Category Archives: छात्र आन्‍दोलन

एसओएल के छात्रों का दिल्ली सचिवालय पर प्रदर्शन

एस ओ एल यानी कि स्कूल ऑफ़ ओपन लर्निंग दिल्ली विश्वविद्यालय का पत्राचार शिक्षा विभाग है जिसमें लगभग साढे चार लाख छात्रों की बड़ी आबादी पढती है। इन छात्रों को अपनी शिक्षा सम्बन्धी कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है, मसलन कक्षाओं की कमी, लाइब्रेरी का न होना, कक्षाएं कम लगने की वजह से समय पर सिलेबस पूरा न होना और परीक्षा परिणाम का देर से घोषित किया जाना जिस कारण से एमए में दाख़िला न हो पाना; ये तमाम समस्याएँ हैं जिनसे छात्र जूझते रहते हैं और विश्वविद्यालय प्रशासन इस पर कोई कार्यवाई नहीं कर रहा है। छात्रों की समस्याओं के बारे में दिल्ली विश्वविद्यालय गंभीर नहीं है क्योंकि आम घरों से आने वाले इन छात्रों को विश्वविद्यालय छात्र मानता ही नहीं है।

फ़ीस वृद्धि के नाम पर शिक्षा को बिकाऊ माल बना देने की तैयारी

विश्वविद्यालय के घाटे को कम करने के नाम पर की गयी इस फ़ीस वृद्धि का असली उद्देश्य किसी भी नागरिक के समान तथा निःशुल्क शिक्षा प्राप्त करने जैसे बुनियादी अधिकार को उनसे छीन उसे एक बिकाऊ माल बना देना है। जिस तरह आज आम मेहनतकश आबादी के ख़ून-पसीने से खड़े किये गये सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों को पूँजीपतियों को कौड़ियों के दाम बेचा जा रहा है, उसी तरह आने वाले समय में सरकारी शिक्षा संस्थानों को भी निजी हाथों में सौंपने की पूरी तैयारी सरकार ने कर ली है।

मेक्सिको के जुझारू छात्रों-युवाओं को क्रान्तिकारी सलाम!

मेक्सिको के छात्रों और युवाओं ने अपने लड़ाकूपन से वहाँ के सत्ताधरियों की नींद हराम कर दी है। जिस तरीक़े से मेक्सिको के छात्र और युवा इस आन्दोलन को पूरे देश में फैला रहे हैं और जिस तरीक़े से वे मेक्सिको के आम नागरिकों सहित दुनिया-भर के इंसाफ़पसन्द लोगों को परम्परागत और आधुनिक माध्यमों का इस्तेमाल करके इस आन्दोलन से जोड़ रहे हैं, वह वाकई प्रेरणादायी है। साथ ही साथ यह भी कहना होगा कि यह बेहद अफ़सोस की बात है कि इतने जुझारू छात्र-युवा आन्दोलन की मौजूदगी के बावजूद मेक्सिको के सर्वहारा वर्ग की संगठित ताक़तें इतनी कमज़ोर हैं कि वे इस परिस्थिति का लाभ उठाकर इस देशव्यापी आन्दोलन को सर्वहारा क्रान्ति की ओर अग्रसर करने में नितान्त असमर्थ हैं। 1911-1929 की मेक्सिको की क्रान्ति के शानदार इतिहास को देखते हुए यह निश्चय ही चिन्ता का सबब है कि सर्वहारा वर्ग की ताक़तें उस देश में आज इतनी कमज़ोर हैं।

यूनीवर्सिटी कम्युनिटी फ़ॉर डेमोक्रेसी एण्ड इक्वैलिटी के नेतृत्व में प्रो. हातेकर के अन्यायपूर्ण निलम्बन के ख़िलाफ़ सफल छात्र आन्दोलन

