Category Archives: पूंजीवादी संस्‍कृति

दलाली और परोपकार का धन्धा

करोड़पति बनने की सबसे पुरानी और बेहतरीन कला है, एक सर्वव्यापी, सबकी रक्षा करने वाला, सबको सुख, शान्ति और समृद्धि (तरक्की) देने वाले उस दयालु ईश्वर से मिलाने के काम में बिचौलिये और दलाल का धंधा करना! ज़ाहिर सी बात है सभी मनुष्यों को सुख-समृद्धी (तरक्की) और शान्ति चाहिए और अगर कोई कुछ फीस लेकर यह काम करता है तब तो यह एक तरह से परोपकारी धंधेवाला व्यक्ति हुआ! परोपकार के इस धन्धे में सदियों से साधु-सन्त, पंडित, मौलवी, पादरी, और बाबा लगे हुए हैं और दिन-दुगुनी रात-चौगुनी तरक्की भी कर रहे हैं।

मर्डोक मीडिया प्रकरण के आईने में भारतीय मीडिया

168 वर्ष पुराना ब्रिटिश अखबार ‘न्यूज़ ऑफ द वर्ल्ड’ पिछले कुछ महीनों या सालों से नहीं बल्कि एक-डेढ दशक से फिल्मी सितारों, खिलाड़ियों, राजनेताओं और प्रसिद्ध व्यक्तियों के जीवन में ताक-झाँक के लिए फोन हैंकिग और ईमेल पढ़ने सहित निजी जासूसों के इस्तेमाल से लेकर पुलिस अफसरों को घूस देने जैसे तमाम गैरकानूनी हथकंडे इस्तेमाल कर रहा था। पत्रकारिता की आड़ में फोन हैकिंग लगभग कारोबार के स्तर पर पहुँच गया है जहाँ उसकी चपेट में ब्रिटिश राजपरिवार से लेकर इराक युद्ध में मारे सैनिकों के परिवारजन, व लंदन बम विस्फोट के पीड़ित तक नहीं बच सके।

तुम राम भजो, हम राज करें।

एक दमनकारी राज्यसत्ता को चलाने के लिए यह ज़रूरी है कि वे तमाम लोग, जिनका इस व्यवस्था में स्वर्ग है, एक ऐसे दर्शन का प्रचार करें ताकि जनता की सोचने-समझने की शक्ति को ख़त्म किया जा सके। बड़े-बड़े राजनेता से लेकर फिल्मी एक्टर, वैज्ञानिक, प्रोफेसर, डॉक्टर, इंजीनियर आदि जो करोड़ों की कमाई कर रहे हैं, ऐसे दर्शन का ख़ूब प्रचार करते दिख जायेंगे। शोषणकारी पूँजीवादी राज्यसत्ता अपने तमाम सत्ता-संस्थानों द्वारा चाहे वह शिक्षा केन्द्र हो, न्यायालय व संविधान हों अथवा तथाकथित लोकतन्त्र के चौथे स्तम्भ मीडिया का टी-वी, रेडियो, अख़बार हो – चारों तरफ कूपमण्डूकता, अन्धविश्वास, अवैज्ञानिकता फैलाते हैं।

जयराम रमेश को गुस्सा क्यों आता है?

इस देश की जनता की धुर विरोधी, प्रगतिशीलता एवं उदारवाद का छद्म चोला पहनने वाली संसदीय पार्टियों एवं उनके पतित नेताओं की न तो औपनिवेशिक अवशेषों से कोई दुश्मनी है और न ही सामन्ती बर्बर देशी मानव विरोधी परम्पराओं से। जयराम रमेश जिस औपनिवेशिक प्रतीक चिन्ह गाउन का विरोध कर उतार फेंकने की बात करते हैं उसी औपनिवेशिक शासन की दी हुई शिक्षा व्यवस्था व न्यायपालिका को ढो रहे हैं। आज भी भारत में उसी लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति को सुधारों के पैबन्दों और जालसाज़ी से लागू किया गया है। मैकाले की शिक्षा पद्धति का प्रमुख मक़सद ऐसे भारतीय मस्तिष्क का निर्माण करना था जो देखने में देशी लगे लेकिन दिमाग से पूर्णतया लुटेरे अंग्रेजों का पक्षधर हो। पिछले साठ सालों में शिक्षा को हाशिये पर रखा गया। आज़ादी के समय सबके लिए अनिवार्य और निःशुल्क शिक्षा देना राज्य का कर्तव्य बताया गया था। आज उसी शिक्षा को नित नये कानूनों द्वारा बाज़ार की वस्तु बनाया जा रहा है। अंग्रेजियत को थोपा गया और रोज़गार के तमाम क्षेत्रों को अंग्रेज़ी भाषा से जोड़े रखने की साजिश जारी रही। देश के अन्दर ही बर्बरता और असमानता को दीर्घकालिक बनाये रखने का एक कुचक्र रचा गया जो आज भी जारी है। शिक्षा के उसी औपनिवेशिक खाद से पली-बढ़ी आज की शिक्षा और उसमें प्रशिक्षित उच्च मध्यवर्गीय शिक्षित समुदाय अपने ही देश के ग़रीब मज़दूरों व अशिक्षितों से नफरत करता है, उसे गँवार समझता है और अपनी मेधा, ज्ञान और शिक्षा का प्रयोग ठीक उन्हीं औपनिवेशिक शासकों की तरह ग़रीबों के शरीर के खून का एक-एक क़तरा निचोड़ने के लिये करता है। तब जयराम रमेश को गुस्सा नहीं आता। जाहिर है, जब वे नुमाइन्दगी ही इसी खाए-पिये अघाए मध्यवर्ग की कर रहे हैं, तो उससे गुस्सा कैसा?

