अण्णा हज़ारे का भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान और मौजूदा व्यवस्था से जुड़े कुछ अहम सवाल

(दूसरी किश्त)

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अभिनव सिन्हा

अब तक हमने अण्णा हज़ारे के भ्रष्टाचार-विरोधी धर्म-युद्ध के विभिन्न पहलुओं पर विचार किया। हमने अण्णा हज़ारे मण्डली के जनलोकपाल बिल के मसौदे का आलोचनात्मक विवेचन किया; अण्णा हज़ारे के अभियान के पक्ष में जो आबादी सड़कों पर उतरी हमने उसका भी विश्लेषण करते हुए इसके सामाजिक आधार को स्पष्ट किया; हमने भ्रष्टाचार की एक सटीक परिभाषा पर विचार करते हुए स्पष्ट किया कि वास्तव में पूँजीवादी व्यवस्था अपने आप में ही एक भ्रष्टाचार है, तब भी, जब वह अपने बनाये सभी नियमों का पालन करे; और हमने यह भी स्पष्ट किया कि कोई भी पूँजीवादी व्यवस्था लूट के अपने बनाये नियमों का भी सम्मान नहीं करती है क्योंकि पूँजी का तर्क किसी भी नियम समुच्चय की सीमाओं का अनिवार्य रूप में अतिक्रमण करता है; साथ ही, हमने ‘सिविल सोसायटी’ की ‘सिविलिटी’ की भी पोल खोली और इस अवधारणा के निहितार्थों को स्पष्ट करते हुए इसके बुर्जुआ चरित्र को साफ़ किया।

Anna hazare

अब हम अण्णा हज़ारे की विचारधारा और राजनीति के विश्लेषण की ओर बढ़ सकते हैं। यह विश्लेषण किये बग़ैर वास्तव में अभी तक किया गया विश्लेषण भी अधूरा होगा। हमने अण्णा के भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान और जनलोकपाल बिल के अलग-अलग पहलुओं की चर्चा की और साथ ही इसके सामाजिक आधार का विवेचन किया। लेकिन अण्णा हज़ारे का अभियान वैसा क्यों है जैसा कि वह है, यह समझने के लिए निगमनात्मक विश्लेषण पर्याप्त नहीं होगा और हमें सकारात्मक तौर पर अण्णा हज़ारे की पूरी सोच का आगमनात्मक विश्लेषण करना होगा। अण्णा की विचारधारा और राजनीति के विश्लेषण से उन सभी अलग-अलग विश्लेषणों के बीच के तार ख़ुद-ब-ख़ुद जुड़ जायेंगे जो हमने अभी तक किये हैं। इसलिए अब जो अहम सवाल हमारे सामने है, वह यह है कि अण्णा का भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान ऐसा क्यों है जैसा कि वह है?

इस सवाल का जवाब हमें अण्णा हज़ारे के इतिहास, राजनीति और विचारधारा के विश्लेषण में मिलेगा।

जीवन और इतिहास

अण्णा हज़ारे का जन्म 1937 में भिंगार नामक एक छोटे-से गाँव में हुआ, जो कि अहमदनगर जि़ला में था। 1952 में अण्णा हज़ारे के पिता ने भिंगार में अपनी नौकरी छोड़ अपने पैतृक गाँव रालेगण सिद्धी में लौटने का फ़ैसला किया। अण्णा हज़ारे के छह भाई-बहन थे और परिवार की स्थिति बहुत ख़राब थी। उनकी एक रिश्तेदार ने उन्हें गोद लेने का प्रस्ताव रखा और वे अण्णा हज़ारे को मुम्बई ले आयीं। वहाँ अण्णा हज़ारे ने सातवीं कक्षा तक पढ़ाई की और फिर दादर में फूल बेचने का धन्धा शुरू किया। 1962 में भारत-चीन युद्ध शुरू हुआ और बड़े पैमाने पर सेना में भर्ती शुरू हुई। शारीरिक परीक्षा में असफल होने के बावजूद अण्णा हज़ारे को सेना ने भर्ती कर लिया और उसमें ट्रक चालक की नौकरी मिली। 1965 में अण्णा हज़ारे की तैनाती खेम-करन सेक्टर में हुई। उसी वर्ष पाकिस्तान ने भारतीय सैन्य अड्डों पर हवाई हमला शुरू कर दिया। अण्णा हज़ारे के अड्डे पर भी हमला हुआ और अण्णा को छोड़कर बाकी सभी सैनिक मारे गये। स्वयं अण्णा की जान भी मुश्किल से बची थी और एक गोली उनके सिर के बिल्कुल करीब से गयी थी। इसका अण्णा के दिलो-दिमाग़ पर काफ़ी गहरा असर पड़ा था। इस घटना ने पाकिस्तान के खि़लाफ़ अण्णा के मन में नफ़रत पैदा करने का काम किया।

लेकिन इस घटना के बाद ही अण्णा हज़ारे जीवन-मृत्यु के बारे में दार्शनिक-आध्यात्मिक चिन्तन-मनन भी करने लगे। उन्होंने घर वापस लौटते समय विवेकानन्द की राष्ट्र-निर्माण के लिए युवाओं को आह्नान करने वाली एक पुस्तिका पढ़ी। इसमें अंग्रेज़ों के विरुद्ध लड़ने के लिए विवेकानन्द ने युवाओं में चरित्र-निर्माण आदि की बात करते हुए आध्यात्मिकता और भौतिकता के वेदान्ती मिश्रण को पेश किया है। इस पुस्तिका का अण्णा पर ज़बरदस्त प्रभाव पड़ा। इसके बाद, 1970 के दशक के मध्य में भी एक दुर्घटना में वे मरते-मरते बचे। इसके बाद उन्होंने मानवता की सेवा करने का प्रण लिया। इस बीच वह बिनोबा भावे, गाँधी और विवेकानन्द का अध्ययन करते रहे थे। 1975 में, जैसे ही वे पेंशन के योग्य हुए उन्होंने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली।

