का निदान नहीं है। यह भ्रष्टाचार के सिर्फ माँग-पक्ष पर केन्द्रित है, आपूर्ति-पक्ष के बारे में यह कुछ भी नहीं करता। यानी, जो ताकतें भ्रष्टाचार करवाती हैं उन पर यह बिल कुछ भी नहीं कहता। प्रशान्त भूषण के अनुसार भ्रष्टाचार के मूल कारक हैं कारपोरेट पूँजीपति घराने और उनके पक्ष में बनायी जा रही नवउदारवाद और भूमण्डलीकरण की नीतियाँ। स्पष्ट है कि अगर आप सिर्फ एक पक्ष पर केन्द्रित करेंगे, तो दूसरा पक्ष आपको उस पर भी कोई कदम उठाने नहीं देगा। मिसाल के तौर पर, अगर कोई कारपोरेट घराना भ्रष्टाचार में लिप्त सरकारी नौकरशाहों और नेताओं को घूस देकर अपना काम करवा रहा है और इस काम में कोई बाधा पैदा होती है, तो वह कारपोरेट उस बाधा को दूर करने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है, और जाता ही है। अब प्रशान्त भूषण से यह उम्मीद करना काफी हो जायेगा कि वे इस समस्या के अन्तिम समाधान के तौर पर पूँजीपति वर्ग की सत्ता के खि़लाफ मेहनतकशों के इन्कलाब की बात करने लगें। प्रशान्त भूषण इन तमाम सच्चाइयों के बयान के साथ उस “सिविल सोसायटी” का ही अंग हैं, जिसका काम पूँजीवाद को अधिक से अधिक “सिविल” (सभ्य) दिखलाना।
इस बिल को लेकर जो प्रतिरोध का भारी-भरकम कौतुक स्वाँग आयोजित किया गया उसका मकसद भी यही था। यूँ ही कारपोरेट मीडिया पागल नहीं हुआ जा रहा था; यूँ ही संप्रग सरकार ने इस अण्णा की आँधी पर ‘संवेदनशील प्रतिक्रिया’ तत्काल नहीं दे दी। इन सबके तात्कालिक, दूरगामी और वैविध्यपूर्ण राजनीतिक कारण थे।
आम ग़रीब जनता में इस अण्णा की आँधी का कोई ख़ास असर नहीं था। एक बहुत छोटा-सा वर्ग इस “आन्दोलन” पर ज़्यादा “आन्दोलित” था। इस आन्दोलन में कौन-कौन से लोग शामिल थे? इस आन्दोलन के समर्थन में कुछ शहरों में खाता-पीता, पढ़ा-लिखा शहरी मध्यवर्ग सड़कों पर उतरा। इनमें से अधिकांश लोग न तो सरकार के प्रस्तावित लोकपाल बिल के बारे में जानते थे और न ही अण्णा हज़ारे की मण्डली द्वारा प्रस्तावित जन लोकपाल बिल के बारे में। मज़ेदार बात तो यह है कि इस वर्ग के ही तमाम लोग इस समय बेकाबू भ्रष्टाचार के लाभप्राप्तकर्ता हैं! लेकिन अपना भ्रष्टाचार उन्हें कभी याद नहीं रहता है और वे भी बाबा रामदेव द्वारा विदेशी पैसा वापस लाने, हज़ारे द्वारा लोकपाल बनवाने, आदि की बात सुनते हैं तो “देशभक्ति” रस के स्राव से गीले हो जाते हैं! वास्तव में, इस रस के स्राव के लिए इस वर्ग के शरीर में एक ग्रन्थि होती है, जो हर ऐसे आवाहन पर स्राव करती रहती है! यह इस वर्ग के अपराध-बोध निवारण प्रणाली का एक अंग होती है। यह वर्ग शासक वर्गों के साथ नाभिनालबद्ध होता है, उनकी चाकरी करता है, और इसके लिए मुनाफे की लूट में अपना लाभांश प्राप्त करता है। जब उसकी आमदनी का स्रोत ही पूँजीवादी लूट से प्राप्त होने वाला लाभांश है, तो भला वह पूँजीवादी लूट पर सवाल कैसे उठाये? ऐसे में भ्रष्टाचार को मूल और एकमात्र समस्या के तौर पर पेश करना और ऐसा दिखलाना कि भ्रष्टाचार दूर हो जाये और हमारा देश फिर से (?!) ‘सोने की चिड़िया’ (??!!) बन जायेगा, इस वर्ग के लिए राहतकारी और सुविधाजनक है। यह एक प्रकार का ‘गिल्ट-किलर’ है। यही कारण है कि पढ़े-लिखे खाते-पीते शहरी मध्यवर्ग के लिए भ्रष्टाचार सबसे बड़ा मुद्दा होता है। यही वह वर्ग था जो अण्णा हज़ारे के अनशन की मंचित विजय पर कारों और बाइकों पर ‘रंग दे बसन्ती’, ‘लगान’ और ‘स्वदेस’ फिल्म के गाने बजाता और सिर पर ‘में अण्णा हूँ’ की टोपी लगाये लम्पटई कर रहा था!
