पूँजीवादी व्यवस्था में स्कूली पाठ्यक्रम: शासक वर्गों का बौद्धिक वर्चस्व स्थापित करने का एक उपकरण
उमेद
“हर युग के शासक विचार शासक वर्ग के विचार होते हैं, यानी जो वर्ग समाज की भौतिक शक्ति है, वही समाज की बौद्धिक शक्ति भी है। जिस वर्ग के पास भौतिक उत्पादन के साधन होते हैं, वही मानसिक उत्पादन के साधनों पर भी अपना नियन्त्रण रखता है, जिसके नतीजे के तौर पर, आम तौर पर कहें तो वे लोग जिनके पास मानसिक उत्पादन के साधन नहीं होते हैं, वे शासक वर्ग के अधीन हो जाते हैं।”
– कार्ल मार्क्स (जर्मन विचारधारा से)
अपने स्वामित्व और अपने शासन को कायम रखने के लिए शासक वर्ग न केवल क़ानून, पुलिस व फ़ौज-फाटे का इस्तेमाल करता है बल्कि उसे स्वाभाविक, सर्वश्रेष्ठ व अनिवार्य साबित करने के लिए कला, साहित्य व सिनेमा को भी बड़ी चालाकी से काम में लाता है ताकि विकल्प खोजने वाली ताक़तों को गुमराह किया जा सके और समर्पित बुद्धिजीवियों को भी भटकाया जा सके। क्योंकि समुचित अध्ययन तथा वर्ग-दृष्टिकोण की सही समझ की अनुपस्थिति में कोई कारगर विकल्प खड़ा नहीं हो सकता। बड़ा बौद्धिक तबका इसी व्यवस्था में सुधार की पैरवी के लिए अपनी कलाओं को इस्तेमाल करते हुए अन्त में इसी व्यवस्था का न केवल समर्थक बल्कि पोषक भी साबित हो जाता है। यदि कोई व्यक्ति समाज के लिए कुछ करना चाहता है लेकिन समाज-विज्ञान पर उसकी पकड़ नहीं है तो अनजाने में ही उसकी कला उसके मन्तव्य के विपरीत खड़ी हो सकती है। लोगों को मूर्ख बनाने की होड़ में टेलीविज़न पर चलने वाले सीरियलों का तो ज़िक्र ही क्या, ख़बरिया चैनलों पर होने वाली लम्बी-लम्बी बहसों में बड़ी लगन से शिरकत करने वाले बुद्धिजीवी भी मुद्दों को ग़ैर-मुद्दा और गै़र-मुद्दों को मुद्दा बनाने की होड़ में ही लगे रहते हैं। एक तो भारतीय जनमानस अध्ययनशीलता से वैसे ही ख़फ़ा रहता है, बाक़ी रही-सही कसर जनता तक पहुँचने वाला दो कौड़ी का साहित्य पूरी कर देता है। ख़ैर, इन तथाकथित बुद्धिजीवियों के ठाठ तो इसी व्यवस्था की सलामती में हैं। आज के दौर में कूपमण्डूक मध्यमवर्गीय व्यक्ति भी पूँजीवाद के सांस्कृतिक कीचड़ में डुबकी लगाकर फूलकर कुप्पा हो जाता है और मन-ही-मन ख़ुद को बड़ा ही जागरूक और सयाना समझने लगता है।
प्रिण्ट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के अलावा स्कूलों, कॉलेजों में पढ़ाई जाने वाली पाठ्य पुस्तकें भी पूँजीपति वर्ग के अनुरूप सोच विकसित करने का एक कारगर हथियार होती हैं, क्योंकि नौनिहालों और किशोरों के दिमाग़ कहीं ज़्यादा आदर्शवादी और सुग्राही होते हैं और फिर उन्हें विषय सामग्री को, चाहे परीक्षा की दृष्टि से ही सही, बार-बार दोहराना और लिखना भी पड़ता है। बार-बार की तोतारटन्त और दोहराव से बच्चों की मानसिकता पर अवैज्ञानिक व अतार्किक मूल्यों का बेहद ख़राब असर पड़ता है। इसी रोशनी में यहाँ एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा कक्षा 10+1 व 10+2 में पढ़ायी जाने वाली अंग्रेज़ी की पाठ्यपुस्तकों में निर्धारित पाठ्यक्रम (जोकि सी.