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बथानी टोला नरसंहार फैसलाः भारतीय न्याय व्यवस्था का असली चेहरा

 न्यायपालिका में भी जातिगत पूर्वाग्रह व्याप्त हैं। बिरले ही ऊँची जाति के अपराधियों को सज़ा मिल पाती है। अधिकांश मसलों में उच्च जाति के सवर्ण अपराधी, जो अक्सर धनी भी होते हैं, गवाहों को ख़रीद लेते हैं या फिर जातिगत दबदबे का इस्तेमाल कर उन्हें दबा देते हैं और अन्त में न्यायपालिका ‘‘पुख़्ता सबूतों’’ के अभाव में उन्हें सन्देह का लाभ देते हुए छोड़ देती है। यह पुरानी कहानी है। भारतीय समाज में शासक वर्गों का शोषण जातिगत पूर्वाग्रहों को सहयोजित करता है और उनका इस्तेमाल करता है। बथानी टोला नरसंहार के सभी अभियुक्त सवर्ण जाति (भूमिहार, राजपूत और बाह्मण) से थे और रणवीर सेना को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से नेताओं, सवर्ण जाति के धनिकों और पुलिस का समर्थन भी था। और यहाँ पर भी वही हुआ जो अधिकांश ऐसे मामलों में होता है। भारतीय न्यायपालिका में उच्च पदों पर आसीन बड़ी आबादी धनी और सवर्ण घरों से आती है। ऐसे में, उनके वर्गीय और जातिगत पूर्वाग्रह अधिकांश मामलों में पहले से ही अन्धे बुर्जुआ न्याय को बहरा और गूँगा भी बना देते हैं। मौजूदा पूँजीवादी न्याय व्यवस्था के तहत, जो कि सवर्ण पूर्वाग्रहों से भी ग्रसित है, आम ग़रीब दलित आबादी कभी भी न्याय की उम्मीद नहीं कर सकती है।

विकास करता भारत! मगर किसका??

शिक्षा व्यवस्था ऐसी है कि आम आदमी के लिए उच्चशिक्षा आकाश-कुसुम की अभिलाषा के समान है। बारहवीं पास करने वाले सारे बच्चों में से केवल 7 प्रतिशत उच्च शिक्षा तक पहुँच पाते हैं। बड़े घर के बच्चे ही ऊँचे पद और ऊँची शिक्षा पा रहे हैं। 84 करोड़ ग्राहक जो 20 रुपये प्रति दिन की आय पर जीते हैं उसके लिए ‘जागो ग्राहक जागो’ नारे के बदले ‘भागो ग्राहक भागो’ होना चाहिए! सर्वशिक्षा अभियान के ‘सब पढ़ें, सब बढ़ें’ की जगह सही नारा होना चाहिए ‘कुछ पढ़ें, कुछ बढ़ें और बाकी मरें’! मनरेगा के तहत जो रोज़गार की बात सरकार करती है वह सरासर मज़ाक है। मनरेगा वास्तव में गाँवों में मौजूद नौकरशाही के लिए कमाई करने का अच्छा ज़रिया है। इसकी सच्चाई लगभग सभी राज्यों में उजागर हो चुकी है। दरअसल सरकार और व्यवस्था की चाकरी करने वाले मीडिया के ‘‘विकास’’ का सारा शोरगुल इस व्यवस्था द्वारा पैदा आम जन के जीवन की तबाही और बरबादी को ढकने के लिए धूम्र-आवरण खड़ा करता है। विकास के इन कथनों के पीछे अधिकतम की बर्बादी अन्तर्निहित होती है।

श्रीराम सेने ने मचाया उत्पात और अण्णा हो गये मौन!!

अण्णा हज़ारे अपने आप को फँसता देख मौनव्रत पर चले गये और यह उनका पहला मौन व्रत नहीं है। जब मुम्बई में उत्तर भारतीयों को पीटा जा रहा था तब भी वे मौन थे, गुजरात में लोग सरेआम कत्ल किये जा रहे थे तब भी वे मौन थे; उल्टे इस नरसंहार के जिम्मेदार नरेन्द्र मोदी की भी एक बार प्रशंसा की, हालाँकि बाद में पलट गये; इसके अलावा राज ठाकरे जैसे लोगों के साथ मंच साझा करने में भी अण्णा हज़ारे गर्व अनुभव करते हैं! पूरे देश में लाखों किसान आत्महत्या कर रहे हैं, वे तब भी मौन हैं; देश भर में मज़दूरों को कुचला जा रहा है और उनके हक-अधिकारों को रौंदा जा रहा है, तब भी वे मौन है। उनके भ्रष्टाचार विरोध का ड्रामा चल रहा था उसी समय गुड़गाँव में मज़दूर अपनी गरिमा और अधिकारों के लिए लड़ रहे थे। अण्णा हज़ारे या उनकी मण्डली के एक भी मदारी को यह नज़र नहीं आया। नज़र भी क्यों आता, सुजुकी और मारूती जैसे कारपोरेट तो चिरन्तर सदाचारी हैं, और शायद इसीलिए जनलोकपाल के दायरे में कारपोरेट जगत का भ्रष्टाचार नहीं आता। अण्णा हज़ारे को बस अपना ‘जनलोकपाल बिल’ पास होना मँगता है! चाहे मज़दूर मरते रहें, ग़रीब किसान आत्महत्या करते रहें।

