नंदन नीलेकणी के नेतृत्व में सरकार की यू आई डी योजना
जनता के नाम पर पूँजी और उसकी राज्यसत्ता का आधार मजबूत करने की चाल
आनन्द
हाल ही में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर पत्रकारों को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि सरकार के पास कोई जादू की छड़ी नहीं है जिसे घुमाते ही भ्रष्टाचार गायब हो जायेगा। जहाँ एक ओर प्रधानमंत्री महोदय भ्रष्टाचार के मुद्दे पर इस प्रकार अपने हाथ खड़े कर रहे हैं वहीं दूसरी ओर उनके चहेते और उनके मार्गदर्शन में संचालित की जाने वाली नवउदारवादी नीतियों के ‘पोस्टर ब्याय’ नंदन नीलेकणी वास्तव में एक ऐसी जादू की छड़ी की बात कर रहे हैं जिसके अस्तित्व में आने के बाद न सिर्फ भ्रष्टाचार बल्कि गरीबी भी छू-मंतर हो जायेगी और देश में लोक प्रशासन का कायाकल्प हो जायेगा। ये जादू की छड़ी है यू आई डी (यूनीक आइडेंटिफिकेशन कार्ड) जिसमें हर नागरिक की बायोमेट्रिक सूचना दसों उँगलियों के छाप और आयरिस स्कैन यानी आँख की पुतलियों की डिजिटल सूचना दर्ज होगी और जिसके आधार पर वह प्रमाणपूर्वक कह सकता है कि वह वास्तव में वही व्यक्ति है जो होने का वह दावा कर रहा है। ‘‘आधार’’ नाम की यह योजना यू.आई.डी.ए.आई. (यूनीक आइडेंटिफिकेशन अॅथारिटी ऑफ इण्डिया) द्वारा संचालित की जा रही है जिसके अध्यक्ष नंदन नीलेकणी हैं जो पिछले दो वर्षों से सॉफ़्टवेयर की मार्केटिंग छोड़कर यू.आई.डी. की मार्केटिंग में लगे हुए हैं।
नागरिकों की निजी सूचनाओं के संग्रह के लिए एक केन्द्रीय डाटाबेस की जरूरत पर राज्यसत्ता की ख़ुफ़िया एजेंसियाँ बहुत पहले से जोर डालती रही हैं। यूआईडी मूलतः और मुख्यतः ऐसे ही केन्द्रीय डाटाबेस की सुरक्षा संबन्धी जरूरत को पूरा करने का साधन है। लेकिन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार इस बेहद खर्चीली योजना (अनुमानतः 45,000.1,50,000 करोड़ रूपये) के पक्ष में जनमत तैयार करने के लिए बड़ी ही चालाकी से यूआईडी के इस मुख्य पहलू को पीछे करके इसको एक विकास एवं जनकल्याण संबन्धी जरूरत के रूप में प्रचारित कर रही है। इन्फोसिस में अपने कार्यकाल के दौरान नंदन नीलेकणी अपने तकनीकी हुनर के साथ-साथ सॉफ़्टवेयर प्रोडक्ट की ब्राण्डिंग एवं मार्केटिंग के लिए भी जाने जाते रहे हैं। यूआईडी की योजना को लागू करने के लिए सरकार को ऐसे व्यक्ति की तलाश थी जो इसके तकनीकी पहलू को समझने के अलावा इसकी एक विकास संबन्धी जरूरत के रूप में कुशलतापूर्वक ब्राण्डिंग एवं मार्केटिंग भी कर सके। सरकार को राज्यसत्ता की सुरक्षा को चुस्त-दुरुस्त करने वाली इस योजना को लागू करने के लिए नंदन नीलेकणी के रूप में एक आदर्श व्यक्ति मिल गया। शायद इसीलिए इन्फोसिस के सीईओ के कार्यभार से सेवानिवृत्त होने के फौरन बाद सरकार ने आनन-फानन में यूआईडीएआई के गठन की घोषणा कर दी और नीलेकणी को इसका अध्यक्ष नियुक्त किया और उनको कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया। यहाँ तक कि सरकार ने इतने बड़े पैमाने पर नागरिकों की बेहद निजी सूचना एकत्र करने वाली इस बेहद खर्चीली योजना और इसको संचालित करने वाले तंत्र को लागू करने से पहले संसद की मंजूरी लेने की औपचारिकता पूरी करना भी जरूरी नहीं समझा।
