श्रीराम सेने ने मचाया उत्पात और अण्णा हो गये मौन!!
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पूंजीवादी समाज में सब कुछ बेचने के लिए पैदा किया जाता है। वह चाहे अनाज हो, कला हो, मनोरंजन या फिर समाचार। सनसनी पैदा करना और उसे बेचना पूँजीवाद के सड़ते सामाजिक ढाँचे को दिखा रहा है। पिछले 5-6 महीनों से ब्राण्ड अण्णा को खूब बेचा गया। उसके बाद 13 अक्टूबर को प्रशान्त भूषण की श्रीराम सेने द्वारा पिटाई और दूसरे दिन अण्णा-समर्थकों की कोर्ट में धुलाई ने मीडिया को ‘रियैलिटी शो’ जैसा मसाला दे दिया। इस रियैलिटी शो के लिए श्रीराम सेने ने कितना पैसा लिया यह अभी पता नहीं है क्योंकि पहले भी श्री राम सेने के मुखिया प्रमोद मुथालिक पैसा लेकर कोई भी काम करने की बात करते हुए तहलका के स्टिंग ऑपरेशन में पकड़े गये हैं। इस पूरे प्रकरण में असली सवाल गायब कर दिया गया है। सिर्फ मारपीट की सनसनी फैलाकर खूब समाचार बेचा गया। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर हमला करने वाले फासिस्ट गुण्डों से कैसे निपटा जाये इस पर कोई भी बातचीत नहीं हुई। राष्ट्रवाद के नाम पर मानवता के दुश्मनों को ताकतवर दिखाकर छोड़ दिया गया। बल्कि होना यह चाहिए था कि कश्मीर मुद्दे पर खुली बातचीत आयोजित की जाती जो नहीं की गयी। वहाँ के प्रतिनिधियों को बुलाकर चर्चा की जा सकती थी ताकि भारत की जनता को दूसरा पक्ष भी पता चलता। कश्मीर को विवादास्पद मुद्दा बताकर और भारत का अभिन्न अंग बताकर दूसरे सभी पक्षों की आवाज़ को दबा दिया गया।
श्रीराम सेने का इतिहास
श्रीराम सेने का गठन 1960 के दशक में कालकी जी महाराज ने किया जो एक समय शिवसेना के प्रमुख बाल ठाकरे का दायाँ हाथ हुआ करता था। श्रीराम सेने चर्चा में तब आयी जब 2008 में उसके गुण्डों ने हुसैन की पेण्टिंग प्रदर्शनी में तोड़फोड़ की और मंगलोर के पब में घुसकर मारपीट की गयी थी। श्री राम सेने का प्रमुख प्रमोद मुथालिक पहले विश्व हिन्दू परिषद में था। मालेगाँव बम विस्फोट का मुख्य अभियुक्त कर्नल पुरोहित श्रीराम सेने की प्रशंसा करता है और मुथालिक साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को, जो कि आतंकी बम विस्फोट की अभियुक्त है, निर्दोष बताता है। तहलका द्वारा किये गये स्टिंग आपरेशन में प्रमोद मुथालिक पैसा लेकर काम करने को स्वीकारता है और पुलिस व राजनेताओं से अपने घनिष्ठ सम्बन्ध भी बताता है। राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ और इनकी विचारधारा एक ही जैसी है फर्क इतना ही है कि एक बड़ा संगठित फासीवादी राजनीतिक गिरोह है तथा दूसरा छोटा माफिया गिरोह। वैसे श्रीराम सेने, राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ, बजरंग दल, एबीवीपी से लेकर विश्व हिन्दू परिषद, शिव सेना जैसे फासीवादियों के असली गुरू इटली का मुसोलिनी और जर्मनी का हिटलर है। भारत में साम्प्रदायिक फासीवाद के वैचारिक बीच बोने वाला मुंजे 1931 में इटली गया था और वहाँ उसने मुसोलिनी से भी मुलाकात की थी। 1924 से 1935 तक आर-एस-एस से करीबी रखने वाले अख़बार ‘केसरी’ ने मुसोलिनी और उसकी फासीवादी सत्ता की प्रशंसा में लगातार लेख छापे। मुंजे ने हेडगेवार को मुसोलिनी द्वारा युवाओं के दिमाग़ में ज़हर घोलकर उन्हें फासीवादी संगठन में शामिल करने के तौर-तरीकों के बारे में बताया। इसी समय विनायक दामोदर सावरकर ने जर्मनी के नात्सियों से सम्पर्क स्थापित किया। सावरकर ने जर्मनी में हिटलर द्वारा यहूदियों के सफाये को सही बताया। भारत में हिन्दू साम्प्रदायिक फासीवादी अन्धराष्ट्रवाद भी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का जामा पहनकर सामने आया जो आज पूरे देश में ज़हर घोल रहा है। स्पष्ट है इनके विभिन्न वंशजों से निपटने का काम न तो इस देश की कानून-व्यवस्था कर सकती है और न ही केजरीवाल-अण्णा ब्राण्ड लोग। वरना तहलका के स्टिंग में बेनक़ाब मुतालिक और बाबू बजरंगी जैसे लोग आज तक छुट्टे नहीं घूम रहे होते।