बी.एस.ई. समेत थोड़े फेरबदल के साथ कई राज्यों के शिक्षा बोर्डों के पाठ्यक्रमों में भी सम्मिलित किया गया है) के कुछ प्रातिनिधिक आलेखों की समीक्षा करेंगे, क्योंकि स्थानाभाव के कारण हर रचना का विश्लेषण सम्भव नहीं होगा। ध्यान रहे शैक्षणिक पाठ्यक्रम की यह हालत तो तब है जब इसे तथाकथित सेक्युलर सरकार के शासनकाल में निर्धारित किया गया था। संघ की विद्या भारती के दीनानाथ बत्रा के ज्ञान के मोतियों से अभी शिक्षा का पाला नहीं पड़ा था। आज जब केन्द्रीय मानव संसाधन मन्त्री स्मृति ईरानी शनि के शमन के लिए ज्योतिषियों के पीछे घूम रही हों, देश के प्रधानमन्त्री गणेश की “शल्य चिकित्सा” से प्रेरित होने की बात कर रहे हों, जब संघ परिवार से जुड़े और भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद के अध्यक्ष सुदर्शन राव के “अनुसन्धानों” से लोगों को ज़बर्दस्ती लाभान्वित किया जा रहा हो तो आने वाले समय में होने वाले शिक्षा व्यवस्था के हाल के बारे में सहज ही पूर्वानुमान लगाया जा सकता है। फ़िलहाल शिक्षा व्यवस्था पर होने वाले भविष्य के ख़तरों को दिमाग़ में रखते हुए तात्कालिक पाठ्यक्रम की अपनी पड़ताल पर ध्यान केन्द्रित करते हैं।
कहने को तो पाठ्यक्रम में बाल-मज़दूरी, महिला उत्पीड़न, पर्यावरण, जातिवाद, मानवतावाद, गहराते तनाव व अवसाद की समस्या जैसे विभिन्न मुद्दों पर कहानी, आलेख, कविताएँ व एकांकी उपलब्ध हैं और सरसरी नज़र से देखने पर विषय सामग्री काफ़ी सन्तुलित, व्यावहारिक और प्रगतिशील प्रतीत होती है। लेकिन दिमाग़ पर थोड़ा ज़ोर डालते ही हाथ की सफ़ाई एकदम आँखों के सामने बेपर्द हो जाती है। उदाहरण के लिए कक्षा 10+1 के पाठ्यक्रम में ‘हॉर्नबिल’ नामक पुस्तक में सम्मिलित आलेख ‘एनवायरमेण्टल पोल्यूशन: रोल ऑफ़ ग्रीन मूवमेण्ट’। यह आलेख मशहूर वकील और क़ानूनविद नानी पालकीवाला द्वारा लिखा गया है। और मूल रूप से 24 नवम्बर, 1994 के ‘द इण्डियन एक्सप्रेक्स’ अख़बार में प्रकाशित हुआ था। इस आलेख में पालकीवाला पर्यावरण की समस्या पर बड़े धीर-गम्भीर भाव में आलाप कर रहे हैं। ये कहते हैं कि जंगल ख़त्म हो रहे हैं, रेगिस्तान बढ़ रहे हैं, प्रजातियाँ विलुप्त हो रही हैं, नदियों का जल प्रदूषित हो रहा है। और इनके अनुसार यह सब बढ़ती हुई जनसंख्या की ज़रूरतें पूरी करने की वजह से हो रहा है! पालकीवालाजी चेतावनी