‘सर! आप क्या बेच सकते हैं?’
पूँजीवादी युग में आपकी उपयोगिता में चार–चाँद लग जाते हैं, अगर आप कुछ बेच सकें। चाहें अच्छे गायक होने के चलते, चाहे अच्छे एक्टर होने के चलते; और अगर आप खिलाड़ी हैं तब तो कहने ही क्या! बस आप अच्छा खेलते रहिये और बेचते रहिये
पूँजीवादी युग में आपकी उपयोगिता में चार–चाँद लग जाते हैं, अगर आप कुछ बेच सकें। चाहें अच्छे गायक होने के चलते, चाहे अच्छे एक्टर होने के चलते; और अगर आप खिलाड़ी हैं तब तो कहने ही क्या! बस आप अच्छा खेलते रहिये और बेचते रहिये
जब तक समाज के संवेदनशील, इन्साफ़पसन्द, और बहादुर नौजवान मेहनतकश आबादी के साथ मिल कर एक ऐसे समाज की स्थापना नहीं करते जिसमें उत्पादन, राज-काज और पूरे समाज के ढाँचे पर उत्पादन करने वाले वर्गों का हक होगा, तब तक ‘मैं’ और ‘हम’ तक की यात्रा पूरी नहीं हो सकती। तब तक समाज की बहुसंख्यक आबादी ज्ञान–विज्ञान कला और जीवन की बुनियादी जरूरतों से वंचित रहेगी।
यह एक आम धारणा है कि रोना स्त्रियों का गुण है, मर्द नहीं रोते। वह कवि-कलाकार हो तो दीगर बात है। कवि-कलाकारों में थोड़ा स्त्रैणता तो होती ही है। यह पुरुष प्रधान सामाजिक ढांचे में व्याप्त संवेदनहीनता और निर्ममता की मानवद्रोही संस्कृति की ही एक अभिव्यक्ति है। शासक को रोना नहीं चाहिए। रोने से उसकी कमजोरी सामने आ जायेगी। इससे उसकी सत्ता कमजोर होगी। पुरुष रोयेगा तो औरत उससे डरना बंद कर देगी। वह रोयेगा तो औरत उसके हृदय की कोमलता, भावप्रवणता या कमजोरी को ताड़ लेगी। तब भला वह उससे डरेगी कैसे? उसकी सत्ता स्वीकार कैसे करेगी? वस्तुत: यह पूरी धारणा स्त्री-पुरुष सम्बन्धों के ‘शासक-शासित फ्रेम’ की बुनियाद पर खड़ी है।
खुशवंत सिंह, स्वार्थी होने के साथ ही क्या आप अव्वल दर्जे के अहमक और परले दर्जे के बेवक़ूफ़ भी हैं? जिस डाल को आप काट डालना चाहते हैं, उसी पर तो आप विराजमान भी हैं। आप यह क्यों नहीं सोचते कि नर्क की ज़िन्दगी जीने वालों ने ही आपका स्वर्ग सजाया है। आपकी ज़िन्दगी और उनकी ज़िन्दगी एक ही सामाजिक ढाँचे के दो पहलू हैं। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व मुमकिन ही नहीं। पीड़ा-व्यथा और आँसुओं के अथाह समुद्र में ही समृद्धि के मूँगा-द्वीप निर्मित होते हैं। जिन पर विलासिता की स्वर्णमण्डित मीनारें खड़ी होती हैं। खुशवंत सिंह यदि खुद ही पूँजीपति होते तो एकदम से ऐसी बातें नहीं करते। पर वे तो पूँजीपति के टट्टू हैं, भाड़े के कलमघसीट हैं। इसीलिये उन्हें पूँजीवाद की सारी खुशियाँ तो चाहिए, पर उन खुशियों को रचने की शर्त मंज़ूर नहीं। उन्हें पूँजीवाद द्वारा उत्पादित आवश्यकता और विलासिता की सारी चीज़ें चाहिए, पर उसी के द्वारा पैदा किये गये आबादी के बहुलांश के अभिशप्त, नारकीय जीवन को वे देखना भी नहीं चाहते। वे चाहते हैं, ये सभी लोग उनकी सुख-सुविधा का सारा इंतज़ाम करके रोज़ अपने-अपने गाँव को वापस लौट जायें, उनकी नज़रों से दूर हो जायें।