इसके बाद ही रालेगण सिद्धी में उनका वह कार्य शुरू हुआ जिसके लिए वह पूरे देश और दुनिया भर में प्रसिद्ध हुए। रालेगण सिद्धी एक ऐसा गाँव था जहाँ भयानक भूख और ग़रीबी, सूखा, उपेक्षा और तबाह होती पारिस्थितिकी मौजूद थी। यहाँ पर अण्णा हज़ारे ने अपना काम शुरू किया और शराबखोरी रोकने से लेकर, वर्षा जल संचय, पर्यावरण-अनुकूल खेती, पशुपालन, शिक्षा आदि का विकास किया। निश्चित रूप से, यह काम प्रशंसनीय है। रालेगण सिद्धी अण्णा हज़ारे के पर्यावरणीय कार्यों और आर्थिक उपायों के चलते भूख, अकाल, सूखा आदि से काफ़ी हद तक उबर गया। अण्णा हज़ारे के आमरण अनशन के कारण रालेगण सिद्धी में महाराष्ट्र सरकार को निरन्तर बिजली की व्यवस्था करनी पड़ी। अण्णा हज़ारे ने गाँव के विकास के लिए वे तमाम कार्य किये जो कोई भी जनपक्षधर क्रान्तिकारी ताकत करती और निश्चित तौर पर यह सराहनीय काम था, लेकिन आम तौर पर बात यहीं ख़त्म हो जाती है। जबकि बात को यहाँ से शुरू होना चाहिए।

इन सभी पर्यावरणीय और आर्थिक उन्नयन के कार्यों के साथ रालेगण सिद्धी में अण्णा हज़ारे ने राजनीतिक और सामाजिक प्राधिकार, सामाजिक संरचना, दलितों और महिलाओं के सामाजिक सुधार, आदि के क्षेत्र में जो मॉडल लागू किया वह एक धार्मिक पुनरुत्थानवादी, अन्धराष्ट्रवादी, जातिगत श्रेष्ठताबोध-ग्रस्त, जेण्डर श्रेष्ठताबोध-ग्रस्त और पश्चगामी मॉडल है। अगर हम अण्णा हज़ारे के रालेगण सिद्धी के प्रयोग में इस्तेमाल होने वाले तमाम प्रतीकों, चिन्‍हों और रूपकों का अध्ययन करें तो हम पायेंगे कि यह ‘‘राष्ट्र-निर्माण’‘ का वही हिन्दू पुनरुत्थानवादी मॉडल है जिसके पुरोधा बंकिम चन्द्र थे और जिन्होंने अपनी रचना ‘आनन्दमठ’ में 18वीं शताब्दी के संन्यासी विद्रोह के चित्रण के ज़रिये हिन्दू पुनरुत्थानवादी राष्ट्रवाद की नींव डाली थी; या, यह कमोबेश वैसा ही हिन्दू पुनरुत्थानवादी राष्ट्रवाद है जिसकी नुमाइन्दगी महाराष्ट्र में तिलक करते थे। लेकिन इसकी सामाजिक और राजनीतिक भूमिका में एक गहरा अन्तर आ चुका है। औपनिवेशिक गुलामी के दौर में धार्मिक पुनरुत्थानवादी राष्ट्रवाद की भी एक सकारात्मक भूमिका थी, क्योंकि उस ऐतिहासिक युग के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक अन्तरविरोध भिन्न थे। यह बात न सिर्फ हिन्दू पुनरुत्थानवादी राष्ट्रवाद के बारे में सच थी, बल्कि इस्लामिक पुनरुत्थानवादी राष्ट्रवाद के लिए भी सही थी। कम ही लोग जानते हैं कि संन्यासी विद्रोह के दौरान ही मुसलमान फकीरों की भी बग़ावत चल रही थी। लेकिन इतिहास में इसका जि़क्र कम ही जगह मिलता है। लुब्बेलुबाब यह कि विदेशी शक्ति द्वारा औपनिवेशीकरण के विरुद्ध राष्ट्रवाद के तमाम वैचारिक स्रोतों में से अधिकांश की कलात्मक स्थिति अतीत में होती है। इसके कुछ निश्चित ऐतिहासिक कारण होते हैं, जिन पर यहाँ विस्तार से चर्चा सम्भव नहीं है। कुल मिलाकर अभी इतना कहना काफ़ी होगा कि उपनिवेशवाद-विरोधी राष्ट्रवाद के शक्ति ग्रहण करने के स्रोतों में से अधिकांश अतीत में अवस्थित होते हैं, चाहे वह कितना भी आधुनिक राष्ट्रवाद क्यों न हो।

दूसरी बात यह कि उस समय का हिन्दू पुनरुत्थानवाद उदार धार्मिक सुधारवाद से प्रभावित था और सम्मिलनकारी प्रजाति का था; आज का हिन्दू पुनरुत्थानवादी राष्ट्रवाद वास्तव में प्रतिक्रियावादी और जनविरोधी ही हो सकता है। यह बहिष्कारवादी है और इसके भीतर फ़ासीवाद की ओर एक नैसर्गिक रुझान है, चाहे वह कितनी भी उदार प्रजाति का धार्मिक पुनरुत्थानवाद क्यों न हो। ठीक उसी प्रकार जैसे कि 16वीं सदी के यूरोपीय धार्मिक सुधारवाद को अगर 21वीं सदी में अवस्थित कर दिया जाये, तो वह एक प्रतिक्रियावादी शक्ति बन जायेगी। किसी भी धार्मिक विचारधारा या पन्थवाद की भूमिका का गुण उसके ऐतिहासिक और सामाजिक सन्दर्भ से ही निर्धारित होता है। आज के भारत में इस हिन्दू पुनरुत्थानवाद और अन्धराष्ट्रवाद के कई शेड्स काम कर रहे हैं, जिनके आत्मगत और वस्तुगत प्रतिक्रियावाद की मात्रा, गुण और स्तर अलग-अलग हैं। हमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की हिन्दू अन्धराष्ट्रवादी विचारधारा (जिसकी अन्तर्वस्तु वास्तव में आधुनिक फ़ासीवादी विचारधारा है) से लेकर हिन्दू महासभा की विचारधारा (जो अपने पुरातन, कठोर, अनमनीय, बर्बर हिन्दूवाद पर पहले की तरह अडिग है) तक की बात कर सकते हैं; और हम इसके तमाम असंगठित उदार स्वरूपों की बात भी कर सकते हैं, जिसमें अण्णा हज़ारे भी शामिल हैं। आइये, रालेगण सिद्धी में हज़ारे के प्रयोग को बारीकियों में देखें।

