बथानी टोला नरसंहार फैसलाः भारतीय न्याय व्यवस्था का असली चेहरा
न्यायपालिका में भी जातिगत पूर्वाग्रह व्याप्त हैं। बिरले ही ऊँची जाति के अपराधियों को सज़ा मिल पाती है। अधिकांश मसलों में उच्च जाति के सवर्ण अपराधी, जो अक्सर धनी भी होते हैं, गवाहों को ख़रीद लेते हैं या फिर जातिगत दबदबे का इस्तेमाल कर उन्हें दबा देते हैं और अन्त में न्यायपालिका ‘‘पुख़्ता सबूतों’’ के अभाव में उन्हें सन्देह का लाभ देते हुए छोड़ देती है। यह पुरानी कहानी है। भारतीय समाज में शासक वर्गों का शोषण जातिगत पूर्वाग्रहों को सहयोजित करता है और उनका इस्तेमाल करता है। बथानी टोला नरसंहार के सभी अभियुक्त सवर्ण जाति (भूमिहार, राजपूत और बाह्मण) से थे और रणवीर सेना को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से नेताओं, सवर्ण जाति के धनिकों और पुलिस का समर्थन भी था। और यहाँ पर भी वही हुआ जो अधिकांश ऐसे मामलों में होता है। भारतीय न्यायपालिका में उच्च पदों पर आसीन बड़ी आबादी धनी और सवर्ण घरों से आती है। ऐसे में, उनके वर्गीय और जातिगत पूर्वाग्रह अधिकांश मामलों में पहले से ही अन्धे बुर्जुआ न्याय को बहरा और गूँगा भी बना देते हैं। मौजूदा पूँजीवादी न्याय व्यवस्था के तहत, जो कि सवर्ण पूर्वाग्रहों से भी ग्रसित है, आम ग़रीब दलित आबादी कभी भी न्याय की उम्मीद नहीं कर सकती है।