दलाली और परोपकार का धन्धा

करोड़पति बनने की सबसे पुरानी और बेहतरीन कला है, एक सर्वव्यापी, सबकी रक्षा करने वाला, सबको सुख, शान्ति और समृद्धि (तरक्की) देने वाले उस दयालु ईश्वर से मिलाने के काम में बिचौलिये और दलाल का धंधा करना! ज़ाहिर सी बात है सभी मनुष्यों को सुख-समृद्धी (तरक्की) और शान्ति चाहिए और अगर कोई कुछ फीस लेकर यह काम करता है तब तो यह एक तरह से परोपकारी धंधेवाला व्यक्ति हुआ! परोपकार के इस धन्धे में सदियों से साधु-सन्त, पंडित, मौलवी, पादरी, और बाबा लगे हुए हैं और दिन-दुगुनी रात-चौगुनी तरक्की भी कर रहे हैं।

विकास पुरुष नीतीश कुमार का ऐतिहासिक जनादेश और सुशासन का सच!

नीतीश कुमार की सरकार की जनपक्षधरता अभी हाल के ही एक और मसले में भी सामने आ गयी। अभी चैनपुर-बिशुनपुर इलाक़े में एक पूँजीपति एस्बेस्टस का कारख़ाना लगाने वाला है। इस इलाक़े की पूरी जनता इसके ख़िलाफ है और सड़कों पर उतर रही है। लेकिन नीतीश कुमार की सरकार इन पर लाठियाँ बरसाने और इन्हें गिरफ़्तार करने का काम कर रही है। इसी से पता चलता है कि नीतीश कुमार की सरकार किनके लिए विकास करना चाहती है। यह विकास पूँजीपतियों को ध्यान में रखकर किया जा रहा है और इसकी सच्चाई आने वाले पाँच वर्षों में और अच्छी तरह से उजागर हो जायेगी।

तुम राम भजो, हम राज करें।

एक दमनकारी राज्यसत्ता को चलाने के लिए यह ज़रूरी है कि वे तमाम लोग, जिनका इस व्यवस्था में स्वर्ग है, एक ऐसे दर्शन का प्रचार करें ताकि जनता की सोचने-समझने की शक्ति को ख़त्म किया जा सके। बड़े-बड़े राजनेता से लेकर फिल्मी एक्टर, वैज्ञानिक, प्रोफेसर, डॉक्टर, इंजीनियर आदि जो करोड़ों की कमाई कर रहे हैं, ऐसे दर्शन का ख़ूब प्रचार करते दिख जायेंगे। शोषणकारी पूँजीवादी राज्यसत्ता अपने तमाम सत्ता-संस्थानों द्वारा चाहे वह शिक्षा केन्द्र हो, न्यायालय व संविधान हों अथवा तथाकथित लोकतन्त्र के चौथे स्तम्भ मीडिया का टी-वी, रेडियो, अख़बार हो – चारों तरफ कूपमण्डूकता, अन्धविश्वास, अवैज्ञानिकता फैलाते हैं।

चुनावी पार्टियों के अरबों की नौटंकी भी नहीं रोक सकी महँगाई डायन के कहर को!

महँगाई के विरोध में भाजपा द्वारा आयोजित रैली के एक दिन पहले मैं अपने कुछ मित्रों के साथ नयी दिल्ली स्टेशन जा रहा था। पूरा शहर मानो भगवा रंग में डुबो दिया गया था। सड़कों, गलियों, दीवारों को बड़े-बड़े होर्डिंग, पोस्टर, वाल राइटिंग, झण्डे और चमचमाते चमकियों से पाट दिया गया था। अख़बारों के पन्ने का भी रंग रैली के विज्ञापनों से सराबोर था। स्टेशन का दृश्य भी कुछ वैसा ही था। जगह-जगह स्वागत डेस्क और सहायता डेस्क लगे हुए थे जहाँ पर कार्यकर्ता चमकते-दमकते कपड़ों में जूस और स्वादिष्ट व्यंजनों का रसास्वदन कर रहे थे। उन्हें देखने से ऐसा प्रतीत हो रहा था कि महँगाई का ज़रा भी असर उनकी सेहत पर नहीं था, उल्टे कुछ की तो कुम्भकरणा स्वरूपम काया थी जिसे देखकर तो मँहगाई डायन भी मूर्छित हो जाती! प्लेटफार्म पर खड़े कुछ लोग बता रहे थे कि कई जगहों से पूरी ट्रेन रिज़र्व होकर रैली के लिए आ रही है। वहीं मज़दूरों की छोटी-बड़ी टोलियाँ भी स्वागत डेस्क के करीब से गुज़र रही थी। यह वह आबादी थी जिस पर मँहगाई डायन ने अपना कहर बरपाया है, जिसे यह भव्य आयोजन खाये-पिये व्यक्ति के द्वारा आयोजित एक भव्य नौटंकी से ज़्यादा कुछ नहीं दिखायी पड़ता होगा।