रालेगण सिद्धी में अण्णा हज़ारे : विचारधारा और राजनीति

रालेगण सिद्धी में अण्णा हज़ारे के पूरे प्रयोग के विश्लेषण से उनकी राजनीति और विचारधारा काफ़ी हद तक साफ़ हो जाती है। हज़ारे इस चिन्तन को सुविचारित तरीके से किसी लिखित रूप में नहीं बाँध सकते, क्योंकि वह कोई चिन्तक या विचारक हैं ही नहीं। वह एक ज़मीनी सामाजिक कार्यकर्ता हैं, जिनके व्यवहार से उनकी वस्तुगत विचारधारा निकलकर आती है। और हम उनके ज़मीनी व्यवहार से ही उनकी पूरी सोच को निगमित कर उसका विश्लेषण कर सकते हैं।

रालेगण सिद्धी में अण्णा हज़ारे के कार्य का बुनियादी हिस्सा उनके विकास कार्य और पर्यावरणीय सुधार कार्य हैं। यह पूरा कार्य महाराष्ट्र की ऐतिहासिक और प्रभुत्वशाली राजनीतिक संस्कृति की निरन्तरता में है और पलटकर उसे मज़बूत बनाती है। धार्मिक पुनरुत्थानवाद के जो मूल्य महाराष्ट्र की राजनीतिक संस्कृति का स्वतन्‍त्रता आन्दोलन के समय से हिस्सा रहे हैं, वे मूल्य अण्णा हज़ारे के चिन्तन और व्यवहार में गहराई से जड़ जमाये हुए हैं। और अण्णा का राजनीतिक व्यवहार इसी विचारधारा को सींचने का काम करता है। यह राजनीतिक प्राधिकार और वर्चस्व का विशिष्ट मॉडल है जो जनता के भीतर मौजूद पश्चगामी प्रवृत्तियों का उपयोग करके, और किसी अन्य राजनीति प्राधिकार की अनुपस्थिति और जनता के स्वयं राजनीतिक तौर पर सचेत प्राधिकार का वस्तु-रूप बनने के अभाव में अपना प्राधिकार स्थापित करता है। इसका आधार एक अतीतग्रस्त ज़मीन पर खड़े होकर नैतिकतावादी आह्नान है। और आर्थिक और भौतिक तौर पर दरिद्र जनता नैतिक, आत्मगत और आध्यात्मिक तौर पर भी दरिद्र होती है, हीनता-बोध का शिकार होती है। ऐसी जनता को ऐसा हर आह्नान अपील करता है; वास्तव में, यह अपनी हीनता के विरुद्ध जनता की प्रतिक्रिया है।

यह नैतिकतावादी, धार्मिक पुनरुत्थानवादी और शुद्धतावादी आह्नान वास्तव में बल-प्रयोग और दण्ड के आस्था तन्‍त्र का अनुसरण करता है। अण्णा हज़ारे का स्पष्ट मानना है कि धार्मिक और नैतिक ज़मीन पर खड़े होकर जनता के भीतर बिठाया गया भय ही उनका उद्धार कर सकता है। इस पूरे काम के लिए एक मसीहा की ज़रूरत होती है जिसके प्राधिकार को कोई चुनौती नहीं दे सकता। जनता स्वयं राजनीतिक तौर पर सचेत होकर अपने स्वशासन के कार्य को स्वयं कभी अंजाम नहीं दे सकती। इसके लिए एक नैतिकतावादी नायक की आवश्यकता होती है। यही कारण है कि रालेगण सिद्धी में अण्णा का वचन नियम-समान है और सभी गाँववासी उसका सम्मान करते हैं। अण्णा हज़ारे ने इस प्राधिकार के निर्माण के लिए दो काम किये हैं। एक तो यह कि उन्होंने अपने जीवन में त्याग, सादेपन और कठोरता को लागू किया। यह सत्य है कि वह एक मन्दिर को अपने कार्यालय के तौर पर इस्तेमाल करते हैं और स्वयं एक कुटिया जैसे निवास में रहते हैं। कई लोग इसी को अण्णा हज़ारे की राजनीति के सही होने के प्रमाण के तौर पर पेश करते हैं, जो कि मूर्खतापूर्ण है। सादा जीवन जीने वाला कोई व्यक्ति फ़ासीवादी विचारों का हो सकता है। सादा जीवन जीकर वह सामान्य सांसारिक जीवन जीने वाले लोगों को हीनताबोध से ग्रस्त कर अपने प्राधिकार को स्थापित करता है। यह एक बहुत सामान्य परिघटना है। यह भी राजनीतिक जीवन का एक सौन्दर्यीकरण है और वॉल्टर बेंजामिन के शब्दों में फ़ासीवादी राजनीति का एक अहम पहलू है। मैं यहाँ यह नहीं कह रहा है अण्णा हज़ारे आधुनिक अर्थों में फ़ासीवादी हैं। लेकिन उनका फ़ासीवादी विनियोजन निश्चित रूप से हो सकता है ;और हो भी रहा हैद्ध, क्योंकि उनमें धार्मिक पुनरुत्थानवादी अन्धराष्ट्रवाद और श्रेष्ठतावाद के तमाम तत्व मौजूद हैं। वास्तव में, हज़ारे द्वारा मोदी की प्रशंसा दिल से निकली प्रशंसा थी! बाद में हज़ारे के राजनीतिक रूप से अधिक सचेत सलाहकारों, जैसे कि केजरीवाल, भूषण पिता-पुत्र आदि ने उन्हें समझाया कि इसके क्या परिणाम हो सकते हैं, तब जाकर अण्णा हज़ारे ने अपने बयान पर सफ़ाई दी। लेकिन यह मानना होगा कि प्रशंसा स्वतःस्फूर्त थी, लेकिन सफ़ाई नहीं! इसका कारण भी अण्णा हज़ारे की हिन्दू पुनरुत्थानवादी विचारधारा में है।