देते हैं कि अगर आबादी पर अंकुश नहीं लगाया गया तो ग़रीबी बढ़ती रहेगी, विकास तो दूर बल्कि करोड़ों लोगों के सपने उनकी भूखी झुग्गियों में ही दम तोड़ देंगे। समस्याओं के कारण व निवारण में दिमाग़ दौड़ाने की बजाय किसी अमूर्त चीज़ पर उँगली रख देना बेहद आसान है। जंगलों का काटा जाना, क़ुदरत और मेहनत की लूट, आदिवासियों को उजाड़ा जाना, अवैध खनन, नदियों में कारख़ानों के गन्दे पानी का विसर्जन, क्या यह सब ग़रीब आबादी की ज़रूरतें पूरी करने के लिए हो रहा है? या यह समाज के एक ख़ास तबके की अमीरी को और चार-चाँद लगाने के लिए हो रहा है? क्या प्रकृति और श्रम से पैदा होने वाली हर चीज़़ लोहा, सीमेण्ट, इमारती लकड़ी से लेकर अनाज, फल-सबि्ज़यों, दवाइयों तक से बाज़ार अँटे नहीं पड़े हैं? और क्या करोड़ों मेहनतकश लोग इनके मोहताज नहीं हैं? पालकीवाला के वर्ग को यह बात समझ आना असम्भव है।
कक्षा 10+2 के पाठ्यक्रम में ‘फ्लेमिंगो’ नामक पुस्तक में बाल मज़दूरी के विषय पर लेखिका अनीस जंग द्वारा लिखित आलेख ‘लॉस्ट स्परिंग: स्टोरीज़ ऑफ़ स्टोलन चाइल्डहुड’ है। इसमें दो बेहद ग़रीब पृष्ठभूमि के बच्चों के जीवन एवं काम की दारुण अवस्थाओं का हृदयस्पर्शी वर्णन है। एक बच्चा प्राकृतिक आपदाओं के कारण ढाका से उजड़कर 1971 में दिल्ली के सीमापुरी क्षेत्र में आकर बसे शरणार्थियों का है जोकि कूड़ा बीनने का काम करते हैं। ‘साहब-ए-आलम’ अपने दूसरे हमउम्र दोस्तों के साथ सारा दिन नंगे पैर घूमता हुआ कूड़ा बीनता है। वह स्कूल जाना चाहता है लेकिन आखि़र में चाय की दुकान पर नौकरी करता है जहाँ उसे पैसे के अलावा खाना भी मिलता है लेकिन ‘साहब’ ख़ुश नहीं है क्योंकि अब उसकी आज़ादी और बेफ़िक्री चली गयी है। इसी आलेख के दूसरे भाग में फ़िरोज़ाबाद (उ.प्र.) के चूड़ीगर परिवार के एक लड़के मुकेश का किस्सा है। फ़िरोज़ाबाद के ये चूड़ीगर अँधेरी, सीलन भरी बन्द कोठरियों में कांच को गलाने का और जोड़ने का काम करते हैं। इनके बच्चे भी इस काम में इनके साथ जुटे रहते हैं। काम ऐसा होता है कि इन्हें भट्ठी के पास बैठकर बिना प्रकाश और हवा के घण्टों खटना पड़ता है। फलस्वरूप आधी उम्र तक पहुँचते-पहुँचते इनमें से ज़्यादातर अपनी आँखों की रोशनी खो देते हैं। ग़रीबी-बदहाली का सर्वत्र बोलबाला है। महिलाओं तक के पास तन ढँकने के लिए पूरा कपड़ा नहीं होता। यहाँ मेहनत करने वाले इन लोगों को पेट भर खाना भी नसीब नहीं होता। लेखिका इन लोगों को यह सलाह देती हैं कि उन्हें यह काम छोड़कर कोई और धन्धा कर लेना चाहिए लेकिन लोग रोना रोते हैं कि उन्होंने ज़िन्दगी में कुछ और काम सीखा ही नहीं। कुछ का मानना है यह उनका परम्परागत और वंशानुगत कर्म है, अतः इसे छोड़ा