Category Archives: पूंजीवादी संस्‍कृति

सेल्फ़ी संस्कृति- पूँजीवादी युग में अलगाव एवं व्यक्तिवाद की चरम अभिव्यक्ति

जो परिस्थितियाँ सेल्फ़ी जैसी आत्मकेन्द्रित सनक को पैदा कर रही हैं, वही फ़ासीवादी बर्बरता को भी खाद-पानी दे रही हैं। यह महज़ संयोग नहीं है कि हिन्दुस्तान जैसे मुल्क में सेल्फ़ी की सनक का सबसे बड़ा ब्राण्ड अम्बैसडर एक ऐसा व्यक्ति है जो आज के दौर में फ़ासीवाद का प्रतीक पुरुष भी बन चुका है। दूसरों के दुखों व तकलीफों के प्रति संवेदनहीन और खासकर शोषित-उत्पीड़ित जनता के संघर्षशील जीवन से कोई सरोकार न रखने वाले आत्मकेन्द्रित व आत्ममुग्ध निम्नबुर्जुआ प्राणी ही फ़ासीवाद का सामाजिक आधार होते हैं।

‘पाप और विज्ञान’: पूँजीवादी अमेरिका और समाजवादी सोवियत संघ में नैतिक प्रश्नों के हल के प्रयासों का तुलनात्मक ब्यौरा

सोवियत सरकार द्वारा व्यभिचार के अड्डों को ध्वस्त करने की मुहिम छेड़े जाने से घबराये ठेकेदारों और वेश्यागृहों के मालिकों ने अदालत का दरवाज़ा खटखटाना शुरू कर दिया। वे सोवियत अख़बारों में पत्र भेजकर यह कहने लगे कि सोवियत सरकार वेश्याओं को पनाह देकर और भोले-भाले मालिकों को दण्ड देकर घोर पाप कर रही है। किन्तु सोवियत अधिकारियों ने उनकी चीख-पुकार का उत्तर सेना की ओर से और भी कड़ी कार्रवाई से दिया। ठेकेदारों ने यह दलील देनी शुरू की कि वेश्याओं को अपना पेशा ज़ारी रखने का हक़ है। अधिकारियों ने प्रश्न-पत्र का ज़िक्र करते हुए कहा कि औरतों ने व्यभिचार को मजबूरी की हालत में अपनाया है और समाज का यह कर्तव्य है कि वह उन्हें अच्छे काम देकर व्यभिचार से मुक्त करे।

