अधिकार प्राप्त पुरोहितों,शासकों और धनपात्रों का यह स्वाभाविक लक्षण है कि वह जनसमूहों के दिल और दिमाग़ को- मन और बुद्धि को- मुर्दा बनाकर छोड़ देते हैं। इसलिए अधिकार प्राप्त लोगों के हृदय और मस्तिष्क दोनों कुत्सित होते हैं। यह कुत्सित हृदय लोग विद्वानों, वैज्ञानिकों, बड़े-बड़े लेखकों और वक्ताओं को धन देकर अपना गुलाम बना लेते हैं। हम तो रोज बड़े-बड़े सिद्धान्त की डींग मारनेवालों, सन्यास का झंडा उठानेवालों, राजनीति में बाल की खाल खींचनेवाले, दंभपूर्ण नेताओं को धनिकों के सामने कठपुतली की तरह नाचते देखते हैं। इनमें से एक भी निर्धन और ग़रीबों में रह कर, उनका सा जीवन व्यतीत करके उन्हें उनके स्वत्वों से सावधान वा जानकार करने नहीं जाता। मैं नहीं समझता कि ईश्वर और धर्म किस मर्ज की दवा है? धर्म ज्ञान किस खेत की मूली या बथुआ है? संप्रदायों और समुदायों के नेता किस जंगल की चिड़िया हैं? आज यदि हम इस अंधविश्वास को छोड़ दें, ईश्वर, धर्म और धनवानों के एजेटों व नेताओं से मुँह मोड़ लें अपने पैरों पर खड़े हों, तो आज ही हमारा कल्याण हो सकता है। हम किसी की प्रतिष्ठा करने के लिए नहीं पैदा हुए, हम सबके साथ समान भाव से रहने के लिए जन्मे हैं। न हम किसी के पैर पूजेंगे न हम अपने पैर पुजवायेंगे,न हमें ईश्वर की ज़रूरत है, न पैगम्बर और अवतार की, गुरु बननेवाले लुटेरों की।