नहीं जा सकता। अनीस जंग जी दूसरी सलाह देती हैं कि अपनी मेहनत का वाजिब दाम वसूलने के लिए उन्हें सहकारी समिति बनानी चाहिए लेकिन लोगों के मन में पुलिस और बिचौलियों का ख़ौफ़ है। उनमें कोई भी नेतृत्वकारी नहीं है। दिमाग़ को सुन्न कर देनी वाली वर्षों की मेहनत ने उनकी पहलक़दमी ही ख़त्म कर दी है! लेकिन मुकेश अलग ढंग से सोचता है और वह रास्ते की हर कठिनाई को पार करके मोटर-मैकेनिक बनना चाहता है? यहीं से लेखिका अपनी मनचाही मुराद पूरी हुई मानकर अपने रास्ते हो लेती हैं।
असल में यहाँ पर बेतुकी सलाहें देकर मूल बात पर ही पर्दा डाल दिया गया है? पूँजीवादी व्यवस्था में आम मेहनतकश आबादी के श्रम की लूट ही होती है, चाहे वह किसी भी पेशे में हाथ आज़माइश कर ले। क्या सहकारी समिति बनाने से समस्याएँ छू-मन्तर हो जायेंगी? मोटर-मैकेनिक क्या ठाठ की ज़िन्दगी जीते हैं? आज के पूँजीवादी मशीनीकरण के दौर में आम मज़दूरों को महज़ मशीन के एक पुर्ज़े में तब्दील कर दिया गया है। महानगरों की बड़ी-बड़ी नामी कम्पनियों के पढ़े-लिखे (मध्यमवर्गीय परिवारों से आने वाले व ख़ुद को कर्मचारी समझने वाले) मज़दूर तक ज़बर्दस्त शोषण के शिकार हैं। आज के रोज़गारविहीन विकास और मशीनीकरण के दौर में पसरी बेरोज़गारी का कारण न बताकर आम जनता को सन्तोष का पाठ पढ़ाना पूँजीवादी भाड़े के कलमघसीटों की आम फ़ितरत होती है। इनके अनुसार ग़रीब लोग अपनी इच्छाओं पर अंकुश लगा लें और अमीरों को बीच-बीच में अपने ग़रीब भाइयों का ख़याल कर लेना चाहिए।
कुछ ऐसी ही शिक्षा देने वाली कहानी है ‘द रैट ट्रेप’। स्वीडन की लेखिका सलमा लगेरलोफ द्वारा लिखी गयी इस कहानी का मुख्य पात्र एक भिखारी है। चूहे पकड़ने के पिंजरे बेचने वाला यह किरदार गुज़ारा चलाने के लिए छोटी-मोटी चोरी-चकारी भी कर लेता है। वह इस सारी दुनिया को भी एक महाकाय पिंजरा ही समझता है जिसमें कि मनुष्यों रूपी चूहों को फँसाने के लिए दुनियादारी की तमाम धन-दौलत और सुख-सुविधाओं रूपी चारा टाँगा गया है। जैसे ही इंसान इन सुख-सुविधाओं को हासिल करने के लिए आगे बढ़ते हैं खटाक से पिंजरा बन्द हो जाता है और वे ताउम्र मुसीबतों और चिन्ताओं से घिरकर रह जाते हैं। कहानी बहुत कुछ भारतीय जनमानस में पैठी दुनिया को मायाजाल समझने वाली सोच से मेल खाती लगती है। यह पिंजरे बेचने वाला विभिन्न लोगों के सम्पर्क में आता है जो उस पर रहमदिली दिखाते हैं लेकिन वह सुधरने की बजाय उनको ही ठग लेता है। अन्त में एक अमीर लड़की “सच्ची समझ और सच्ची सहानुभूति” दिखाते हुए उसे क्रिसमस पर तोहफ़े देती है और अगले क्रिसमस पर फिर उनके घर आकर सुकून से त्यौहार मनाने का आश्वासन देकर उसको सुधार देती है।
