बढ़ते स्त्री-विरोधी अपराधों का मूल और उनके समाधान का प्रश्न
विराट
पिछले कुछ वर्षों में बर्बरतम स्त्री-विरोधी अपराधों की बाढ़ सी आ गयी है। ये अपराध दिन ब दिन हिंस्र से हिंस्र होते जा रहे हैं। समाज में ऐसा घटाटोप छाया हुआ है जहाँ स्त्रियों का खुलकर सांस ले पाना मुश्किल हो गया है। बर्बर बलात्कार, स्त्रियों पर तेज़ाब फेंके जाने, बलात्कार के बाद ख़ौफनाक हत्याओं जैसी घटनाएँ आम हो गयी हैं। पिछले दिनों लखनऊ, बदायूं, भगाणा, आदि जगहों पर हुई घटनायें इसका उदाहरण हैं। आखिर क्या कारण है कि ऐसी अमानवीय घटनाएँ दिन प्रतिदिन बढती जा रही हैं? इस सवाल को समझना बेहद जरुरी है क्योंकि समस्या को पूरी तरह समझे बगैर उसका हल निकाल पाना संभव नहीं है। अक्सर स्त्री-विरोधी अपराधों के कारणों की जड़ तक न जाने का रवैया हमें तमाम लोगों में देखने को मिलता है। इन अपराधों के मूल को ना पकड़ पाने के कारण वे ऐसी घटनाओं को रोकने के हल के तौर पर कोई भी कारगर उपाय दे पाने में असमर्थ रहते हैं। वे इसी पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर ही कुछ कड़े क़ानून बनाने, दोषियों को बर्बर तरीके से मृत्युदण्ड देने आदि जैसे उपायों को ही इस समस्या के समाधान के रूप में देखते हैं। इस पूरी समस्या को समझने के लिए हमें इसके आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक आदि सभी कारणों की पड़ताल करनी होगी, तभी हम इस समस्या का सही हल निकालने में समर्थ हो पाएंगे।
अगर आँकड़ों पर ध्यान दिया जाये तो हम पाते हैं कि ऐसी बर्बर घटनाएँ खास तौर पर पिछले दो दशकों में अभूतपूर्व गति से बढ़ीं हैं। इसका कारण यह है कि 1991 से आयी नयी आर्थिक नीतियों की वजह से भारत में एक ऐसा नवधनाढ्य परजीवी वर्ग पैदा हुआ है जो लगातार आर्थिक और राजनीतिक रूप से बेहद मज़बूत हुआ है। गाँवों में धनी कुलक और फार्मर, और शहरों में प्रॉपर्टी डीलरों, शेयर बाज़ार के दलालों, छोटे उद्योगपतियों,तरह-तरह के कमीशनखोर, सट्टेबाजों का एक पूरा परजीवी वर्ग तैयार हुआ है जो बैठे बैठे ही बेतहाशा पैसे लूट रहा है। यह वर्ग इस तरह की बर्बर घटनाओं को खुलकर अंजाम दे रहा है क्योंकि क़ानून, सरकार आदि को यह जेब में रखता है और बेख़ौफ़ होकर स्त्री-विरोधी अपराध कर रहा है। एक दूसरा वर्ग भी है जो इसी नवधनाढ्य परजीवी वर्ग द्वारा फेंके गये टुकड़ों पर पलता है। यह वर्ग है लम्पट टटपूंजिया और लम्पट सर्वहाराओं का वर्ग जो तमाम छोटे उद्योग-धंधों, दुकानों आदि में काम करता है, या ट्रांसपोर्टर और प्रॉपर्टी-डीलरों का चमचा होता है। यह वर्ग भी ऐसी पाशविक घटनाओं को अंजाम दे रहा है। यह वर्ग अपनी सर्वहारा चेतना से पूरी तरह कट चुका है। लोग अक्सर यह कहते और सोचते है कि ऐसी घटनाओं के ज़िम्मेदार ग़रीब मज़दूर