अण्णा हज़ारे हिन्दू धर्म के प्रतीकों, कठोर नियमों और संहिताओं, अति – और अन्ध-राष्ट्रवाद के आवाहन, शुद्धतावादी नैतिकतावाद, जातिगत पदानुक्रम, स्त्रियों, दलितों और मुसलमानों की अधीनता का अपने अभियान में जमकर इस्तेमाल करते हैं। दलितों और मुसलमानों को लेकर कुछ लोग कह सकते हैं कि अण्णा ने उनके सामाजिक पृथक्करण को दूर किया है, वग़ैरह। लेकिन यह भी देखना होगा कि किस तरह दूर किया गया है यह पृथक्करण। वास्तव में, दलितों को उदार उच्च वर्ण हिन्दू वर्ग की शरण में लाकर इस पृथक्करण से मुक्त किया गया है। यह कैसे हुआ है इस पर हम बाद में चर्चा करेंगे। लेकिन ये सारे ही तत्व हैं जो विकास और पर्यावरणीय कार्यों के साथ मिलकर अण्णा के ‘गाँव के पुनरुत्थान और पुनरुदय’ के केन्द्रीय तत्व हैं। अण्णा हज़ारे का प्राधिकार एक विशिष्ट आस्था तन्‍त्र से समर्थित है, जिसके तहत लोग उनका अनुसरण करते हैं, उनकी आज्ञा का पालन करना अपना कर्तव्य समझते हैं और उन पर अपने प्राधिकार को शासनात्मक रूप में लागू करना अण्णा हज़ारे अपना प्राकृतिक अधिकार समझते हैं। ‘अण्णा’ शब्द का अर्थ ही है ‘बड़ा भाई’! अण्णा की भूमिका एक संरक्षक बड़े भाई, अभिभावक या गार्जियन जैसी है। अगर रालेगण सिद्धी के ही एक निवासी के कथन को उद्धृत करें, तो हम इसे साफ़ देख सकते हैं : ‘जो अण्णा कहते हैं, हम करते हैं – उनके शब्द आदेश समान हैं, जैसे कि सेना में होता है।’ एक अन्य गाँव वाले को सुनें : ‘अण्णा जी तो भगवान समान हैं!’

अण्णा का मानना है कि लोगों को सामाजिक रूपान्तरण के लिए राजी करने के लिए हमेशा सलाह या मनाने का तरीका काम नहीं करता। कई बार बल-प्रयोग करना पड़ता है। यह बल-प्रयोग सामाजिक, भौतिक, शारीरिक या धार्मिक रूप से हो सकता है। जनता में भय पैदा करना बहुत ज़रूरी है। भय ही वह ताकत है जिससे कि सामाजिक रूप से जड़ जमाये मूल्यों को सुरक्षा और ज़मीन मिलती है। अगर यह भय न हो तो बना-बनाया सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक ढाँचा टूटने लगेगा और समाज में अराजकता फैलने लगेगी। अण्णा हज़ारे अपने प्राधिकार को लागू करने के एक अंग के रूप में सार्वजनिक रूप से कोड़े लगाकर या पिटाई करके भय पैदा करने का समर्थन करते हैं। ऐसा वह नियमित तौर पर रालेगण सिद्धी में करते भी हैं। अपने हरित गाँव के मॉडल में इस प्रकार के दण्ड और भय को वह अत्यन्त वांछित मानते हैं क्योंकि यह पहले से स्थापित महान भारत राष्ट्र के गौरवशाली मूल्यों और परम्पराओं को बिखरने से बचाता है; जनता को अनुशासित करता है, दण्ड देता है, आज्ञाकारी बनाता है। और इन तमाम कार्रवाइयों को अंजाम देकर जनता में भय, आज्ञाकारिता और अनुशासन पैदा करके अच्छे और नेक इरादों वाला कोई प्रबुद्ध (निरंकुश?!) शासक ही जनता का भला कर सकता है। जनता स्वयं राजनीतिक और सामाजिक रूप से सचेत होकर स्वशासन कभी नहीं कर सकती। जन्तर-मन्तर पर प्रदर्शन के दौरान जब अण्णा हज़ारे से किसी पत्रकार ने पूछा कि वह चुनाव तन्‍त्र में प्रवेश कर चुनाव क्यों नहीं लड़ते? अण्णा ने जवाब दिया कि अगर वह चुनाव लड़ेंगे तो उनकी ज़मानत ज़ब्त हो जायेगी क्योंकि जिस देश की जनता सौ रुपये, एक साड़ी, या एक टी.वी. के लिए अपना वोट बेच देती हो वह इस तन्‍त्र का उपयोग करने के योग्य नहीं है। यह इस देश की जनता से एक ऊँचे मंच पर खड़े होकर राजनीतिक शुद्धता और नैतिकता की उम्मीद करना है। और जब चुनाव में सभी विकल्प आदमखोरों के अलग-अलग गिरोह हैं, तो ज़ाहिर सी बात है, हर कोई अपने वोट की सौदेबाज़ी ही करेगा। लेकिन अण्णा जैसे लोगों की राजनीति इसके जवाब में पूँजीवादी दायरे के भीतर ही पूँजीवादी चुनावी लोकतन्‍त्र की जगह दूसरा मॉडल पेश करती है : पूँजीवादी धार्मिक पुनरुत्थानवादी निरंकुश प्रबुद्ध शासन! इसे ही ‘छद्म विकल्पों का समुच्चय’ या देल्यूज़ जैसे नवमार्क्‍सवादियों की भाषा में ‘डिस्जंक्टिव सिन्थेसिस’ कहते हैं! खै़र, आगे बढ़ते हैं। स्पष्ट है कि अण्णा का राजनीतिक मॉडल अगर फ़ासीवादी नहीं है, तो यह ‘टेण्डिंग टुवड्र्स फ़ासिज़्म’ या फ़ासीवाद द्वारा विनियोजित कर लिये जाने के लिए ‘परफ़ेक्ट मटीरियल’ है।