जो कुलीन वर्ग इस आन्दोलन के समर्थन में था, वास्तव में वह स्वयं भ्रष्टाचार का लाभप्राप्तकर्ता है और इस आन्दोलन के समर्थन द्वारा वह अपने आपको अपराध-मुक्त करने का प्रयास कर रहा है।
दूसरा वर्ग जो अण्णा हज़ारे के समर्थन में आया वह पूँजीवाद के उदय के समय से ही समाज में अपनी स्थिति और अपनी वर्ग चेतना के अनुसार त्रिशंकु के समान अधर में उल्टा लटका हुआ है। यह वर्ग है भारत का निम्न मध्यवर्ग। यह वर्ग स्वयं छोटे-पैमाने पर होने वाले भ्रष्टाचार का भुक्तभोगी है। यह ख़ुद तंगी और सतत आर्थिक और सामाजिक असुरक्षा में जीता है। लेकिन इसकी जीवन स्थितियाँ इस कदर दर्मियानी होती हैं कि वह अपने आपको मज़दूर वर्ग के साथ भी नहीं पाता। वह बरबाद भी पूरी तरह से नहीं होता और आबाद भी पूरी तरह नहीं होता। उसके सिर पर बरबादी की एक तलवार लगातार लटकी रहती है। उसके सपने और आकांक्षाएँ उच्च वर्ग और उच्च मध्यवर्ग से जुड़े होते हैं। यह वर्ग भी अण्णा हज़ारे के भ्रष्टाचार-विरोधी “आन्दोलन” पर काफी आन्दोलित था। वास्तव में, अण्णा हज़ारे आन्दोलन किसी भी रूप में इस वर्ग के हितों की नुमाइन्दगी नहीं करता, लेकिन इस वर्ग की भावना उसके पक्ष में होती है। इसका कारण यह है कि इस वर्ग की ख़ासियत जो इसे अन्य वर्गों से अलग करती है, वह है इसका अपने हितों के प्रति ही अचेत होना। हर राजनीतिक मौके पर इस वर्ग द्वारा अपनायी गयी अवस्थिति इसकी कूपमण्डूकता और राजनीतिक तौर पर अचेत अवस्था को प्रदर्शित करती है। यह वर्ग अपने दुःखों-तकलीफों के लिए तमाम बाबाओं और सन्तों की शरण में घूमता रहता है। बेटे की नौकरी और शादी, बेटी के लिए उचित वर और अपने पेट की बीमारी के उपचार तक के लिए यह बालाजी, शिरडी और पुट्टूपार्थी तक शीश नवा आता है। इसके भीतर आध्यात्मिकता और पुनरुत्थानवाद की प्रवृत्ति कूट-कूटकर भरी होती है। यह किसी मसीहा के इन्तज़ार में रहता है। अण्णा हज़ारे और बाबा रामदेव जैसे लोगों द्वारा आध्यात्मिकता और पुनरुत्थानवाद की ज़मीन पर खड़े होकर किये गये राष्ट्र-निर्माण और भ्रष्टाचार-उन्मूलन के आवाहन इसको बहुत अपील करते हैं।
कुलीन उच्च वर्ग, शहरी खाते-पीते मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग के अलावा कोई भी वर्ग अण्णा की आँधी से रत्ती भर भी प्रभावित नहीं हुआ। कारण स्पष्ट है। स्वयं अण्णा हज़ारे भी मज़दूर वर्ग, ग़रीब किसान वर्ग और आम मेहनतकश आबादी की तकलीफों से प्रभावित नहीं हैं या उससे कोई गहरा सरोकार नहीं रखते हैं। आम मेहनतकश जनता के प्रति अण्णा ने अपनी राय जन्तर-मन्तर पर दे दी थी। उन्होंने कहा था कि यहाँ की जनता अपने वोट की अहमियत को नहीं समझती। जो लोग सौ रुपये, एक दारू की बोतल या साड़ी के लिए अपना वोट बेच सकते हैं, वे लोकतन्त्र के अधिकारी नहीं हैं। जनवादी संस्थाओं और प्रणाली के प्रति अण्णा हज़ारे के मन में गहरी अनास्था और घृणा है। यह एक वर्ग-विशेष की विचारधारा और राजनीति को अभिव्यक्त करता है जिसके बारे में हम अण्णा हज़ारे के इतिहास, विचारधारा और राजनीति पर विस्तार से चर्चा करते समय विचार करेंगे। लेकिन इतनी बात स्पष्ट है कि अण्णा हज़ारे के आन्दोलन का चरित्र कुलीन मध्यवर्गीय या टुटपुँजिया था और इसके सामाजिक आधार के तौर पर भी मध्यवर्ग के ही अलग-अलग संस्तर मौजूद थे। इसे आप हर कोण से निगमित कर सकते हैं। सरकारी प्रतिक्रिया से लेकर मीडिया की प्रतिक्रिया तक। इस पूरे आन्दोलन में आन्दोलन कहलाने योग्य कुछ भी नहीं था। यह टुटपुँजिया वर्ग के एक छोटे-से