होते हैं। यह पूरी तरह से गलत है। असल में ऐसी जिन घटनाओं का हवाला दिया जाता है उनमे ग़रीब मज़दूर नहीं बल्कि लम्पट सर्वहारा और लम्पट टटपूंजिया तत्व ही ज़िम्मेदार होते हैं जो अपने वर्ग से पूरी तरह कट चुके हैं। इस तरह यह साफ़ है कि ऐसी पाशविक घटनाओं के लिए मुख्य और मूल रूप से यह नवधनाढ्य वर्ग और इसके तलवे चाटने वाला लम्पट टटपूंजिया वर्ग ही ज़िम्मेदार हैं। ये इंसान होने की सारी शर्तें खो चुके हैं और पूर्णत: अमानवीय हो चुके हैं और मानव समाज में रहने के लायक नहीं हैं। इन घटनाओं के लिए सारी पुरुष आबादी को ज़िम्मेदार ठहराना अतार्किक है भले ही उनमें से अधिकांश के ऊपर पितृसत्तात्मक मूल्यों का प्रभाव क्यों न हो।
ऐसी घटनाओं के लिए कौन मुख्य रूप से ज़िम्मेदार है, यह जानने के साथ–साथ इस बात की भी जांच-पड़ताल करना ज़रूरी है कि आख़िर इस तरह के स्त्री-विरोधी मनोविज्ञान को कहाँ से खाद-पानी मिल रहा है। भारत एक ऐसा देश है जहाँ पूँजीवादी विकास बेहद मंथर गति से और क्रमिक प्रक्रिया में हुआ है। यहाँ पूँजीवाद प्रबोधन और पुनर्जागरण की विरासत से कटा हुआ और बगैर किसी क्रन्ति के आया है। इस कारण से यहाँ के मानस में जनवादी मूल्यों का अभाव है। जिस तरह से अधिकतर यूरोपीय देशों में पूँजीवाद सामन्तवादी मूल्य-मान्यताओं से निर्णायक विच्छेद करके विकसित हुआ और उसने जनवाद की एक ज़मीन तैयार की, लेकिन भारत में उस तरह से यह विकसित नहीं हुआ। यहाँ पूँजीवाद तो आया लेकिन वह अपने साथ पूँजीवाद की कोई अच्छाई लेकर नहीं आया। पूँजीवाद की तमाम बुराइयाँ अवश्य ही भारत में आयी, इस तरह से यहाँ एक ऐसी पूँजीवादी व्यवस्था सामने आयी जिसने सामंती मूल्यों से निर्णायक विच्छेद नहीं किया। भारतीय समाज में पतनशील पूँजीवादी संस्कृति के साथ-साथ सामंती मूल्यों का भी प्रभाव है। जहाँ एक ओर खाप पंचायतें और फ़तवे जारी करने वाली ताकतें मौजूद हैं, वहीं दूसरी और पूँजीवादी मीडिया द्वारा परोसी गयी बीमार मानसिकता भी मौजूद है। एक तरफ घोर स्त्री-विरोधी पाखण्डी बाबाओं की एक पूरी जमात है जो तमाम घिनौने स्त्री-विरोधी अपराधों को अंजाम देती हैं, दूसरी तरफ हनी सिंह जैसे घृणित “कलाकार” भी हैं जिन्होंने नौजवानों में स्त्री-विरोधी मानसिकता पैदा करने का ठेका ले रखा है।
पूँजीवाद की यह विशेषता होती है की वह हर चीज़ को माल बना देता है और मुनाफा कमाने के लिए किसी भी हद तक जाता है। पूँजीवाद के कारण पैदा हुए ऐन्द्रिक-सुखभोगवाद, रुग्ण और हिंसक यौनाचार और स्त्रियों को एक माल के रूप में देखे जाने को पूँजीपतियों ने मुनाफा कमाने के लिए ग्लोबल सेक्स बाज़ार की सम्भावना के रूप में देखा है। पोर्न फिल्मों, सेक्स खिलौनों, बाल-वेश्यावृत्ति, विकृत सेक्स, विज्ञापनों आदि का एक कई हज़ार खरब डॉलर