इस किस्म की आदेश/निर्देश व्यवस्था, आज्ञाकारिता, अनुसरणवादिता को संरचनाबद्ध करने के लिए अण्णा जिस चीज़ का सबसे अधिक इस्तेमाल करते हैं वह है धर्म। अपने प्राधिकार, सत्ता-संरचना (पॉवर स्ट्रक्चर) और प्रबुद्ध निरंकुश शासन तन्‍त्र के वैधीकरण के लिए अण्णा हज़ारे राम और कृष्ण समेत अनगिनत धार्मिक चरित्रों और प्रतीकों का इस्तेमाल करते हैं। अण्णा ने एक साक्षात्कार में कहा कि भगवान श्री राम दिन-प्रतिदिन जीवन के संचालन और निर्देशन के लिए आदर्श हैं, जबकि वही कार्य पूरे देश के राजनीतिक-सांस्कृतिक जीवन के लिए करना हो तो सही आदर्श भगवान श्री कृष्ण हैं। अण्णा हज़ारे कहते हैं कि एक मन्दिर या ईश्वर के समक्ष ली गयी सौगन्ध को हर हाल में पूरा किया जाना चाहिए। वरना…! आप देख सकते हैं कि आज्ञाकारिता के लिए धार्मिक भय का किस तरह उपयोग किया जाता है। जो नियमों और कानूनों (जिन्हें अण्णा ने बनाया है!) का पालन करते हैं वे हरित गाँव के वैध नागरिक हैं, और जो नहीं करते वे या तो अवैध हैं, या उन्हें अनुशासित करने (सार्वजनिक रूप से कोड़े लगाकर या पिटाई करके) की ज़रूरत होती है। अण्णा कहते हैं, ‘‘सेना में लागू रोज़ाना की दिनचर्या जैसे कि सुबह जल्दी उठना, दौड़ना और शारीरिक प्रशिक्षण, शरीर को साफ़ रखना, रिहायश साफ़ रखना और आस-पड़ोस को साफ़ रखना, आदि ने मुझमें एक अनुशासित जीवन पैदा किया, जिसका लाभ मैं आज तक उठा रहा हूँ। आयु, पद या योग्यता में अपने से वरिष्ठ लोगों को आदर देना और उनकी आज्ञा का पालन करना हमें सिखाया गया था… इसने हमारे द्वारा सामूहिक सहमति से तय नियम-कानूनों द्वारा रालेगण सिद्धी में गाँव विकास कार्य को संचालित करने में मेरी मदद की है।” यहाँ पर सेना की संरचना को एक गाँव के बाशिन्दों पर लागू करने पर ज़ोर है। सेना में अपने दिनों को अण्णा याद करते हैं और वैसा ही अनुशासन गाँववालों पर थोपना चाहते हैं। निश्चित रूप से सुबह उठना चाहिए, साफ़-सफ़ाई रखनी चाहिए, आदि… लेकिन यह जनता के भीतर वैज्ञानिक जीवन शैली के प्रति एक सहज और नैसर्गिक रुझान पैदा करके किया जाना चाहिए; धर्म के ज़रिये ज़ोर-ज़बरदस्ती का इस्तेमाल करके नहीं। और न ही निजी जीवन में इन चीज़ों का पालन न किये जाने पर किसी को कोड़े लगाये जाने चाहिए। अव्वलन तो ऐसा कोई मॉडल देश के पैमाने पर लागू कर पाना व्यावहारिक तौर पर असम्भव है, और दूसरी बात अगर ऐसा सम्भव होता तो भी नहीं किया जाना चाहिए।

गाँव में क्या करने की इजाज़त है और क्या करने की नहीं, इसके लिए एक लम्बी-चौड़ी संहिता है। पूरा सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन इस संहिता का पालन करता है। यदि कोई नहीं करता है, तो उसे बहिष्कार, कोड़े या पिटाई झेलनी पड़ सकती है! मिसाल के तौर पर कोई दुकान बीड़ी-सिगरेट नहीं बेच सकती, कोई फि़ल्मी गाने नहीं बजाये जा सकते, पिक्चर हॉलों में केवल धार्मिक फि़ल्में लग सकती हैं, जैसे कि ‘जय सन्तोषी माँ’, ‘शिरडी वाले साई बाबा’, आदि। आप देख सकते हैं कि इस पूरी संहिता की सतह में एक उच्च वर्णीय हिन्दूवाद और ब्राह्मणवाद काम कर रहा है। इस गाँव में नास्तिक या धर्मनिरपेक्ष संस्कृति के लिए कोई जगह नहीं है।

साथ ही अण्णा हज़ारे युद्ध, सेना, देशभक्ति और देश-रक्षा आदि के जुमलों का जमकर इस्तेमाल करते हैं। आपको अन्धराष्ट्रवाद की थीम रालेगण सिद्धी में बिखरी हुई मिल जायेगी। दुश्मन, रक्षा, युद्ध आदि के पाठ और कथानक रालेगण सिद्धी के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में जडि़त हैं। इस तरह की बात लोगों के दिमाग़ में व्यवस्थित तरीके से बिठायी गयी है कि हमें गाँव के पुनरुद्धार के द्वारा राष्ट्र निर्माण करना है। हमें एक साथ रहते हुए राष्ट्र को एक सूत्र में (नैतिकतावादी धार्मिक पुनरुत्थानवाद के सूत्र में!) पिरोना है, वरना पाकिस्तान हमारे देश को हड़प जायेगा। इसी से बचने के लिए हमें अपने बच्चों को सेना में भेजना चाहिए। रालेगण सिद्धी के अच्छे-ख़ासे घरों से लोग सेना में गये हैं। अन्धराष्ट्रवाद, जिसका आधार पाकिस्तान-विरोध और धार्मिक पुनरुत्थानवाद और उदार सवर्णवाद है, अण्णा हज़ारे की पूरी विचारधारा के महत्त्वपूर्ण संघटक तत्व हैं।