यूसीडीई (यूनीवर्सिटी कम्युनिटी फ़ॉर डेमोक्रेसी एण्ड इक्वैलिटी) ने प्रो. हातेकर के निलम्बन के विरोध में 6 जनवरी को कलीना कैम्पस, मुम्बई विश्वविद्यालय का गेट जाम करके प्रदर्शन किया, जिसमें बड़ी संख्या में छात्रों ने भाग लिया। इसके बाद 8 जनवरी को एक बड़ा विरोध जुलूस निकाला गया जिसमें सैकड़ों छात्रों ने भागीदारी की। इस जुलूस का आह्वान भी यूसीडीई ने किया था। इसके बाद यूसीडीई ने विश्वविद्यालय के कन्वोकेशन समारोह के दिन 12 जनवरी को मुँह पर काली पट्टियाँ बाँधकर विरोध प्रदर्शन भी किया। इस दौरान विश्वविद्यालय प्रशासन पर आन्दोलन का दबाव लगातार बढ़ता रहा। इसके बाद आगे का रास्ता तय करने के लिए यूसीडीई ने 15 जनवरी को यूसीडीई की जनरल बॉडी की बैठक बुलायी। इस बैठक में भूख हड़ताल शुरू करने का निर्णय लिया गया। तारीख़ 20 जनवरी तय की गयी। लेकिन इस भूख हड़ताल के शुरू होने के एक दिन पहले ही विश्वविद्यालय ने बढ़ते आन्दोलन को देखकर प्रो. हातेकर का निलम्बन वापस ले लिया। इसके बाद 20 जनवरी को यूसीडीई के नेतृत्व में एक विजय मार्च का आयोजन किया गया।

चिली के छात्रों का जुझारू आन्‍दोलन

इस साल अप्रैल माह में शुरू हुए चिली के छात्रों के इस संघर्ष के पीछे मुख्य वजह 20 सालों के दौरान शिक्षा के बढ़ते निजीकरण के कारण पैदा हुई असमान शिक्षा व्यवस्था से छात्रों के व्यापक हिस्से में उपजा असन्तोष है। पिछले दो दशकों से जारी शिक्षा के निजीकरण और बाज़ारीकरण की वजह से बेहतर शिक्षा प्राप्त करना तेज़ी से महँगा होता गया है, ग़रीब परिवारों से आने वाले छात्रों को प्राप्त शिक्षा की गुणवत्ता में तेज़ी से गिरावट आयी है और ग़रीब तबके से आने वाले छात्र ऋण के जुवे तले पिसते जा रहे हैं। इस प्रकार अच्छी शिक्षा बेहद अमीर घरों के बच्चों तक सिमटती जा रही है। शिक्षा में बढ़ती इस असमानता के कारण पिछले कई वर्षों से व्यवस्था के विरुद्ध छात्रों का रोष बढ़ता जा रहा है। इसी असन्तोष की एक अस्पष्ट अभिव्यक्ति के रूप में पाँच साल पहले अर्थात 2006 में भी हाईस्कूली छात्रों ने एक ज़ोरदार संघर्ष किया था। और इसी कड़ी में विश्वविद्यालय के छात्रों का वर्तमान संघर्ष इस सामाजिक असन्तोष की एक अधिक स्पष्ट और केन्द्रीभूत अभिव्यक्ति के रूप में उभरकर सामने आया।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में छात्रसंघ बहाली के लिए छात्रों का जुझारू संघर्ष

छात्रसंघ चुनाव छात्रों का लोकतान्त्रिक अधिकार है जिसका प्रयोग छात्र संगठन छात्रों की समस्याओं का समाधान करने व विश्वविद्यालय की भ्रष्ट नीतियों का विरोध करके छात्रों के हितों व अधिकारों की रक्षा के लिए करते हैं। इस जनतान्त्रिक मंच के जरिये ही छात्र विश्वविद्यालय प्रशासन की तानाशाही पर अंकुश लगा सकते हैं। लेकिन सरकार नहीं चाहती कि छात्र-नौजवान अपने अधिकारों के लिए आन्दोलन करें, इसी कारण देश के किसी भी कोने में अगर छात्रसंघ बहाली के लिए आन्दोलन होता है, तो सरकार लाठीचार्ज कराकर ऐसे आन्दोलनों को बर्बरतापूर्वक कुचल देती है, जिससे लोकतान्त्रिक अधिकारों का हनन हो रहा है।