एक दिन…

हममें से हरेक को तय करना है कि हम युवाओं के उस हिस्से में अपने आपको शुमार करेंगे जो एक बेहतर कल का नक्शा तैयार करने में लगे हैं या उन युवाओं में, जो समृद्ध, सुविधासम्पन्न और विलास से भरी जिन्दगी के लिए पूँजी की सेवा में सन्नद्ध होने के लिए बेतहाशा भाग रहे हैं।

पैसा दो, खबर लो : चौथे खम्भे की ब्रेकिंग न्यूज

इस बार का महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव काफी चर्चा में रहा है। यहाँ पैसा दो–खबर लो का बोलाबाला रहा। प्रिण्ट एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया ने ‘चुनावी रिपोर्टिंग’ के रूप में ग्राहक उम्मीदवारों के सामने बाकायदा ‘ऑफर’ प्रस्तुत किया। वहीं उम्मीदवारों ने भी अपनी छवि को सुधारने हेतु क्षमतानुसार धनवर्षा करने में कतई कोताही नहीं की। धनवर्षा पहले भी होती रही है। मीडिया भी जनराय बनाने में सहयोगी भूमिका निभाती रही है। लेकिन ये सारा कारोबार इतना खुल्लमखुल्ला नहीं होता था। पहले दबे–दबे रूप में यह बात सामने आती थी कि अखबार वाले पैसे लेकर खबर छापते हैं। न मिलने पर छुपाते हैं। हूबहू ऐसा ही नहीं होता लेकिन प्रधान बात तो यही है कि जिसका पैसा उसका प्रचार। लेकिन इस बार तो ‘खबर’ लगाने की बोलियाँ लगीं। बिल्कुल मण्डी में खड़े होकर ‘खबर’ नामक माल बेचते मानो कह रहे हों पैसा दो–खबर लो, कई लाख दो–कई पेज लो, करोड़ दो–अखबार लो आदि आदि।

स्माइल पिंकी: मुस्कान छीनने और देने का सच

कला के मापदण्डों और मानकों की कसौटियों के कुछ बिन्दुओं पर स्माइल पिंकी एक अच्छा लघुवित्तचित्र हो सकता है; बालमन पिंकी की संवेदनाओं के बारीक पहलुओं को उजागर करने, उसकी तकलीफ़ों और खुशी को उजागर करने का कला का यह एक सफ़ल प्रयास हो सकता है लेकिन कला की अपनी सामाजिक राजनीतिक और दार्शनिक पक्षधरता होती है; समस्या के मूल कारणों पर पर्दा डालने और विश्व बाजारवादी पूँजीवादी व्यवस्था के पोषण के कारणों से व तीसरी दुनिया के बाजार के कारण स्माइल पिंकी को यह पुरस्कार दिया गया है।

पूँजीवाद का ढकोसला और डार्विन का सिद्धान्‍त

योग्यतम की उत्तरजीविता का सिद्धांत अलग-अलग प्रजातियों के बीच लागू होता है न कि एक ही प्रजाति के सदस्यों के बीच। डार्विन के अनुसार किसी भी प्रजाति की उत्तरजीविता व विकास के लिए उसके सदस्यों के बीच आपसी निर्भरता व सहयोग की आवश्यकता होती है। इसलिए योग्यतम की उत्तरजीविता का सिद्धान्त मानव समाज के ऊपर लागू नहीं किया जा सकता।

सत्यम कम्पनी के घोटाले पर अचरज कैसा?

सत्यम कम्पनी और राजू ने जो कुछ किया उसमें कुछ भी अप्रत्याशित और चौंकाने वाला नहीं है। चन्द एक वर्षों में बेशुमार मुनाफ़ा कमाने वाली ज़्यादातर कम्पनियों की अन्दर की कहानी ऐसी ही है। सरकार से लेकर मीडिया तक इनका चेहरा चमकाने और इन्हें “चमकते भारत” के ‘आइकन’ बनाकर पेश करने में लगे रहते हैं। पूँजीवाद के अपने अन्दरूनी टकरावों की वजह से कभी-कभी इनमें से कुछ की असलियत सामने आ जाती है। कल तक जो राजू मीडिया का दुलारा और बिजनेस स्कूलों का मॉडल था वह रातों-रात खलनायक बन जाता है और गर्दन पकड़कर जेल की सलाखों के पीछे धकेल दिया जाता है। पूँजीवाद के नायक स्थायी नहीं हुआ करते। आज जो जगमगाते सितारे हैं कल वे गन्दगी के ढेर में पड़े दिखायी देते हैं।

मन्दी के मारे अमेरिकी खाने की ख़ातिर बन्दूकें बेचने को मजबूर!

लॉस एंजेल्स के कॉम्प्टन शहर में लोग पिस्तौलों के बदलें में खाने का सामान जुटा रहे हैं। यह लॉस एंजेल्स के दक्षिण में पड़ने वाला सापेक्षतः ग़रीब आबादी वाला एक शहर है। ज्ञात हो कि अमेरिकी लोग बन्दूक रखना अपना जनतांत्रिक अधिकार मानते हैं। यहाँ तक तो बात समझ में आती है लेकिन वे बन्दूक से लगभग-लगभग प्यार करते हैं और यह उनके सबसे कीमती सामानों में से एक होता है। ख़ास तौर पर कैलीफ़ोर्निया में लगभग हर घर में दो से तीन बन्दूकें पाई जा सकती हैं। लेकिन अमेरिकी अर्थव्यवस्था में आई भयंकर मन्दी ने इस लगाव और प्यार पर गहरा असर डाला है। लोगों को अपनी बन्दूकों और अन्य आग्नेय अस्त्रों को खाने की ख़ातिर बेचना पड़ रहा है! क्योंकि अब बन्दूक तो खाई नहीं जा सकती!