नैतिकता और आचार की भी एक बेहद बहिष्कारवादी हिन्दू पुनरुत्थानवादी अवधारणा हज़ारे ने रालेगण सिद्धी के निवासियों के दिमाग़ में बिठायी है। यहाँ पर ‘‘राष्ट्र’‘ (हिन्दू?!) वह शक्ति है जो जनता के सार्वजनिक और निजी जीवन में नैतिकता और आचार को निर्धारित करता है। जीवन मूल्य और नैतिकता की अवधारणा काफ़ी-कुछ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अवधारणा से मिलती-जुलती है। जैसे कि औरतों को घर-गृहस्थी का ख़याल रखना चाहिए, लेकिन साथ ही उन्हें अपने राष्ट्र और समुदाय की सहायता करने वाली गतिविधियों में उचित मर्यादा के साथ हिस्सा लेना चाहिए; औरत सार्वभौमिक माता है, महान माता है! तमाम महान माताओं ने महान वीर पुत्रों को जन्म दिया है, जैसे शिवाजी, विवेकानन्द आदि! स्त्री शुद्धता, उदात्तता और आन्तरिक शक्ति का प्रतीक है (बर्दाश्त करने की?!)! बच्चों को बचपन से आज्ञाकारिता (सही होने की परिभाषाः जो आयु, पद या योग्यता में वरिष्ठ कहता है वही सही है!), अनुशासन, शरीर-निर्माण, देशभक्ति, संस्कार, और हिन्दू संस्कृति में प्रशिक्षित किया जाता है। सूर्य नमस्कार करना और नियमित तौर पर ओम का उच्चारण करना विद्यार्थियों के लिए अनिवार्य है। इस पूरे नैतिकता के पाठ को जिस मॉडल के विरोध में खड़ा करके किया जाता है, उसे आप स्वतः समझ सकते हैं: पश्चिमी संस्कृति, नग्नता, मूल्यों, आधुनिकता आदि का हमला!! (भगवान बचाये!!)

जाति के प्रश्न का भी हज़ारे ने नायाब समाधान किया है। दलितों को गाँव के सामाजिक जीवन में सम्मिलित किया गया है और उनके पृथक्करण को भी एक हद तक समाप्त किया गया है। यह सच है। लेकिन सवाल यह है कि यह सामाजिक जीवन है किस किस्म का? इसमें जाति व्यवस्था किस रूप में काम करती है? इस पर एक निगाह डालते ही अण्णा की विचारधारा का उच्च जातीय श्रेष्ठताबोध साफ़ हो जाता है। रालेगण सिद्धी में कुछ महाड़, मतंग, सुतार, चमार, आदि हैं। इनके अलावा कुछ जनजातीय आबादी भी है। इसके अलावा पूरी आबादी मराठा हिन्दू है। दलितों के प्रति अस्पृश्यता के खि़लाफ़ अण्णा हज़ारे ने संघर्ष किया। उनके सार्वजनिक मन्दिरों में प्रवेश और सार्वजनिक कुँओं से पानी लिये जाने का भी अण्णा से समर्थन किया। कई मौकों पर अब वहाँ के दलित भी पूजा का आयोजन कराते हैं, पूरे गाँव को खाना बनाकर खिलाते हैं, आदि। पूरे गाँव ने मिलकर एक बार दलित परिवारों द्वारा लिये गये 75,000 रुपये के कर्ज को चुकता कर दिया। इसके कारण कई दलित परिवार सूदखोरों के चंगुल से बाहर आ गये। इन सबके लिए दलित आबादी में अण्णा हज़ारे के लिए काफ़ी श्रद्धा है। लेकिन यह तस्वीर का सिर्फ एक पहलू है जिसपर कारपोरेट मीडिया ने काफ़ी लाइमलाइट डाली है। अब आइये दलितों के मुँह से ही सुनें कि उनका अपना तजुरबा क्या है।

एक भूमिहीन दलित की बात सुनें : ‘‘हम रालेगण सिद्धी को एक गाँव नहीं बल्कि एक परिवार कहते हैं, जिसके मुखिया अण्णा जी हैं और हम लोग वे लोग हैं जो परिवार को सेवाएँ प्रदान करते हैं। यहाँ हिन्दुओं का अर्थ सिर्फ मराठा है। हम चमार और महाड़ कभी हिन्दू नहीं कहे जाते हैं। यहाँ यह दावा कैसे किया जा सकता है कि सभी समान हैं? जिनके पास ज़मीन होती है या सेना में नौकरी होती है, उनके विकास का स्तर अलग होता है। हममें और उन में बहुत फ़र्क है।

एक अन्य दलित जो अण्णा हज़ारे का भक्त है, उसकी बात सुनें : ‘‘अब हमारे पास खाना, कपड़ा और घर है। लेकिन बस यही है। इससे ज़्यादा कुछ भी नहीं। जूते पैरों के लिए होते हैं और हमेशा पैरों के लिए ही रहेंगे। हम इस बिन्दु से आगे कभी नहीं जा सकते। यही इस गाँव की संस्कृति है। मैं पहले भी ग़रीब था, अब भी ग़रीब हूँ। पहले भी भुखमरी से मर रहा था, मेरे लिए अब भी कोई बेहतर स्थिति नहीं है। मैं अपने बच्चों की शिक्षा तक का ख़र्च नहीं उठा सकता। लेकिन मैं अपना मुँह नहीं खोल सकता। इस गाँव में जो कुछ कहा जाता है, उसे मानना ही होता है।” इस दलित का नाम है कैलाश जो गाड़ी चलाना जानता है और उसके पास लाईसेंस भी है, लेकिन वह खेत मज़दूरी करके अपना जीवन बिताता है।