हिस्से की अनुत्पादक आध्यात्मिक खलबली थी, जिसे खलबली भी मीडिया ने बनाया। और मीडिया के ऐसा करने के पीछे व्यापक राजनीतिक और सामाजिक तात्कालिक चिन्ताएँ मौजूद थीं, जिन पर हम चर्चा कर आये हैं। हर टुटपुँजिया खलबली के समान इस टुटपुँजिया खलबली ने भी तरह-तरह का शोर (“नयी क्रान्ति”, “नयी आज़ादी की लड़ाई”, “अण्णा की आँधी”, “अण्णा आज का गाँधी”, वग़ैरह) मचाकर अन्त में शासक वर्गों की सेवा ही की है, उसके वर्चस्व को मज़बूत बनाया है, पूँजीवादी जनतन्त्र के विभ्रमों को मज़बूत किया है। इसमें रैडिकल, जनपक्षधर या क्रान्तिकारी कुछ भी नहीं है।
इससे पहले कि हम अण्णा हज़ारे की “परिघटना” के विचारधारात्मक और राजनीतिक पहलुओं पर विचार करने के लिए आगे बढ़ें, पहले इस “सिविल सोसायटी” के ढोल की भी पोल खोल दी जाये, तो उपयोगी होगा। “सिविल सोसायटी” का हिन्दी अनुवाद “सभ्य समाज” या “नागरिक समाज” किया गया है। मैं बहुत ही पाठवादी अप्रोच से इसे आपके सामने रखने की कोशिश करता हूँ!! जब भी “समाज” के पीछे आप ऐसा कोई विशेषण लगाते हैं तो उसके क्या निहितार्थ होते हैं? इसका अर्थ होता है कि आप एक विशिष्ट समाज की बात कर रहे हैं, पूरे समाज की नहीं। मिसाल के तौर पर, अगर एक नागरिक समाज है, तो कोई ऐसा समाज है जो अनागरिक है; जिसके बाशिन्दे नागरिक होने की शर्तों को पूरा नहीं करते। या जब आप “सभ्य समाज” की बात करते हैं तो इसमें अन्तर्निहित होता है कि एक समाज भी है जो असभ्य है, या जिसमें पर्याप्त सभ्य लोग नहीं बसते। अन्यथा, आप सिर्फ समाज या मानव समाज की बात करते। मार्क्स ने अपनी प्रसिद्ध ‘ग्यारह थीसीज़’ में लिखा था कि वह “सिविल सोसायटी” की बात नहीं करते, क्योंकि यह वास्तव में एक वर्ग विभाजित समाज है। बुर्जुआ समाज पूँजीवादी सिविल सोसायटी होता है, जिसमें सभ्य होने का पैमाना सम्पत्ति और उसके बूते अर्जित संस्कृति, शिक्षा और ज्ञान होता है। सामन्ती समाज में सभ्यता या नागरिकता की वैसी अवधारणा नहीं थी, लेकिन उस समय यदि कोई ऐसा जुमला (रेटरिक) होता तो उसके दायरे में उस समाज के कुलीन आते। आज भी “सिविल सोसायटी” का मतलब अर्थ, राजनीति और सामाजिक पहचान के आधार पर कुलीन माने जाने वाले लोगों का जमावड़ा है। किसी भी “सिविल सोसायटी” के सन्दर्भ पर निगाह डालिये और आपको यह बात स्वयं स्पष्ट हो जायेगी। इस “सभ्य समाज” के दायरे में इस देश के 80 फीसदी से भी ज़्यादा लोग नहीं आते हैं। यही कारण है कि अण्णा हज़ारे और उनकी मण्डली के जमावड़े से मेहनतकश अनुपस्थित है। यही कारण है कि यह मेहनतकश हज़ारे और उनकी मण्डली के जमावड़े के लिए अदृश्य है। उनकी निगाह में तो एक भ्रष्टाचार-मुक्त उच्च नैतिक राष्ट्र है, जो यूटोपियाई है और अपने कोर से ही पुनरुत्थानवादी, एक हद तक फासीवादी, सर्वसत्तावादी, ग़ैरजनवादी और पूँजीवादी है। यह मज़दूर वर्ग-विरोधी है, जनविरोधी है और बुर्जुआ राष्ट्रवाद की सबसे सड़ी हुई प्रजाति है: पुनरुत्थानवादी प्रजाति। अन्त में कहना होगा कि इस “सिविल सोसायटी” में ‘सिविल’ उतना ही है, जितना कि “सिविल वॉर” में होता है! इस “सभ्य समाज” में सभ्यता की उपस्थिति और मात्र उतनी है, जितनी कि पूँजीवादी जनतन्त्र में ‘जन’ की होती है। यह एक बहुत बड़ा प्रहसन है जिसे हर जनपक्षधर क्रान्तिकारी नौजवान, छात्र, बुद्धिजीवी को और साथ ही मज़दूर वर्ग को भी समझना होगा।
(क्रमशः)
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-अप्रैल 2011
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