पूरे साल में एक दिन या एक सप्ताह का सुकून लेकर बाक़ी दिन वो कैसे ज़िन्दा रहेगा? रोटी तो इंसान को हर रोज़ चाहिए और कई-कई बार चाहिए। किसी अमीरजा़दे के पास इतने संसाधन कहाँ से आ जाते हैं कि वह औरों को टुकड़े बाँट कर ख़ुद को महान समझे? आखि़र भीख, दया और समर्पण की नीति की प्रचारक ऐसी कहानी सिलेबस में क्यों रखी गयी है? कहीं न कहीं ग़रीबी को सुन्दर बताने वाली मदर टेरेसा और हृदय परिवर्तन की गाँधीवादी सोच को ही एक आदर्श के रूप में रखने की कोशिश की गयी है। पैसे कमाना तो ग़लत नहीं बस इंसान सच्चे भाव से इंसानियत को चन्द टुकड़े देकर उसकी सेवा करता रहे! यह एनजीओवादी सोच को बढ़ावा देने और उसके ख़ूनी हाथों में सफ़ेद दस्ताने पहनाने वाली कोशिश ही प्रतीत होती है। अपने सारे मानवतावाद के बावजूद गाँधी भी तो पूँजीवादी नीतियों के समर्थक ही थे।
चम्पारण प्रकरण और गाँधी की भूमिका पर भी एक अध्याय है, ‘इण्डिगो’, इसके लेखक हैं लुई फिशर जिन्हें गाँधी के प्रसिद्ध जीवनीकार होने का भी सौभाग्य प्राप्त है। जैसाकि सर्वविदित है कि अंग्रेज़ ज़मींदार भारतीय किसानों से नील की खेती करवाते थे। नील एक मुख्य व्यापारिक फ़सल थी। जर्मनी में कृत्रिम नील का उत्पादन शुरू होने पर उन्होंने भारतीय किसानों से नील का उत्पादन न करवाके उनसे हज़ार्ना माँगा और एवज में ज़मीनें ख़ाली करने का आश्वासन दिया। पहले से ही भूख और ग़रीबी से जूझते किसान हज़ार्ना कहाँ से दे पाते। अंग्रेज़ों ने वसूली करने के लिए गुण्डों का सहारा लिया। कुछ किसानों ने जैसे-तैसे करके हज़ार्ना भर भी दिया, लेकिन जब उन्हें कृत्रिम नील के उत्पादन के बारे में पता लगा तो उन्होंने पैसे वापस करने की माँग की। मामला बढ़ने पर गाँधी चम्पारण पहुँचे और उन्होंने संघर्ष शुरू किया। तनाव बढ़ता देख गाँधी को चम्पारण छोड़ने का हुक्म हुआ, इसके बाद सविनय अवज्ञा की शुरुआत हुई। कोर्ट में पेशी लगी और गाँधी ने ख़ुद को लिखित में क़ानून का मुजरिम मानकर और ख़ुद अपने लिए सज़ा की माँग करके अंग्रेज़ी सरकार तक को हैरान कर दिया। गाँधी बरी हुए फिर आयोग का गठन हुआ, रिपोर्ट में अंग्रेज़ों को नाजायज़ वसूली गयी रक़म वापस करने की बात कही गयी लेकिन अंग्रेज़ ज़मींदार सारी रक़म वापस देने के लिए तैयार नहीं थे। गाँधी 50 प्रतिशत पर अड़े, आखि़र में 25 प्रतिशत की रक़म वापस किया जाना मान लिया गया। सविनय अवज्ञा की पहली बार जीत हुई। गाँधी का तर्क था कि बात कम-ज़्यादा पैसा वसूलने की नहीं, बल्कि अंग्रेज़ों को हराकर, उनका गुरूर तोड़ कर किसानों में उत्साह के संचार की है। बाद में गाँधी ने इस लड़ाई को आज़ादी की लड़ाई में तब्दील कर दिया। इस प्रकार गाँधी छोटी-छोटी चीज़ों पर काम करते थे। वे बड़े-बड़े