Category Archives: पूंजीवादी संस्‍कृति

अमेरिका की बन्दूक-संस्कृति आदमखोर पूँजीवादी संस्कृति की ही ज़हरीली उपज है

अमेरिकी समाज की हिंसक संस्कृति के इस संक्षिप्त इतिहास से यह बात स्पष्ट है कि समस्या कहीं ज़्यादा गहरी और ढाँचागत है और उसके समाधान के रूप में जो क़वायदें की जा रही हैं वह मूल समस्या के आस-पास भी नहीं फटकतीं। जो लोग बन्दूक कानूनों में सख़्ती लाने की बात करते हैं वे इस जटिल और गम्भीर समस्या का सतही समाधान ही प्रस्तुत करते हैं और निहायत ही बचकाने ढंग से ऐसी घटनाओं के लिए बन्दूक के उपकरण को जिम्मेदार मानते हैं। ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है जब बन्दूक कानूनों में सख़्ती लाने की कवायदें की जा रही हैं। पहले भी इस किस्म के नियन्त्रण लाने की बातें होती रही हैं। कुछ कानूनी बदलाव भी होते रहे हैं, परन्तु इन नियन्त्रणों का कुल परिणाम यह होता है कि अश्वेतों और अल्पसंख्यकों का निरस्त्रीकरण होता है जबकि कुलीन श्वेत अमेरिकी धड़ल्ले से बन्दूक लेकर घूमते हैं और उनमें से ही कुछ लोग सैण्डी हुक जैसे नरसंहार अंजाम देते हैं।

कौन जिम्मेदार है इस पाशविकता का? कौन दुश्मन है? किससे लड़ें?

स्त्री-विरोधी अपराध कोई नयी बात नहीं है। जबसे पितृसत्तात्मक समाज अस्तित्व में आया है, तबसे ये अपराध लगातार होते रहे हैं। पहले इनका रूप अलग था और आज इनका रूप अलग है। सामन्ती समाज में तो स्त्रियों के उत्पीड़न को एक प्रकार की वैधता प्राप्त थी; जिस समाज में कोई सीमित पूँजीवादी अधिकार भी नहीं थे, वहाँ परदे के पीछे और परदे के बाहर स्त्रियों के खिलाफ अपराध होते थे और वे आम तौर पर मुद्दा भी नहीं बनते थे। पूँजीवादी समाज में इन स्त्री-विरोधी अपराधों ने एक अलग रूप अख्तियार कर लिया है। अब कानूनी तौर पर, इन अपराधों को वैधता हासिल नहीं है। लेकिन इस पूँजीवादी समाज में एक ऐसा वर्ग है जिसके जेब में कानून, सरकार और पुलिस सबकुछ है। यह वर्ग ही मुख्य रूप से वह वर्ग है जो ऐसे अपराधों को अंजाम देता है।

कृत्रिम चेतना: एक कृत्रिम और मानवद्रोही परिकल्पना

कृत्रिम चेतना वास्तव में कुछ भी नहीं है। यह मनुष्य की चेतना का ही विस्तार है। यह स्वचालन की ही एक नयी मंजिल है। कुछ मानवीय कार्यों को, जो कि पूर्वाकलित किये जा सकते हैं, अंजाम देने के लिए कुछ ऐसे उपकरणों का निर्माण किया जा सकता है और किया जा रहा है जो स्वयं एक हद तक पहले से दर्ज और आकलित निर्णय ले सकते हैं। लेकिन यह कहना कि कृत्रिम चेतना से लैस रोबोट किसी दिन मनुष्य का स्थान ले लेंगे, एक निहायत मूर्खतापूर्ण सपना है। ऐसा कभी नहीं हो सकता है। जो मानव चेतना की प्रकृति और चरित्र को नहीं समझते हैं, वही इस खोखले सपने के नशे में डूब सकते हैं।

कितने ज़लील किये जा रहे हैं हम आज!