यदि आप इन दलितों के बारे में और गहराई से जानना चाहते हैं तो आप मुकुल शर्मा द्वारा रालेगण सिद्धी पर किये गये अनुसन्धान को देख सकते हैं। उपरोक्त सभी उद्धरण उनके शोध कार्य से ही लिये गये हैं।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि दलितों को ब्राह्मणवादी दायरे के भीतर उदार और प्रबुद्ध तरीके से संस्थापित कर दिया गया है। उनके दिमाग़ में दान कर्म और उपकार करके यह बात बिठा दी गयी है कि अगर वे अपना काम नियम से करें तो उन्हें पृथक नहीं किया जायेगा और उनकी उदारतापूर्वक मदद की जायेगी और ख़याल रखा जायेगा। लेकिन उन्हें यह मानना होगा कि वे मराठा हिन्दुओं के बराबर नहीं हैं; वे कभी नहीं थे और कभी नहीं हो सकते हैं! इसलिए उन्हें अपने उचित स्थान को पहचान लेना चाहिए! एक बार यदि वे ऐसा कर लें तो उदार प्रबुद्ध मराठा हिन्दू शासक समुदाय भी उनका पूरा ख़याल रखेगा! कितना अच्छा दृश्य होगा! मराठा हिन्दू खेतों के मालिक होंगे, सेना और अन्य सरकारी नौकरियों में काम करेंगे और दलित इस बड़े सुखी संयुक्त परिवार को सेवा प्रदान करने वाले सेवक की भूमिका को निभायेंगे! मराठा हिन्दू अपनी तरफ़ से इनके खि़लाफ़ कोई हिंसा नहीं करेंगे, इनका ध्यान रखेंगे, इनको बीच-बीच में दान दिया करेंगे; जैसा कि एक अच्छा उदार मालिक करता है। लेकिन बराबरी? कतई नहीं! दलितों की उपयोगिता ही उनके अस्तित्व का वैधीकरण है और उनकी उपयोगिता उन्हीं कार्यों में है जो धार्मिक रूप से निर्धारित हैं। यह है अण्णा हज़ारे द्वारा जाति प्रश्न का समाधान!

अन्त में…

इन सभी सवालों पर अण्णा हज़ारे की अवस्थिति को देखने और अण्णा हज़ारे के रालेगण सिद्धी में प्रयोग के राजनीतिक विश्लेषण से उनकी राजनीति और विचारधारा को अनावृत्त करने के बाद कुछ बातें स्पष्ट हैं। अण्णा हज़ारे की पूरी सोच महाराष्ट्र में मराठा हिन्दू जातियों के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में प्रभुत्व से पैदा हुई राजनीति और विचारधारा से निरन्तरता में अवस्थित है। न सिर्फ यह उस निरन्तरता की अगली कड़ी है, बल्कि यह उस निरन्तरता को आगे के लिए सुदृढ़ और सशक्त भी बनाती है। यह उस पूरे शक्ति-सम्बन्ध समुच्चय को स्वीकार करती है, उसे सही ठहराती है और उसे कॉमन सेंस का हिस्सा बनाने का प्रयास करती है, ताकि वह आलोचनात्मकता के दायरे के बाहर चली जाय। यह एक किस्म का हिन्दू सुधारवाद, पुनरुत्थानवाद और पश्चगामिता है। लेकिन इसके बावजूद यह काफ़ी ‘आधुनिक’ है। बुर्जुआ आधुनिकता के पूरे जटिल ताने-बाने में ऐसे पुनरुत्थानवाद का होना बेहद ज़रूरी है। यह इस समुच्चय के भीतर पूँजीवादी हितों, संस्कृति, भाषा और सामाजिक जीवन के द्वन्द्वात्मक अन्य (डायलेक्टिकल अदर) की भूमिका निभाती है और रूप में यथास्थिति को जारी रखने और वर्चस्वकारी वर्गों के वर्चस्व को और गहरा और व्यापक बनाने में मदद करती है। यह एक सजातीय और एकाश्मीय एकता की बात करती है; एक ऐसी एकता जो व्यक्तिगत स्वतन्‍त्रता, वैविध्य के प्रति न सिर्फ अवहेलना का भाव रखती है, बल्कि उसके प्रति अन्धी है। हज़ारे का पर्यावरणवाद और आर्थिक सहकार लोगों के जीवन में बेहतरी लाता है, लेकिन यह हज़ारे की पूरी विचारधारा को और ख़तरनाक बना देता है क्योंकि इसका आधार एक ऐसा सामाजिक और सांस्कृतिक-सामुदायिक ढाँचा है जिसमें स्वतन्‍त्र, जनवादी विवेक के उपयोग, आलोचनात्मकता, वर्ग संघर्ष और वर्ग सचेतनता की कोई गुंजाइश नहीं है। इस ढाँचे में कोई ऐसा समुदाय नहीं रह सकता है जो भय, दण्ड, बहिष्कार, दान, धर्मार्थ, शुद्धतावाद, संहिताओं, नैतिकताओं आदि के बोझ से मुक्त हो।