बाबाडम और माताडम: दिव्यता के नये कामुक और बाज़ारू अवतार

बाबाडम और माताडम के बाज़ार का भी एक राजनीतिक अर्थशास्त्र है। वहाँ भी किसी भी अन्य पूँजीवादी बाज़ार के समान प्रतिस्पर्द्धा है। ऐसे में एक नये उपभोक्ता आधार को पैदा करने नयी माँग को समझने को अनिवार्य बना देता है। राधे माँ और इसी प्रकार के नये बाज़ारू बाबाओं और माताओं का उदय इसी माँग की आपूर्ति है। लेकिन इस बाज़ार में भी, ठीक पूँजीवादी समाज के ही समान स्त्रियों की स्थिति अधीनस्थ है और राधे माँ की परिघटना इस बात को ही सिद्ध करती है। स्त्रियों की दिव्य शक्ति का स्रोत हर-हमेशा उसके कुमारी (वर्जिन) होने में निहित होता है मिसाल के तौर पर दुर्गा या काली। किसी पुरुष देवता की पत्नियाँ हर-हमेशा शान्त और निर्मल भाव-मुद्रा में चुपचाप खड़ी या बैठी रहती हैं! एक दौर में सन्तोषी माँ का कल्ट भी पैदा हुआ था और इस पर आयी हिन्दी फिल्म ने इसे काफ़ी बढ़ावा दिया था। लेकिन सन्तोषी माँ का काम घर के झगड़े और कलह निपटाने तक ही सीमित था। उदारीकरण से पहले के दौर में इस प्रकार की देवियों के कल्ट ही निर्मित किये जा सकते थे और जो माताएँ पैदा होती थीं, उनकी धार्मिक वैधता भी इन्हीं कल्टों से निकलती थी। लेकिन उदारीकरण के बाद के दौर में औरतों का मालकरण व वस्तुकरण भी बड़े पैमाने पर हुआ है और इसके अंग के तौर पर ही उनका एक पूँजीवादी समाजीकरण भी हुआ है। इस दौर में शक्ति पंथ की कुमारी देवियों की प्रासंगिकता माताडम के धन्धे में बढ़ना स्वाभाविक है। यह सच है कि राधे माँ स्वयं शादीशुदा है, लेकिन प्रतीकात्मक और लक्षणात्मक स्तर पर उसके तमाम प्रोजेक्टेड रूप उसी इमेजरी को उभारते हैं जो कि एक कुमारी देवी की यौनिक-कामुक व शारीरिक शक्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं। लेकिन हूबहू उसी रूप में नहीं जिस रूप में प्राचीन हिन्दू धर्म में होता है। इसका एक नया आधुनिक नवउदारवादी अवतार हमें राधे माँ के तौर पर दिखता है। इण्टरनेट पर लाल मिनी ड्रेस और लाल कैप में राधे माँ की जो तस्वीरें फैल गयीं थीं, उनमें राधे माँ का जो रूप है वह एक डॉमिनेट्रिक्स जैसा है। ज़ाहिर है यह रूप और साथ ही एक आधुनिक ड्रेस में बॉलीवुड के गानों पर नृत्य करते हुए एक बाग़ में उछल-कूद मचाना नवउदारवादी युग के उच्च मध्यवर्ग की पतित फैंसीज़ द्वारा प्रस्तुत माँगों की आपूर्ति करता है।

पोर्नोग्राफ़ी पर प्रतिबन्ध: समर्थन और विरोध के विरोधाभास

महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि वेश्यावृत्ति, अश्लीलता, स्त्रियों व बच्चों की तस्करी या यौन उत्पीड़न पोर्नोग्राफ़ी से पैदा हुआ है या मामला उल्टा है? कुछ लोगों ने इस प्रकार के भी विचार प्रस्तुत किये कि पोर्न साइट्स के कारण स्त्रियों व बच्चों के यौन शोषण व तस्करी को बढ़ावा मिल रहा है। यह भी एक पहलू है, मगर मूल बात यह है कि स्त्रियों व बच्चों की तस्करी व यौन उत्पीड़न के संस्थाबद्ध उद्योग के कारण ही पोर्न साइट्स को बढ़ावा मिल रहा है। बल्कि कह सकते हैं कि पोर्नोग्राफ़ी उस उद्योग के तमाम उपोत्पादों में से महज़ एक उत्पाद है। जैसा कि हमने पहले बताया, पोर्न साइट्स व सीडी-डीवीडी के उद्योगों के पहले से ही वेश्यावृत्ति व मानव तस्करी का उद्योग फलता-फूलता रहा है और वैसे तो पोर्नोग्राफ़ी को ख़त्म करने का कार्य पूँजीवाद कर ही नहीं सकता है, लेकिन यदि इस पर कोई प्रभावी रोक लगा भी दी जाय तो वेश्यावृत्ति व मानव तस्करी का धन्धा ख़त्म या कम हो जायेगा, यह मानना नादानी होगा।

