एस-बैण्ड घोटाला: सारे घोटालों का नया सरदार!
शिवानी
राष्ट्रमण्डल खेल घोटाला, 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला, आदर्श हाउसिंग सोसायटी घोटाला, कर्नाटक में ज़मीन घोटाला, काले धन सम्बन्धी घोटाला…। घोटालों की इस अनवरत-अन्तहीन कड़ी में एक नया नाम हाल ही में जुड़ गया है – एस-बैण्ड स्पेक्ट्रम घोटाला। एस-बैण्ड स्पेक्ट्रम आबण्टन घोटाले के केन्द्र में इस बार इस देश के चन्द गिने-चुने तथाकथित पाक-साफ और स्वच्छ संस्थानों में से एक भारतीय अन्तरिक्ष अनुसन्धान संगठन (इसरो) है, जिसकी वजह से इस देश के खाते-पीते शिक्षित मध्यवर्ग के एक बड़े हिस्से की भावनाओं को काफ़ी ठेस पहुँची है। इस घोटाले से इसलिए भी खलबली मची कि जिस विभाग से जुड़ा यह घोटाला है, यानी कि अन्तरिक्ष विभाग – उसके प्रभारी मन्त्री ख़ुद हमारे देश के “पाक-साफ” और स्वच्छ छवि के लिए प्रख्यात प्रधानमन्त्री श्रीमान मनमोहन सिंह हैं। संक्षेप में, इस घोटाले की अन्तर्वस्तु कुछ इस प्रकार है। जनवरी, 2005 में एक अनुबन्ध के अन्तर्गत इसरो की वाणिज्यिक शाखा एण्ट्रिक्स ने बंगलोर स्थित एक निजी कम्पनी देवास मल्टीमीडिया को दुर्लभ 190 मेगाहर्टज़ एस-बैण्ड स्पेक्ट्रम में सत्तर मेगाहर्टज़ बीस वर्षों के लिए निर्बाध रूप से इस्तेमाल करने के लिए मात्र हज़ार करोड़ रुपये में आबण्टित किया। इस अनुबन्ध के तहत इसरो को देवास मल्टीमीडिया के वाणिज्यिक उपयोग के लिए दो उपग्रहों जी-सेट 6 और जी-सेट 6ए का निर्माण करना था। चौंकाने वाली बात यह है कि जहाँ देवास मल्टीमीडिया को सत्तर मेगाहर्टज़ सिर्फ हज़ार करोड़ में दे दिया गया, वहीं एम.टी.एन.एल. और बी.एस.एन.एल. जैसी सरकारी कम्पनियों को बीस मेगाहर्टज़ के लिए साढ़े बारह हज़ार करोड़ से भी अधिक देने पड़े। देवास मल्टीमीडिया को आबण्टित सत्तर मेगाहर्टज़ का असली मूल्य दो लाख करोड़ के आस-पास आँका जा रहा है। यानी, सीधे-सरल शब्दों में कहें तो दो लाख करोड़ रुपये का घोटाला। इस मायने में यह घोटाला अभूतपूर्व है क्योंकि इसने 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले को भी मात दे डाली। यह अब तक का सबसे बड़ा घोटाला है। ज्ञात हो कि देवास मल्टीमीडिया में ज़्यादातर कार्यरत अधिकारी पहले इसरो में काम कर चुके थे।
इस घोटाले के घटनाक्रम ने भी वही रुख़ अख्त़ियार किया जैसा कि इसके पहले के सभी घोटालों में होता रहा है। ऐसा लग रहा था, मानो कई बार देखी गयी फ़िल्म को दोबारा बैठकर देखा जा रहा हो। प्रधानमन्त्री कार्यालय ने त्वरित गति से बिना समय गँवाये बयान जारी कर दिया – राजस्व को कोई हानि नहीं हुई। विपक्षी दलों को भी एक नया मुद्दा मिल गया वक़्त काटने के लिए। और अन्त में, जैसा कि इस तरह के तमाम मामलों में होता है, केन्द्र सरकार ने घोषणा कर दी एक दो सदस्यीय जाँच समिति के गठन की! मीडिया में आयी ताज़ा रिपोर्टों से यह साफ है कि एण्ट्रेक्स और देवास मल्टीमीडिया के बीच का करार रद्द होने की कगार पर है। लेकिन बात यहीं पर ख़त्म नहीं हो जाती।
पहली बात यह कि मीडिया में (इस सन्दर्भ में अंग्रेज़़ी दैनिक ‘दि हिन्दू’ और ‘बिज़नेस लाइन’ का प्रयास सराहनीय है जिसके कारण इस मामले की सच्चाई सामने आयी) अगर इस मुद्दे पर इतना बवाल न मचा होता तो यह करार रद्द होने की स्थिति तक नहीं पहुँचता। ऐसा नहीं है कि केन्द्रीय सरकार इस अनुबन्ध से होने वाले नुकसान के बारे में अवगत नहीं थी। जुलाई 2010 में ही विधि मन्त्रालय ने अन्तरिक्ष विभाग को दिये अपने वैधिक सुझाव में यह साफ कर दिया था कि एस-बैण्ड स्पेक्ट्रम की रणनीतिक और सामाजिक सेवाओं में विशेष भूमिका बनती है और इसलिए किसी निजी कम्पनी द्वारा इसके निर्बाध दोहन के गम्भीर परिणाम सामने आ सकते हैं। इस सुझाव में यह भी कहा गया कि एण्ट्रेक्स और देवास के बीच करार हो जाने के बाद सरकार ने पाया कि उपलब्ध एस-बैण्ड स्पेक्ट्रम का अधिकांश भाग देवास मल्टीमीडिया के हिस्से में चला जायेगा। इसलिए ताज्जुब की बात यह है कि इन सभी पक्षों को जानने के बावजूद भी अब तक यह अनुबन्ध रद्द क्यों नहीं किया गया था?
दूसरी बात, जो कि ज़्यादा ग़ौर करने लायक है, वह यह कि एक ऐसे समाज में जहाँ हर काम को करने की प्रेरक शक्ति निजी मुनाफ़ा और लालच हो, वहाँ विज्ञान और वैज्ञानिक अनुसन्धान भी इसके प्रभाव से अछूते नहीं रह सकते। एस-बैण्ड स्पेक्ट्रम घोटाले ने इसी बात को एक बार फिर रेखांकित किया है। जहाँ विज्ञान और तकनोलॉजी का मकसद ही मानव जीवन की बेहतरी न होकर निजी कम्पनियों का मुनाफ़ा हो वहाँ पर इसरो जैसा स्वच्छ छवि वाला संस्थान भी भ्रष्टाचार के कलंक से अछूता नहीं रह सकता।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-फरवरी 2011
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