सरकार का दावा है कि ‘‘आधार’’ योजना के अमल में आने के बाद नागरिकों की बुनियादी सुविधाओं को प्रदान करने में राज्य को सहूलियत होगी, सरकारी विभागों में भ्रष्टाचार में कमी आयेगी और गरीबी हटाने के उद्देश्य से बनायी गयी मनरेगा जैसी तमाम स्कीमों को प्रभावी ढ़ंग से लागू किया जा सकेगा क्योंकि यूआईडी नंबर की मदद से गरीबों की पहचान करनी आसान हो जायेगी। लेकिन सच्चाई तो यह है कि विभिन्न सरकारी विभाग नागरिकों को बुनियादी सुविधाओं को प्रदान करने में और गरीबी हटाओ अभियान के अंतर्गत विभिन्न स्कीमों को प्रभावी ढ़ंग से लागू करने में नितांत विफल साबित हुए हैं। इसका मुख्य कारण यह नहीं है कि नागरिक अपनी पहचान नहीं सिद्ध कर पाते हैं। इसकी मुख्य वजह है नौकरशाही का पदसोपानक्रम पर आधारित औपनिवेशिक ढ़ाँचा जो अपने जन्म से ही जनता की सेवा के लिए नहीं बल्कि उस पर राज करने के लिए बना है और जिसमें उसी की तूती बोलती है जिसके पास धनबल है। इस औपनिवेशिक ढ़ाँचे में योजना बनाने से लेकर उनके लागू होने तक की किसी भी मंजिल में जनता की कोई भागीदारी और सहभागिता नहीं होती बल्कि ये सारे काम निरंकुश नौकरशाही द्वारा संपन्न कराये जाते हैं। जनता की भागीदारी के नाम पर ज़्यादा से ज़्यादा तथाकथित सिविल सोसाइटी के कुछ बुद्धिजीवियों को योजना बनाने और उनके ऑडिट की प्रक्रिया में शामिल करके रस्मअदायगी पूरी कर दी जाती है। जब तक नौकरशाही का औपनिवेशिक ढ़ाँचा बरकरार रहेगा, जब तक नौकरशाही पर जनता की सामूहिक चौकसी और निगरानी करने के लिए निकाय बना कर जनता की सामूहिक पहलकदमी निर्बन्ध नहीं की जाती तब तक जनकल्याण की योजनाओं तथा सरकारी सुविधाओं को प्रभावी नहीं बनाया जा सकता। यूआईडी के जरिये शासक वर्ग इस ढाँचागत समस्या को टेक्नोलोजी के माध्यम से हल करने का दम्भ भर रहा है जोकि हास्यास्पद है। नागरिकों की पहचान सिद्ध करने के लिए वर्तमान समय में भी राशन कार्ड, इलेक्शन कार्ड, पैन कार्ड आदि जैसे पहचान पत्र इस्तेमाल किये जाते हैं, ऐसे में एक और कार्ड आ जाने से जनता को सहूलियत तो दूर उल्टे उसकी परेशानी ही बढ़ेगी।
वैसे यह गौर करने वाली बात है कि नवउदारवाद के इस युग में जब राज्य जनता को बुनियादी सुविधायें प्रदान करने की जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ता जा रहा है, ऐसे में नवउदारवाद के उत्साही पैरोकार और समर्थक राज्य द्वारा नागरिकों को सुविधा प्रदान करने के बारे में यकायक इतने गंभीर क्यों दिखायी पड़ रहे हैं? नवउदारवाद के तर्क से तो राज्य को गरीबी हटाओ जैसे अभियानों के चक्कर में पड़ने की बजाय सब कुछ बाजार की शक्तियों पर छोड़ देना चाहिये जिनकी जादुई ताकत से गरीबी अपने आप हवा हो जायेगी! फिर ऐसा क्यों है कि नवउदारवाद के ये उत्साही पैरोकार और समर्थक गरीबों के गम में इतने दुबले होते जा रहे हैं और बाजार की जादुई शक्ति की बजाय यूआईडी जैसी जादू की छड़ी पर भरोसा करते दिखायी पड़ रहे हैं? इस विरोधभास को समझने के लिए हमें यूआईडी की संकल्पना के इतिहास पर एक नजर दौड़ानी होगी।
जैसा कि पहले इंगित किया जा चुका है यूआईडी की संकल्पना मुख्यतः और मूलतः राज्यसत्ता की सुरक्षा की जरूरत को ध्यान में रखकर सोची गयी थी। कारगिल युद्ध के उपरांत बनी ‘कारगिल रिव्यू कमेटी’ ने वर्ष 1999 में ही राज्यसत्ता को चुस्त दुरुस्त करने के उद्देश्य से नागरिकों की निजी सूचना का एक केन्द्रीय डाटाबेस तैयार करने की बात की थी। तत्कालीन राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार ने इस सिफारिश पर अमल करते हुए ‘राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर’ और ‘बहुउद्देशीय राष्ट्रीय पहचान पत्र’ की योजना की शुरूआत भी की थी। वर्तमान सरकार की ‘आधार’ योजना दरअसल इन्हीं योजनाओं की निरंतरता में है जिसके पक्ष में जनसमर्थन जुटाने के लिए इसके