अण्णा का मौन व्रत
प्रशान्त भूषण की पिटाई के बाद अण्णा हज़ारे अगले ही दिन मौन व्रत धारण कर गये और लिखित सन्देश में कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बताया और कहा कि वह पाकिस्तान के खि़लाफ़ लड़ चुके हैं और अगर कभी भारत-पाकिस्तान युद्ध हुआ तो वे अब भी लड़ने के लिए तैयार हैं! इस तरह का बयान गाँधीवादी नेता तो नहीं ही देगा! अण्णा हजारे श्रीराम सेने के गुण्डों पर कठोर कार्यवाही करने की जगह इस तरह के लोगों से अपील कर रहे है कि ‘आपको देश सम्भालना है ऐसा काम न करें।’ अगर प्रमोद मुतालिक जैसे लोगों को देश सम्भालने की जिम्मेदारी दे दी गयी तो कल्पना की जा सकती है कि क्या होगा! अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता तो भारत का संविधान भी देता है। अगर कोई व्यक्ति किसी मसले पर अपनी राय देता है जो किसी दूसरे व्यक्ति या संगठन को पसन्द नहीं तो इसके लिए उस व्यक्ति को मारना या धमकाना फासीवादी आतंक फैलाना नहीं तो और क्या है? इसका मतलब यह हुआ कि अगर श्रीराम सेने जैसे संगठन को भक्ति संगीत पसन्द है तो आप भी वही संगीत सुनिये, अगर वो शाकाहारी हैं तो आप भी शाकाहारी बनिये नहीं तो आपका सिर तोड़ दिया जायेगा! वैसे अण्णा हज़ारे ने कुछ इसी तरह का प्रयोग अपने गाँव रालेगण सिद्धी में किया है! उसके विस्तार में जाना यहाँ सम्भव नहीं, आप ‘आह्नान’ के पिछले तीन अंकों में इसके बारे में विस्तार से पढ़ सकते हैं।
अण्णा हज़ारे अपने आप को फँसता देख मौनव्रत पर चले गये और यह उनका पहला मौन व्रत नहीं है। जब मुम्बई में उत्तर भारतीयों को पीटा जा रहा था तब भी वे मौन थे, गुजरात में लोग सरेआम कत्ल किये जा रहे थे तब भी वे मौन थे; उल्टे इस नरसंहार के जिम्मेदार नरेन्द्र मोदी की भी एक बार प्रशंसा की, हालाँकि बाद में पलट गये; इसके अलावा राज ठाकरे जैसे लोगों के साथ मंच साझा करने में भी अण्णा हज़ारे गर्व अनुभव करते हैं! पूरे देश में लाखों किसान आत्महत्या कर रहे हैं, वे तब भी मौन हैं; देश भर में मज़दूरों को कुचला जा रहा है और उनके हक-अधिकारों को रौंदा जा रहा है, तब भी वे मौन है। उनके भ्रष्टाचार विरोध का ड्रामा चल रहा था उसी समय गुड़गाँव में मज़दूर अपनी गरिमा और अधिकारों के लिए लड़ रहे थे। अण्णा हज़ारे या उनकी मण्डली के एक भी मदारी को यह नज़र नहीं आया। नज़र भी क्यों आता, सुजुकी और मारूती जैसे कारपोरेट तो चिरन्तर सदाचारी हैं, और शायद इसीलिए जनलोकपाल के दायरे में कारपोरेट जगत का भ्रष्टाचार नहीं आता। अण्णा हज़ारे को बस अपना ‘जनलोकपाल बिल’ पास होना मँगता है! चाहे मज़दूर मरते रहें, ग़रीब किसान आत्महत्या करते रहें। अण्णा टीम के जनलोकपाल विधेयक में एनजीओ, कारपोरेट सेक्टर और ट्रस्ट शामिल ही नहीं किये गये है क्योंकि अण्णा के सबसे करीबी लोगों अरविन्द केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, किरण बेदी के पास एन-जी-ओ- और ख़ुद के ट्रस्ट हैं। ‘आउटलुक’ में 19 सितम्बर