का भूमंडलीय बाज़ार तैयार हुआ है। मुनाफा कमाने के लिए पूँजीपति वर्ग आम मध्यवर्गीय किशोरों-नौजवानों और ग़रीब मेहनतकश जनता तक में विभिन्न संचार माध्यमों के ज़रिये रूग्ण-मानसिकता परोस रहा है। यह एक ओर तो पूँजीपतियो को ज़बरदस्त मुनाफा देता है, वहीं दूसरी ओर क्रान्तिकारी सम्भावनाओं को नष्ट करने के लिए मज़दूर बस्तियों और आम नौजवानों को टारगेट करने के हथियार के रूप में भी पूँजीपतियों ने इसको देखा है। पितृसत्ता जो समाज में पहले से ही मौजूद थी, उसे पूँजीवाद ने नए सिरे से खाद-पानी दिया है और मज़बूत बनाया है। स्त्रियों को माल के रूप में प्रोजेक्ट करके पूँजीवाद ने बर्बरतम स्त्री-विरोधी अपराधों के लिए एक ज़मीन तैयार की है। विकसित पूंजीवादी देश भी स्त्री-विरोधी अपराधों से अछूते नहीं हैं। वहाँ सामंती मानसिकता के कारण होने वाले ऑनर-किलिंग आदि जैसे अपराध तो नहीं होते लेकिन पूँजीवादी संस्कृति ने जो भयंकर अलगाव, व्यक्तिवाद और बीमार मानसिकता पैदा की है, उसके कारण वे भी स्त्री-विरोधी अपराधों में पीछे नहीं हैं। स्वीडन जैसे विकसित पूंजीवादी देश ने वर्ष 2012 में यौन-हिंसा और बलात्कार का रिकॉर्ड कायम किया। अगर आबादी के हिसाब से देखा जाये तो स्वीडन में भारत से 30 गुना अधिक स्त्री-विरोधी अपराध होते हैं। ब्रिटेन, जर्मनी और अमेरिका भी यौन हिंसा के मामलों में पीछे नहीं हैं। अमेरिका में हर वर्ष 3 लाख से भी अधिक महिलाएं यौन हिंसा का शिकार होती है। देखा जाये तो पूँजीवाद ने सार्वभौमिक स्तर पर स्त्री-विरोधी अपराधों को बढाने में घृणित भूमिका अदा की है।
ऐसे में सोचने वाली बात यह है कि क्या पूँजीवाद की चौहद्दी के भीतर स्त्री-विरोधी अपराधों को ख़त्म करना और स्त्री-विरोधी मानसिकता से छुटकारा पाना संभव है? हमारा मानना है कि यह कत्तई भी संभव नहीं है। जो लोग यह समझते हैं कि ऐसी घटनाओं को कुछ सख्त क़ानून बनाकर या पुलिस को और अधिक चाक-चौबंद करके इन घटनाओं को रोका जा सकता है, वो पूरी समस्या को नहीं समझ पाते हैं। हर कोई पुलिस-थानों में हुई बर्बर बलात्कार की घटनाओं से परिचित है, हर कोई न्यायधीशों द्वारा दिए गये स्त्री-विरोधी फैसलों से परिचित है। जो ताकतें इन अपराधों के लिए मुख्य रूप से ज़िम्मेदार हैं वह पुलिस और न्याय-व्यवस्था को अपनी जेब में रखती हैं। यही कारण है की 74 प्रतिशत स्त्री-विरोधी अपराधों के मुकदमों में आरोपी खुलेआम बरी हो जाते हैं। (हालाँकि इसका यह मतलब बिलकुल नहीं है कि मौजूदा व्यवस्था के समूल नाश होने तक हमे सारे स्त्री-अधिकार आन्दोलन स्थगित कर देने चाहिये, निश्चित ही हमें कड़े कानूनों की मांग भी उठानी चाहिये) बुर्जुआ नारीवाद भी इस समस्या का हल दे पाने में नाकाम है। जो संगठन या व्यक्ति इसी व्यवस्था के भीतर नारी-मुक्ति