Category Archives: पूंजीवादी संस्‍कृति

मीडिया का असली चरित्र

किसी तथ्य के समाचार बनने की कुछ पूर्वशर्तें होती हैं। या तो उसका रिश्ता उच्च वर्ग और उनकी जीवन शैली से हो तो उसे विशेष कवरेज मिलेगा; या फ़िर वह जनता को किसी भी रूप में और ज़्यादा अतार्किक, कूपमण्डूक और अन्धविश्वासी बनाती है; या वह जनता की संवेदनाओं की हत्या करती हो। इन शर्तों को पूरा करने पर ही कोई तथ्य या किस्सा ख़बर बन जाता है। अगर उसका सम्बन्ध आम तबके के लोगों से हैं या उनके संघर्षों से है तो वह हाशिये की चीज बनकर रह जायेगी।

मज़दूरों के बच्चों को लीलती पूँजीवादी व्यवस्था

मुनाफ़े की हवस में पगलाया यह समाज इंसानी ख़ून का प्यासा है! औरतों और बच्चों के सस्ते श्रम को निचोड़ने से भी उसे जब सन्तोष नहीं होता तो वह उन्हें बेचने, उनके शरीर को नोचने-खसोटने और उनके अंगों को निकालकर, उनका ख़ून निकालकर बेच देने की हद तक गिर जाता है। निठारी एक चेतावनी थी-पूरी इन्सानियत के लिए– इसने फ़िर से हमें चेताया था कि इन्सानियत को बचाना है तो पूँजीवाद का नाश करना ही होगा! बच्चों की गुमशुदगी की लगातार बढ़ती घटनाएँ एक बार फ़िर याद दिला रही हैं कि ग़रीबों और मेहनतकशों के ज़िन्दा रहने की शर्त है समाज के इस ढाँचे की तबाही!

प्रेम, परम्परा और विद्रोह (दूसरी किश्त)

प्रेम करने की आज़ादी पर रोक सहित किसी भी मध्ययुगीन बर्बरता, धार्मिक कट्टरपंथी हमले या जातिवादी उत्पीड़न के विरुद्ध कुलीनतावादी प्रगतिशीलों की रस्मी, प्रतीकात्मक कार्रवाइयों का रूढ़िवादी शक्तियों और मूल्यों पर तो कोई असर नहीं ही पड़ता है, उल्टे आम जनता पर भी इनका उल्टा ही प्रभाव पड़ता है। सुविधासम्पन्न, कुलीनतावादी प्रगतिशीलों का जीवन आम लोगों से इतना दूर है कि उनके जीवन–मूल्य (यदि वास्तविक हों तो भी) जनता को आकृष्ट नहीं करते।

प्रेम, परम्परा और विद्रोह

दो स्त्री-पुरुष नागरिकों के प्रेम करने की आज़ादी का प्रश्न एक बुनियादी अधिकार का प्रश्न है। व्यक्तिगत विद्रोह इस प्रश्न को महत्ता के साथ एजेण्डा पर लाते हैं लेकिन मध्ययुगीन सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों-संस्थाओं के विरुद्ध दीर्घकालिक, व्यापक, रैडिकल सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलन के बिना इन मूल्यों को अपना हथियार बनाने वाली फासिस्ट शक्तियों के संगठित प्रतिरोध के बिना और इन मूल्यों को अपना लेने और इस्तेमाल करने वाली सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष के बिना प्रेम करने की आज़ादी हासिल नहीं की जा सकती। प्रेम की आज़ादी के लिए केवल मध्ययुगीन मूल्यों के विरुद्ध संघर्ष की बात करना बुर्जुआ प्रेम का आदर्शीकरण होगा। पूँजीवादी उत्पादन-सम्बन्ध के अन्तर्गत सामाजिक श्रम-विभाजन और तज्जन्य अलगाव के होते, न तो स्त्रियों की पराधीनता समाप्त हो सकती है और न ही पूर्ण समानता और स्वतन्त्रता पर आधारित स्त्री-पुरुष सम्बन्ध ही अस्तित्व में आ सकते हैं।

प्रेम, परम्परा और विद्रोह (पहली किश्‍त)

जिसे भारतीय इतिहासकार प्रायः “भारतीय पुनर्जागरण” की संज्ञा से विभूषित करते हैं, उसमें यूरोपीय पुनर्जागरण जैसा क्रान्तिकारी कुछ भी नहीं था। वह कोई महान या प्रगतिशील जनक्रान्ति कतई नहीं थी। वह औपनिवेशिक सामाजिक-आर्थिक संरचना के भीतर पले-बढ़े एक छोटे से पढ़े-लिखे मध्यवर्ग की आवाज़ थी जो स्वामिभक्त ब्रिटिश प्रजा के रूप में कुछ अधिकारों की याचना कर रहा था। भारतीय समाज में सुधारों की इसकी माँग और इसके सुधार आन्दोलनों का प्रभाव शहरी मध्यवर्ग तक सीमित था और किसान–दस्तकार तथा आम मेहनतकश जनता उससे सर्वथा अछूती थी। आज़ादी की आधी सदी बाद भी भारतीय बौद्धिक जगत की निर्वीर्यता, जनविमुखता और कायरता इसी बात का प्रमाण है कि भारतीय इतिहास में पुनर्जागरण या प्रबोधन जैसी कोई चीज़ कभी घटित ही नहीं हुई। हमारी सामाजिक संरचना में जनवाद और तर्कणा के मूल्यों के अभाव और आधुनिक पूँजीवादी जीवन–प्रणाली के साथ मध्ययुगीन मूल्यों-मान्यताओं का विचित्र सहअस्तित्व भी दरअसल इसी तथ्य को प्रमाणित करता है

आखिर इस आदमखोर व्यवस्था को कब तक बर्दाश्त करें?