राजनीतिक और आर्थिक समाधानों से कभी सन्तुष्ट नहीं होते थे। गाँधी अगर 100 प्रतिशत पैसे की वापसी पर अड़ते तो क्या भारतीय जनमानस में कहीं ज़्यादा उत्साह का संचार नहीं होता? और यदि इतनी व्यापक जनता सड़कों पर थी तो अकेले गाँधी को क्यों श्रेय दिया जा रहा है? बड़े-बड़े राजनीतिक और आर्थिक समाधान से यहाँ अभिप्राय मार्क्सवाद, समाजवाद, क्रान्ति आदि जैसी शब्दावली से है। जैसाकि जगजाहिर है लुई फिशर एक समाजवाद-विरोधी लेखक हैं। इन्होनें ‘द गॉड देट फ़ेल्ड’ नामक पुस्तक में भी एक निबन्ध लिखा था। ईश्वर से अभिप्राय यहाँ समाजवाद से है। उन्होंने बड़ी चालाकी से बिना नाम लिये गाँधीवाद को समाजवाद के बरक्स रखने की कोशिश की है। गाँधीवाद की गाँधी के जीते जी जो दुर्गति हुई है, आज इसे सभी जानते हैं। 1922 में मिल सकने वाली आज़ादी 1947 में मिली वो भी आधी-अधूरी, अंग्रेज़ों के मुनाफ़े के लिए देश ने विश्वयुद्ध में हिस्सा लिया, देश का दर्दनाक विभाजन हुआ। गाँधी ने ही तो मज़दूरों को सोते शेर कहा था और उन्हें न छेड़ने की हिदायत दी थी। दरअसल पूँजीवादी संकट और इससे पैदा हो सकने वाले जनान्दोलनों की आहट के कारण सत्ता के आगे दुम हिलाने वाले लेखक फिर से गाँधी-गाँधी पुकार रहे हैं, ताकि एक छद्म विकल्प दिया जा सके। आखि़र जनता के सच्चे नायक भगतसिंह की सोच, विचारधारा और संघर्ष के उनके तरीक़े को क्यों नहीं पढ़ाया जाता? सरकारें नोट से लेकर चौक तक गाँधी को ही बैठाती हैं हालाँकि जननायकों को पाठ्यक्रमों में पढ़ाये जाने की दरकार नहीं होती, किन्तु इसके पीछे सरकारों की मंशा को समझना मुश्किल नहीं है।
एक और छद्म विकल्प है जिसे दलितों के आगे परोसने की कवायद पिछले करीब छः दशकों से की जा रही है। ख़ूब पढ़-लिखकर बड़े-बड़े सरकारी ओहदों तक पहुँचने और हर तरह के दोयम दर्जे के व्यवहार के खि़लाफ़ अम्बेडकरवादी नुस्खे। 10$2 की ही सप्लीमेण्ट्री पाठ्यपुस्तक ‘विस्टास’ के अध्याय ‘मेमोरीज़ ऑफ़ चाइल्डहुड’ का भाग है ‘वी टू आर ह्यूमन बींग्स’। यह तमिल की दलित लेखिका ‘बामा’ की आत्मकथा ‘करुक्कू’ से लिया गया है। बामा को जब बचपन में पहली बार जातिवाद और अस्पृश्यता का बोध होता है तो उनको भयंकर सदमा लगता है। उनका भाई सलाह देता है कि अगर इस अपमान से छुटकारा पाना है तो एक ही उपचार है; जी-जान से पढ़ाई करो। और लेखिका पूरे दम-खम से अध्ययन में जुट गयी। अपनी कक्षा में ये प्रथम स्थान पर आयी और सवर्ण जातियों के ख़ूब सारे बच्चे ख़ुद उनके दोस्त बन गये।