मेरे एक पत्रकार दोस्त ने एक बार मुझे अपने अख़बार के दफ्तर का एक किस्सा सुनाया। हुआ यूँ कि उसकी ड्यूटी जनरल डेस्क यानी अख़बार के पहले पेज पर लगी हुई थी। रात के नौ बज रहे थे, पेज छोड़ने का मतलब फाइनल करने का समय हो रहा था कि एक संवाददाता का फोन आया कि शहर के सबसे पॉश इलाके में बोरे में एक लाश मिली है। ‘हो सकता है कि वो किसी एनआरआई की हो। बहुत महत्त्वपूर्ण ख़बर हो सकती है, पेज छोड़ना मत, मैं पता चलते ही ख़बर बनाकर भेजता हूँ।’ मेरे दोस्त को इन्तज़ार करते-करते दस बज गये, तो उन्होंने संवाददाता को फोन किया। संवाददाता ने छूटते ही कहा – ‘छोड़ यार, भइया था।’ मतलब वो लाश किसी एनआरआई की नहीं थी, एक मज़दूर की थी, इसलिए ख़बर लायक नहीं थी!

अमेरिकी ”जनतन्त्र” की एक और भयावह तस्वीर!

जाहिरा तौर पर अमेरिकी जेलों में कैदियों की बेतहाशा बढ़ती आबादी, विभिन्न किस्म के सामाजिक अपराधों में हो रही बढ़ोत्तरी, अमेरिकी न्याय व्यवस्था के अन्याय और उग्र होते नस्लवाद की परिघटना कोई अबूझ सामाजिक-मनोवज्ञैानिक पहेली नहीं है। हर घटना-परिघटना की तरह इसके भी सुनिश्चित कारण हैं क्योंकि अपराधों का भी एक राजनीतिक अर्थशास्त्र होता है। बढ़ते अपराधों का कारण आज अमेरिकी समाज के बुनियादी अन्तरविरोध में तलाशा जा सकता है। यह अन्तरविरोध है पूँजी की शक्तियों द्वारा श्रम की ताक़तों का शोषण और उत्पीड़न। जब तक कोई क्रान्तिकारी आन्दोलन दमित-शोषित आबादी को कोई विकल्प मुहैया नहीं कराता, तब तक इस आबादी का एक हिस्सा अपराध के रास्ते को पकड़ता है। शुरुआत विद्रोही भावना से होती है, लेकिन अन्त अमानवीकरण में होता है। विश्वव्यापी मन्दी ने इस अन्तरविरोध को और भी तीख़ा बना दिया है।

श्री श्री रविशंकर और बाबागीरी का राजनीतिक अर्थशास्त्र

‘भारत एक बाबा-प्रधान देश है!’ यहाँ किसिम-किसिम के बाबा पाये जाते हैं। और हर बाबा के पीछे उनके ‘चेलों’ या ‘भक्तों’ की एक वफ़ादार फौज भी चलती है। चूँकि यहाँ हम एक पूँजीवादी समाज की बात कर रहे हैं, जहाँ हर वस्तु/सेवा एक माल होती है और बाज़ार के लिए पैदा की जाती है। ऐसे में, इस समाज में बाबाओं द्वारा बाँटा गया ‘ज्ञान’ या फिर अपने चेलों-भक्तों के दुखों के निवारण के लिए प्रदान की गई ‘सेवा’ भी एक माल है और इन सभी बाबाओं का भी एक बाज़ार होता है। लेकिन जैसे कि पूँजीवाद में उत्पादित हर माल सबके लिए नहीं होता (जिसकी कूव्वत (यानी कि आर्थिक क्षमता) होती है, वही उसको ख़रीद सकता है, उसका उपभोग कर सकता है), उसी प्रकार बाबाओं द्वारा दी गई ‘सेवा’ भी हर किसी के लिए नहीं होती। सीधे-सपाट शब्दों में कहें तो, बाबाओं का बाज़ार भी वर्ग-विभाजित होता है।

