Category Archives: पूंजीवादी संस्‍कृति

सोशल मीडिया के बहाने जनता, विचारधारा और तकनोलॉजी के बारे में कुछ बातें

समाज की एक भारी मध्‍यवर्गीय आबादी इण्‍टरनेट-फेसबुक पर बैठी हुई सामाजिक जीवन के यथार्थ से बाहर एक आभासी यथार्थ में जीने का आदी हो जाती है। वह वस्‍तुत: भीषण सामाजिक अलगाव में जीती है, पर फेसबुक मित्रों का आभासी साहचर्य उसे इस अलगाव के पीड़ादायी अहसास से काफी हद तक निजात दिलाता है। बुर्ज़ुआ समाज की भेड़चाल में वैयक्तिक विशिष्‍टता की मान्‍यता का जो संकट होता है, पहचान-विहीनता या अजनबीपन की जो पीड़ा होती है, उससे फेसबुक-साहचर्य, एक दूसरे को या उनके कृतित्‍व को सराहना, एक दूसरे के प्रति सरोकार दिखाना काफी हद तक राहत दिलाता है। यानी यह भी एक तरह के अफीम की भूमिका ही निभाता है। यह दर्द निवारक का काम करता है और एक नशे का काम करता है, पर दर्द की वास्‍तविक जड़ तक नहीं पहुँचाता। इस तरह अलगाव के विरुद्ध संघर्ष की हमारी सहज सामाजिक चेतना को यह माध्‍यम पूँजीवादी व्‍यवस्‍था-विरोधी सजग चेतना में रूपांतरित हो जाने से रोकता है। साथ ही, फेसबुक, टि्वटर और सोशल मीडिया के ऐसे तमाम अंग-उपांग हमें आदतन अगम्‍भीर और काहिल और ठिठोलीबाज भी बनाते हैं। खुशमिजाजी अच्‍छी चीज है, पर बेहद अंधकारमय और चुनौतीपूर्ण समय में भी अक्‍सर चुहलबाजी के मूड में रहने वाले अगम्‍भीर लोग न केवल अपनी वैचारिक क्षमता, बल्कि अपनी संवेदनशीलता भी खोते चले जाते हैं।

सोशल नेटवर्किंग का विस्तार

मध्यवर्ग से आने वाले 50 फ़ीसदी सोशल नेटवर्किंग यूज़र 24 साल से कम उम्र के हैं और सामान्य रूप से इनकी राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक जानकारी का स्रोत सोशल नेटवर्किग या टीवी है। यह वर्ग बिना कोई ख़ास सोचने का प्रयास किये सभी सूचनाओं को कचरा-पेटी की तरह ग्रहण कर लेता है। जो काम किताबों और संजीदा लेखों के माध्यम से होना चाहिए उसकी जगह इन साइटों पर एक-दो लाइनों की टिप्पणियों ने ले ली है, जोकि आजकल की नयी ‘जेन-जी’ (नवयुवा) पीढ़ी के “ज्ञान” और सूचनाओं का स्रोत माना जा रहा है। एक या दो लाइनों की टिप्पणियों से कोई व्यक्ति अपने व्यावहारिक अनुभव और वर्गीय विश्व-दृष्टि के अनुरूप अनुभवसंगत रूप से सहमत या असहमत तो हो सकता है, लेकिन अपने विचारों का कोई विश्लेषण प्रस्तुत नहीं कर सकता। साथ ही इन छोटी-छोटी टिप्पणियों के माध्यम से किसी को सोचने के लिए मजबूर भी नहीं किया जा सकता, न ही आलोचनात्मक विवेक पैदा किया जा सकता है। पूँजीवादी मीडिया द्वारा किया जाने वाला तथ्यों का चुनाव और सूचनाओं का प्रस्तुतीकरण भी पूँजीवादी वर्ग हित से मुक्त नहीं हो सकता, इसलिए ज़्यादातर सूचनाएँ भी समाज के यथार्थ को सही ढंग से प्रस्तुत नहीं करतीं। ऐसे में निश्चित है कि सोशल नेटवर्किंग पर मौजूद कई समूहों से आम लोगों को जो सूचनाएँ मिलती हैं, वे समाज को देखने के उनके छिछले और अवैज्ञानिक नज़रिये का निर्माण करने में एक अहम भूमिका निभा रही हैं।

सोप ऑपेरा या तुच्छता और कूपमण्डूकता के अपरिमित भण्डार

ये तमाम सोप ऑपेरा वास्तव में पूँजीवादी समाज की संस्कृति, विचारधारा और मूल्यों का सतत पुनरुत्पादन करने का काम करते हैं; लोगों के विश्व दृष्टिकोण को तुच्छ, स्वार्थी, कूपमण्डूक, दुनियादार और असंवेदनशील बनाते हैं; हर प्रकार की व्यापकता और उदात्तता की हत्या कर दी जाती है। और इस प्रकार भारत के अजीबो-ग़रीब मध्यवर्ग पर मानसिक और मनोवैज्ञानिक नियन्त्रण क़ायम किया जाता है।