सुरक्षा के मुख्य पहलू को पीछे करके विकास और जनकल्याण के गौढ़ पहलू को आगे किया जा रहा है। यूआईडी द्वारा एकत्र की गयी नागरिकों की बेहद निजी बायोमेट्रिक सूचना नैटग्रिड (नेशनल इंटेलिजेंस ग्रिड) के 21 डाटाबेसों के जरिये देश की 11 सुरक्षा एजेंसियों को उपलब्ध होंगी। नैटग्रिड देश की विभिन्न सुरक्षा एजेंसियों के बीच सूचनाओं के आदान प्रदान करने के लिए स्थापित की गयी संस्था है। हाल ही में इसके चेयरमैन कैप्टन रघु रमन की अगुवाई में उद्योग जगत की ‘होमलैण्ड सिक्योरिटी इन इण्डिया’ नामक एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई है जिसमें यूआईडी और नैटग्रिड के बीच के संबन्ध का वर्णन किया गया है। कैप्टन रघु रमन ने अपने एक लेख में तो यहाँ तक कहा है कि समाज में बढ़ती हुई असमानता एक विस्फ़ोटक स्थिति अख्तियार कर सकती है जिससे बचने के लिए देश की आंतरिक सुरक्षा ‘कमर्शियल जारों’ के हाथों में थमा देनी चाहिये और कॉरपोरेट घरानों के साम्राज्य को बचाने के लिए उन्होंने ‘प्राइवेट टेरिटोरियल आर्मी’ की सिफारिश भी की है। ज़ाहिर है कि यू आई डी की मदद से एकत्र डाटा का इस्तेमाल पूँजीवादी संकट और सामाजिक असमानता की वजह से अपरिहार्य रूप से उत्पन्न होने वाले जनांदोलनों और क्रांतिकारी आंदोलनों के दमन के लिए भी किया जायेगा। यही नहीं इस डाटा की मदद से किसी भी समुदाय विशेष की सोशल प्रोफाइलिंग भी बहुत आसानी से की जा सकती है जिसका इस्तेमाल सांप्रदायिक और फासीवादी ताकतें अल्पसंख्यकों का सफाया करने की अपनी घृणित योजना को अंज़ाम देने में भी कर सकती हैं। गौरतलब़ है कि जर्मनी में हिटलर के फासीवादी शासन काल के दौरान नाजी पार्टी ने यहूदियों के सफाये के लिए अमेरिकी कम्पनी आईबीएम द्वारा निर्मित पंचिंग सिस्टम द्वारा एकत्र जनगणना संबन्धित डाटा का इस्तेमाल यहूदियों की पहचान स्थापित करने में किया गया था।
गौर करने वाली बात यह भी है कि यूआईडी की बेहद खर्चीली योजना का ज़ोर-शोर से समर्थन करने वालों में वो उद्योगपति भी शामिल हैं जो किसी भी जनकल्याणकारी योजना का यह कहकर विरोध करते रहे हैं कि उससे राज्यकोषीय घाटे (फिस्कल डेफिसिट) में बढ़ोत्तरी होगी जिससे आर्थिक अस्थिरता बढ़ेगी। इसका कारण यह है कि एक ओर तो इस योजना को आउटसोर्सिंग के जरिये पूर्ण रूप से निजी कम्पनियों द्वारा लागू होना है जिसमें मुनाफ़े का जबर्दस्त स्कोप है, वहीं दूसरी ओर इस योजना द्वारा एकत्र डाटा का इस्तेमाल निजी कम्पनियाँ अपने उत्पादों की मार्केटिंग के लिए भी कर सकती हैं जिससे बाजार का विस्तार होगा। यानी कि सरकारी खर्चे पर निजी कम्पनियों को मार्केटिंग के लिए डाटा उपलब्ध हो सकेगा। यही नहीं यूआईडी का इस्तेमाल करके ‘डायरेक्ट कैश ट्रांसफर’ और ‘फूड स्टैम्प’ जैसी स्कीमों को लागू करने की बात चल रही है जिससे सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पी.डी.एस.) के रहे-सहे ढ़ाँचे को भी निर्णायक तरीके से ध्वस्त करके खाद्यान्न क्षेत्र को पूरी तरह से बाजार की शक्तियों के हवाले करके पूँजीपतियों के मुनाफ़े का दायरा बढ़ाया जा सके। यूआईडी की इस योजना से दलालों और छुटभैये नेताओं की भी चाँदी हो गई है। दलालों को दलाली खाने का एक नया माध्यम मिल गया है वहीं छुटभैये नेताओं को वोटबैंक सुदृढ़ करने का नया जरिया मिल गया है।