साफ़ है कि बच्चों की आत्महत्या कोई आत्महत्या नहीं है बल्कि हत्या है, ठण्डी हत्या जो यह व्यवस्था रोज़ करती है। इसका शिकार आम घरों के बच्चे होते हैं। इसका इलाज मुनाफ़े पर टिकी पूरी व्यवस्था को धूल में मिलाने के साथ ही हो सकता है। छात्रों को यह समझाने की ज़रूरत है कि उनकी तबाही-बरबादी के लिए यह पूरा लुटेरा निज़ाम ज़िम्मेदार है और वे अपने आप को आग या फ़ाँसी लगाने की बजाय इस व्यवस्था को आग लगा दें।

देश का हर दूसरा बच्चा शोषण-उत्पीड़न का शिकार

हर जगह पूँजीवादी संस्कृति, सभ्यता और समाज की पतनोन्मुखता और सड़ाँध मारती मरणोन्मुखता ही नज़र आ रही है। बच्चे अपने घरों में सुरक्षित नहीं हैं। जिन मस्तिष्कों को ऊँची उड़ानें भरनी हैं उन्हें कुण्ठित और ग्रंथिग्रस्त कर दिया जा रहा है। मनोरोगियों की समाज में भरमार होती जा रही है।

बॉब वूल्मर की मौत, क्रिकेट, अपराध, राष्ट्रवाद और पूँजीवाद

मुनाफ़े पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था में हर क्षेत्र में, चाहे वह नौकरशाही हो, उद्योग जगत हो, पुलिस हो, या न्याय-व्यवस्था, भ्रष्टाचार का बोलबाला होता है। चूँकि पूँजीवादी समाज में हर काम किसी न किसी निजी फ़ायदे के लिए किया जाता है इसलिए भ्रष्टाचार की ज़मीन उपजाऊ बनी रहती है। खेल भी इससे अछूते नहीं रहते। जब से खेल में पूँजी का प्रवेश हुआ है तब से इसका भ्रष्टीकरण और अपराधीकरण जारी है।

वर्जीनिया गोलीकाण्ड – अमेरिकी संस्कृति के पतन की एक और मिसाल

वर्जीनिया गोलीकाण्ड ने इस बात को एक बार फ़िर उजागर कर दिया है कि पूँजीवाद और उसके द्वारा प्रसारित और समर्थित रुग्ण व्यक्तिवाद समाज और मानवता को सिर्फ़ यही दे सकता है। आज के दौर में जब दुनिया की सभी बुनियादी उत्पादक प्रक्रियाओं का चरित्र सामूहिक हो चुका है, आज जबकि दुनिया की समस्त समृद्धि और सम्पदा के स्रोत के तौर पर मेहनतकश समूह सामने है, ऐसे में व्यक्तिवाद की सोच और पूँजीवादी विचारधारा एक अनैतिहासिक विचारधारा है। इसके नतीजे के तौर पर हमें इसी तरह के गोलीकाण्ड और नरसंहार मिलते रहेंगे; इसी तरह के मानसिक रुग्ण पैदा होते रहेंगे; और इसके ज़िम्मेदार वे स्वयं नहीं होंगे बल्कि वह समाज होगा जिसमें व्यक्तिगत लाभ और पहचान ही सबकुछ होगा और सामूहिक हित का कोई स्थान नहीं रहेगा। सामूहिकता वैयक्तिकता का निषेध नहीं है। उल्टे सामूहिकता में ही वैयक्तिकता पूरी तरह से फ़लफ़ूल सकती है।

ईश्वर का बहिष्कार

अधिकार प्राप्त पुरोहितों,शासकों और धनपात्रों का यह स्वाभाविक लक्षण है कि वह जनसमूहों के दिल और दिमाग़ को- मन और बुद्धि को- मुर्दा बनाकर छोड़ देते हैं। इसलिए अधिकार प्राप्त लोगों के हृदय और मस्तिष्क दोनों कुत्सित होते हैं। यह कुत्सित हृदय लोग विद्वानों, वैज्ञानिकों, बड़े-बड़े लेखकों और वक्ताओं को धन देकर अपना गुलाम बना लेते हैं। हम तो रोज बड़े-बड़े सिद्धान्त की डींग मारनेवालों, सन्यास का झंडा उठानेवालों, राजनीति में बाल की खाल खींचनेवाले, दंभपूर्ण नेताओं को धनिकों के सामने कठपुतली की तरह  नाचते देखते हैं। इनमें से एक भी  निर्धन और ग़रीबों में रह कर, उनका सा जीवन व्यतीत करके उन्हें उनके स्वत्वों से सावधान वा जानकार करने नहीं जाता। मैं नहीं समझता कि ईश्वर और धर्म किस मर्ज की दवा है? धर्म ज्ञान किस खेत की मूली या बथुआ है? संप्रदायों और समुदायों के नेता किस जंगल की चिड़िया हैं? आज यदि हम इस अंधविश्वास को छोड़ दें, ईश्वर, धर्म और धनवानों के एजेटों व नेताओं से मुँह मोड़ लें अपने पैरों पर खड़े हों, तो आज ही हमारा कल्याण हो सकता है। हम किसी की प्रतिष्ठा करने के लिए नहीं पैदा हुए, हम सबके साथ समान भाव से रहने के लिए जन्मे हैं। न हम किसी के पैर पूजेंगे न हम अपने पैर पुजवायेंगे,न हमें ईश्वर की ज़रूरत है, न पैगम्बर और अवतार की, गुरु बननेवाले लुटेरों की।