फ़ेसबुक के बारे में चलते-चलाते कुछ ‘इम्प्रेशंस’

दो-दो लाइन के शेरों, घटिया ग़ज़लों से फ़ेसबुक भरा रहता है। सस्ती तुकबन्दियों और कवितानुमा लाइनों की भरमार रहती है। नाम में ही ‘कवि’ जोड़े हुए फ़ेसबुकियों की भरमार है। ये सारे साहित्याकांक्षी गणों को एक अतिविनम्र सुझाव है कि उन्हें विश्व के कुछ प्रसिद्ध कवियों को पढ़ना चाहिए, निराला, प्रसाद, पन्त, मुक्तिबोध, शमशेर, त्रिलोचन, नागार्जुन, केदार आदि को पढ़ना चाहिए, अग्रणी समकालीन कवियों को पढ़ना चाहिए और साहित्य-सैद्धान्तिकी पढ़नी चाहिए। हिन्दी कविता की स्थिति इतनी बुरी भी नहीं है कि चार लाइनें जोड़-तोड़कर कोई भी गण्यमान्य बन जाये। ख़ूब लिखिये, आपको अपने मन की कहने की आज़ादी है, पर उसे डायरी में लिखकर अपने घरवालों और दोस्तों को सुनाइये। फ़ेसबुक एक सार्वजनिक स्पेस है। वहाँ अपनी भँड़ास निकालकर बहुत सारे लोगों का समय खाने और उन्हें बोर करने का काम ठीक नहीं है।

फ़्री एवं ओेपेन सोर्स सॉफ़्टवेयर आन्दोलन: कितना ‘फ़्री’ और कितना ‘ओपेन’

बावजूद इसके कि फ़्री एवं ओपेन सोर्स सॉफ़्टवेयर के विचार को अब कारपोरेट्स का समर्थन मिल रहा है, एक विचार के तौर पर यह अपने आप में एक प्रगतिशील अवधारणा है, क्योंकि यह ज्ञान के एकाधिकार की पूँजीवादी सोच पर कुठाराघात करती है। सॉफ़्टवेयर उत्पादन का यह सहकारितापूर्ण और सामूहिकतापूर्ण तरीक़ा निश्चित ही इस समाजवादी सोच को पुष्ट करता है कि मनुष्य सिर्फ़ भौतिक प्रोत्साहनों और निजी फ़ायदे के लालच में आकर ही श्रम प्रक्रिया में भाग नहीं लेता बल्कि श्रम उसकी नैसर्गिक आभिलाक्षणिकता है। परन्तु फ़्री एवं ओपेन सोर्स सॉफ़्टवेयर आन्दोलन के कुछ अति-उत्साही समर्थक इस तर्क को खींचकर यहाँ तक कहने लगते हैं कि यह एक कम्युनिस्ट प्रोजेक्ट है और यह इतना ‘सबवर्सिव’ है कि साइबर स्पेस में पूँजीवादी उत्पादन-सम्बन्धों को छिन्न-भिन्न कर देगा।

पूँजीवादी विज्ञापन जगत का सन्देश: ‘ख़रीदो और खुश रहो!’

एक सांस्कृतिक उत्पाद के तौर पर भी विज्ञापनों का असर लम्बे समय तक रहता है। क्योंकि लगातार दुहराव के ज़रिये ये लोगों के मस्तिष्क पर लगातार प्रभाव छोड़ते रहते हैं। हमें पता भी नहीं चलता कि हम कब विज्ञापनों में इस्तेमाल किये जाने वाले जिंगल गुनगुनाने लगते हैं या फिर उनके स्लोगन और टैगलाइन ख़ुद दोहराने लगते हैं। पूँजीवाद विज्ञापनों द्वारा माल अन्धभक्ति (कमोडिटी फ़ेटिशिज़्म) को एक नये मुक़ाम पर पहुँचा देता है। बार-बार लगातार विज्ञापनों के ज़रिये हमें यह बताने का प्रयास किया जाता है कि यदि हमारे पास फलाना सामान नहीं है तो हम ज़िन्दगी में कितना कुछ ‘मिस’ कर रहे हैं। हमें बार-बार लगातार यह बताया जाता है कि सुखी-सन्तुष्ट जीवन का एकमात्र रास्ता बाज़ार के ज़रिये वस्तुओं का उपभोग है। केवल माल और सामान ही हमें खुशी और सामाजिक रुतबा प्रदान कर सकते हैं। बिना किसी अपवाद के हर विज्ञापन का यही स्पष्ट सन्देश होता है – चाहे वह विज्ञापन किसी कार कम्पनी का हो या किसी बीमा कम्पनी का, किसी सौन्दर्य प्रसाधन के ब्राण्ड का हो या फिर किसी शराब या मोबाइल फ़ोन की कम्पनी का – यही सन्देश बार-बार रेखांकित किया जाता है। सामानों, वस्तुओं, मालों को प्रसन्नता, स्वतन्त्रता और रुतबे का समतुल्य बना दिया जाता है।