हज़ारे का वर्तमान भ्रष्टाचार-विरोधी आन्दोलन भी आंशिक तौर पर उनकी इसी राजनीति और विचारधारा से पैदा हुआ है। और यह इस समय इसलिए पैदा हुआ है क्योंकि भ्रष्टाचार के विरुद्ध आम जनता में व्याप्त गुस्से के झटके को सोख जाने वाला कोई ऐसा ‘शॉक एब्ज़ॉर्बर’ व्यवस्था को भी चाहिए था, जो व्यवस्था के लिए ही ख़तरा न बन जाये। ऐसे में, भ्रष्टाचार का नैतिकता-अनैतिकता, सदाचार-अनाचार के जुमलों में विश्लेषण करने वाले किसी अण्णा हज़ारे से बेहतर उम्मीदवार और कौन हो सकता था, जो यह समझने में अक्षम हो कि भ्रष्टाचार एक ऐसी परिघटना है जो पूँजीवाद का अभिन्न अंग है; जो वास्तव में यह समझने अक्षम हो, कि पूँजीवादी कानूनी परिभाषा के अनुसार जो कार्य भ्रष्टाचार माने जाते हैं, अगर वे न भी हों, तो पूँजीवादी व्यवस्था अपने आपमें भ्रष्टाचार है जो ग़रीब मज़दूर आबादी, किसान आबादी और आम मेहनतकश जनता के शोषण-उत्पीड़न पर टिकी हुई है। आदमखोर पूँजीवादी आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था कठघरे में न खड़ी हो, इसके लिए अण्णा हज़ारे की ‘‘परिघटना’‘ का पूँजीवादी व्यवस्था ने कुशल उपयोग किया। अब यह उपयोग ख़त्म हो चुका है और इसीलिए अब हज़ारे और उनकी मण्डली की भी हवा निकलनी शुरू हो चुकी है। जन्तर-मन्तर पर जो हल्ला-हंगामा मचा, युवा भारत के उदय की बातें होने लगीं, ‘अण्णा की आँधी – आज का गाँधी’ जैसे जो नारे बने, वे सब अब बेहद बासी हो चुके हैं और उन पर फफूँद लग चुका है। खाते-पीते घरों का अघाया-मुटियाया, लाल-लाल गालों वाला जो ‘युवा भारत’ अपनी-अपनी कारों की छत पर ‘में बी अण्णा हूँ’ की टोपी लगाये, वूफ़र साउण्ड सिस्टम पर ‘लगान’, ‘स्वदेस’ जैसी बाज़ारू देशभक्ति की फि़ल्मों के गाने बजाते हुए सड़कों पर पगलाया जा रहा था, वह भी अब इसमें कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं ले रहा है। वास्तव में, जब अण्णा हज़ारे और उनकी ‘सिविल सोसायटी’ मण्डली आखि़री बार जन्तर-मन्तर पर इकट्ठा हुई तो 50 लोग जुटने के भी लाले पड़ गये थे। इस प्रहसनात्मक अभियान (नौटंकी?!) का जो सामाजिक आधार था उसमें यही होना था। भविष्य में एक-दो बार फिर इस देश के खाते-पीते उच्च मध्यवर्ग की देशभक्ति और राष्ट्रवाद वाली ग्रन्थि से कुछ स्राव हो सकता है, लेकिन उसका हश्र भी यही होगा, यह दावे के साथ कहा जा सकता है।

जैसा कि हम पहले ही देख आये हैं, अगर भ्रष्टाचार से छुटकारा पाना है तो पूँजीवाद से छुटकारा पाना होगा। पहली बात तो यह कि भ्रष्टाचार-मुक्त सन्त पूँजीवाद जैसी कोई चीज़ नहीं होती और दूसरी बात यह कि पूँजीवादी व्यवस्था स्वयं एक भ्रष्टाचार है और पूँजी ‘छुट्टा साँड़’ ब्राण्ड तर्क उसे कभी सदाचार के अपने ही बनाये नियमों का भी पालन नहीं करने देता। पूँजी या तो फैलती है या ख़त्म होती है! और किसी भी किस्म के नियम और कानून के दायरे में पूँजी के संचय को कभी रोका नहीं जा सकता। इसलिए यह सारा प्रहसन एक बेकार की नौटंकी है। वास्तविक लड़ाई और वास्तविक शत्रु से यह ध्यान को हटा देती है और सतही कारकों पर ध्यान केन्द्रित कर देती है, जो कि हमें कहीं नहीं ले जाता है। इस पूरे नपुंसक हंगामे पर व्यवस्था को भी एक संवेदनशील प्रक्रिया देकर यह जताने का मौका मिल जाता है कि व्यवस्था के साथ तो सब ठीक है, कुछ व्यक्ति भ्रष्ट हैं जिसके कारण यह सारा झमेला है; और साथ ही यह भी दिखाने का मौका उन्हें मिल जाता है कि वे भ्रष्टाचार को लेकर संवेदनशील हैं और एक रात में तो कुछ होता नहीं है, धीरे-धीरे इसका समाधान कर दिया जायेगा! और जनता के नफ़रत और ऊर्जा की भाप को क्रमशः एक ‘सेफ्टी वॉल्व’ के ज़रिये निकाल दिया जाता है। इस रूप में अण्णा हज़ारे जैसे लोग व्यवस्था के ही वर्चस्व को और गहरा और व्यापक बनाते हैं। और हज़ारे की विचारधारा जिस किस्म की है, वह हम देख चुके हैं। ऐसी विचारधारा समस्या का समाधान नहीं बल्कि स्वयं समस्या का हिस्सा है। समाधान ही ऐसा हो तो समस्या की ज़रूरत ही कहाँ रहती है!

इसलिए हमें इस या उस प्रकार के सभी भ्रष्टाचार-विरोधी धर्मयुद्धों की असलियत को समझना चाहिए और यह समझना चाहिए कि वास्तविक शत्रु यह पूरी पूँजीवादी व्यवस्था है। जब तक इसे उखाड़कर नहीं फेंका जाता तब तक संवैधानिक और असंवैधानिक, कानूनी और गै़र-कानूनी, नियम से और नियमेतर तरीके से मेहनतकश जनता की मेहनत की लूट चलती रहेगी। आज देश के छात्रों-युवाओं को यह ख़ुद भी समझना होगा और देश को भी समझाना होगा। केवल सी.पी.आई. (एम.एल.) लिबरेशन जैसे अवसरवादियों से यह उम्मीद की जा सकती थी कि वह कोई भ्रष्टाचार-विरोधी छात्र मंच बनाकर जनता के भ्रमों को और बढ़ावा दे। क्योंकि अण्णा हज़ारे की ही तरह उसे भी व्यवस्था को क्रान्तिकारी परिवर्तन से नहीं बदलना है, बल्कि इसी में पैबन्दसाज़ी करते हुए, लाल जुमलों का इस्तेमाल करते हुए शासक वर्गों की ही सेवा करनी है। लेकिन जो सही मायने में इस देश और समाज में क्रान्तिकारी परिवर्तन के मार्ग को अपनाते हैं, उन्हें इस प्रकार के सभी धूम्रावरणों को चीरकर और भ्रमों को तोड़कर क्रान्तिकारी परिवर्तन की परियोजनाओं को संगठित करने में अपनी पूरी ताकत लगानी होगी।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2011

 

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