यूआईडी की इस योजना के अमल में आने से नागरिकों की बेहद निजी सूचनायें न सिर्फ सरकार और उसकी खुफिया एजेंसियों तक ही नहीं बल्कि देशी और विदेशी कम्पनियों और यहाँ तक कि विदेशी सरकारों और उनकी खुफिया एजेंसियों तक भी उपलब्ध होने का खतरा बना रहेगा। इस योजना को लागू करने का ठेका दर्जनों देशी और विदेशी कम्पनियों को दिया जा चुका है जिनमें एक्सेंचर और एल-1 आइडेंटिटी सॉल्यूशन्स जैसी अमेरिकन कम्पनियाँ भी शामिल हैं जो अमेरिका की सुरक्षा तथा खुफ़िया एजेंसियों के लिए भी काम करती हैं। एल-1 आइडेंटिटी सॉल्यूशन्स के निदेशकों में कुख्यात अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए में काम कर रहे लोग शामिल है। विकीलीक्स के खुलासों में यह बात उभर कर आई थी कि अमेरिकी सरकार भारत के नागरिकों के बायोमेट्रिक डाटा में दिलचस्पी ले रही है। ऐसे में अमेरिकी कम्पनियों को ठेका देना निश्चित रूप से नागरिकों की संप्रभुता पर हमला है।
देश के सभी नागरिकों की बायोमेट्रिक सूचना एकत्र करने की योजना अमेरिका और ब्रिटेन जैसे विकसित देशों में भी नहीं लागू हो पायी है। वर्ष 2005 में अमेरिका में रियल आईडी नामक एक ऐसी ही योजना की शुरूआत की गई थी। लेकिन इस योजना पर काम कर रहे वैज्ञानिकों ने पाया कि इतनी बड़ी जनसंख्या और एक लंबे समयांतराल में बायोमेट्रिक सूचना की अनन्यता की कोई गारण्टी नहीं दी जा सकती। इसके बाद यह योजना रद्द कर दी गई। इसी किस्म की योजना ब्रिटेन में भी शुरू की गई थी जिससे प्रेरणा लेकर भारत में यूआईडी के पैरोकार इसके पक्ष में दलीलें पेश कर रहे थे। लेकिन नागरिक आजादी और जनवादी आधिकार कार्यकर्ताओं और ब्रिटेन के आम नागरिकों के जबर्दस्त विरोध के चलते अभी हाल ही में वहाँ की सरकार ने इस योजना को इस आधार पर रद्द कर दिया है कि ऐसी योजना से राज्य के पास नागरिकों के निजी ज़िन्दगी में अतिक्रमण की क्षमता बहुत बढ़ जायेगी। लेकिन अभी भी भारत में यू आई डी के पैरोकार इसकी खूबियों की रट लगाये जा रहे हैं बावजूद इसके कि भारत जैसे देश में जहाँ अधिकांश इलाकों में दिन के ज़्यादातर समय बिजली नहीं रहती और जहाँ निर्बाध रूप से नेटवर्क कनेक्टिविटी नहीं उपलब्ध है वहाँ यू आई डी जैसी हाई टेक योजना निहायत ही अव्यावहारिक है। यही नहीं ऐसे लोग जिनकी उँगलियाँ काम करते-करते घिस जाती हैं और नेत्रहीनता तथा मोतियाबिंद जैसी आँख की बीमारियों के शिकार लोगों के लिए अपनी पहचान साबित करना बहुत मुश्किल हो जायेगा। इसके अतिरिक्त हैकिंग के जरिये किसी की पहचान चुराना या फिर उसमें फेरबदल करने की संभावनाओं से भी इन्कार नहीं किया जा सकता।
यह एक चिंताजनक सवाल है कि नागरिकों की निजी गुप्तता पर हमला करने वाली जिन योजनाओं को अमेरिका और ब्रिटेन जैसे उन्नत देशों में अव्यवहारिक और जनविरोधी मानकर रद्द कर दिया गया वैसी ही योजना को भारत का शासक वर्ग बड़ी ही आसानी से लागू कर रहा है और इसका कोई कारगर विरोध भी अभी तक नहीं उभरा है। हालाँकि नागरिक आजादी और जनवादी अधिकार आंदोलन से जुड़े कुछ कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों ने इस मुद्दे पर अखबारों में और इण्टरनेट पर लिखा है लेकिन देश की व्यापक आम आबादी और यहाँ कि पढ़े लिखे मध्य वर्ग को भी इस योजना के भयावह निहितार्थ के बारे में कोई जानकारी नहीं है। ऐसे में नागरिक आजादी और जनवादी अधिकार आंदोलन से जुड़े लोगों और प्रबुद्ध नागरिकों का दायित्व है कि इस मुद्दे पर एकजुट होकर एक देशव्यापी मुहिम चलाकर देश की जनता को शासक वर्ग की इस धूर्ततापूर्ण चाल के बारे में आगाह करें जिससे कि एक कारगर प्रतिरोध खड़ा किया जा सके।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2011
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