‘पंसारी की दुकान’ से ‘शॉपिंग मॉल’ बनने की ओर अग्रसर यह विश्वविद्यालय

वैसे यह फ़ीस वृद्धि कोई अप्रत्याशित घटना नहीं है। पिछले दो दशकों से जारी और भविष्य के लिए प्रस्तावित शिक्षा नीति का मूलमन्‍त्र ही है कि सरकार को उच्च शिक्षा की जि़म्मेदारी से पूरी तरह मुक्त करते हुए उसे स्ववित्तपोषित बनाया जाये। ताज़ा आँकड़ों के अनुसार आज केन्द्रीय सरकार सकल घरेलू अत्पाद (जीडीपी) का 1 फ़ीसदी से कम उच्च शिक्षा पर ख़र्च करता है और यह भविष्य में बढ़ेगा, इसकी उम्मीद कम ही है। मानव संसाधन मन्‍त्रालय के हालिया बयानों में यह बात प्रमुखता से आयी है, हर तीन साल बाद विश्वविद्यालय की फ़ीसों में बढ़ोत्तरी की जाये ताकि राज्य इस जि़म्मेदारी से मुक्त हो सकते। बिरला-अम्बानी-रिपोई से लेकर राष्ट्रीय ज्ञान आयोग और यशपाल समिति की सिफ़ारिशें भी इसी आशय की हैं।

नौजवान जब भी जागा, इतिहास ने करवट बदली है!

मिस्र के बहादुर नौजवानों ने सारी दुनिया के नौजवानों के सामने एक नज़ीर पेश की है। क्या हिन्दुस्तान के नौजवान मिस्र के युवाओं से प्रेरणा लेकर अपने देश में जारी इस लूटतन्त्र के ख़िलाफ आगे बढ़ेंगे? क्या वे अपने देश में भयानक शोषण के शिकार करोड़ों मज़दूरों और भारी ग़रीब आबादी के साथ खड़े होंगे?

छात्रों द्वारा शिक्षकों के नाम एक खुला पत्र

ऐसे में हम अपने विश्वविद्यालय के शिक्षकों और गुरुजनों से कुछ मुद्दों पर दिशा-सन्धान और मार्गदर्शन चाहेंगे। सर्वप्रथम, क्या विश्वविद्यालय के भीतर एक अकादमिक और उच्च गुणवत्ता वाला बौद्धिक वातावरण तैयार करने के लिए स्वयं प्रशासन को विचार-विमर्श, डिबेट-डिस्कशन, गोष्ठी-परिचर्चा इत्यादि गतिविधियाँ जिसमें छात्रों की व्यापक भागीदारी हो, आयोजित करने की पहल नहीं करनी चाहिए? क्या ऐसी गतिविधियों के अभाव में न सिर्फ छात्र बल्कि शिक्षक भी शोध-अनुसन्धान जैसे क्रिया-कलापों में पिछड़ नहीं जायेंगे और क्या यह विश्वविद्यालय की हत्या करना जैसा नहीं होगा? दूसरे अगर प्रशासन स्वयं ऐसी पहल नहीं कर रहा है, और कुछ छात्र, जिन्होंने अभी-अभी विश्वविद्यालय में दाखि़ला लिया है, अपने स्तर पर इसके लिए प्रयास करते हैं, तो क्या प्रशासन सहित पूरे विश्वविद्यालय समुदाय की यह ज़िम्मेदारी नहीं बनती कि उन्हें इसके लिए प्रोत्साहित करें?

अलीगढ़ के बाद छात्र-संघर्ष का नया केन्द्र बना लखनऊ विश्वविद्यालय

लखनऊ विश्वविद्यालय के भीतर जो माहौल व्याप्त है, वह किसी भी रूप में एक विश्वविद्यालय के स्तर का नहीं है। अधिकतम इसे एक ‘बीमारू प्रदेश’ का ‘बीमारू विश्वविद्यालय’ ही कहा जा सकता है। अकादमिक और बौद्धिक तौर पर इसकी हालत दीवालिया है। हो भी क्यों न! लखनऊ विश्वविद्यालय में कुल 35,000 छात्र हैं, लेकिन विश्वविद्यालय के पास इन छात्रों को बिठा पाने के लिए भी जगह नहीं है। अगर किसी एक दिन विश्वविद्यालय के सारे छात्र उपस्थित हो जायें तो पेड़ों के नीचे भी पढ़ाने की जगह नहीं बचेगी। जहाँ तक शिक्षकों की संख्या का सवाल है, यह आश्चर्यजनक रूप से अपर्याप्त है।