एक साजि़श जिससे जनता की चेतना पथरा जाए

‘‘पूँजीवाद न सिर्फ विज्ञान और उसकी खोजों का मुनाफ़े के लिए आदमखोर तरीके से इस्तेमाल कर रहा है बल्कि आध्यात्म और धर्म का भी वह ऐसा ही इस्तेमाल कर रहा है। इसमें आध्यत्मिकता और धर्म का इस्तेमाल ज़्यादा घातक है क्योंकि इसका इस्तेमाल जनता के नियन्त्रण और उसकी चेतना को कुन्द और दास बनाने के लिए किया जाता है। पूँजीवाद विज्ञान की सभी नेमतों का उपयोग तो करना चाहता है परन्तु विज्ञान और तर्क की रोशनी को जनता के व्यापक तबकों तक पहुँचने से रोकने के लिए या उसे विकृत रूप में आम जनसमुदायों में पहुँचाने के लिए हर सम्भव प्रयास करता है।”

‘‘आनर किलिंग’’- सम्मान के नाम पर हत्या या सम्मान के साथ ना जीने देने का जुनून

दरअसल ‘‘सम्मान’’ के नाम पर हत्याओं की यह अमानवीय परिघटना उन्हीं देशों में अधिक है जहाँ बिना किसी जनवादी क्रान्ति के, धीमे सुधारों की क्रमिक प्रक्रिया के जरिये पूँजीवादी विकास हुआ है। इन देशों में पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्ध तो कायम हुए हैं, लेकिन यह पूँजीवाद यूरोपीय देशों की तरह यहां जनवादी मूल्य लेकर नहीं आया। सामाजिक-सांस्कृतिक धरातल पर आज भी यहाँ सामन्ती मूल्यों की जकड़ बेहद मजबूत है। इन देशों (भारत भी इनमें से एक है) के सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने में गैरजनवादी मूल्य गहरे रचे-बसे हैं। इसी कारण यहां व्यक्तिगत आज़ादी और निजता जैसी अवधारणाओं के लिए कोई जगह नहीं है। व्यक्ति के जीवन के हर फैसले में समाज दखल देता है चाहे वह प्रेम का सवाल हो, शादी का, रोजगार का या कोई अन्य।

धार्मिकता बनाम तार्किकता

यह पहली घटना नहीं थी जब धार्मिक अन्धविश्वास व इन तथाकथित आध्यात्मिक प्रचारकों के पाखण्ड के चलते लोग मौत का शिकार हुए हों। जनवरी 2005 में हिमाचल में नैना देवी मन्दिर में भगदड़ से ही 340 लोग मारे गए। 2008 में राजस्थान के चामुण्डा देवी मन्दिर में भगदड़ से 216 मौतें हुई। जनवरी 2010 में कृपालु महाराज के आश्रम में 63 मौतें हुई। जनवरी 2011 को केरल के सबरीवाला में 104 लोग मारे गए। इन सबके अलावा मुहर्रम व अन्य धार्मिक उत्सवों पर भी मचने वाली भगदड़ों में लोग मौत का शिकार होते हैं। रोजाना पीरों, फकीरों व झाड़फूँक के चक्कर में होने वाली मौतों का तो हिसाब ही नहीं है जो सामने नहीं आ पाती। इस प्रकार की तमाम घटनाएँ यह दर्शाती है कि अन्धविश्वासों से होने वाली मौतें किसी भी तरह से धार्मिक कट्टरता से होने वाली मौतों से कम नहीं हैं। मानव जीवन का इस तरह से समाप्त होना कई प्रश्नों को खड़ा कर देता है।

खलनायक तत्‍वों को सामाजिक मान्‍यता दिलाने का प्रयास

खलनायक तत्‍वों को सामाजिक मान्‍यता दिलाने का प्रयास अटल, लखनऊ   मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्‍त 2011 ‘आह्वान’ की सदस्‍यता लें!   ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर…