फ़ीस वृद्धि के नाम पर शिक्षा को बिकाऊ माल बना देने की तैयारी
हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय में जारी छात्र आन्दोलन पर एक रिपोर्ट

शिमला स्थित हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय तथा प्रदेश के अन्य महाविद्यालयों में पढ़ने वाले हज़ारों छात्र पिछले कई महीनों से फ़ीस वृद्धि वापिस लिये जाने, एस.सी.ए. चुनाव करवाने, तथा राष्ट्रीय उच्च शिक्षा अभियान (रूसा) रद्द करने की माँगों को लेकर आन्दोलनरत हैं। सरकार के निर्देशों का पालन करते हुए विश्वविद्यालय प्रशासन ने स्नातक, उच्च स्नातक, तथा शोध कर रहे छात्रों की मासिक फ़ीस में 100 प्रतिशत से 2000 प्रतिशत तक की वृद्धि कर दी है। नीचे दी गयी तालिका से पाठक शैक्षिक व्यवस्था सुधारने के नाम पर सरकार द्वारा की जा रही खुली लूट का ख़ुद ही अन्दाज़ा लगा सकते हैं।

hpu-fee-hike-protestइस पूरे आन्दोलन को लेकर प्रदेश सरकार तथा विश्वविद्यालय प्रशासन ने घोर जनविरोधी रुख़ अपनाया हुआ है। इसका अन्दाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब छात्रों ने विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफ़ेसर एडीएन वाजपेयी से इस बारे में बातचीत करने की कोशिश की तो उनका दो टूक जवाब था कि अगर वे फ़ीस भरने की अवस्था में नहीं हैं तो विश्वविद्यालय परिसर को छोड़कर चले जायें। वहीं दूसरी तरफ़ प्रदेश के मुख्यमन्त्री वीरभद्र सिंह का कहना था कि जो छात्र माल रोड पर हर रोज़ 200 रुपये ख़र्च सकते हैं, और 20,000 का मोबाइल रख सकते हैं, उन्हें इस फ़ीस वृद्धि पर बवाल नहीं मचाना चाहिए। इसके अलावा उनका यह भी कहना था कि छात्रों को कुछ असामाजिक तत्वों की बातों में आकर विश्वविद्यालय का शैक्षणिक माहौल ख़राब नहीं करना चाहिए। परन्तु सवाल तो यह उठता है कि ऐसे कितने छात्र हैं जो रोज़ 200 रुपये ख़र्च करने तथा महँगे मोबाइल फ़ोन ख़रीदने की हैसियत रखते हैं। जिन छात्रों का उदाहरण मुख्यमन्त्री अपने इस जनविरोधी क़दम को जायज़ ठहराने के लिए दे रहे हैं, उनमें से ज़्यादातर नौजवान खाते-पीते घरों से हैं, जिनके जीवन में खाओ-पीओ, और ऐश करो के अलावा और कोई उद्देश्य नहीं है। इसके विपरीत हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय तथा अन्य महाविद्यालयों में पढ़ने वाले बहुसंख्यक छात्र-छात्राएँ निम्न-मध्यम वर्ग तथा मेहनतकश परिवारों से सम्बन्ध रखते हैं, तथा बहुतेरों ने अपनी पढ़ाई के लिए बैंकों से क़र्ज़ ले रखे हैं। सरकार के द्वारा की गयी इस बेतहाशा फ़ीस वृद्धि ने इन तमाम छात्रों और ख़ासकर छात्राओं के भविष्य पर प्रश्नचिह्न लगा दिया है। हमारे देश में जहाँ लड़कियों की शिक्षा पर वैसे ही बहुत कम ध्यान दिया जाता है, सरकार द्वारा उठाये गये इस क़दम ने आम घरों से आने वाली छात्राओं के लिए उच्च शिक्षा प्राप्त कर अपने पैरों पर खड़े होने के सपने को लगभग चकनाचूर कर दिया है।

hpu-fee-hike-protest 1विश्वविद्यालय प्रशासन का कहना है कि उन्होंने यह वृद्धि बाक़ी विश्वविद्यालयों की शुल्क संरचना (Fee structure) का अध्ययन करने के बाद की है। परन्तु हक़ीक़त तो यह है कि हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले छात्र आज भी बाक़ी सरकारी विश्वविद्यालयों की तुलना में कई गुना अधिक फ़ीस दे रहे हैं। इसके अतिरिक्त विश्वविद्यालय प्रशासन का यह भी कहना है कि विश्वविद्यालय का वार्षिक बजट 110 करोड़ का है, परन्तु सरकार की तरफ़ से अनुदान के रूप में आज भी उसे केवल 79 करोड़ रुपये ही मिल रहे हैं, अब क्योंकि उनके पास आय के कोई और स्रोत नहीं हैं, इसलिए इस घाटे को पूरा करने के लिए उनके पास फ़ीस वृद्धि के अलावा और कोई रास्ता नहीं है। परन्तु हिमाचल प्रदेश सरकार ने अपने द्वारा प्रस्तुत साल 2014-2015 के वार्षिक बजट में 4,282 करोड़ रुपये सिर्फ़ शिक्षा क्षेत्र के लिए आबँटित किये हैं, अतः अगर सरकार चाहे तो बड़ी आसानी से विश्वविद्यालय को हो रहे इस ‘घाटे’ को पूरा कर सकती HU report b&wहै। लेकिन ऐसा करने के बजाय आम घरों से आने वाले छात्र-छात्राओं से कहा जा रहा है कि अगर डिग्री चाहिए तो अपनी जेबें ढीली करने के लिए तैयार रहें। दरअसल विश्वविद्यालय के घाटे को कम करने के नाम पर की गयी इस फ़ीस वृद्धि का असली उद्देश्य किसी भी नागरिक के समान तथा निःशुल्क शिक्षा प्राप्त करने जैसे बुनियादी अधिकार को उनसे छीन उसे एक बिकाऊ माल बना देना है। जिस तरह आज आम मेहनतकश आबादी के ख़ून-पसीने से खड़े किये गये सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों को पूँजीपतियों को कौड़ियों के दाम बेचा जा रहा है, उसी तरह आने वाले समय में सरकारी शिक्षा संस्थानों को भी निजी हाथों में सौंपने की पूरी तैयारी सरकार ने कर ली है।

इन तमाम मुद्दों को सबसे पहले भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की छात्र इकाई ‘स्टूडेण्ट फ़ेडरेशन ऑफ़ इण्डिया’ (एसएफ़आई) ने उठाया था। परन्तु बाद में इसी मुद्दे को ‘अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद’ ने भी उठाना शुरू कर दिया। 19 सितम्बर को पुलिस द्वारा शान्तिपूर्वक प्रदर्शन कर रहे छात्रों पर बर्बर लाठीचार्ज तथा तकरीबन 400 विद्यार्थियों जिसमें 65 छात्राएँ भी शामिल थीं, की गिरफ्तारी के विरोध में एसएफ़आई तथा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने ‘छात्र एकता मंच’ गठित कर मिलकर इस आन्दोलन को लड़ने का निर्णय लिया। विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले विद्यार्थियों का कहना है कि, इस पूरे छात्र आन्दोलन को कुचलने के मकसद से सरकार ने विश्वविद्यालय परिसर को पुलिस छावनी में तब्दील कर दिया है। अब तक पुलिस ने प्रदेश के 120 महाविद्यालयों में पढ़ रहे लगभग 2,000 छात्रों के खि़लाफ़ विभिन्न धाराओं के तहत मुक़दमे दर्ज़ किये हैं, तथा आन्दोलन को नेतृत्व प्रदान कर रहे चार छात्र नेताओं को अब भी जेल में बन्द करके रखा है।

कैम्पसवाद का शिकार है हिमाचल प्रदेश का छात्र आन्दोलन

जिस प्रकार ट्रेड-यूनियनवाद के कारण आज भारत का मज़दूर आन्दोलन ठहराव का शिकार है, उसी प्रकार कैम्पसवाद के चलते हिमाचल प्रदेश का छात्र आन्दोलन विश्वविद्यालय तथा महाविद्यालयों की चौहद्दियों के अन्दर क़ैद होकर रह गया है। वैसे तो हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय में इंक़लाब ज़िन्दाबाद, भगतसिंह ज़िन्दाबाद जैसे नारे ख़ूब गूँजते हैं, परन्तु इनका असली मकसद नौजवानों को सामाजिक बदलाव हेतु तैयार करने के बजाय उनका वोट हासिल कर कैम्पस के अन्दर अपना परचम लहराना अधिक होता है। शहीद सुखदेव ने फाँसी से पहले अपने साथियों के नाम लिखे आखि़री पत्र में कहा था, “यदि तुम्हारी धरणा है कि लाँग लिव रिवोल्यूशन कहने से तुम रिवोल्यूशनरी हो गये हो तो यह तुम्हारी भूल है। तुम लोगों में से कोई ही होगा जो रिवोल्यूशनरी कहलाने के योग्य होगा। लेकिन यह कोई शरम की बात नहीं। अपने इस अभाव को हमें मानना चाहिए और इसे मानकर इसकी पूर्ति करनी चाहिए। अपनी और सभी साथियों के रिवोल्यूशनरी एजुकेशन के प्रबन्ध करने चाहिए।” इसके अलावा भगतसिंह ने भी विद्यार्थियों के नाम लिखे सन्देश में कहा था, “नौजवानों को सामाजिक क्रान्ति का सन्देश देश के कोने-कोने में पहुँचाना है। फ़ैक्टरी कारख़ानों के क्षेत्र में गन्दी बस्तियों और गाँव की टूटी-फूटी झोपड़ियों में रहने वाले करोड़ों लोगों को जागरूक बनाना है जिससे आज़ादी आयेगी और तब एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का शोषण असम्भव हो जायेगा।” परन्तु अगर हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय की बात करें तो एसएफ़आई ने सिवाय रस्म अदायगी के तौर पर भगतसिंह के शहादत दिवस तथा उनके जन्मदिवस पर कभी-कभार पुस्तक प्रदर्शनी लगाने के अतिरिक्त नौजवानों तथा मेहनतकशों के बीच सतत क्रान्तिकारी प्रचार-प्रसार करने की कोई कोशिश नहीं की। यही कारण है कि एसएफ़आई के ज़्यादातर समर्थकों से बात करने पर आप पायेंगे कि उन्होंने शायद ही कभी भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव को ध्यान से पढ़ा होगा।

परन्तु इसमें उनका कोई दोष नहीं है, बल्कि एसएफ़आई ने बहुत पहले ही नौजवानों के बीच अध्ययन चक्र चलाने जैसी कार्यवाहियों को तिलांजलि दे दी थी। इसके अलावा हिमाचल प्रदेश में भाकपा (मार्क्सवादी) तथा एसएफ़आई जैसे संशोधनवादी संगठनों के अलावा कोई और क्रान्तिकारी संगठन है भी नहीं। इसी के चलते यहाँ के नौजवानों तथा आम मेहनतकश जनता को इनके द्वारा चलाये जा रहे छिटपुट सुधारवादी कार्यक्रमों और रस्मअदायगी के नाम पर किये जाने वाली कुछ हड़तालों, और प्रदर्शनों को देख ऐसा लगता है जैसेकि ये बहुत ही “क्रान्तिकारी” लोग हैं। वैसे भी कॉलेज कैम्पस में कैण्टीन खुलवाने, बसों के किराये कम करवाने, तथा फ़ीस वृद्धि वापिस लिये जाने के अलावा आज छात्र संगठनों के पास कोई और मुद्दे हैं भी नहीं, इसलिए हर साल छात्र संघ चुनावों की घोषणा होते ही एसएफ़आई, अभाविप समेत तमाम छात्र संगठन इन मुद्दों को भुनाने की कोशिश में जुट जाते हैं। वैसे कहने को तो हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय वामपन्थियों का गढ़ कहा जाता है, परन्तु इस “गढ़” में अभाविप जैसे फ़ासीवादी संगठनों ने ख़ासकर 1990 के दशक के बाद से सेंध लगाना शुरू कर दिया है। हालाँकि पिछले वर्ष हुए छात्र संघ चुनावों में भी एसएफ़आई का पूरा पैनल जीतकर आया था, परन्तु अगर वोट प्रतिशत की बात करें तो जीत का अन्तर बहुत ज़्यादा नहीं था, बल्कि कई स्थानों पर तो अभाविप ने एसएफ़आई को कड़ी टक्कर दी थी।

अगर आज विश्वविधलय कैम्पस के अन्दर ‘जय श्री राम’ के नारे गूँज रहे हैं तो इसका बहुत बड़ा कारण एसएफ़आई के नेतृत्व का अवसरवादी चरित्र भी है, जिसका एकमात्र उद्देश्य है किसी भी तरह छात्र संघ चुनावों में जीत हासिल करना। अगर इस समय चल रहे आन्दोलन की ही बात करें तो अभाविप के साथ मिलकर छात्र एकता मंच का गठन करना भी इसी अवसरवादी छात्र राजनीति का एक जीता-जागता नमूना है। इसी प्रकार की “छात्र एकता” दिल्ली विश्वविद्यालय में भी देखने को मिली थी जब चार वर्षीय स्नातक कार्यक्रम के विरोध में अभाविप और भाकपा(मा-ले) के छात्र संगठन ‘आइसा’ ने ख़ूब प्रदर्शन किया था। हालाँकि छात्रों और अध्यापकों के विरोध के कारण डीयू प्रशासन को चार वर्षीय स्नातक कार्यक्रम वापिस लेना पड़ा, लेकिन उसका सारा श्रेय अभाविप ले उड़ी और आइसा के दिल्ली विश्वविद्यालय में एक-आधी सीट पर जीत हासिल कर लेने के सपने पर पानी फिर गया। केवल ‘इंक़लाब ज़िन्दाबाद’ के नारे लगा देने से और जेएनयू तथा हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय जैसे चुनिन्दा शैक्षणिक संस्थानों में जीत हासिल कर लेने से समाज में परिवर्तन नहीं आने वाला है। बल्कि असलियत तो यह है कि आज जितने छात्र महाविद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों में शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं, उससे कहीं ज़्यादा छात्र ऐसे हैं जो इन तमाम शैक्षणिक संस्थानों में दाखि़ला ही नहीं ले पाते हैं। इसलिए अगर कोई छात्र संगठन ख़ुद को क्रान्तिकारी कहता है तथा समाज में आमूलगामी परिवर्तन की बात करता है तो उसे कैम्पस की चौहद्दियों को तोड़ आम मेहनतकश जनता के बीच जाकर लगातार काम करना होगा, केवल तभी वह छात्र आन्दोलन को एक सही दिशा दे पायेगा।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, सितम्‍बर-दिसम्‍बर 2014

 

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