कहानी पढ़ते ही ऐसा लगता है जैसेकि स्वयं को सम्मान के काबिल साबित करने की ज़िम्मेदारी दलितों पर ही डाल दी गयी है। जो दलित पढ़ाई-लिखाई में उतने अच्छे नहीं हैं या हालात के कारण पढ़ाई को समय नहीं दे पाते अथवा पढ़ ही नहीं पाये तो क्या वे अपमानित होने के ही पात्र हैं? और अगर पढ़-लिखकर या आरक्षण का लाभ लेकर कुछ अफ़सर और मन्त्री बन भी गये तो क्या करोड़ों-करोड़ वंचितों का भला हो गया या हो जायेगा? दलित तो बहुत बड़े राज्यों के मुख्यमन्त्री भी बन चुके हैं, क्या उन राज्यों में दलितों के हालात में कोई बुनियादी बदलाव आया? बेशक नौकरी मिलने पर किसी को सामाजिक सम्मान मिलता है। लेकिन रोज़गार तो पहले ही सीमित हैं और इनका दायरा सिकुड़ता ही जा रहा है। असल में दलित मुक्ति का सवाल भी सीधे तौर पर व्यवस्था परिवर्तन के साथ ही जुड़ा हुआ है। इसका कारण है दलितों की बेहद छोटी संख्या को छोड़कर बहुत बड़ी आबादी आज भी उजरती गुलामों के तौर पर खटने के लिए मजबूर है। आरक्षण जैसे शिगुफ़ों से इस आबादी की ज़िन्दगी में कोई रोशनी नहीं आयी है।
उपरोक्त कुछ ही उदाहरण हैं जो यथास्थिति को मज़बूती से टिकाये रखने या उसमें कामचलाऊ सुधार की थेगली लगाकर समस्याओं और उनके वास्तविक कारणों पर परदा डालने का काम करते हैं। ऐसी विषय सामग्री को पाठ्यक्रम में जगह देने की वजह नयी पीढ़ी के दिमाग़ में वर्तमान व्यवस्था को ‘श्रेष्ठतम सम्भव व्यवस्था’ साबित करने की साफ़-साफ़ कोशिश-भर है। इसके अलावा पाठ्यक्रम में ऐसी विषय सामग्री की बहुतायत है जो समस्याओं और मुद्दों पर केन्द्रित होना तो दूर उनके अस्तित्व को ही अनदेखा करके ध्यान ग़ैर-ज़रूरी बातों की तरफ़ खींचकर उलझाये रखने का प्रयत्न करती है। कुल मिलाकर यदि स्कूली शिक्षा के भरोसे ही बच्चों को छोड़ दिया जाये तो उनके कूपमण्डूक बनने के आसार शत-प्रतिशत हैं। किन्तु विचार सिर्फ़ पाठ्यपुस्तकों से ही नियन्त्रित व निर्देशित नहीं होते। आज ज़रूरत ऐसे लोगों की है जो बच्चों के कोमल दिमाग़ को प्रदूषित होने से बचाने में अपनी भूमिका निभा सकें, व्यवस्था के सारे छल-छद्म उनके सामने उजागर कर सकें, उन्हें सुन्दर भविष्य के सपने देखने और इसके लिए प्रयास करने की आदत भी डाल सकें। आज पहले से सृजित साहित्य को नयी पीढ़ी तक ले जाने की ज़रूरत तो है ही, साथ ही ऐसे सर्जकों की भी आवश्यकता है जो सही मायने में जन-लेखक कहलाने की कुव्वत रखते हों। प्रगतिशील साहित्य को जनता के बीच पहुँचने के लिए पाठ्यपुस्तकों में छपने की दरकार नहीं होती। पुस्तकालय, वाचनालय, पुस्तक प्रदर्शनियाँ, फ़िल्म शो आदि जैसे बहुत से माध्यम हो सकते हैं जिनके ज़रिये बच्चों तक अपनी पहुँच बनायी जा सकती है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, सितम्बर-दिसम्बर 2014
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Bahut hi achchha …suchintit aalekh. Dhanyavaad aur Salaam!!