का स्वप्न देखते हैं वो पूँजीवाद के उन कारकों को नहीं देख पाते जो लैंगिक असमानता और स्त्रियों की ग़ुलामी को बल देते हैं। वो कभी भी मज़दूर महिलाओं के साथ कार्यस्थलों पर हुए यौन-उत्पीडन पर आवाज़ नहीं उठाते। महिला मज़दूरों को पुरुषों के बराबर काम करने पर भी पुरुषों से कम मजदूरी मिलती है और उसे सबसे निचली कोटि की उजरती ग़ुलाम के रूप में खटाया जाता है, इस असमानता पर भी वे कभी आवाज़ नहीं उठाते। इस तरह से वे केवल “इलीट” वर्ग की महिलाओं की मुक्ति को ही एजेंडे पर रखते हैं, हालांकि उनकी मुक्ति भी इस व्यवस्था में संभव नहीं है।
तो सवाल उठता है कि ऐसे माहौल में जहाँ तमाम “जनप्रतिनिधि” स्त्री-विरोधी बयान देते नहीं थकते (कि स्त्रियाँ स्वयं इन अपराधों की ज़िम्मेदार हैं!) और अपनी घृणित ग़ैर-जनवादी नसीहतें देते नहीं अघाते (स्कर्ट नहीं पहननी चाहिये!, शाम को घर से बाहर नहीं निकलना चाहिये!, मोबाइल फ़ोन नहीं रखना चाहिये!) वहां आख़िर इस समस्या का समाधान क्या हो और प्रतिरोध का रास्ता क्या हो। यह हम ऊपर देख चुके हैं कि मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर इस समस्या का कोई पूर्ण समाधान नहीं है लेकिन इसका यह मतलब कत्तई नहीं है कि जब तक पूँजीवाद का नाश नहीं होता तब तक स्त्रियों पर हो रही दरिन्दगी के ख़िलाफ़ आवाज़ ही न उठायी जाये। पितृसत्ता के ख़िलाफ़ हमें संघर्ष छेड़ना ही होगा। हमें यह भी समझना होगा कि पितृसत्ता अपने आप में कोई अपरिवर्तनीय चीज़ नहीं है। आज जब हम पितृसत्ता की बात करते हैं तो ये समझना होगा कि आज के समाज में यह पूँजीवादी पितृसत्ता है क्योंकि इसका स्वरुप सामंती पितृसत्ता से भिन्न है। सामंती समाज में स्त्री भोग की वस्तु थी लेकिन पूँजीवाद ने स्त्री को उपभोग की वस्तु बना दिया है। स्त्रियों को पूँजीवाद ने माल बना दिया है और इसीलिए जब हम पितृसत्ता से लड़ने की बात करेंगे तो हमें ध्यान रखना होगा कि इसका समूल नाश भी पूँजीवाद के खात्मे के साथ ही होगा। तब तक हमें पूंजीवादी स्पेस में भी स्त्रियों के अधिकारों के लिए संघर्ष लगातार जारी रखना होगा। और यह भी निश्चित है कि पूँजीवाद का खात्मा भी स्त्रियों को साथ लिए बगैर नहीं हो सकता क्योंकि स्त्री क्रान्तिकारी ताकतों की आधी आबादी है और चूँकि यह सबसे अधिक उत्पीडित है इसलिए आज हमें अपना पूरा ज़ोर स्त्रियों को क्रान्तिकारी ताकतों के इर्द-गिर्द गोलबंद करने में लगाना होगा। आज नौजवानों, महिलाओं, मेहनतकशों, छात्रों को एकजुट होकर पूँजी की संगठित ताकत को चुनौती देनी होगी। केवल पूँजीवाद के खात्मे के बाद ही नारी-मुक्ति का स्वप्न पूरा हो सकता है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2014
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