‘एम.एस.जी.’ फिल्‍म को प्रदर्शन की अनुमति देने के पीछे की राजनीति

डेरा सच्‍चा सौदा पहले हरियाणा और पंजाब की राजनीति में कांग्रेस का पक्षधर माना जाता था। फिर कांग्रेस के पराभव के साथ ही इस डेरे ने अपने अन्‍य राजनीतिक विकल्पों की तलाश और सौदेबाजी भी शुरू कर दी। उल्लेखनीय है कि विगत लोकसभा चुनावों में डेरा सच्‍चा सौदा ने अकाली दल उम्‍मीदवार और सुखवीर सिंह बादल की पत्‍नी हरसिमरन कौर की जीत में अहम भूमिका निभायी। इन चुनावों के दौरान और हरियाणा के विधान सभा चुनावों के दौरान डेरा सच्‍चा सौदा ने पर्दे के पीछे से अपना पूरा समर्थन भाजपा को दिया था।

हरियाणा के रोहतक में हुई एक और ‘निर्भया’ के साथ दरिन्दगी

स्त्री विरोधी मानसिकता का ही नतीजा है कि हरियाणा में कन्या भ्रूण हत्या होती है और लड़के-लड़कियों की लैंगिक असमानता बहुत ज़्यादा है। हिन्दू धर्म के तमाम ठेकेदार आये दिन अपनी दिमागी गन्दगी और स्त्रियों को दोयम दर्जे का नागरिक मानने की अपनी मंशा का प्रदर्शन; कपड़ों, रहन-सहन और बाहर निकलने को लेकर बेहूदा बयानबाजियाँ कर देते रहते हैं लेकिन तमाम स्त्री विरोधी अपराधों के ख़िलाफ़ बेशर्म चुप्पी साध लेते हैं। यह हमारे समाज का दोगलापन ही है कि पीड़ा भोगने वालों को ही दोषी करार दे दिया जाता है और नृशंसता के कर्ता-धर्ता अपराधी आमतौर पर बेख़ौफ़ होकर घूमते हैं। अभी ज़्यादा दिन नहीं हुए जब हरियाणा के मौजूदा मुख्यमन्त्री मनोहर लाल खट्टर फरमा रहे थे कि लड़कियों और महिलाओं को कपड़े पहनने की आज़ादी लेनी है तो सड़कों पर निर्वस्त्र क्यों नहीं घूमती!

पाखण्ड का नया नमूना रामपाल: आखि़र क्यों पैदा होते हैं ऐसे ढोंगी बाबा

समाज में धर्म के नाम पर लागों को आत्मसुधार का पाठ पढ़ाने वाले ये पाखण्डी ख़ुद अय्याशियों भरा जीवन जीते हैं। लोगों को परलोक सुधारने का लालच देकर इनकी तो सात पुश्तों तक का इहलोक सुधर जाता है। ये पण्डे-पुजारी, मुल्ले-मौलवी और साधु-सन्त लोगों को यह कभी नहीं बताते कि मेहनतकश जनता की बदहाली का कारण पूँजीपतियों की लूट है। ऐसा बताकर ये पूँजीपति वर्ग के हितों के खि़लाफ़ नहीं जा सकते और स्वयं के पैरों पर कुल्हाड़ी नहीं मार सकते, क्योंकि तमाम बड़े-बड़े बाबाओं के ख़ुद के पैसे व संसाधनों के बड़े-बड़े अम्बार लगे होते हैं। पूँजीवादी व्यवस्था का धर्म द्वारा सीधा वैधीकरण तो नहीं होता, लेकिन धर्म का पूँजीवादीकरण ज़रूर हो जाता है।

पूँजीवादी व्यवस्था में स्कूली पाठ्यक्रम: शासक वर्गों का बौद्धिक वर्चस्व स्थापित करने का एक उपकरण

यदि कोई व्यक्ति समाज के लिए कुछ करना चाहता है लेकिन समाज-विज्ञान पर उसकी पकड़ नहीं है तो अनजाने में ही उसकी कला उसके मन्तव्य के विपरीत खड़ी हो सकती है। लोगों को मूर्ख बनाने की होड़ में टेलीविज़न पर चलने वाले सीरियलों का तो ज़िक्र ही क्या, ख़बरिया चैनलों पर होने वाली लम्बी-लम्बी बहसों में बड़ी लगन से शिरकत करने वाले बुद्धिजीवी भी मुद्दों को ग़ैर-मुद्दा और गै़र-मुद्दों को मुद्दा बनाने की होड़ में ही लगे रहते हैं। एक तो भारतीय जनमानस अध्ययनशीलता से वैसे ही ख़फ़ा रहता है, बाक़ी रही-सही कसर जनता तक पहुँचने वाला दो कौड़ी का साहित्य पूरी कर देता है। ख़ैर, इन तथाकथित बुद्धिजीवियों के ठाठ तो इसी व्यवस्था की सलामती में हैं। आज के दौर में कूपमण्डूक मध्यमवर्गीय व्यक्ति भी पूँजीवाद के सांस्कृतिक कीचड़ में डुबकी लगाकर फूलकर कुप्पा हो जाता है और मन-ही-मन ख़ुद को बड़ा ही जागरूक और सयाना समझने लगता है।

बढ़ते स्त्री-विरोधी अपराधों का मूल और उनके समाधान का प्रश्न

पिछले कुछ वर्षों में बर्बरतम स्त्री-विरोधी अपराधों की बाढ़ सी आ गयी है। ये अपराध दिन ब दिन हिंस्र से हिंस्र होते जा रहे हैं। समाज में ऐसा घटाटोप छाया हुआ है जहाँ स्त्रियों का खुलकर सांस ले पाना मुश्किल हो गया है। बर्बर बलात्कार, स्त्रियों पर तेज़ाब फेंके जाने, बलात्कार के बाद ख़ौफनाक हत्याओं जैसी घटनाएँ आम हो गयी हैं। पिछले दिनों लखनऊ, बदायूं, भगाणा, आदि जगहों पर हुई घटनायें इसका उदाहरण हैं। आखि‍र क्या कारण है कि ऐसी अमानवीय घटनाएँ दिन प्रतिदिन बढती जा रही हैं? इस सवाल को समझना बेहद जरुरी है क्योंकि समस्या को पूरी तरह समझे बगैर उसका हल निकाल पाना संभव नहीं है। अक्सर स्त्री-विरोधी अपराधों के कारणों की जड़ तक न जाने का रवैया हमें तमाम लोगों में देखने को मिलता है। इन अपराधों के मूल को ना पकड़ पाने के कारण वे ऐसी घटनाओं को रोकने के हल के तौर पर कोई भी कारगर उपाय दे पाने में असमर्थ रहते हैं। वे इसी पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर ही कुछ कड़े क़ानून बनाने, दोषियों को बर्बर तरीके से मृत्युदण्ड देने आदि जैसे उपायों को ही इस समस्या के समाधान के रूप में देखते हैं। इस पूरी समस्या को समझने के लिए हमें इसके आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक आदि सभी कारणों की पड़ताल करनी होगी, तभी हम इस समस्या का सही हल निकालने में समर्थ हो पाएंगे।

कारपोरेट पूँजीवादी मीडिया का वर्चस्व और क्रान्तिकारी वैकल्पिक मीडिया की चुनौतियाँ

21वीं सदी की क्रान्तियों के एजेण्डे पर संस्कृति का प्रश्न काफ़ी ऊपर आ गया है। क्योंकि आज के पूँजीपति वर्ग ने संस्कृति और मीडिया का अपने वर्ग शासन के लिए वर्चस्व निर्मित करने के लिए ज़बरदस्त इस्तेमाल किया है। हमें उस वर्चस्व को चुनौती देनी होगी। और इसके लिए एक नये क्रान्तिकारी पुनर्जागरण और प्रबोधन की ज़रूरत है। और ऐसे नये क्रान्तिकारी पुनर्जागरण और प्रबोधन के लिए निश्चित तौर पर हमें ऐसा क्रान्तिकारी वैकल्पिक मीडिया चाहिए!