यहाँ सिर्फ़ ‘पेड न्यूज़’ नहीं, बल्कि मीडिया ही पूरी तरह पेड है

यह तो तय है कि जैसे-जैसे मीडिया पर बड़ी पूँजी का शिंकजा कसता जायेगा, वैसे-वैसे मीडिया का चरित्र ज़्यादा से ज़्यादा जनविरोधी होता जायेगा और आम जनता के जीवन की वास्तविक परिस्थितियों और मीडिया में उनकी प्रस्तुति के बीच की दूरी बढ़ती ही जायेगी। आज के दौर में कारपोरेट लोग मीडिया को विज्ञापन देते हैं जिनसे मीडिया की हर साल लगभग 18 हज़ार करोड़ रुपयों की कमाई होती है। सरकारी विज्ञापनों से, काग़ज़-कोटे में मिलने वाली कमाई तो है ही। ऐसे में मीडिया जगत की पक्षधरता के बारे में भ्रमित होने की ज़रूरत नहीं है। मौजूदा मीडिया कारपोरेट जगत का मीडिया है और उसकी आलोचना नहीं करता है। साफ़ है जो जिसका खायेगा, उसी के गुण गायेगा।

पूँजीवादी कारपोरेट मीडिया का राजनीतिक अर्थशास्त्र

मौजूदा मीडिया कुछ ख़बरें हम तक पहुँचाता है, जबकि कुछ अन्य ख़बरें हम तक पहुँचने से रोकता है। वास्तव में, वह जो ख़बरें हम तक पहुँचाता है उनमें से अधिकांश का देश व दुनिया की बहुसंख्यक आबादी के लिए कोई वास्तविक महत्त्व नहीं होता है। जबकि अप्रासंगिक सूचनाओं और ख़बरों को व्यापक पैमाने तक उन लोगों तक पहुँचाया जाता है और उनके लिए उन्हें अहम भी बना दिया जाता है। ऐसा क्यों है? मीडिया को तो लोकतन्त्र का चौथा खम्भा कहा गया है! ऐसे में मीडिया हमारे समय की प्रातिनिधिक ख़बरों और यथार्थ को चित्रित क्यों नहीं करता है?

क्यों ज़रूरी है रूढ़िवादी कर्मकाण्डों और अन्धविश्वासी मान्यताओं के विरुद्ध समझौताहीन संघर्ष?

ग़ौर करने वाली बात यह है कि पूरी दुनिया के हर धर्म में जो रूढ़िवादी परम्पराएँ प्रचिलित हैं उनमें से ज़्यादातर असमानता को सही ठहराती हैं। यही कारण है कि शासक वर्ग शोषित उत्पीड़ित जनता को गुमराह करने के लिए इन कर्मकाण्डों और रूढ़ियों का प्रचार करते हैं। टीवी में, अखबारों में और पत्रिकाओं में इन मूर्खताओं के लिए चलाए जा रहे कई कूपमण्डूक विज्ञापन देखे जा सकते हैं, और साथ ही धर्म गुरुओं के आश्रम भी इन्हीं रूढ़ियों के प्रचार के अड्डे बने हुए हैं जो लोगों को गुमराह करके करोड़ों का धन्धा चला रहे हैं। इन परिस्थितियों में धार्मिक कर्मकाण्डों को मानना और पण्डे-पुजारियों (या मुल्ला-मौलवियों) तथा पितृसत्तात्मक मूल्यों को बढ़ावा देना समाज-विरोधी, प्रगति-विरोधी काम है, जिसे हर व्यक्ति को सचेतन रूप से समझना चाहिए और इनके विरुद्ध वैचारिक रूप से तथा व्यवहारिक रूप में प्रचार करना चाहिए।

अमृतानन्दमयी के कुत्तों, आधुनिक धर्मगुरुओं और विघटित-विरूपित मानवीय चेतना वाले उनके भक्तों के बारे में चलते-चलाते कुछ बातें…

पूँजीवादी उत्पादन-प्रणाली अपनी स्वतःस्फूर्त आन्तरिक गति से धार्मिक विश्वास के पुराने रूपों का पोषण करती है और नये-नये आधुनिक रूपों को जन्म देती रहती है। माल उत्पादन और अधिशेष-विनियोजन की मूल गतिकी जनता की नज़रों से ओझल रहती है और अपने जीवन की तमाम आपदाओं का कारक उसके लिए अदृश्य बना रहता है। इसी अदृश्यता का विरूपित परावर्तन सामाजिक मानस में अलौकिक शक्तियों की अदृश्यता के रूप में होता है। इसी से धार्मिक चेतना नित्य प्रति पैदा होती रहती है और आम लोग अलौकिक शक्तियों और उनके एजेण्टों (धर्मगुरुओं) के शरणागत होते रहते हैं। ये अलग-अलग धर्मगुरु अलग-अलग बीमा कम्पनियों के एजेण्ट के समान होते हैं जो तरह-तरह के प्रॉडक्ट ज़्यादा से ज़्यादा आकर्षक बनाकर उपभोक्ताओं को बेचते रहते हैं।