को प्रकाशित लोला नायर की एक रिपोर्ट के अनुसार अरविन्द केजरीवाल और मनीष सिसोदिया द्वारा चलाये जा रहे संगठनों को पिछले तीन सालों में फोर्ड फाउण्डेशन से चार लाख डॉलर मिल चुके हैं। ‘इण्डिया अंगेस्ट करप्शन’ में कुछ ऐसे संस्थान जुड़े हैं जिनके पास एल्युमिनियम के कारख़ाने हैं, और वे बन्दरगाह और सेज़ तक बनाते है। अण्णा टीम की दूसरी सदस्य किरण बेदी द्वारा सेमीनार और सभाओं में जाने के लिए एन-जी-ओ- और संस्थानों से यात्रा खर्च बढ़ा-चढ़ाकर लेने की बात सामने आयी है, जिस पर उन्होंने कहा कि वे ऐसा करती तो हैं लेकिन इस तरह से बटोरे गये माल का इस्तेमाल वे “जनहित” में करती हैं! अब यह तो दाऊद इब्राहिम भी कह सकता है कि तस्करी और सुपारी पर हत्याएँ करके बटोरे गये धन का उपयोग वह जनहित में करता है! ये भ्रष्टाचार विरोधी धर्म योद्धा अपने भ्रष्टाचार के बारे में कोई बिल नहीं चाहते। इसीलिए कारपोरेट और एन-जी-ओ- सेक्टर को जनलोकपाल के दायरे से बाहर रखा गया है, जिनमें से एक दाता है और एक पाता है! ग़ौरतलब है कि किरण बेदी का ख़ुद अपना एन-जी-ओ- है इण्डिया विज़न फ़ाउण्डेशन। वहीं सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र और राज्य सरकार को नोटिस भेजा कि अण्णा हजारे के ‘हिन्द स्वराज ट्रस्ट’ की जाँच सी-बी-आई- से करायी जाये। मालूम हो अण्णा हजारे का ट्रस्ट 1995 में बना था लेकिन इसमें ग़ैर कानूनी ढंग से इस वित्त वर्ष से पहले ही सरकारी आर्थिक सहायता दी गयी थी। याचिका में कहा गया है कि ट्रस्ट ने गै़र-कानूनी तरीके से एक करोड़ रुपये से ज़्यादा रकम ‘कांउसिल फॉर एडवांसमेण्ट ऑफ पीपुल्स एक्शन एण्ड रूरल टेक्नोलॉजी’ (कपार्ट) से हासिल की थी। 1995 में अण्णा ने कपार्ट से 75 लाख रुपये लिए और 2001 मे कपार्ट से पाँच करोड़ रुपये ग्रामीण स्वास्थ्य के नाम पर लिया। सभी पैसे अनियमित तरीके से लिये गये।
पिछले कुछ वर्षों में एक के बाद एक घोटाले हुए जिनमें सभी बड़ी चुनावी पार्टियों के नेताओं के नाम आये। इनमें मीडिया, कारपोरेट घरानों, बड़े पत्रकारों और नेता-मन्त्री वर्ग की साँठगाँठ खुले तौर पर सामने आ गयी। बढ़ती महँगाई, बेरोज़गारी और जगह-जगह मज़दूरों और किसानों के संघर्ष पूँजीवादी लोकतन्त्र पर सवाल खड़ा कर रहे थे। पूँजीवादी लोकतन्त्र से जनता का विश्वास उठ रहा था, ठीक उसी समय कई भ्रष्टाचार-विरोधी शिगूफे छोड़े गये जिसमें से एन-ए-पी-एम- (नेशनल एलायंस फॉर पीपुल्स मूवमेण्ट्स) के मंच से फुलाया गया अण्णा हज़ारे का आन्दोलन सबसे सफल हो गया। जो खिलाड़ी इस खेल में पिछड़ गये या जिन्हें इस आन्दोलन में हाशिये पर धकेल दिया गया, वे अभी तक ‘बेमंची-बेमंची’ चिल्ला रहे हैं, जैसे कि अरुणा रॉय, राजेन्द्र सिंह आदि! पूँजीवादी मीडिया, कारपोरेट और एनजीओ ने इस मुहिम को खूब हवा दी व्यवस्था को व्यवस्था के खि़लाप़फ़ पैदा हुए जन असन्तोष को एक रबड़ के गुब्बारे में सोख लेने में मदद की। दिग्विजय सिंह स्वयं पूँजीपतियों और ठेकेदारों की सेवा करने वाला एक घाघ नेता है, लेकिन आपसी अन्तरविरोधों के कारण और अण्णा हज़ारे के वस्तुगत तौर भाजपा का मददगार बनने से चुनावी गणित गड़बड़ाने के कारण वह जो-जो खुलासे कर रहा है उससे पूँजीवादी व्यवस्था का यह नया शिगूफ़ा बरबाद होता नज़र आ है। खै़र, यही होना था और अच्छा है कि ऐसा हो रहा है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, सितम्बर-अक्टूबर 2011
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